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मुनि नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव : एक परिचय
रा० फूलचन जैन प्रेमी
अध्यक्ष जैनदर्शन विभाग सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी जैन साहित्य के इतिहास में नेमिचन्द्र नाम के अनेक लेखकों का उल्लेख मिलता है। गोम्मटसार, त्रिलोकसार आदि शौरसेनी प्राकृत ग्रन्थों के सुप्रसिद्ध रचयिता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ( दसवीं पाती ई.) को ही अधिकांश लोग द्रव्यसंग्रह का कर्ता मानते हैं, किन्तु कुछ विद्वानों के महत्त्वपूर्ण अनुसंधान ने दोनों लेखकों की भिन्नताएं स्पष्ट कर दी हैं । उनके अनुसार द्रव्यसंग्रह के रचयिता आचार्य नेमिचन्द्र सिमान्तबक्रवर्ती नहीं, अपितु मुनि नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव (ईसा की ११वीं शती का अन्तिमपाद और विक्रम की १२वीं शती का पूर्वार्ध) हैं। यह द्रव्यसंग्रह की अन्तिम गाथा और इसके संस्कृत वृत्तिकार ब्रह्मदेव (विक्रम सं० ११७५) के प्रारम्भिक कयन से भी स्पष्ट है । इसके अतिरिक्त यन्धकार के विषय में अन्य जानकारी उपलब्ध नहीं होती।
ब्रह्मदेव के अनुसार धारा नरेश भोजदेव के राज्यान्तर्गत वर्तमान ( कोटा राजस्थान ) के समीप कोशोरायपाटन जिसे प्राचीन काल में आश्रम कहते थे, में द्रव्यसंग्रह की रचना मनिसुव्रत के मन्दिर में बैठकर नेमिचन्द्र सिवान्तिदेव ने की। उस समय यहाँ का शासक श्रीपाल मण्डलेश्वर या। राणा हम्मीर के समय केशोरायपाटन का नाम 'आनमपत्तन' था।
ब्राह्मदेव ने अपनी वृत्ति के प्रारम्भिक वक्तव्य में यह भी स्पष्ट किया है कि श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव ने प्रारम्भ में मात्र २६ गाथाओं में इसकी रचना 'लघु-द्रव्यसंग्रह' नाम से की थी, बाद में विशेष तत्त्वज्ञान के लिए उन्होंने इस ( ५८ गाथाओं से युक्त ) "बृहद्-द्रव्यसंग्रह" की रचना की। इन दोनों रूपों में वर्तमान में यह ग्रन्थ उपलब्ध भी होता है।
द्रव्यसंग्रह अथवा बहद द्रव्यसंग्रह को ब्रह्मदेव ने इसे शुद्ध और अशद्ध स्वरूपों का निश्चय और व्यवहार नयों से कथन करने वाला अध्यात्मशास्त्र कहा है। शौरसेनी प्राकृत को ५८ गापाओं वाले प्रस्तुत अनुपम लघु ग्रन्थ में छह द्रव्य, सात तत्व, पांच अस्तिफाय, नौ पदार्थ तथा
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निश्चय एवं व्यवहार मोक्षमार्ग का अत्यन्त सरल एवं सुबोध भाषा एवं शैली में वर्णन करके ग्रन्थकार ने "गागर में सागर" की उक्ति को चरितार्थ किया है। इसमें विषय का विवेचन लाक्षणिक शैली में किया गया है । इसका यह वैशिष्टय है कि प्रत्येक लक्षण द्रव्य और भाव ( व्यवहार और निश्चय ) दोनों दृष्टियों से प्रस्तुत किया गया है । इसी कारण लाक्षणिक ग्रन्थ होकर भी "अध्यात्मशास्त्र" के रूप में ही इसकी महत्ता सामने आती है। इस ग्रन्थ में उपर्युक्त विषयों के साथ ही पंचपरमेष्ठी तथा ध्यान का भी संक्षेप में विवेचन है किन्तु प्रारम्भ में द्रव्यों का विशेष कथन होने से इसका नाम " द्रव्यसंग्रह" रखा गया। लघु होते हुए भी इस ग्रन्थ में जैनधर्म सम्मत प्रायः सभी प्रमुख तत्वों का जितना व्यवस्थित, सहज और संक्षेप रूप में स्पष्ट विवेचन किया गया है वैसा सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय में दुर्लभ है ।
मूल ग्रन्थ में विषयानुसार अधिकारों का विभाजन न होते हुए भी वृत्तिकार ब्रह्मदेव ने इसे मुख्यतया दोन अधिकारों में विभव किया है। षद्रव्य - पञ्चास्तिकाय प्रतिपादक प्रथम अधिकार आरम्भिक २७ गाथाओं से युक्त है | गाथा सं० २८ से गाथा सं० ३८ तक कुल ११ गाथाओं वाला दूसरा अधिकार 'सप्ततत्त्व - नवपदार्थ' प्रतिपादक है। 'मोक्षमार्ग - प्रतिपादक' नामक तृतीय अधिकार में ३९वीं गाया में ४६वीं गाथा तक की इन आठ गाथाओं में व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्ग सुन्दर विवेचन किया गया है। बादकी दो गाथाओं में मोक्षमार्ग प्राप्ति का साधन ध्यान तथा ध्यान के आलम्बन (ध्येय) पंचपरमेष्ठी का सारभूत विवेचन करके अन्तिम (५८वीं ) स्वागताछन्द की इस गाथा में ग्रन्थकार ने अपने नाम निर्देश के साथ अपनी लघुता प्रकट की है ।
द्रव्यसंग्रह का उपर्युक्त विषयों का प्रतिपादन अत्यन्त प्रामाणिक और सारभूत देखकर परवर्ती अनेक आचार्यों ने इस ग्रन्थ की गाथाओं को अपने विषय पुष्टि के रूप में उद्घृत करके द्रव्यसंग्रह के प्रति अपना गौरव प्रकट किया है । वृत्तिकार ब्रह्मदेव ने तो "भगवान् सूत्रमिदं प्रतिपादयति" कहकर द्रव्यसंग्रह की गाथाओं को सूत्र और और ग्रन्थकर्ता को भगवान् शब्दों से सम्बोधित करके इस ग्रन्थ की श्रेष्ठता और पूज्यता मान्य करके बहुमान बढ़ाया है । सरल, लघु जोर सारभूत आदि विशेषताओं से युक्त यह ग्रन्थ प्रारम्भ से ही अत्यन्त लोकप्रिय रहा है । अतः संस्कृत, भाषावचीवनिका ( ढूँढारी अथवा पुरानी हिन्दी ), हिन्दी अंग्रेजी
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तथा अन्यान्य अनेक भारतीय भाषाओं में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक विश्वविद्यालयों एवं संस्थानों में पाठ्यग्रन्थ के रूप में भी यह निर्धारित है। _प्रस्तुत संस्करण में मूल ग्रन्थ की गाथाओं में प्रतिपाद विषयों के साथ ही अनेक सम्बद्ध विषयों का विस्तृत एवं तुलनात्मक विवेचन होने से यह सर्वत्र समादत भी हुआ है। इस लोकप्रिय ग्रन्थ के सम्पादक, अनुवादक, प्रेरक और प्रकाशक सभी के प्रति अपना आदर सहित अमार व्यक्त करते हैं।
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दो शब्द
तत्त्व बोध एक मौलिक विधा है जो हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है । आज का मानब विज्ञान, राजनीति आदि बड़े-बड़े रहस्यों को जानता है, किन्तु दर्शन, धर्म और तत्त्व- ज्ञान का जहाँ तक प्रश्न है वह सर्वथा कोरा है । दार्शनिक तत्वों की जानकारी न होने के कारण सुख व शान्ति की उपलब्धि उनको नहीं हो पा रही है। जिस लक्ष्य को हम प्राप्त करना पर रहे, वह नहीं हो रहा है। इस दृष्टि को पाकर आचार्यों ने का रहस्य हम सबको बताया।
आज की नयी पीढ़ी विशेषकर नये-नये आकर्षक साहित्य पढ़ने में विवान है । परम पू० अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, विदुषी आर्यिका बाल ब्रह्मवारिणी सोम्यमूर्ति १०५ स्याद्वादमती माता जी ने आधुनिक समय को देखते हुए प्रश्नोत्तर रूप में 'द्रव्य संग्रह' नामक ग्रन्थ की हिन्दी में टीका की, आज माँग थी। इस प्रकार के कृति की जो पू० माता जी ने आचार्यश्री विमलसागर जी महाराज की प्रेरणा से तथा ज्ञानदिवाकर आचार्य श्री भरतसागर जी महाराज के मार्गदर्शन में तैयार की।
साहित्य समाज का दर्पण है, व्यक्ति गतिशील है तथा नयी-नयी खोज में विश्वास करता है ।
द्रव्य संग्रह नामक ग्रन्थ में जीवादि छह द्रव्यों का वर्णन अत्यन्त स्पष्टता से किया गया है। वर्णन संक्षिप्त होने पर भी पूर्ण और गम्भीर है। इसमें तीन अधिकार और ५८ गाथाएँ हैं। आशा है सभी जिज्ञासु पाठकगण एवं विद्यार्थी वर्ग इसे प्रश्नोत्तर रूप में हृदयंगम करके छह द्रव्यों के स्वरूप को सरलता से समझने का प्रयास करेंगे।
जैनाचार्यों ने श्रावकों के लिये दान एवं पूजा- ये दो कर्तव्य मुख्य रूप से बताये हैं । जिसमें ज्ञान-दान का अपना विशेष महत्त्व है।
० धर्मचन्द शास्त्री
प्रतिष्ठाचार्य, ज्योतिषाचार्य
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विषयानुक्रमणिका
प्रथम अधिकार
मंगलाचरण जोव सम्बन्धी नो अधिकार
जीव का लक्षण
उपयोग के मेद
ज्ञानोपयोग के भेद
नयापेक्षा जोब का लक्षण अमूर्तस्व अधिकार
व्यवहारनय मे जीव कर्मों का कर्ता है जीव व्यवहार से कर्मफल का भोक्ता है
जोव स्वदेह प्रमाण है
जीव को संसारी अवस्था
चौदह जीव समास
मार्गणा और गुणस्थान को अपेक्षा जोव के मेद
जीव को सिद्धत्व और ऊर्ध्वगमनत्व अवस्था
अजीव द्रव्यों के नाम और उनके मूर्तिक- अमूर्तिकपने का वर्णन
पुद्गल द्रव्य की पर्यायें
धर्म-द्रव्य का स्वरूप
अधर्म-द्रव्य का स्वरूप आकाश द्रव्य का स्वरूप व भेद
लोकाकाश और अलोकाकाश का स्वरूप
काल-द्रव्य का स्वरूप व उसके दो भेद
निश्चय काल का स्वरूप
छः द्रव्यों का उपसंहार और पांच अस्तिकायों का वर्णन
अस्तिकाय का लक्षण
द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या
उपचार से एक पुदगल परमाणु भी बहुप्रदेशी है
प्रदेश का लक्षण
द्वितीय अधिकार
मानव आदि पदार्थों के कथन को प्रतिशा
भावास्त्रय व द्रव्याखव के लक्षण
भावासव के नाम व मेव
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५२
१३
१४
१५
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१८
२०
२१
२३
२६
२७
९८
२९
२०
१
३२
३३
૪
३६
३६
३८
३९
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द्रव्यास्त्रव का स्वरूप व भेद
भावबन्ध व द्रव्यबन्ध का लक्षण बन्ध के चार भेद व उनके कारण भावसंवर और द्रव्यसंवर का लक्षण माक्संवर के भेद
निर्जरा का लक्षण व उसके भेद
मोक्ष के भेद व लक्षण
पुण्य
और पाप का निरूपण
तृतीय अधिकार
व्यवहार और निश्चय माक्षमार्ग का लक्षण
रत्नत्रय युक्त आत्मा हो माक्ष का कारण क्यों ?
सम्यक दर्शन किसे कहते हैं
सम्यक् ज्ञान का स्वरूप
दर्शनोपयोग का स्वरूप
दर्शन और ज्ञान की उत्पत्ति का नियम
व्यवहार चारित्र का स्वरूप
निश्चय चारित्र का स्वरूप
मोक्ष के हेतुओं का पाने के लिए ध्यान को प्रेरणा
ध्यान करने का उपाय
ध्यान करने योग्य मन्त्र मरहन्त परमेष्ठी का स्वरूप सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप आचार्य परमेष्ठो का स्वरूप उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप
साधु परमेष्ठी का स्वरूप
ध्येय, ध्याता, ध्यान का स्वरूप
परम ध्यान का लक्षण ध्यान के उपाय ग्रन्थकार को प्रार्थना
* * * * * * * *
४८
५०
५३
५४
५६
५६
५७
५९
५९
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६३
६३.
