SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४ पट्टावली-पराग "ऐतिहासिक नोध" के पृष्ठ १३० में शाह लिखते है "परन्तु किसो प्रकार के लिखित प्रमाण के प्रभाव में किसी तरह की टीका करने को खुश नहीं हूं।" भला किसी लिखित प्रमाण के प्रभाव में शास्त्रार्थ का जजमेन्ट देने को तो खुश हो गए तब उस पर टीका-टिप्पणी करने में भापत्ति ही क्या थी ? परन्तु शाह अच्छी तरह समझते थे कि केवल निराधार बातों की टीका-टिप्पणी करता हुआ कहीं पकड़ा जाऊंगा, इसलिए वे टीका करने से बाज भाए है। शाह स्वयं स्वीकार करते है कि दोनों सम्प्रदायों के बीच होने वाले शास्त्रार्य में कौन जीता और कौन हारा, इसका मेरे पास कोई लिखित प्रमाण नहीं है, इससे इतना तो सिद्ध होता है कि इस शास्त्रार्थ के सम्बन्ध में जेठमलजी ऋषि अथवा उनके अनुयायियों ने कुछ भी लिखा नहीं है, पन्यथा शाह वाडीलाल को ऐसा लिखने का कभी समय नहीं आता। पं० वीरविजयजी मोर उनके पक्षकारों ने प्रस्तुत शास्त्रार्थ का सविस्तर वर्णन एक लम्बी ढुंढक चौपाई बनाकर किया है, जिसमें दोनों पक्षों के साधुओं तथा श्रावकों के नाम तक लेख-बद्ध किये हैं, इससे सिद्ध होता है कि शास्त्रार्थ में जय मूर्तिविरोध पक्ष का नहीं, परन्तु मूर्तिपूजा मानने वाले पं० वीरविजयजी के पक्ष का हुआ था, इस शास्त्रार्थ के सम्बन्ध में लिखित प्रमाण होते हुए भी शाहने अपने पक्ष के विरुद्ध होने से उनको छुमा तक नहीं है। रासकार पं० उत्तमविजयजी कहते हैं -मुहपर पाय बांधकर गांव गांव फिरते और लोगों को भ्रमणा में डालते हुए एक समय लौंका के अनुयायी साणंद पाये और वहां लोगों को फंसाने के लिए पास फैलाया, वहां पर तपागच्छ का एक श्रावक नानचन्द शान्तिदास रहता था, कर्मवश वह ढुढको के फंदे में फंस गया। वह ढुंढकों को मानने लगा और परापूर्व के अपने जैनधर्म को भी पालता था, इस प्रकार कई वर्षों तक वह पालता रहा और बीसा श्रीमाली न्यात ने उसको निभाया, प्रब नानूशाह के पुत्रों की बात कहता हूं। अफीमची, अमरा, परमा पनजी और हमका ये चारों पुत्र भी न्यात जात की शर्म छोड़कर दुढकधर्म पालने लगे, इस समय न्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy