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लौकागच्छ की पट्टावली (2)
हमारे भण्डार में श्री कल्पसूत्र मूल की एक हस्तलिखित प्रति है, उसके अन्तिम पत्र १७२ से १७४ तक में लोकागच्छीय पट्टावली दी हुई है | यह कल्पसूत्र सं० १७६४ में लिखा गया था ऐसा इसकी निम्नोद्धृत पुष्पिका से ज्ञात होता है।
"इति कल्पसूत्र समाप्त "छ" श्री श्री संवत् १७९४ वर्षे शा० १६६० प्रवर्तमाने चैत्रमासे, कृष्णपक्षे ६ गुरौ लि० पूज्य श्री ५ नायाजी, तत् शिष्य ५ मनजीजी तत् शिष्य श्री ५ मूलजो, गुरुभ्राता प्रेमजी लिपी कृतं स्वात्मायें ।"
उपर्युक्त पुष्पिका से ज्ञात होता है कि यह पट्टावली श्राज से लगभग सवा दो सौ वर्ष पहले लिखी गई है और इसके लिखने वाले लोकागच्छ के श्रीपूज्य मूलजी के गुरुभाई प्रेमजी यति थे । पट्टावली का प्रारम्भ श्री स्थूलभद्रस्वामी से किया है, धन्य पट्टावली - लेखकों की तरह इसके लेखक ने भी अनेक युगप्रधानों के नामों तथा समयनिरूपण में गोलमाल किया है, फिर भी हम इसमें कुछ भी मौलिक परिवर्तन न करके पट्टावली को ज्यों का ज्यों उद्धृत करते हैं
॥६॥ तत् पटे श्री स्थूलभद्रस्वामीत्र स्थूलभद्रजीकथा सवं जांरणवी ॥७॥ दशपूर्वधारी महावीर पछी १७० वर्षे देवलोक पहोंतो ॥ तत्पटे झार्य महागिरी १० पूर्वघर ॥८॥ तत्पट्टे धार्य सुहस्तस्वामी ॥६॥ तत्पट्टे श्री गुरागार स्वामी ॥१०॥ तत्पट्टे श्री कालिकाचार्य, ॥११॥ तत्पट्टे श्री संडिलस्वामी ॥१२॥ तत्पट्टे श्री रेवतगिरस्वामी ॥१३॥ तत्पट्टे सौधर्माचार्य,
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