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॥ श्री नेमिनाथाय नमः।। श्रीमन्नेभिचन्द्रसिद्धान्नचालवर्ती विरचित
द्रव्य संग्रह प्रथमोऽधिकारः
मंगलाचरण जीवमजीवं दवं जिणवरवसहेग जेण णिद्दिट्ट।
देविषिव व ते सम्बदा सिरसा ॥१॥ बन्षयार्ष
(ण } जिन | ( जिणवरवसहेण ) जिनवर वृषभ ने । (जीवम जीव) जीव और अजीव । ( दम्यं ) द्रव्य । ( णिष्टि) कहे हैं । ( देविदविदवद) देवों के समूह से वन्दनीय । (तं) उनको। (जिमवर वृषम को) (सव्वदा ) हमेशा। (सिरसा ) मस्तक नवाकर। ( वंदे ) नमस्कार करता हूँ।
जिन वृषभनाष मगवान ने जीव और अजीव द्रव्यों का निरूपण किया वा उनको मैं ( नेभिचन्द्र सिद्धान्तिदेव ) सदा मस्तक झुका कर नमस्कार करता हूँ।
प्र०मंगलाचरण में किसे नमस्कार किया है? उ-वृषभवेव को या समस्त तीर्थकरों को, समस्त प्राप्तों को। प्र०-वृषभदेव कौन थे? उ.-इस युग के प्रथम तीर्थफर थे। प्र०-जिनवर किसे कहते हैं।
उल-जिन कहते हैं बर्हन्त देव, केवली भगवान को सपा तीर्थकर कैवलो को जिनवर कहते हैं। प्रक-प्रम्य कितने हैं?
-प्रम्य दो है-१-जीव द्रव्य, २-अजीव रम्य ।
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द्रव्य संग्रह
प्र०-जीव किसे कहते हैं ?
० - ( क ) जिसमें चेतना गुण पाया जाता है उसे जीव कहते हैं जैसे ---मनुष्य, पशु-पक्षी, देवनारकी आदि ।
अथवा
( ख ) जिसमें सुख, सत्ता, चैतन्य और बोध हो, उसे जीव कहते हैं । प्र० - अजीव किसे कहते हैं ?
उ०- जिसमें ज्ञान दर्शन चेतना नहीं हो वह अजीव है। अजीव के पाँच भेद हैं-- (१) पुद्गल, (२) धर्मद्रव्य, (३) अधर्मद्रव्य, (४) आकाशद्रव्य और (५) कालद्रव्य ।
प्र० तीर्थंकर कितने इन्द्रों से वन्दनीय हैं ? ४० - तीर्थंकर सौ इन्द्रों से वन्दनीय हैं । प्र० - सौ इन्द्र कौन से हैं ?
भवणालय चालीसा, वितरदेवाण होंति बत्तीसा । कप्पामर चवीसा, चन्दो सूरो णरो तिरिओ ||
भवनवासियों के ४० इन्द्र, व्यन्तरों के ३२, कल्पवासियों के २४, ज्योतिषियों के २न्द्र और सूर्य मनुष्यों का १-वर्ती तथा पशुओं का १ - सिंह । कुल १०० (४०+३२+२४ +२+१+१) ।
प्र० - इस ग्रन्थ में कितने अधिकार है ?
उ०- इस ग्रन्थ में तीन अधिकार है- १ - जीव अजीव अधिकार । २-सव आदि तत्त्व वर्णन अधिकार । ३- मोकमार्ग प्रतिपादक अधिकार ।
प्र० - प्रथम अधिकार में गाथाएं कितनी है ? उ०- प्रथम अधिकार में २७ गाथाएँ हैं ।
प्र० - प्रथम अधिकार में वर्णित विषय बताइये ।
उ०- प्रथम अधिकार में एक गाया मंगलाचरण रूप है। गाया २ से १४ तक जीव द्रव्य का व्यवहार और निश्चय दोनों नयों से विवेषम है। गाया १५ से २७ तक बजोव द्रव्यों का विवेचन है। उनमें भो गाथा नं. १५ में अजीव द्रव्य के मेद, १६ में पुद्गल द्रव्य, १७ में धर्मद्रव्य, १८ में अधर्म द्रव्य, गाथा १९-२० में आकाश द्रव्य, २१-२२ में काल द्रव्य, २३२५ तक अस्तिकायों का वर्णन, २६ में पुद्गल परमाणु का बहुप्रदेशीपना उपचार से तथा रबों गाथा में प्रदेश का लक्षण है।
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जीवाधिकार
जोव सम्बन्धो नो अधिकार जीवो उपओगमओ अमुत्ति कसा सवेहपरिमाणो ।
भोत्ता संसारस्थो सिद्धो सो विस्ससोडगई ॥२॥ अम्बयार्य
( सो) वह ( जोव) ( जोवी ) जोने वाला। ( उवओगमओ) उपयोगमयो । ( अमत्ति) अमर्तिक । ( कत्ता) की। ( सदेहपरिमाणो) शरीरप्रमाण । ( भोत्ता ) कर्मों के फल का मोक्ता। (संसारत्यो ) संसार में स्थित । ( सिद्धो ) सिद्ध ।। विस्ससा) स्वभाव से । (उड्ढगई ) ऊर्ध्वगमन करने वाला है।
वह जीव प्राणों से युक्त है। जानने-देखने वाला होने से उपयोगमयी अमूर्तिक-कर्ता, शरोर प्रमाण, भोक्ता, संसारी, सिख और स्वभाव से ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला है।
प्र०-जीव का वर्णन कितने अधिकारों में किया गया है। ३०-जीव का वर्णन नो अधिकारों में किया गया है। प्र०-जीव के नौ अधिकारों के नाम बताइये?
२०-१-जीवस्व अधिकार, २-उपयोग अधिकार, ३-अमूर्तिक अधिकार, ४-कर्तृत्व अधिकार, ५-स्वदेहपरिमाण अधिकार, ६-भोक्तृत्व अधिकार, ७-संसारित्व अधिकार, ८-सिद्ध स्व अधिकार, ९-ऊध्र्वगमन अधिकार।
जीव का लाण तिषकाले अदुपाणा इखियबलमाउ आणपाणो य ।
बबहारा सो जीवो गिज्ययगयदोषणा जस्स ॥३॥ अम्बयार्थ' (ववहारा ) व्यवहार नय से। (जस्स) जिसके । (तिस्काले) सीनों कालों में। (इन्द्रियबलमाउ ) इन्द्रिय, बल, आयु । ( आणपामो म)
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द्रव्य संग्रह
और श्वासोच्छ्वास । ( चदुपाणा ) चार प्राण ( सन्ति ) हैं । (दु ) और । ( शिच्चयणयां ) निश्चय से ( जस्स) जिसके । ( दणा ) चेतना | ( है ) (सो) वह । (बोवो ) जीव है ।
व्यवहारनय से जिसके तीनों कालों में इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास- ये चार प्राण हैं और निश्चयनय से जिसके चेतना है वह जब है ।
प्र-व्यवहारनय किसे कहते हैं ?
०-वस्तु के अशुद्ध स्वरूप को ग्रहण करने वाले ज्ञान को व्यवहार-नय कहते हैं। जैसे- मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा कहना ।
प्र०-सीन काल कौन से हैं ?
२०- १ - भूतकाल, २- वर्तमान काल, ३- भविष्यकाल ।
प्र०- मूल प्राण कितने हैं व उनके उसर-भेद कौन-कौन से है ? ०-मूल प्राण चार है- इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास । इनके उत्तर मेद १० है । पाँच इन्द्रिय-स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और फर्म । सोन बल - मनबक, वचनव और कायबल । आयु और वा सोच्छ्वास 1
प्र-व्यवहारमय से जीव का लक्षण बताइये ।
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- जिसमें दोनों कालों में चार प्राण पाये जाते हैं, व्यवहारनय से वह जीव है।
प्र० - मिश्चयनय से जीद का लक्षण बताइये ।
उ०- जिसमें चेतना पायी जाती है, निश्चयनय से यह जीव है ।
प्र० - निश्चयनय किसे कहते हैं ?
उ०- वस्तु के शुद्ध स्वरूप को ग्रहण कहते हैं, जैसे- मिट्टी के घड़े को मिट्टी का घड़ा कहना ।
अ० - एकेन्द्रिय जीव के कितने प्राण हैं ?
करने वाले ज्ञान को निश्चयनय
उ०- एकेन्द्रिय जोव के चार प्राण होते हैं- स्पर्शन इन्द्रिय, कायवल, आयु और श्वासोच्छ्वास |
प्रo द्वीन्द्रिय जोव के किसने प्राण है ?
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उ०-१-स्पर्शन इन्द्रिय, २- रसना इन्द्रिय, ३-वचनबल ४- काय क ५-आयु, ६ वासोच्छ्वास । कुल ६ प्राण होते हैं।
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द्रय संग्रह
प्र० तीन इन्द्रिय जीव के कितने प्राण है ?
उ०- तीन इन्द्रिय जोब के सात प्राण होते हैं--स्पर्शन, रसना, धाण, वचनबल, कायवल, आयु और श्वासोच्छ्वास ।
प्र०-चार इन्द्रिय जोय के कितने प्राण होते हैं ?
उ०- स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु, वचनचल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास । कुल ८ प्राण चार इन्द्रिय जीव के होते हैं ।
प्र० - अशी पंचेन्द्रिय ओव के कितने प्राण होते हैं?
श० - स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु, कर्ण, वचनबल, कायबल, बायु और श्वासोच्छ्वास । कुल ९ प्राण असंशी पंचेन्द्रिय जीव के होते हैं ।
प्र०-संकी पंचेन्द्रिय जोव के कितने प्राण होते हैं ?
उ०-दस प्राण होते हैं-पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयु और श्वासो - च्छ्वास ।
प्र० - आप ( विद्यार्थियों) के कितने प्राण हैं? क्यों ?
उ०- हमारे १० प्राण हैं। क्योंकि हम वेन्द्रिय सैनी हैं।
प्र० अरहंत भगवान के कितने प्राण होते हैं ?
०-अरहंत भगवान के चार प्राण होते हैं- वचनबल, कायबल, वायु और श्वासोच्छ्वास ।
प्रo सिद्ध भगवान के कितने प्राण होते हैं ?
उ०- सिद्ध भगवान के दस प्राणों में से कोई भी प्राण नहीं है। उनको मात्र एक चेतना प्राण है ।
उपयोग के भेष
उवओोगो डुबियप्पो वंसण णाणं च वंसगं चतुषा । चलु अचक्लू ओही वंसणमघ केवलं गेयं ॥ ४ ॥ मार्थ
( उबओगो) उपयोग। (दुवियप्पो ) दो प्रकार ( का है ) | ( दंसण ) दर्शन । (गाणं च ) और ज्ञान । ( दंसण ) दर्शन { चतुषा ) चार प्रकार का है | ( चक्खु ) चक्षुदर्शन ( अचक्खू ) अचकुदर्शन | ( ही ) अवधिवर्शन । ( अ ) और ( केवलं दंसणं ) केवलदर्शन । ( णेयं } जानना चाहिए।
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द्रव्य संग्रह बर्ष
उपयोग दो प्रकार का है-१-दर्शनोपयोग, २-झानोपयोग । उनमें दर्शनोपयोग चार प्रकार का होता है--चक्षुदर्शनोपयोग, २-अचक्षुदर्शनोपयोग, ३-अधिदर्शनोपयोग और ४-केबलदर्शनोपयोग।
प्र०-उपयोग किसे कहते हैं ? ३०-चैतन्यानुविधायी आत्मा के परिणाम को उपयोग कहत हैं। प्र०-उपयोग का शाब्दिक अर्थ क्या है ?
उ.-उप याने समीप या निकट । योग का अर्थ है सम्बन्ध । जिसका आत्मा से निकट सम्बन्ध है उसे उपयोग कहते हैं। शानदर्शन का भारमा से निकट सम्बन्ध है । अतः इन दोनों को उपयोग कहते हैं।
प्र०-दर्शनोपयोग किसे कहते हैं ?
उल-जो वस्तु के सामान्य अंश को ग्रहण करे उसे दर्शनोपयोग कहते हैं।
प्र०-जानोपयोग किसे कहते हैं ? जल-जो वस्तु के विशेष अंश को ग्रहण करे उसे शानोपयोग कहते
प्र०-चक्षुदर्शनोपयोग किसे कहते हैं ?
उ०-इन्द्रिय से उत्पन्न होने वाले ज्ञान के पहले जो वस्तु का सामान्य प्रतिभास होता है, उसे चक्षुदर्शनोपयोग कहते हैं।
प्र०-अचक्षुदर्शनोपयोग किसे कहते हैं ?
