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________________ पट्टावली-पराग - ख्यान में वह साधुनों का प्राचार सुनता, परन्तु उस समय के साघुपों में शास्त्रोक्त-प्राचार पालन न देखकर उनको पूछता-माप कहते तो सही हैं परन्तु चलते उससे विरुद्ध हैं, यह क्या ? लौका के इस प्रश्न पर यति उसको कहते-धर्म तो हमसे ही रहता है, तुम इसका मर्म क्या जानो। तुम पांच प्राश्रवसेवतो हो और साधुनों को सिखामन देने निकले हो। ५ ६७।८।" “यति के उक्त कथन पर शाह लोंका ने कहा-शास्त्र में तो दया को धर्म कहा है, पर तुम तो हिंसा का उपदेश देकर अधर्म की स्थापना करते हो? इस पर यति ने कहा-फिट भोण्डे ! हिंसा कहां देखी ? यति के समान कोई दया पालने वाला है ही नहीं। लौंका ने यति के उत्तर को अपना अपमान माना और साधुनों के पास पौषधशाला जाने का त्याग किया। स्थान-स्थान वह दया-धर्म का उपदेश देता, मौर कहता-पाज ही हमने सच्चा धर्म पाया है। दूकान पर बैठा हुमा भी वह लोगों को दया का उपदेश दिया करता, जिसे सुनकर यति लोग उसके साथ क्लेश किया करते थे, पर लौका अपनी धुन से पीछे नहीं हटा । फलस्वरूप संघ के कुछ लोग भो उसके पक्ष में मिले, बाद में शाह लौंका अपने वतन लीबड़ी गया, लीबड़ी में लौका को फूफी का बेटा लखमसी कारभारी था, उसने लौका का साथ दिया और कहा-हमारे राज्य में तुम धर्म का उपदेश करो। दया-धर्म हो सब धर्मों में खरा धर्म है । ६।१० ११।१२" । "शाह लौका और लखमसी के उद्योग से बहुत लोग दया-धर्मी बने । इतने में लॊका को भारणा का संयोग मिला । लौका बुढ्डा होने माया था, इसलिए उसने दीक्षा नहीं ली, पर तु भाणा ने साधु का वेष ग्रहण किया प्रोर जिसका शाह लौंका ने प्रकाश किया था उस दया-धर्म की ज्योति भाणा ने सर्वत्र फैलायी। शाह लौंका संवत् १५३२ में स्वर्गवासी हुए ।१३।१४।" "दशा-धर्म जयवन्त है, परन्तु कुमति इसकी निन्दा और बुराइयां करते हैं, कहते हैं-'लों का साधुनों को मानने का निषेध करता है, पौषध, अतिक्रमण, प्रत्याख्यान, जिनपूजा और दान को नहीं मानता।' परन्तु हे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
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