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पट्टावली-पराग
३५ निकल नहीं सकता, तब लवजी ने कहा - मैं तो गच्छ का त्याग कर चला जाता हूं, यह कह कर ऋषि लवजी, ऋषि भाणोजी और ऋषि सुखजी तीनों वहां से निकल गये और तीनों ने फिर से दीक्षा ली। गांव नगरों में विचरते हुए जैनधर्म की प्ररूपणा की, अनेक लोगों को धर्म समझाया, तब लोगों ने उनका "दुण्ढिया" ऐसा नाम दिया।
अहमदाबाद के कालुपुर के रहने वाले शाह सोमजी ने लवजी के पास दोक्षा ली। २३ वर्ष की अवस्था में दीक्षा लेकर बड़ी तपस्या को, उनके अनेक साधु-साध्वियों का परिवार बढ़ा जिनके नाम हरिदासजी १, ऋषि प्रेमजी २, ऋषि कानाजी ३, ऋषि गिरधरजी ४, लवनी प्रमुख वजरंगजी के गच्छ से निकले थे जिनके अनुयायियों का नाम प्रमोपालजी १, ऋषि श्रीपालजी २, ऋ० धर्मपालजी ३, ऋ० हरजी ४, ऋ० जीवाजी ५, ऋ० कर्मणजी ६, ऋ० छोटा हरजी ७, और ऋ० केशवजो ८ । इन महापुरुषों ने अपना गच्छ छोड़ कर दीक्षा ली भोर जैनधर्म को दीपाया । बहुत टोले हुए, समर्थजी पूज्यश्री धर्मदासजी, श्री गोदाजी, फिर होते ही जाते हैं। इनमें कोई कहता है - मैं उत्कृष्ट हूं, तब दूसरा कहता है - मैं उत्कृष्ट हूं।
उपर्युक्त शुद्ध साधुनों का वृत्तान्त है, पीछे तो केवली स्वीकारे, सो सही। यह परम्परा को पट्टावली लिखी है ।
पट्टावलो-लेखक ने रूपजी ऋषि को लौकागच्छ का प्रथम पट्टधर लिखा है, परन्तु लोंकागच्छीय ऋषि भानुचन्द्रजी तथा ऋषि केशवजी ने लौकामच्छ का और लोकाशाह का उत्तराधिकारी भारणजी को बताया है।
उपर्युक्त दोनों लेखकों का सत्ता-समय लोकाशाह से बहुत दूर नहीं था; इससे इनका कथन ठोक प्रतीत होता है। पट्टावलीकार रूपजी ऋषि को लोकागच्छ का प्रथम पट्टधर कहते हैं वह प्रामाणिक नहीं है ।
पट्टावलीकार रूपजी जीवाजी को महापुरुष और शुद्ध साधु कहकर उनको उसी जीवन में स्थानक-दोष, माहार-दोष, वस्त्रापात्र आदि मर्यादा
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