३०-चक्षु इन्द्रिय को छोड़कर शेष स्पर्शन, रसना, प्राण और कर्ण सया मन से होने वाले शान के पहले जो वस्तु का सामान्य आभास होता है उसे अचक्षुदर्शन कहते हैं।
प्र०-अवधिदर्शन किसे कहते हैं ।
२०-अवषिजान के पहले जो वस्तु का सामान्य आभास होता है उसे अवधिवर्शन कहते हैं।
प्र-केवलदर्शन किसे कहते हैं ?
उ० केवलज्ञान के साथ होने वाले वस्तु के सामान्य आभास को केवलदान कहते है।
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द्रव्य संग्रह
मानोपयोग के भेव गागं अटुपियप्यं मविषुवमोही अणाणणाणाणि । मणपज्जयकेवलमषि, पन्क्ल परोक्तभेयं ॥५॥
मन्बयार्य
{णाणं ) जान। ( अवियप्पं ) आठ प्रकार का है। { अगाणपाणाणि ) अशान रूप और ज्ञान रूप। ( मदिसुदओही) मतिज्ञान, श्रुत. जाम, भवधिज्ञान 1 (मणपब्जय ) मनःपर्ययशान । ( केवल) केवलज्ञान । (पवि ) और। (यही मानोपयोग ) (पचक्सपरोक्खमेयं च प्रत्यक्ष और परोक के मेद से दो प्रकार का है।
झानोपयोग अशान और शान रूप से आठ प्रकार का है--कुमतिमान, २-कुश्रुतशान, ३-कुअवधिशान, ४-मसिशान, ५-श्रुतमान, ६-अवधिज्ञान, ५-प्रतःपर्ययशान और ८-फेवलज्ञान । और वही मानोपयोग प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है। प्रा-कुशान किसने हैं ?
कुशान तीन है--कुमति, कुलत, ३-कुअवधि। मन-सम्यक् शान कितने हैं ?
उ०-सम्यक् ज्ञान पात्र है-१-मसिझान, २-शुतज्ञान, ३-अवषिशान, ४-मनःपर्ययज्ञाम, ५-केवलजान ।
प्र-मतिमाम किसे कहते हैं ?
च-पांच इन्द्रिय बौर मन को सहायता से होने वाला मान मतिकान कहलाता है।
प्र०-श्रुतशान किसे कहते हैं ? ज-मतिज्ञान पूर्वक होने वाला शान श्रुसशान कहलाता है। प्रल-अवविज्ञान किसे कहते हैं ?
१०-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादापूर्वक जो रूपी पापों की स्पष्ट जानता है वह अवषिशान है।
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द्रव्य संग्रह
प्र० - मन:पर्ययज्ञान किसे कहते हैं ?
०-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को मर्यादापूर्वक जो दूसरे के मन में तिष्ठते रूपो पदार्थों को स्पष्ट जानता है, उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं।
प्रo - केवलज्ञान किसे कहते हैं ? उ०-मिका साथ जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं ।
प्र०-मति श्रुति अवधिज्ञान सच्चे और झूठे कैसे होते हैं ?
समस्स द्रयों और उनको समस्त पर्यायों को एक
उ०- ये दोनों ज्ञान जब सम्यग्दृष्टि के होते हैं तब सत्य कहलाते हैं और जब मिध्यादृष्टि के होते हैं तब मिथ्या या झूठे कहलाते हैं ।
प्र० - प्रत्यक्षज्ञान किसे कहते हैं ?
उ०- इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना सिर्फ आस्मा से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है ।
प्र०-परोक्षज्ञान किसे कहते हैं ?
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० - इन्द्रिय और आलोक आदि की सहायता से जो ज्ञान होता है उसे परोक्ष ज्ञान कहते हैं ।
प्र०- एक व्यक्ति आँखों से रस्सी को प्रत्यक्ष देख रहा है, उसका ज्ञान प्रत्यक्ष है या परोक्ष ?
०-इन्द्रियों की सहायता से ज्ञान हो रहा है इसलिए परोक्ष है । प्र० - एक सम्यग्दृष्टि मी को माँ कहता है, भूल से माँ को बहन मी कहता है, उसका ज्ञान सम्यक है या मिथ्या ?
उ०- सम्यक दर्शन का आश्रय होने से सम्यग्दृष्टि का ज्ञान सम्यकज्ञान है।
प्र०- एक मिध्यादृष्टि साँप को सांप और रस्सी को रस्सो जानता है, उसका ज्ञान सम्यक है या मिध्या ?
उ०- मिध्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्या हो है ।
प्र०- प्रत्यक्ष ज्ञान कौन-कौन से हैं ?
० अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान ओर केवलज्ञान - ये प्रत्यक्ष ज्ञान है। इनमें भो अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान विकलपारमार्थिक हैं और केवलज्ञान सकलपारमार्थिक प्रत्यक्ष है। अथवा अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान विकल प्रत्यक्ष है और केवलशान सकल प्रत्यक्ष है ।
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परोक्ष
१. मतिज्ञान
२. श्रुतज्ञान ३. कुमतिज्ञान
४. कुश्रुतज्ञान ५. अवधिज्ञान
ज्ञानोपयोग ८
६. कुअवधि ७. मन:पर्ययज्ञान ८. केवलज्ञान
अम्वयार्य
विकल
मण्य संग्रह
उपयोग
प्रत्यक्ष
सकल
दर्शनोपयोग x १. चक्षुदर्शन २. अचक्षुदर्शन ३. अवधिदर्शन ४. केवलदर्शन
नयापेक्षा जीव का लक्षण
अटुचनाणवंसण सामण्णं जोवलक्क्षणं भणियं । ववहारा सुणया सुद्धं पुण हंसर्ग जानं ॥ ६ ॥
(ववहारा) व्यवहारनय से ( अटुचदुणाणदंसणं ) आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन ( सामण्णं ) सामान्य से । ( जीव-मा) जोव का क्षण ( भणियं ) कहा गया है। (पुन) और । ( सुराणा ) शुद्ध निश्चयनय से (सुख) शुद्ध । ( दंसणं ) दर्शन । (माणं ) ज्ञान ( जीवलपवणं भणियं ) जीव का लक्षण कहा गया है।
व्यवहारनय से आठ प्रकार का ज्ञान बोर चार प्रकार का दर्शन - सामान्य से जोब का लक्षण कहा गया है और शुद्ध निश्चयतय से शुद्ध दर्शन और ज्ञान जोव का लक्षण कहा गया है।
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द्रव्य संग्रह प्र.-व्यवहार से (सामान्य) जीव का लक्षण क्या है?
स०-व्यवहारनय से आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन जीव का लक्षण है।
प्र०-शुद्ध निश्चयनय से जीव किसे कहते हैं ?
उ०-जिसमें शुद्ध दर्शन और ज्ञान पाया जाता है, शव निश्चयनय से वह जीव है।
प्रा-शुद्ध निश्चयनय किसे कहते हैं ?
३०-पर सम्बन्ध से रहित वस्तु के गुणों के कथन करने वाले ज्ञान को शुद्ध निश्चयनय कहते हैं।
अमूर्सल अधिकार बरसपंचगंधा को फासा अट्ट निच्चया जीवे ।
पो संति अमुत्ति तबो ववहारा मुसि बंधादो ॥७॥ बन्नया
(च्चिया) निश्चयनय से। (जीवे) जोव में । (पंच पाण) पांच वर्ण। ( पंच रस ) पांच रस। (दो गंधा ) दो गंध। (अट्ठ फासा) और आठ स्पर्श । ( णो) नहीं। ( सन्ति ) है। (सदो) इसलिए (सो) यह । (अमुत्ति) अमूर्तिक है। (ववहारा) व्यवहारनय से । (बंधादो) कर्मबन्ध को अपेक्षा । ( मुति ) मूर्तिक । ( अस्थि ) है।
वर्ष
निश्चयनय से जीव में पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श नहीं है। इसलिए यह अमूर्तिक है। व्यवहारनय से कर्मबन्ध की अपेक्षा जीव मूर्तिक है।
प्र०-मूर्तिक किसे कहते हैं ?
उ.-जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ग पाया जाया है उसे मूर्तिक कहते हैं। प्र०-अमतिक किसे कहते हैं?
-जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण नहीं पाये जाते हैं उसे अभूतिक
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द्रव्य संग्रह प्र-ओव मूर्तिक है या अमूर्तिक ? उ.-जीव मूर्तिक भी है और अमूर्तिक भी है । प्र०-जीव अमूसिक किस अपेक्षा से है ? और क्यों है ?
उ.-निश्चयनय से जोव अभूतिक है, क्योंकि उसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण नहों पाये जाते हैं। प्रक-जीव मूर्तिक किस अपेक्षा से है ?
-संसारी जीव व्यवहारनय से भूतिक है । क्योंकि यह अनादिकाल से कर्मों से बैषा हुआ है । कर्म पुद्गल है और पुद्गल मूर्तिक है । मूर्तिक के साथ रहने से अमूर्तिक मारमा भो मूर्तिक कहा जाता है।
प्र-यदि भास्मा अमूर्तिक है सो मूर्तिक कैसे हो सकता है ? और यवि मूर्तिक है वो अमूर्तिक कैसे ? ।
२०-एक ही राम, पिता भी थे और पुत्र भी थे। अपेक्षाकृत कथन है । पिता शाम को अदेला नाम पुत्र और पुलों नया को अपेक्षा पिता भी । इसमें कोई विरोष नहीं प्रतीत होता है। इसी प्रकार आरमा के शुद्ध स्वरूप का विचार करने पर यह अमूर्तिक है और कम पुदगलमय अशय स्वरूप को अपेक्षा मूर्तिक है, इसमें कोई विरोध नहीं है ।
प्र०-स्पर्श किसे कहत हैं ? उसके कितने भेद हैं ?
उ-छूने पर जो पदार्थ का ज्ञान होता है उसे स्पर्श कहते हैं। बह पाठ प्रकार का होता है-ठण्डा, गरम, कला, चिकना, मुलायम, कठोर, हलका और भारो।
प्र०-रस किसे कहते हैं ? भेद सहित बताइये।
३०-रस स्वाद को कहते हैं और उसके पांच भेद हैं-बट्टा, माठा, कडुआ, चरपरा और कषायला।
प्र०मान्ध किसे कहते हैं ? भेद सहित बताइये। बनान्ध महक को कहते हैं वह दो प्रकार को होता है-सुगन्ध और दुर्गन्ध ।
प्र०-वर्ण किसे कहते हैं तथा इसके कितने भेद है ? ।
No-वर्ण रंग को कहते हैं । रंग पांच प्रकार के होते हैं-काला, पोला, नोला, लाल और सफेद ।
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प्रम्य संग्रह प्र.-उदाहरण देकर समझाइये कि आत्मा अमूर्तिक क्यों है तथा पुदगल मूर्तिक क्यों है ?
-आत्मा को कोई छू नहीं सकता, कोई उसका स्वाद नहीं के सकता, उसका कोई वर्ण नहीं समा न उसमें खुशबू है, न बदबू किन्तु पुद्गल में ये सब पाये जाते हैं। जैसे आम पुदगल है। इसे हम देश मो सको पी सकते हैयह है या नरम। इसको गन्ध मी के सकते हैं तथा इसका खट्टा-मीठा स्वाद भी ले सकते हैं। इन्हीं कारणों से आत्मा का अमूर्तिकपना और पुद्गल का मूर्तिकपना सिद्ध है ।
प्र०-आत्मा इन्द्रियों को सहायता से नहीं जाना जाता है तो वह है, यह कैसे निर्णय करे ?
उ.-यद्यपि मतिक इन्द्रियों की सहायता से अमूर्तिक मात्मा नहीं जाना जाता है फिर 'अहं' (मैं) शब्द से आरमा की प्रतीति होती है। मैं सुखी, में दुखो, मैं निधन, मैं धनवान बावि । लड्डू खाने पर मोठा, नीम खाने पर कड़वा लगता है। लड्ड साने पर सुख और कोटा शुभ जाने पर दुख होता है। यह सुख-दुःख का वेदन जिसमें होता है वह पारमा है । यह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से जाना जाता है। दूसरों के शरीर में बात्मा का ज्ञान अनुमान से जाना जाता है। अन्यथा जिन्दा व्यक्ति और मुर्दा व्यक्ति का निर्णय नहीं हो पामेगा।
प्र०-आपका बास्मा मूर्तिक है या अमूर्तिक है, क्यों?
