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पट्टावली-पराग
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को पाया और दीक्षा लेकर मोक्ष के अधिकारी हुए। प्रतिमा का विरोध करने वाले लोंका के अनुयायी सं० १५३१ में प्रकट हुए, उसके पहले जैन नामधारी कोई भी व्यक्ति जिनप्रतिमा का विरोधी नहीं था। इस पर नृसिंह ऋषि बोले - सूत्र में जिनप्रतिमा का अधिकार है यह बात हम मानते हैं, परन्तु हम स्वयं प्रतिमा को जिन के समान नहीं मानते। नरसिंह ऋषिजी के इन इकबाली बयानों से मदालत ने मूर्तिपूजा मानने वालों के पक्ष में फैसला सुना दिया और नशासन की जय बोलता हुमा मूर्तिपूजक समुदाय वहां से रवाना हुमा ।
बाद में मूर्तिपूजा विरोधियों के भगुमामों ने संघ के नेतामों से मिल कर कहा - "हम शहर में झूठे तो कहलाये, फिर भी हम वीरविजयजो से मिल कर कुछ समाधान करले। इसलिए जेठमलजी ऋषि को वीरविजयजी मिलें ऐसी व्यवस्था करो" इस पर इच्छाशाह ने कहा - यह तो चोरों की रोति है, साहूकारों को तो खुल्ले आम चर्चा करनी चाहिए। तुम मूर्ति को उत्यापन करते हो, इस सम्बन्ध में तुम से पूछे गये १३ प्रश्नों के उत्तर नहीं देते, राजदरबार में तुम भूठे ठहरे, फिर भी धीठ बनकर एकान्त में मिलने की बातें करते हो?, मोटे ताजे मूलजी ऋषि अदालत में तो एक कोने में जाकर बैठे थे और अब एकान्त में मिलने की बात करते हैं ?, अगर अब भो जेठाजी ऋषि और तुमको शास्त्रार्थ कर जीतने की होश हो तो हम बड़ी सभा करने को तैयार हैं। उनमें शास्त्र के जानकार चार पण्डितों को बुलायेंगे, दूसरे भी मध्यस्थ पण्डित सभा में हाजिर होंगे। वे जो हार-जीत का निर्णय देंगे, दोनों पक्षों को मान्य करना होगा। तुम्हारे कहने मुजब एकान्त में मिलकर कुलड़ी में गुड़ नहीं भांगेंगे।
सभा करने की बात सुनकर प्रतिपक्षी बोले - हम सभा तो नहीं करेंगे, हमने तो मापस में मिलकर समाधान करने की बात कही थी।
समा करने का इनकार सुनने के बाद प्रतिमा पूजने वालों का समुदाय पौर प्रतिमा-विरोधियों का समुदाय अपने-अपने स्थान गया।
अपने स्थानक पर जाने के बाद बेठाजी ऋषि ने हकमाजी ऋषि को कहा - प्राज राजनगर में अपने धर्म का जो पराजय हुमा है, इसका
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