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________________ ५८ पट्टावली पराग यह बात नामों की रचना मोर उनके प्रयोगों से ही पाठकगण अच्छी तरह समझ सकने हैं। - सुधर्मा से देवद्धिगणि तक के २८ नामों में भी लेखक महोदय ने अनेक स्थानों में अशुद्धियां घुसेड़ दी है, इनके दिये हुए देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण तक के नाम वास्तव में किसी को गुरु-परम्परा के नाम नहीं हैं, किन्तु ये माथुरी वाचनानुयायी वाचक-वंश के नाम है, जिसका खरा कम निम्न प्रकार का है - ९ श्री मार्य महागिरि १० श्री बलिस्सहसूरि ११ , स्वास्तिसूरि १२ , श्यामार्य १३ , जीतधर-शाण्डिल्य १४ , आर्य समुद्र १५ , मार्य मंगू १५ , आर्य नन्दिल १७ ॥ नागहस्ती , रेवती नक्षत्र १६ । ब्रह्मद्वीपकसिंह २० , स्कन्दिल २१ । हिमवान् २२ , नागार्जुन २३ , गोविन्द वाचक २४ , भूतदिन्न २५ ,, लोहित्य २६ , दूष्यगणि २७ , देवद्धिगरिग क्षमाश्रमण श्रमणसुरतरु' के लेखक महाशय ने ११ वें नम्बर में सुहस्तोसूरि को रखा है, जो ठीक नहीं, क्योंकि महागिरि के बाद उनके अनुयोग-धर शिष्यों के नाम ही भाते हैं, सुहस्ती का नहीं। १२ ३ नम्बर में प्राचार्यश्री शान्ताचार्य लिखा है, इसी लाइन में नन्दिलाचार्य नाम लिखा है, वे भी यथार्थ नहीं हैं, खरा नाम स्वात्याचार्य है। सुप्रतिबुद्ध का नाम वाचक-परम्परा में नहीं है, किन्तु सुहस्तिसूरि की की शिष्य-परम्परा में है और नन्दिल का नाम १६ वें नम्बर में माता है। १३ वां नम्बर स्कन्दिलाचार्य का दिया है, जो गलत है। १३ वें नम्बर के श्रुतघर जीतश्रुतधर शाण्डिल्य हैं, स्कन्दिल नहीं । स्कन्दिलाचार्य का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
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