उ०-हमारा आस्मा मूर्तिक है क्योंकि हम अभी कम से यह संसारी जीव हैं।
प्र-सिद्ध भगवान का आत्मा कैसा है ?
उ.-सिद्ध भगवान प्रमूर्तिक हैं क्योंकि पुद्गल. कर्मबन्ध से सर्वचा रहित ( छूट गये ) हैं।
व्यवहारनय से जोव को का कर्ता है पुग्गलकम्माबोण कसा घबहारवो दुणिश्चयो ।
घेक्षणकम्माणाबा सुबणया सुखभावाणं ॥८॥ बम्बया
(आदा) आत्मा । ( ववहारो) व्यवहारनय से। (पुग्यलकम्मा
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द्रव्य संग्रह
१३
दीर्ण) ज्ञानावरणादि पुद्गल कमों का (कत्ता) कर्ता है। ( चिचयदो ) अशुद्ध निश्चयनय से ( वेदणक्रम्माणं ) रागादिक भाव कर्मों का ( कता ) ( कर्ता ) है ( दु ) और ( सुद्धणया) शुद्ध निश्चयनय से ! ( सुद्धभावाणं ) शुद्ध भावों का ( कत्ता ) कर्ता है।
प
आत्मा व्यवहारनय से ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता है । अशुद्ध freests से रागादि भावकर्मों का कर्ता है तथा शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध भावों का कर्ता है।
प्र० - पुद्गल कर्म कौन-कौन से हैं ?
उ०- ज्ञानावरण, दर्शनावरणादि आठ द्रव्य कर्म और छ: पर्याप्त और तीन शरीर - वे नौ नोकर्म पुद्गल कर्म है ।
प्र० मा कर्म कौन से हैं ?
उ०- राग, द्वेष, मोह आदि भाव कर्म है ।
ब्र०-जीद के शुद्ध भाव कौन से हैं?
उ०- केवलज्ञान और केवलदर्शन जीव के शुद्धभाव हैं ।
प्र०-क्या जीव कर्ता है ?
उ०- हाँ, व्यवहारनय से जीव कर्मों का कर्ता है ।
जीव व्यवहार से कर्मफल का भोक्ता है
ववहारा सुहवुक्खं पुग्गलकम्मम्फलं पभुजेबि । आंदा णिचश्रयणयवो वेदणभावं सु आवस्स ॥ ९ ॥
अपार्थ
( यादा ) आत्मा । ( वयद्वारा ) व्यवहारनय से । ( सुहदुमसं ) सुखदुःखस्वरूप | ( पुग्गलकम्मफलं ) पौद्गलिक कर्मों के फल को पशु जेषि ) भोगता है । ( णिच्चयणयदो ) निश्चयनय से । ( आदस्स) अपने । ( चेंदणभार्य) ज्ञान दर्शनरूप शुद्ध भावों को (खु) नियम से। ( पभुजेदि ) भोगता है ।
बर्थ
आत्मा व्यवहारनय से सुख-दुःख रूप पुद्गल कर्मों के फल को भोगता है और निश्चयनय से वह शुद्ध ज्ञान दर्शन का ही मोक्ता है ।
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द्रव्य संग्रह प्र०-सुख किसे कहते हैं ? उ०-आल्हाद रूप बास्मा की परिणति को सुख कहते हैं। प्रा-दुःख किसे कहते हैं ? उ०-खेद रूप आत्मपरिणति को दुःख कहते हैं। प्र-आत्मा सुख-दुःख का भोगने वाला किस अपेक्षा से है ? ज०-व्यवहारनयापेक्षा । प्र०-शुद्ध ज्ञान और शुद्ध दर्शन कौन स हैं ? २० केवलज्ञान और केवलदर्शन शद्ध शान-दर्शन । प्र०-शव ज्ञान दर्शन किस जीव के पाया जाता है ? उ०-अरहन्त-केवलो व सिद्धों में शुद्ध शान-दर्शन पाया जाता है। प्र०-आत्मा शुख शान दर्शन का भोगने वाला किस नय अपेक्षा
स-निश्चयनय की अपेक्षा से ।
जीव स्वयह प्रमाण है अणुगुरुवेहपमाणो उपसंहारप्पसप्पदो चैदा। असमुहदो बवहारा णिज्चयणययो असंखदेसो वा ॥१०॥
मम्बया
( चेदा आरमा। ( ववहारा) व्यवहारनय से। (असमुहदो) समुद्रात को छोड़कर अन्य अवस्थाओं में। ( उवसंहारप्पसप्पदो) संकोच और विस्तार के कारण । ( अणुगुरुदेहपमाणो) छोटे-बड़े शरीर के बराबर प्रमाण को धारण करने वाला है। (वा) और( णिचयणयदो ) निश्चयनय से । ( असंलसो) असंख्यातप्रदेशी है । वर्ष
आत्मा व्यवहारनय ये समुपात को छोड़कर अन्य अवस्थाओं में संकोच-विस्तार के कारण छोटे-बड़े शरीर के बराबर प्रमाग को पारण करने वाला है और निश्चयनय से असंख्यातप्रदेशी है।
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द्रव्य संग्रह
१९
प्र० - जीव छोटे-बड़े शरोर के बराबर प्रमाण को धारण करने वाला कैसे है ?
० - जोव में संकोच विस्तार गुण स्वभाव से पाया जाता है । इसलिए वह अपने द्वारा कर्मोदय से प्राप्त शरोर के आकार प्रमाण को धारण करता है व्यवहारनय की अपेक्षा से ।
प्र०- उदाहरण देकर समझाइये |
उ०- जिस प्रकार एक दीपक को यदि छोटे कमरे में रखा जाय तो वह उसे प्रकाशित करेगा और यदि बहो दोपक किसो बड़े कमरे में रख दिया जाय तो वह उसे प्रकाशित करेगा । ठोक उसी प्रकार एक जीव जब चींटी का जन्म लेता है तो वह उसके शरीर में समा जाता है और जब वहो जीव हाथो का जन्म लेता है तो उसके शरीर में समा जाता है। स्पष्ट है कि जीव छोटे शरीर में पहुँचने पर उसके बराबर और बड़े शरीर में पहुंचने पर उस बड़े शरीर के बराबर हो जाता है। इसी दृष्टि से जोब को व्यवहारनय से अणुगुरु-देह प्रमाण वाला बतलाया है। समुद्घात में ऐसा नहीं होता है ।
प्र० - समुद्घात के समय ऐसा क्यों नहीं होता ?
स- कारण कि समुद्घात के समय जीव पशरीर के बाहर फैल जाता है।
प्र० - जीव असंख्यात प्रदेशो किस नय की अपेक्षा से है ? उ०- जोव निश्चयाय की अपेक्षा से असंख्यात प्रदेशी है । प्र० - समुधात किसे कहते हैं ?
उ०- मूल शरीर से सम्बन्ध छोड़े बिना आत्मप्रदेशों का तेजस व कार्मण शरीर के साथ बाहर फैल जाना समुद्घात कहलाता है । ० - समुद्षात कितने प्रकार का होता है ?
उ०- समुद्घात सात प्रकार का होता है - १ - वेदना समुद्घात, २ - कषायसमुद्घात, १ - विक्रिया - समुद्घात, ४- मारणांतिक समुद्घात, ५ - रौजस समुद्घात, ६- आहारक समुद्घात और ७ केवली समुद्घात जीव की संसारो अवस्था
पुढबिजलतेउबाऊ वणप्फदो विवि हथाव रेडंबी । दिगतिगचकुपंचक्ला तसजीवा होंति संज्ञावी ॥११॥
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द्रय संग्रह
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मन्वयार्थ
( पुढविजलते वाळवण दो) पृथ्वीका मिक, जलकाधिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक ( विविथावरेदी ) अनेक प्रकार के स्थावर एकेन्द्रिय जोव हैं। ( संखादी ) शंख आदि । (विगतिगचदुपंचषखा ) दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव । ( तसजीवा ) त्रस जोब | ( होंति ) होते हैं ।
वर्ष
पृथ्वी कायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक-ये स्थावर जीव हैं तथा शंखादि दो, तीन, चार और पांच इन्द्रिय जीवन कहलाते हैं।
प्र० - संसारी जीवों के कितने भेद है ?
० - संसारी जीवों के २ भेद हैं- १-स्थावर २- त्रस ।
प्र० स्वावर कौन जोव है ?
उ०- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक जीव स्थावर हैं ।
प्र०-जस जोव कौन से हैं ?
उ०- दो इन्द्रिय से पाँच इन्द्रिय तक के जीव स है।
प्र०-शंख, चींटी, मक्खी, मनुष्य आदि कितने इन्द्रिय जीव है ?
उ०- शंख-दो इन्द्रिय जीव घोंटो - तीन इन्द्रिय जोव । मक्खीचार इन्दिय जीव । मनुष्य, नारकी, देव, हाथो, घोड़ा आदि पंचेन्द्रिय जीव हैं ।
प्र० - जीव स्थावर या त्रस जीवों में किस कर्म के उदय से पैदा: होता है ?
३०-स्थावर नाम कर्म के उदय से जोव स्थावर जीवों में उत्पन्न होता है तथा जस नाम कर्म के उदय से त्रस जीवों में उत्पन्न होता है। चौवह जीवसमास
समजा अमा गेया पंचिदिय जिम्ममा परे सब्बे । बावरसुहमेहंदी सब्बे पज्जत इबराय ॥१२॥
ग्रन्ययार्थ
(पाँचदिय) पंचेन्द्रिय जोव । ( समणा ) संज्ञो (ममणा )
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द्रव्य संग्रह असंशो। ( णेया) जानना चाहिए। ( परे ) शेष । ( सटवे ) सब । (णिम्मणा ) असंज्ञो। (णेया । जानना चाहिए ! ( एईदो ) एकेन्द्रिय जीव । ( बादर सुहमा ) बादर और सूक्ष्म होते हैं। ( सब्वे) ये सब जीव । ( पज्जत्त ) पर्याप्तक । ( इदरा य ) और अपर्याप्तक होते हैं।
अर्थ
पञ्चेन्द्रिय जीव संजो और असंज्ञो के भेद से दो प्रकार के होते हैं। शेष एकेन्द्रिय विकलत्रय असंशो होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में कुछ बादर और कुछ सूक्ष्म होते हैं । और सभी जीव पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो प्रकार के होते हैं।
प्र०-मनसहित एवं मनरहित जीव कौन से हैं?
उ-पञ्चेन्द्रिय जीव मनरहित भी होते हैं। मनसाहत मी होत हैं किन्तु एकेन्द्रिय और विकलत्रय जीव मनरहित हो होते हैं।
प्रक-बादर जीव किन्हें कहते हैं ?
उ०-जो स्वयं भी दूसरों से रुकते हैं और दूसरों को भी रोकते हैं अथवा जो आपस में टकरा सके उनको बादर जोय कहते हैं।
प्र-सूक्ष्म जीव किन्हें कहते हैं ?
उ-जो दूसरों को नहीं रोकते हैं तथा दूसरों से रुकते भी नहीं हैं अथवा जो किसी से टकरा न सकें उन्हें सूक्ष्म जीव कहते हैं।
प्र०-पर्याप्तक जीव किन्हें कहते हैं ?
उ.-जिन जीवों की आहारादि पर्याप्तियां पूर्ण हो जाये उन्हें पर्याप्तक जीव कहते हैं।
प्र-अपर्याप्तक जीव किन्हें कहते हैं ?
उ०-जिन जीवों की आहार आदि पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं उन्हें अपर्याप्तक जोव कहते हैं।
प्रा–पर्याप्त किसे कहते हैं?
३०-गृहोत आहारवर्गणा को खल-रस भाग आदि रूप परिणमाने को जीव की शक्ति के पूर्ण हो जाने को पर्याप्ति कहते हैं ।
प्र-पर्याप्तियों के भेद बताइये।
3०-पर्याप्ति के ६ भेद हैं-१-आहार, २-शरीर, ३-इन्द्रिय ४-बासोच्छ्वास, ५-भाषा और ६-मन ।
.
