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पट्टावली - पराग
प्रस्तुत पट्टावली-लेखक जैनशास्त्र भोर ज्योतिषशास्त्र से कितना दूर था यह बात उसके निम्नलिखित शब्दों से स्पष्ट होती है
Governme
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लेखक इन्द्र के मुख से भगवान् महावीर को कहलाता है - " ग्रहो भगवन्त ! पूज्य तुमारी जन्मरास उपरे भस्म ग्रहो बेठो छे, दोय हजार वरसनो सीघस्थ छ ।" भगवान् महावीर की जन्मराशि पर दो हजार वर्ष की स्थिति वाला भस्मग्रह बैठने और उसको "सिहस्थ" कहने वाले लेखक ने "कल्प-सूत्र" पढ़ा मालूम नहीं होता, क्योंकि कल्पसूत्र देखा होता तो वह भगवन्त की जन्मराशि न कहकर जन्म-नक्षत्र पर दो हजार वर्ष की स्थिति का भस्मग्रह बैठने की बात कहता, और "भस्मग्रह को सिंहस्थ " मानना भी ज्योतिष से विरुद्ध है । प्रथम तो भगवान् महावीर के समय में राशियों का प्रचलन ही नहीं हुम्रा था, दूसरा महावीर की जन्मराशि " कन्या" है श्रौर जन्म नक्षत्र "उत्तरा फाल्गुनी ।" इस परिस्थिति में उक्त कथन करना ज्ञानसूचक है ।
अब हम पट्टावलीकार की लिखी हुई देवद्विगरिण क्षमा-श्रमण तक की पट्टपरम्परा उद्धृत करके यह दिखायेंगे कि मुद्रित लोकागच्छ की सभी पट्टावलियों में देवगिरिण की परम्परा नन्दी - सूत्र के अनुसार देने की चेष्टा की गई है, वह परम्परा वास्तव में देवद्ध की गुरु-परम्परा नहीं है, किन्तु अनुयोगघर वाचकों की परम्परा है । तब प्रस्तुत पट्टावली में लेखक ने देवगिरिण क्षमा-श्रमण की गुरु-परम्परा समझकर दी है, जिससे कई स्थानों पर भूलें दृष्टिगोचर होती हैं।
प्रस्तुत पट्टावली की देवर्द्धिगखि- परम्परा :
(१) सुधर्मा
(४) शय्यम्भव
(७) भद्रबाहु
(१०) सुहस्ती (१३) पार्यदिन
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(२) जम्बु
(५) यशोभद्र
(८) स्थूलभद्र
(११) सुप्रतिबुद्ध
(१४) वज्रस्वामी
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(३) प्रभव
(६) संभूतविजय
(e) महागिरि
(१२) इन्द्रदिन
(१५) वज्रसेन
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