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द्रव्य संग्रह प्र०-पर्याप्तियों के स्वामी बताइये । ( किस जीव के कितनी पर्याप्तियां
उ.-एकेन्द्रिय जीव के ४ पर्याप्तियां-आहार, शरोर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास होती हैं। विकलत्रय जीव व असंझी पंचेन्द्रिय जोब के मन पर्याप्ति को छोड़कर पांच होती हैं तथा सैनी पञ्चेन्द्रिय जीव के छहों पर्याप्तियां होती हैं।
प्रम-जीवसमास का लक्षण बताइये।
उ-जिनके द्वारा अनेक जीव तथा उनकी अनेक प्रकार को जाति जादी का सपना को अनेक पायी या संग्रह करने वाले होने से जोवसमास कहते हैं।
प्रा-चौदह जीवसमास बताइये । ३०-एकेन्द्रिय सूम, बादर -२
दो इन्द्रिय तीन इन्द्रिय चार इन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय असैनी = १
पञ्चेन्द्रिय सैनी -१-७ ये सात प्रकार के जीव पर्याप्त भी होते हैं। अपर्याप्त भी होते हैं अतः ७४२-१४ जीवसमास ।
प्र-सिब भगवान के कितने जीवसमास हैं ? २०-सिब भगवान जीवसमास से रहित हैं।
४
-
मार्गणा व गुणस्थान अपेक्षा जीव के भेव मगणगुणठाणेहि य घडवसाहिं हवंति तह असुबगया । विष्णेया संसारी , सम्बे सुबा हासुबणया ॥१३॥ मम्बयाई
(तह ) तथा । (.संसारी) सभी संसारी जोव। (मसुद्धणया ) व्यवहारनय से । (पउदहि ) चौदह । ( मग्गणगुणठाkि) मार्गणा और गुणस्थान अपेक्षा चौदह प्रकार के । ( हवंति) होते हैं । (मह) और। (सुद्धगया ) शुनिश्चयनय की दृष्टि से। ( सम्वे ) सभी जोन । (6) नियम से । (सुद्धा ) शुद्ध । ( विष्णेया) जानने चाहिए ।
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द्रव्य संग्रह
१९ संसारी जोव व्यवहारनय से चौदह मार्गणा और चौदह गुणस्थानों को अपेक्षा चौदह चौदह प्रकार के होते हैं किन्तु शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से सभी संपारो जीव शुद्ध हैं। उनमें कोई भेद नहीं है।
प्र०-जोव चौदह प्रकार के किस अपेक्षा से हैं ?
उ०-व्यवहारनय मे जोव चौदह मार्गणा, चौदह गुणस्थान वाले होने से चौदह प्रकार के होते हैं।
प्र०-जीव शुद्ध किस अपेक्षा से है ? उ०-शुद्ध निश्चयनय को दृष्टि से । प्र-जोव के चौदह भेद मार्गणा अपेक्षा बताइये । (चौदह मार्गणाएँ)
उ.-मार्गणाएँ चौदह होती है अतः उस सम्बन्ध से जीव के भी चौवह भेद हो गये--:-गति मार्गणा, २-इन्द्रिय मार्गणा, ३-कायमार्गणा, ४-योगमार्गणा, ५-वेदमार्गणा,६-कषायमार्गणा,ज्ञानमार्गणा, ८-संयममागंणा, ५-दर्शनमार्गणा, १०-लेश्यामार्गणा, ११-भव्यत्वमार्गणा, १२-सम्यक्त्व मार्गणा, १३-संझिस्व मार्गणा और १४-आहार मार्गणा ।
प्र-मार्गणा किसे करते हैं ?
ज०-जिनधर्म विशेषों से जोवों का अन्वेषण किया जाय उन्हें मार्गणा . कहते हैं।
प्र०-गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उल-मोह और योग के निमित्त से होने वाले आत्मा के गुणों ( भावों को तारतम्यरूप अवस्थाविशेष ) को गुणस्थान कहते हैं।
प्र.-गुणस्थान कितने होते हैं ?
उ०-चौदह गुणस्थान होते हैं-१-मिथ्यात्व, २-सासादन, ३-मित्र, ४-अविरत, ५-देशविरत, ६-प्रमत्तविरत, ७-अप्रमत्तविरत, ८-अपूर्वकरण, २-अनिवृत्तिकरण, १०-सूक्ष्मसाम्पराय, ११-उपशान्तमोह, १२-क्षीणमोहा १३-सयोगकेवली, १४-अयोगकेवली ।
प्र-शुद्धनय से संसारी जीव के कितने गुणस्पांन और मार्गणा होतो हैं तथा व्यवहारनय से कितने ?
उ.-शुद्ध निश्चयनय से संसारो जोब के गुणस्थान भी नहीं और मार्गणा मी नहीं होती हैं।
प्र-सिद्ध भगवान के गुणस्थान और मार्गणाएँ बताइये।
उम्-सिद्ध भगवान गुणस्थान और मार्गणाओं से रहित-गुणस्थानातीत व मार्गणातीत है।
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२०
द्रव्य संग्रह
जीव को सिद्धत्व और ऊर्ध्वगमनत्व अवस्था गिक्कम्मा अटुगुणा, किंणा चरमदेहदो सिद्धा । लोयग्गहिदा शिवछा उप्पादव एहि संजुत्ता ॥१४॥
1
अन्वयार्थ
( शिवकम्मा ) ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित ( अट्टगुणा ) सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से सहित । ( चरमदेहदो ) अन्तिम शरीर से । ( किंचुणा ) प्रमाण में कुछ कम । ( णिच्चा ) नित्य । ( उप्पादव एहि ) उत्पाद और व्यय से ( संजुत्ता) संयुक्त । ( लोयग्गठिदा ) लोक के. अग्रभाग में स्थित । (सिद्धा) सिद्ध इति है ।
1
आठ कर्मों से रहित, बाठ गुणों से सहित प्रमाण में अन्तिम शरीर से कुछ कम उत्पाद, व्यय तथा श्रौष्य युक्त, लोक के अग्रभाग में अवस्थित होने वाले जोव सिद्ध कहलाते हैं।
प्र०-आठ कर्म कौन से हैं ?
० - १ - ज्ञानावरण, २- दर्शनावरण, ३- वेदनीय, ४- मोहनीय, ५-आयु, ६ - नाम, ७-गोत्र और ८-अन्तराय ।
प्र०-आठ गुण कौन से हैं ?
उ०- १ - अनन्तज्ञान, २- अनन्तदर्शन, ३- अनन्तसुख, ४- अनन्तवोर्य, ५-अव्याबाध, ६–अवगाहनत्व, ७–सूक्ष्मत्व और ८ - अगुरुलघुत्व - ये सिद्धों के आठ गुण हैं।
प्र० - किस कर्म के नाश से कौन-सा गुण प्रकट होता है ?
श० - ज्ञानावरण कर्म के नाश से अनन्तज्ञान ।
दर्शनावरण कर्म के नाश से अनन्तदर्शन । मोहनीय कर्म के नाश से अनन्त सुख । अन्तराय कर्म के नाश से अनन्तवीर्य । वेदनीय कर्म के नाश से अव्यावाच । आयु कर्म के नाश से अवगाहनस्य ।
नाम कर्म के नाश से सूक्ष्मत्व ।
और गोत्र कर्म के नाश होने से अगुरुलघुस्न गुण प्रकट होता है।
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द्रव्य संग्रह प्र-जैसे उपयोगमत्व आदि सभी जीवों में पाया जाता है क्या उसो 'प्रकार सिद्धत्व और ऊर्ध्वगमन भो सभी जीवों में पाया जाता है ?
उ-उपयोगमत्व आदि सभी जीवों का स्वभाव है परन्तु ऊर्ध्वगमन एवं सिद्धस्य जीव का स्वभाव होने पर भी ये व्यक्ति अपेक्षा नहीं शक्ति अपेक्षा है। क्योंकि जिन जीवों ने आठ कर्मों का क्षय कर दिया है दे हो सिद्धत्व अवस्था प्राप्त करते हैं। तथा वे ही अवगमन करते हैं, शेष जोर नहीं।
प्र०-उत्पाद किसे कहते हैं ? उ०-द्रव्य में नवीन पर्याय की उत्पत्ति को उत्पाद कहते हैं । प्र-व्यय किसे कहते हैं ? २०-द्रव्य में पूर्व पर्याय के नाश को व्यय कहते हैं। प्र०-धौव्य किसे कहते हैं ? ३०-द्रव्य की नित्यता को प्रौव्य कहते हैं । प्र.-बदाहरण से समझाइए।
उ-सिद्धजीवों में-संसारी पर्याय का नाश व्यय है। सिख पर्याय को उत्पत्ति उत्पाद है जीव द्रव्य ध्रौव्य है।
पुद्गल में स्वर्ण कुण्डल है। हमें चूड़ो चाहिए-स्वणं कुण्डल का माश व्यय है । चूड़ी पर्याय को उत्पत्ति उत्पाद है एवं स्वर्ण ध्रौव्य है ।
॥ इति जोवाधिकार समाप्त ॥
अजीवाऽधिकारः अजीव द्रव्यों के नाम और उनके मूर्तिक अमूर्तिकपने का
_ वर्णन अजोयो पुण ओ.पागलपम्मो अचम्म मायासं ।
कालो पुग्गलमुसो स्वादिगुणो अमुत्ति सेसा ॥१५॥ मन्वयार्थ
(पुण ) ओर। ( पुग्गल ) पुदगल । ( धम्मो) धर्म । (अधम्म)
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द्रव्य संग्रह अधर्म । ( आयासं ) आकाश । ( कालो ) काल । ( अज्जीवो) अजीव । {णेओ) जानना चाहिए। ( स्वादिगुणो) रूप आदि गुणयुक्त । ( पुग्गल ) पुद्गल । ( मुत्तो) मूर्तिक है । ( सेसा दु) और शेष । (अमुत्ति ) अमूर्तिक हैं। अर्थ___ अजीव द्रव्य-पुदाल, 'प्रर्ष, आ काश मोर का ध्या-मा पांच भेदरूप जानना चाहिए। उनमें रूपादि गुणयुक्त पुद्गल मूर्तिक है तथा धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश और काल अमूर्तिक हैं।
प्र.-मूर्तिक किसे कहते हैं ?
उ.-जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श-ये गुण पाये जायें उसे मूर्तिक कहते हैं।
प्र०-अमूर्तिक किसे कहते हैं ?
३०-जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श-ये गुण नहीं पाये जायें उसे अमूर्तिक कहते हैं।
प्र०-जिसे देख सके, छू सकें, संघ सकें और चख सके वह मूर्तिक है या अमूर्तिक ?
उ०-वह मूर्तिक कहा जायेगा।
प्र०-परमाणु को हम देख नहीं सकते, छू नहीं सकते, संघ नहीं सकते, चला नहीं सकते, उसे मूर्तिक कैसे कहा जा सकता है ?
उ०-अनेक परमाणु मिलकर जो स्कन्ध बनते हैं उन्हें हम देख सकते है, छू सकते हैं, सूंघ सकते हैं तथा चख भी सकते हैं। यदि परमाणुओं में रूपादि नहीं होते तो स्कन्ध में भी वे कहाँ से आते ?
प्र०-परमाणु में रूपादि बीस गुणों में से कितने गुण पाये जाते हैं ?
उ०-परमाणु में एक रस, एक गन्ध, एक वर्ण और दो स्पर्श पाये जाते हैं।
प्र०-अजीव द्रव्य कौन-कौन से हैं ?
उ०-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये पाँच द्रव्य अजीव द्रव्य हैं।
प्र०-मूर्तिक द्रव्य कितने हैं ? ममूर्तिक कितने ?
३०-जीव धर्म, अधर्म, आकापा और काल-ये अमूर्तिक है और पुदगल मूर्तिक है।
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द्रव्य संग्रह
२३ पुदगल द्रव्य की पर्याय सहो बंधो सुहमो थूलो संहाणभेवतमछाया ।
उज्जोदावषसहिया, पुग्गलबब्बस्स पज्जाया ॥१६॥ अन्वयार्थ---
( सद्दो) शब्द । (बंधो) बन्ध । (सुहुमो) सूक्ष्म । (थूलो ) स्थूल । ( संठाणभेदतमछाया ) आकार, टुकड़े, अन्धकार और छाया। ( उज्जोक्षादवसहिया ) उग्रोत और आतप सहित । ( पुग्गलदण्वस्स) पुद्गलद्रव्य को। ( पजाया ) पर्याय { । मर्ष
शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, आकार, टुकड़े, अन्धकार, छाया, उग्रोत और बातप-ये दस पुदगल की पर्यायें हैं।
प्र-शब्द के भेद बताइये? सक-शब्द के दो भेद है-१-भाषारूप और २-अभाशाल्प। प्र०-भाषात्मक शब्द के भेद कौन से हैं ?
३०-भाषात्मक शब्द के दो भेद हैं-१-सासर भाषा, २-अनार भाषा ।
प्र० साक्षर शब्द किन्हें कहते हैं?
उ-जिसमें शास्त्र रचे जाते हैं और जिससे आर्य और म्लेच्छों का व्यवहार चलता है ऐसे संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी आदि शब्द सब साक्षर दाम्य हैं।
प्र०-अनक्षर शब्द किन्हें कहते हैं?
०.जिससे उनके सातिशय ज्ञान के स्वरूप का पता लगता है ऐसे दो इन्द्रिय आदि जीवों के शब्द अमक्षरात्मक शब्द हैं । ( साक्षर व अनार दोनों शब्द प्रायोगिक हैं)
प्र०-अभाषात्मक शब्द के भेद बताइये। च-अभाषात्मक शब्द दो प्रकार के हैं--१-प्रायोगिक, स्पेससिक । प्र०-प्रायोगिक शब्द कौन से हैं।
१०-तस्, वितस, धन और सौषिर के भेद से प्रायोगिक शब्द पार प्रकार के हैं।
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द्रव्य संग्रह
प्र०-तत प्रायोगिक शब्द कौन से हैं ?
उ-चमड़े से मढ़े हुए, पुष्कर, भेरो और दुर्दुर से जो शब्द उत्पन्न होता है वह तत्त शब्द है।
प्र-वित्तत शब्द कौन-सा है ? उतांत वाले वीणा और सुघोष आदि से जो शब्द उत्पन्न होता है वह वितत शब्द है।
प्र०-घन शब्द कौन-सा है ?
उ.-ताल, घण्टा और लालन आदि के ताड़न से जो शब्द उत्पन्न होता है वह घन शब्द है।
प्र०-सौषिर शब्द कौन-से हैं ?
उ.-बांसुरो और हॉल आदि के फंकने से जो शब्द उत्पन्न होता है वह सौषिर है।
प्र०-चैनसिक शब्द कौन से हैं ?
उ.-मेध आदि के निमित्त से जो शन्द उत्पन्न होते हैं वे वैनसिक शब्द हैं।
प्रा-बन्ध पर्याय के भेद बताइये।
उ.-बन्ध पुद्गल पर्याय के २ भेद हैं-१- बैनसिक और २-प्रायोगिक ।
प्र०-वैनसिक बन्ध किसे कहते हैं ?
उ० जिसमें पुरुष का प्रयोग अपेक्षित नहीं है वह वैनसिक बंध है। जैसे—स्निग्ध और रूक्ष गुण के निमित्त से होने वाला बिजली, उल्का, मेघ, अग्नि और इन्द्रधनुष आदि का विषयभूत बन्ध वैनसिक बन्ध है।
प्र०-प्रायोगिक बन्ध किसे कहते हैं ? इसके भेद बताइये ।
उ०-जो बंध पुरुष के प्रयोग के निमित्त से होता है वह प्रायोगिक बन्ध है। इसके दो भेद है- अजीव सम्बन्धी, २-जीवाजीव सम्बन्धी । जैसे-लाख और लकड़ी आदि का अजीव सम्बन्धी प्रायोगिक बन्ध है तथा कर्म और नोकर्म का जीव के साथ जो बन्ध होता है वह जीवाजीव सम्बन्धी प्रायोगिक बन्ध है।
प्र--सूक्ष्मता के भेद बताइये ।
ज०-सूक्ष्मता दो प्रकार की होती है-१-अन्त्य और २-आपेक्षिक । परमाणुओं में अन्य सूक्ष्मता है ( परमाणु से छोटा कोई पदार्थ नहीं है )
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.
द्रव्य संग्रह और बेल, आंवला और बेर में आपेक्षिक सूक्ष्मस्व है। बेल से आंवला . छोटा है तथा आंवला से बेर छोटा है । . स
प्र०-स्थौल्य किसे कहते हैं ? उसके भेद बताइये।
उ-स्थलता को स्थौल्य कहते हैं। यह भी दो प्रकार का है१-अन्त्य और २-आपेक्षिक । महास्कन्ध अन्त्य स्थौल्य है ( महास्कन्ध से बड़ा कोई पदार्थ नहीं है)। बेर, आंवला और बेल आदि में आपेक्षिक स्थौल्य है। बेर से आँवला बड़ा है तथा आँवला से बेल बड़ा है ।। 'प्र-संस्थान किसे कहते हैं ?
7०-आकृति को संस्थान कहते हैं। त्रिकोण, चतुष्कोण आदि आकार संस्थान हैं।
प्र०-भेद किसे कहते हैं ? इसके भेद बताओ।
३०-वस्तु को अलग-अलग वर्णादि करना भेद है। भेद के छः भेद है-१-उस्कर, २-चूर्ण, ३-खण्ड, ४-चूर्णिका, ५-प्रतर और ६-अणुचटन।
प्र०-उत्कर किसे कहते हैं ?
उ०-करोंत आदि से जो लकड़ो को चीरा जाता है वह उस्कर नाम का भेद है।
मा-चूर्ण भेद किसे कहते हैं ?
उ० - गेहूँ आदि का जो सत्तू और कनक ( दलिया) आदि बनता है वह पूर्ण भेद है।
प्रा-खण्ड भेद बताइये।
उ.-घट आदि के जो कपाल और शर्करा आदि टुकड़े होते हैं यह खण्ड भेद है।
प्रा-चूणिका भेद बताइये ।
३०-उड़द और मूंग आदि का जो खण्ड किया जाता है वह चणिका भेद है। प्रक-प्रतर भेद बताइये।
.-मेघ के जो अलग-अलग पटल आदि होते हैं वह प्रतर नाम का भेद है।
प्र०-अणुचटन भेद बताइये?
उ०-तपाये हुए लोहे के गोले आदि को धन आदि से पोटने पर जो कुलंगे निकलते हैं वह अणुचटन नाम का भेद है ।
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द्रव्य संग्रह प्र-तम किसे कहते हैं?
उ०-जिससे दृष्टि में प्रतिबंध होता है और जो प्रकाश का विरोधी है वह तम कहलाता है।
प्रा-छाया किसे कहते हैं ?
उ.-प्रकाश को रोकने वाले पदार्थों के निमित्त से जो पैदा होती है वह छाया कहलाती है।
प्र०-आतप किसे कहते हैं ? उल-जो सूर्य के निमित्त से उष्ण प्रकाश होता है उसे आतप कहते.
-उद्योत किसे कहते हैं? जगमणि दौर जानवानि पिपिसेको मान होता है उसे उद्योत कहते हैं । (ऊपर कहे ये सब शब्दादिक पुदगल द्रव्य के विकारपर्याय हैं)।
धर्मद्रव्य का स्वरूप गाहपरिगयाण धम्मो, पुग्गल जीवाण गमणसहयारी । सोयं जह मच्छाणं अच्छता व सो जेई ॥१७॥ बन्चया
(जह ) जैसे । ( गइपरिणयाण ) चलते हुए। ( मच्छाणं ) मछलियों को ( गमणसहयारो ) चलने में सहायक । ( तोयं ) जल होता है । (सह) उसी प्रकार । ( गइपरिणयाण ) चलते हुए। ( पुग्गलजीवाण ) जीव और पुद्गल को ( गहणसहयारी) चलने में सहायक । (धम्मो) धर्मद्रव्य होता है। ( सो ) वह धर्मद्रव्य । (अच्छता ) न चलते हुए ओव और पुद्गल को ( चलने में सहायक ) (ब) नहीं। (गेई ) चलाता है।
जैसे जल चलती हुई मछलियों को चलने में सहायक होता है उसो प्रकार धर्मद्रव्य चलते जीव और पुदगल को चलने में सहकारी होता है। नहीं चलते हुए को नहीं।
प्र-निमित कितने प्रकार के होते हैं। 7०-दो प्रकार के-१-प्रेरक निमित्त, २-उवासोन निर्मित।
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द्रव्य संग्रह
प्र० - धर्मद्रव्य जोव और पुद्गल के लिए कौन-सा निमित्त है ? उ०- धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल में गमन में सहकारी उदासीन निमित्त है क्योंकि यह जबरन किसी को चलाता नहीं। हाँ कोई चलता है तो सहायक होता है ।
प्र० - धर्मद्रव्य कहाँ पाया जाता है ?
उ०- सम्पूर्ण लोकाकाश में धर्म द्रव्य पाया जाता है। धर्म द्रव्य कोसहायता बिना जोब पुद्गल का चलना-फिरना, एक स्थान से दूसरे स्थानजाना आदि सारी किंवाऐं नहीं बन सकती हैं।
अधर्मद्रव्य का स्वरूप
ठाणजुवाण अधम्मो, पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी । छाया जह पहिराणं गच्छंता शेव सो घरई ॥ १८ ॥ मम्वयार्थ...
1
२७.
(जह ) जैसे। (छाया) छाया । ( ठाणजुदाण ) ठहरते हुए - ( पहियाणं ) राहगीरों को ( ठाणसहवारी) ठहरने में सहायक होतो है । (तह) उसी प्रकार ( पुद्गलजोवाण ) पुद्गल और [ जोवों को ठहरने में सहायक ] ( अधम्मो ) अधमं द्रव्य होता है। ( सो) वह अधमें-द्रव्य है । ( गच्छंता ) चलते हुए पुद्गल और जोड़ों को । ( णेव ) नहीं । ( धरई ) ठहराता है ।
अर्थ
जैसे छाया ठहरते हुए राहगीरों को ठहरने में सहायता पहुँचाता हैं, उसी प्रकार अधर्म द्रव्य ठहरे हुए जोव पुद्गल को ठहरने में सहायता पहुँचाता है। वह अधर्म द्रव्य चलते हुए जोय और पुद्गल को ठहाता नहीं है ।
प्र० - अधमं द्रव्य जोव पुद्गलों के ठहराने में कौन-सा निमित्त है ? उ०- उदासोन निमित्त है क्योंकि जैसे छाया किसी को जबरन नहो
ठहराती, उसी तरह अधर्म द्रव्य भी किसो को जबरन नहीं ठहराता ।
प्र-धमं द्रव्य और अधर्म द्रव्य दोनों कहां रहते हैं ? उ०- समस्त लोकाकाश में रहते हैं ।
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प्रव्य संग्रह प्र-दोनों में समान शक्ति है या न्यूनाधिक ? च-दोनों में समान शक्ति है।
प्रक-यदि दोनों में समान शक्ति है तो संसार में न कोई चल सकता है और न कोई ठहर सकता है, क्योंकि जिस समय धर्म द्रव्य चलने में किसी को सहायक होगा उसी समय अधर्म द्रव्य ठहरने में सहायक होगा।
-धर्म और अषम द्रव्य उदासीन कारण हैं यदि प्रेरक कारण होते सो ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती थी । धर्म द्रव्य अवरन किसी को चलने को प्रेरणा नहीं करता तथा अधर्म द्रव्य भो अबरन किसी को ठहरने को प्रेरणा नहीं करता।
. आकावा द्रव्य का स्वरूप व भेव अबगासदाणमोग्गं जीवावीणं वियाण आयासं ।
जेण्हं लोगागास, अस्लोगागासमिति दुषिहं ॥१९॥ अम्बयार्थ
( जीवादीण ) जीवादि समस्त द्रव्यों को। (अवगासदाणजोगं) अवकाश देने योग्य । ( जैण्ह ) जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा गया । (आयासं) आकाश ! (वियाणं ) जानो। ( लोगागासं) लोकाकाश । ( अल्लोगा। गास ) अलोकाकाश । ( यदि ) इस प्रकार । (दुविह) आकाश यो प्रकार का है। वर्ष
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल इन द्रव्यों को जो अवकाश देने योग्य है उसे आकाश द्रव्य जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। उस आकाश के दो भेद हैं-१-लोकाफाश, २-अलोकाकाशन
प्र०-आकाश द्रव्य किसे कहते हैं ?
२०-जीवादि पांच द्रव्यों को रहने के लिए जो अबकाश स्थान थे, उसे आकाश द्रव्य कहते हैं।
प्र-आकाश द्रव्य का कार्य बताइये। उल-अवकाश देना आकाश द्रष्य का कार्य है । प्र०-आकाश द्रव्य जोवादि द्रव्यों के अवगाहन में कौन-सा निमित है? उ०-उदासीन निमित्त है।
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द्रव्य संग्रह
लोकाकाश और अलोकाकापा का स्वरूप
धम्मा-धम्मा कालो, पुग्गलजीया य संसि आवविये । आयासे सो लोगो, तत्तो परदो अलोगुत्तो ॥२०॥
2
अम्बयार्थ—
( जावदिये ) जितने । ( आयासे ) आकाश में। ( धम्माधम्मा ) धर्म और अधर्म । (कालो) काल (य) और ( पुग्गलजीया ) पुद्गल तथा जोब द्रव्य । ( संति ) हैं ( सो ) वह । (लोगो) लोकाकाश है । ( तत्तो परदो) उससे बाहर । ( अलोगुत्ती ) अलोकाकाश कहा गया है ।
अर्थ
जितने आकाश में जीव, पुद्गल, धर्म, अधमं, आकाश और काल हैं वह लोकाकाश व उससे बाहर अलोकाकाश कहा गया है।
प्र० लोक किसे कहते हैं ?
४०-जीब और अजीव द्रव्य जिसने आकाश में पाये जाये उतने आकाश को लोक कहते हैं ।
प्र०-अलोक किसे कहते हैं ।
उ०- लोक के बाहर केवल आकाश ही आकाश है । जहाँ अन्य द्रव्यों का निवास नहीं है, इस खाली पड़े हुए आकाश को अलोक कहते हैं ।
प्र० - लोकाकाश और श्लोकाकाश किन्हें कहते हैं ?
उ०- लोक के आकाश को लोकाकाश और मलोक के प्रकाश को अलोकाकाश कहते हैं ।
प्र-जब सभी द्रव्य एक ही लोकाकान में रहते हैं तो सब एक क्यों नहीं हो जाते ?
उ०- सभी अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते, अतः एक कैसे हो सकते हैं ?
प्र० - लोकाकाश बढ़ा है या अलोकाकाश ?
उ०- अलोकाकाश बड़ा है । अलोकाकाश का अनन्त भाग लोकाकाश है ।
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द्रव्य संग्रह प्र-इतने छोटे लोकाकाश में अनन्त जोव, जीवों से भी अनन्तगुणे पुदगल और असंख्यात काल परमाणु कैसे समा सकते हैं?
ज-लोकाकाश अलोकाकाश से छोटा होने पर भी उसमें अवगाहन शक्ति बहुत बड़ी है। इसीलिए उसमें सभी द्रव्य समाये हुए हैं।
उदाहरण के लिए-जिस कमरे में एक दीपक का प्रकाश हो रहा है. उसी में अन्य सेकड़ों दोपक रख दिये जायें तो उनका प्रकाश भी पहले वाले दोपक में समा जाता है । आकाश एक अमूर्तिक द्रव्य है। उसमें अवगाहम करने वाले सभी दव्य यदि मूर्तिक और स्थूल होते तथा आकाश स्वयं भी मूर्तिक होता तो लोकाकाश से इतने द्रव्यों का अवगाहन नहीं होता । पर लोकाकाश में निवास करने वाले अनन्त जीव अमूर्तिक हैं, पुद्गलों में भी कुछ सूक्ष्म हैं और कुछ बादर हैं, कालाणु, धर्म, अधर्म द्रध्य अमूर्तिक हो हैं अतः आकाश में सभी द्रव्य समाये हुए है, इसमें कोई विरोध नहीं आता है।
कालद्रव्य का स्वरूप व उसके दो भेव वश्वपरिवरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो।
परिणामादीलसो, बट्टणलक्सो म परमट्ठो ॥२१॥ अन्वयार्थ
( जो) जो । ( बब्बपरिवट्टल्यो ) जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों के परिवर्तन में कारण है। { सो} वह । ( कालो) कालद्रव्य । ( हवेई ) है 1 (परिणामादीलक्खो) परिणाम आदि जिसका लक्षण है। ( वयहारो) वह व्यवहार काल है । ( य ) और । ( पट्टणलवलो) वर्सना लक्षण वाला । (परमठो) परमार्थ अर्थात् निश्चय काल है। मर्च
'समी द्रव्यों में परिवर्तन होता रहता है । इस परिवर्तन में जो कारण है वह कालद्रव्य कहलाता है। काल द्रव्य के दो भेद-१-व्यवहार काल, २-निश्चय काल | जिसका लक्षण परिणाम आदि है वह व्यवहार-काल है और जिसका लक्षण वर्तना है वह निश्चयकाल है।
प्र-कालद्रव्य अन्य द्रव्यों के परिणमन में कौन-सा निमित्त है? उ.-उदासीन निमित्त है।
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द्रव्य संग्रह
प्र० - वर्तना किसे कहते हैं ?
उ०- समस्त व्रणों में सूक्ष्म परिवर्तन के निमित्त को वर्तना कहते हैं । जैसे कपड़ा, मकान वस्त्रादि में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है, सूचन परिवर्तन है। कपड़ा, मकानादि जीर्ण हो जाते हैं। मनुष्य स्त्री-पुरुष पचास वर्ष, पच्चीस वर्ष पुराना हो गया, यह काल द्रव्य का हो प्रभाव है ।
प्र० परिणाम किसे कहते हैं ?
उ०- समस्य द्रव्यों के स्थूल परिवर्तन के निमित्त को परिणाम कहते हैं ।
प्र०
-'परिणामादी' यहाँ आदि से क्या लिया गया है ? उ०- परिणाम तथा क्रिया, परत्व और अपरख लिये गये हैं।
३१
निश्चय काल का स्वरूप
लोयायासपदेसे इक्के क्के जे ठिया हु इक्केक्का । रमणानं रासोमिव से कालागू असंलदम्बाणि ॥ २२ ॥ अन्वयार्थ
( इनकेक्के ) एक-एक 1 ( लोयायासपदेसे ) लोकाकाश के प्रदेश पर (जे) जो ( रयणाण ) रत्नों की ( रासीमिव ) राशि अर्थात् ढेरो के - समान ( इक्केक्का ) एक-एक । ( कालाण ) काल द्रव्य के अणु । (ठिया ) स्थित हैं । (ते ) वे ( हु ) निश्चय से । ( असंखदव्त्राणि ) असंख्यात द्रव्य हैं।
अर्थ
लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु रनों की राशि के समान स्थित हैं वे कालाणु असंख्यात हैं ।
प्र० - लोकाकाश में फाल द्रव्य कैसे स्थित है ? क्या वे आपस में चिपकते नहीं हैं ?
० - लोकाकाश असंयप्रदेशी है। एक-एक प्रदेश पर एक-एक - कालाणु रत्नराशि के समान स्थित है। जैसे रत्नों को ढेरो में एक-एक रन दूसरे से मिले तो रहते हैं किन्तु आपस में चिपकते नहीं हैं देते हो लोकाकाश के प्रदेशों पर स्थित कालानु मी आपस में चिपकते नहीं हैं।
"
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द्रव्य संग्रह प्र-कालाणु असंख्यात हैं, इसका प्रमाण क्या है ?
उ०-लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात हैं अतः उन पर स्थित कालाणु मी असंख्यात हैं। छः द्रव्यों का उपसंहार और पाँच अस्तिकायों का वर्णन एवं छम्भेयमिदं , जीवाजीवप्पभेवदो वयं ।
उत्तं कालविजुत्तं , पायब्वा पंच अस्थिकाया दु ॥२३॥ बम्बयार्म
( एवं ) इस प्रकार ! ( जीवाजीवप्पभेददो ) जीव-अजीव के मेद से । (इ) यह। (द ) द्वन्य। ( छन्भेय ) छह प्रकार का। (उत्त) कहा गया है । (दु) और । ( काल विजुत्तं ) कालद्रव्य को छोड़कर शेष । (पंच } पचि । ( अस्थिकाय ) अस्तिकाय । ( णायव्या) जानने चाहिए !
संक्षेप से इस प्रकार जीव-अजोय के भेद से दथ्य छह प्रकार का कहा जाता है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांच द्रव्य अस्सिकाय जानने चाहिए।
द्रव्य ६
१जीव
५ अजीव
पुद्गल
धर्म अधर्म आकाश काल
| | संसारी मुक्त ]
|
। लोकाकाश अलोकाकाश |
निश्चयकाल
व्यवहारकाल
अणु स्कन्ध प्र.-कालद्रव्य को अस्तिकाय क्यों नहीं कहा।
ज-कालद्रव्य के केवल एक ही प्रदेश होता है (कालव्य एकप्रदेषी है ) इसलिए अस्तिकाय नहीं कहा।
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द्रव्य संग्रह
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प्र० - एक पुद्गल परमाणु भी एकप्रदेशी होता है, उसे अस्तिकाय क्यों कहा गया ?
उ०- काला सदा एक प्रदेश वाला ही रहता है किन्तु पुद्गल परमाणु में विशेषता है- वह एक प्रदेश वाला होकर भी स्कन्ध रूप में परिणत होते ही नाना प्रदेश ( संख्यात, असंख्यात, अनन्त ) वाला हो जाता है । कालाणु में बहुप्रदेशीपने की योग्यता ही नहीं है परमाणु में वह योग्यता है इसलिए परमाणु को अस्तिकाय कहा गया है।
प्र० - अणु-अणु सब समान होने पर भी कालाणु में बहुप्रदेशोपने की योग्यता क्यों नहीं है ?
उ०- पुद्गल अणु सभी समान होते हैं पर कालाणु पुद्गल के अणुओं के समान नहीं हो सकते हैं । पुद्गल परमाणु में रूप, रस आदि पाये जाते हैं इसलिए वह मूर्तिक है, स्कन्ध बन जाता है परन्तु काला अमूर्तिक है, स्पर्श, रसादि गुणों से रहित है अतः उसमें बहुप्रदेशीपना बन नहीं पाता ।
अस्तिफाय का लक्षण
संति जयो तेणेये अस्थीस भांति जिनवरा अम्हा । काया इव बहुवेसा तम्हा, काया य अस्थिकाया य ॥२४॥
अत्थयावं—
( जदो ) क्योंकि 1 ( एदे ) ये द्रव्य ( जोवादि ६ ) ( सन्ति ) सदा विद्यमान रहते हैं । ( तेण ) इसलिए। ( जिणवर) जिनेन्द्रदेव | ( अस्थिति ) मस्ति ऐसा । ( भगति ) कहते हैं । (य) और । ( जम्हा ) क्योंकि । ( काया इव } शरीर के समान ( बहुदेसा) बहुप्रवेशी हैं। ( तम्हा ) इसलिए। ( काया) 'काय' ऐसा कहते हैं। (य) और । ( 'अस्थि - काया' ) दोनों मिलने पर 'अस्तिकाय' कहलाते है ।
अस्तिकाय में दो शब्द है- एक अस्ति और दूसरा काय जीव पुदगल, धर्म, अधर्म और आकाश तथा काल ये सदा रहते है इसलिए जिनेन्द्रदेव इनको 'अस्ति कहते हैं तथा ( काल को छोड़कर ) शरीर के समान बहुप्रवेशी है अतः काय ऐसा कहते हैं। दोनों मिलने पर 'अस्तिकाय' कहलाते हैं ।
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द्रव्य संग्रह प्र०-अस्ति किसे कहते हैं ?
उ.-जो सदा विद्यमान रहे, जिसका कभी नाश नहीं हो, वह 'अस्ति' कहलाता है।
प्र.-'आस्त' द्रव्य कितने हैं ? उ.--जीव, पुद्गल, धर्मादि छहों द्रव्य 'अस्ति' रूप हैं । प्र.-'काय' किसे कहते हैं ? 30-जो शरीर के समान बहुप्रदेशो हो उसे काय कहते हैं। प्र०-'काय' द्रव्य कितने हैं ?
उ०-काल द्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य कायवान हैं। काल एकप्रदेशी हो है।
प्र०-अस्तिकाय किसे कहते हैं ? उ०-जो अस्ति रूप भी हो तथा कायवान भी हो, वह अस्तिकाय है। प्र०-अस्तिकाय कितने हैं ? उ०-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश पांच अस्तिकाय हैं। प्र.कालद्रव्य अस्तिकाय क्यों नहीं है ?
उ-काल द्रव्य अस्ति रूप तो है किन्तु कायवान नहीं है अतः अस्तिकाय नहीं है।
व्रव्यों के प्रदेशों की संख्या होति असंखा जीवे धम्माधम्मे अर्णत आपासे ।
मुत्ते तिविह पदेसा कालस्सेगो ण तेण सो काओ ॥२५॥ मन्बयार्थ
(जीवे ) एक जोव में । (धम्माधम्म ) धर्म और अधर्म द्रव्य में । ( असंखा ) असंख्यात । (आयासे ) आकाश में। ( अणंत ) अनन्त । ( मुत्ते ) पुद्गल द्रव्य में । (तिविह) तीन प्रकार के संख्यात, असंख्यात और अनन्त । ( पदेसा ) प्रदेश । ( होति) होते हैं। ( कालस्स) कालद्रम्प का । ( एगो) केवल एक हो प्रदेश होता है। ( तेण) इसोलिए । ( सो) वह काल । (काओ) काय अर्थात् बहुप्रदेशी। (ण) नहीं है ।
एक जीवद्रव्य, धर्मद्रव्य, अषमंद्रव्य-तीनों के असंख्यात प्रदेश हैं।
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द्रव्य संग्रह
आकाश-अनन्त प्रदेशी है, पद्गल-संख्यात, असंख्यात व अनन्त प्रदेशो है तथा काल द्रव्य एक प्रदेशी है।
प्र०-एक जीव के असंख्यात प्रदेशों का प्रमाण क्या है ?
उ-एक जीव के असंख्यात प्रदेश होते हैं क्योंकि वह सम्पूर्ण लोकाकाश को व्याप्त होने को क्षमता रखता है।
अथवा लोकपूरण समुद्घात में जोव के प्रदेश सम्पूर्ण लोकाकाश में फैल आते हैं इससे भी सिद्ध है कि जीव के असंख्यात प्रदेश हैं।
प्र-धर्म और अधर्मद्रव्य के असंख्यात प्रदेश की प्रमाणता दीजिये।
उ.-धर्म और अधर्मद्रव्य भी असंख्यात प्रदेशो हैं, क्योंकि ये दोनों समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं और लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है अतः उसमें व्याप्त होकर रहने को ( जीव की दृष्टि से ) और व्याप्त होकर रहने वाले ( धर्म और अधर्म ) असंख्यात प्रदेशी हैं।
प्र०-आकाश के अनन्त प्रदेशों की प्रमाणता दोजिये।
उ.-आकाश अनन्तप्रदेशी है क्योंकि वह लोक के ऊपर नीचे और क्षगल-बगल में चारों ओर से फैला हुआ ( कहां तक फैला हया है, इसको कोई सोमा नहीं है ) है अतः आकाश की अनन्तप्रदेशोपता सिद्ध है। __ प्रल-मूर्त पुद्गल द्रव्य में संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशो सिद्ध कीजिये।
जल-मूर्त पुद्गल में द्रव्य संख्यात. असंख्यात और अनन्त प्रदेश पाये जाते हैं। इसका कारण है कि पुद्गलों में पुरण और गलन होता रहता है। अतः कभी वे परमाणु रूप से बिखर जाते हैं और कभो आपस में मिलकर स्कन्ध बन जाते हैं। उनमें कोई स्कन्ध संख्यात अणु मिलकर संख्यातप्रदेशी, कोई असंख्यात अणु मिलकर असंख्यातप्रदेशी सपा कोई अनन्त परमाणुओं के मिलने से अनन्तप्रदेशो होते हैं। (जब तक परमाणु अलग-अलग रहते हैं तब तक वे एकप्रदेशी होते हैं)।
प्र-कालद्रव्य कायवान क्यों नहीं है ? उ-कालद्रव्य एक प्रदेशी है अतः वह कायकान नहीं है।
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द्रव्य संग्रह
उपचार से एक पुद्गल परमाणु भी बहुप्रवेशी है एयपवेसो वि अणू णाणाखंधप्पवेसवो होदि । बहूवेसो उथयारा सेण य काओ भांति सम्वष्टु ॥ २६ ॥
अन्वयार्थ
( एयपदेशो वि) एक प्रदेशवाला भी । ( अणू ) पुद्गल परमाणु । ( णाणाखंधप्पदेसदी) नाना स्कन्धों का कारण होने से । ( बहुदेसो } बहुप्रदेश | ( होदि होता है। ( ब ) और ( तेण ) इसलिए | . ( सव्वण्डु ) सर्वज्ञदेव । ( उवयारा ) उपचार से । ( काओ) उसे काय अर्थात् बहुप्रदेशी । ( भांति ) कहते हैं ।
पुद्गल परमाणु एकप्रदेशो होता है, तो भी सर्वज्ञदेव ने उसे उपचार से बहुप्रदेशी कहा है 'क्योंकि वह नाना स्कन्ध रूप होने की योग्यता रखता है ।
प्र०-उपचार किसे कहते हैं ?
उ०- किसी वस्तु को किसी निमित्त स्वभाव से भिन्न रूप कहना उपचार कहलाता है। जैसे— शुद्ध पुद्गल परमाणु स्वभाव से एक प्रदेशो है किन्तु अन्य के ( पुगलों के ) संयोग से यह ( संख्यात, असंख्यात, अनन्त) बहुप्रदेशो कहलाता है ।
प्र०- परमाणु स्कन्ध रूप किस गुण के कारण हो जाता है ? उ०- पुद्गल परमाणु में स्निग्ध-क्ष गुण पाये जाते हैं। स्निग्ध-स्निन्ध या स्निग्ध- रूक्ष या रूक्ष रूक्ष या रूक्ष- स्निग्ध गुण के परमाणु मिलने से परमाणु, स्कन्ध पर्याय को प्राप्त होता है ।
प्रदेश का लक्षण
जाववियं आयासं अविभागीयुग्गलाण उदृद्धं । संखु पबेसं जाणे, सव्वाणुट्टाणदाणरिहं ॥२७॥
1
बम्वयार्थ
( खावदिये ) जितना । ( आया ) आकाश | ( अविभागो पुग्गलाणु
) एक वविभागी अर्थात् जिसका दूसरा विभाग न हो सके ऐसे
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द्रव्य संग्रह
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मुद्गल परमाणु से व्याप्स हो । ( तं ) उसे । (खु) निश्चय से । ( सम्बाद्वाणदानरिह ) समस्त अणुओं को स्थान देने में समर्थ । ( पदेस ) प्रदेश ( जाणे ) जानो ।
अर्थ
( पुद्गल के सबसे छोटे टुकड़े को अणु कहते हैं ) एक पुद्गल परमाणु जितना साकात मेरता है, अणुओं को स्थान देने में समर्थ प्रदेश जानो ।
उसे
प्र० - प्रदेश का लक्षण बताइये ।
उ०- एक पुद्गल परमाणु जितने आकाश क्षेत्र को घेरे, उसे प्रदेश कहते हैं ।
प्र० यदि परमाणु जितने क्षेत्र में रहता है उसे प्रदेश कहते हैं तो वहीं अन्य परमाणु कैसे रहेंगे ?
उ०- आकाश में अवगाहन शक्ति है अत: एक प्रदेश में नाना सूक्ष्म परमाणु भी समा सकते हैं। जैसे-लोहे में अग्नि के प्रदेश समा जाते हैं ।
आकाश के जिस एक प्रदेश पर काल का एक अणु या एक कालरूप समाया है उसी प्रदेश में धर्म-अधर्म द्रव्य के प्रदेश भी समाये हुए हैं। यदि उसी में अन्य सूक्ष्म परमाणु भी आ जाएँ तो वे भो समा सकते हैं।
प्र० - असंख्यात प्रदेशी लोक में अनन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल कैसे रहते हैं ?
ज० - यह आकाश द्रव्य में रहने वाले अवगाहन गुण का प्रभाव है। एक निगोदिया जीव के शरीर में सिद्धराशि से अनन्त गुण समाये हुए हैं। इसी प्रकार असंख्वासप्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त जीव और उनसे भी अनन्त गुणे पुद्गल समाये हुए हैं।
प्र० - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों की संख्या बताइये ।
ज० - जीव - अनन्तानन्त हैं ।
पुद्गल - जीव द्रव्य से अनन्तगुणे पुद्गल हैं ।
धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य - एक -एक हैं।
आकाश - एक अखण्ड द्रव्य है । छः द्रव्यों के निवास को अपेक्षा इसके दो भेद हैं-१ -लोकाकाश, २-अलोकाकाश ।
कालद्रव्य - असंख्यात हैं ।
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द्रव्य संग्रह प्र. आपके पास अभी कितने द्रव्य हैं ? समनाइये ।
ज०-हमारे पास अभी छहों द्रव्य हैं-हम जीव हैं। शरीर पुद्गल द्रव्य है।
हमारे बैठने में अधर्म द्रव्य सहायक है। हमारे हाथ-पैरों को उठाने में धर्मद्रव्य सहायक है। हम आकाश में बैठे हैं। प्रति समय सुक्ष्म परिणमन में निश्चय काल कारण है तथा आज हम बीस वर्ष पुराने हो गये, यह व्यवहार काल बता रहा है।
द्वितीयोऽधिकार आस्रव आदि पदायों के कथन की प्रतिक्षा आसवबन्षणसंवरणि उमरमोक्लो सपुग्णपावा जे ।
जीवाजीवविसेसा, ते वि समासेण पभणामो ॥२८॥ अन्वयार्म
(2) जो। ( आसवबंधणसंवरणिज्जरमोपखा) आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष । ( सपुण्णपावा ) पुण्य-पाप सहित ( सात पदार्थ)। (जीवाजीवविसेसा) जोव और अजीव द्रष्य के विशेष भेद हैं। (तेवि) उन्हें भी । ( समासेण ) संक्षेप से । (पभणामो ) आगे कहते हैं।
जो आस्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष तथा पुण्य-पाप-थे सात पदार्थ हैं वे जोव-अजीव द्रव्य के हो विशेष भेद हैं। उन्हें भी आगे संक्षेप से कहते है।
प्र-मूल द्रव्य कितने हैं ? उ०-दो हैं.-१-जोष, २-अजीव । प्र.-भूल तस्व कितने हैं ? उ०-दो है--१-जीव, २-अजीव । प्र-तत्त्व विशेष रूप से कितने हैं ?
उ०-विशेष रूप से तस्य सात है-१-जीव, २-अजोय, ३-आरव, -न्ध, ५-संवर, ६-निर्जरा और ७-मोक्ष।
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द्रव्य संग्रह
प्र०-तत्त्व किसे कहते हैं ?
उ०- 'तस्य भावः तस्व' जिस वस्तु का जो भाव है वह तत्त्व है ।
प्र० - पदार्थ कितने हैं ?
उ०- सात तत्वों में पुण्य पाप को मिलाने पर - जीव, अजोव, आसव, बॅच, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप - नौ पदार्थ कहलाने लगते हैं ।
1-05
० - नौ पदार्थों का स्वरूप संक्षेप में बताइये |
३९
उ०- १. जीव - जिसमें चेतना पायी जाए वह जीव है ।
२. अजीव जिसमें चेतना नहीं है वह अजीब है।
३. मालव- कर्मों का आना आस्रव है ।
४. ब - कर्मों का आत्मा के साथ दूध पानो को तरह मिल जाना बन्ध है ।
५. संबर-- आत्मा में कर्मों का आना, रुक जाना संवर है ।
६. निर्जरा - कर्मों का एक देश खिर जाना या सड़ जाना निर्जरा है |
७. मोक्ष – कर्मो का सर्वदेश खिर जाता या सड़ जाना मोका है ।
८. पुष्प — जो आत्मा को पवित्र करे वह पुण्य कहलाता है । ९. पाप – जो आत्मा की शुभ से रक्षा करे अर्थात् जो माना का पतन करे वह पाप कहलाता है ।
भावालय व द्रव्यालय के लक्षण
आसवदि जेण कम्मं, परिणामेणप्पणी स विज्ओ । भावासवो जिणुसो, कम्मासवणं परो होदि ।। २९ ।।
अन्वयार्थ
( परिणामेण ) परिणाम
आता है । ( स ) वह ।
( अप्पणी ) आत्मा के । ( जेण ) जिस । से ( कम् ) पुद्गल कर्म । ( आसर्वादि ) ( जिणुतो ) जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा गया। ( भावासवो ) भावाक्षव । ( विष्णेओ ) जानना चाहिए। (कम्मासवन) कर्मों का आना । ( परो ) द्रव्यास्त्र | ( होदि ) होता है ।
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४०
अर्थ
द्रव्य संग्रह
आमा के जिस परिणाम से पुद्गल कर्म आता है वह जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा गया भावास्तव जानना चाहिए तथा कर्मों का आना दिव्यास्त्रव होता है ।
प्र० - आस्रव किये कहते हैं ?
उ०- आत्मा में कर्मों का आना आस्रव कहलाता है ।
० - आस्रव के कितने भेद है ?
उ०- दो भेद हैं- १ - भावाचंव २ द्रव्यासव ।
P
प्र० - मावास्रव किसे कहते हैं ? उ०- मिध्यास्व, अविरति, प्रमाद, परिणामों से कर्मों का आस्रव होता है कहते हैं ।
कषाय और योग रूप जिन उन परिणामों को भावाल
प्र० - द्रव्यासव का स्वरूप बताइये ।
उ-ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मों का आना द्रव्यासव कहलाता है ।
प्र० - परिणाम किसे कहते हैं ?
० आत्मा के शुभाशुभ भाव परिणाम कहलाते हैं ।
.
भाषालय के नाम व भेद मिच्छत्ताविरदिपमादजोगको हावओऽथ विष्णेया ।
पण पण पावसति च कमलो भेदा हु पुव्वस्स ॥ ३०॥
•
अन्वयार्थ...
( पुवस्स) पूर्व के अर्थात् भावानव के मैदाभेद । (मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोहादओ ) मिध्यात्व अविरति, प्रमाद, योग तथा कषाय हैं । (दु) और ( कमसो ) क्रम से वे । ( पण ) पांच ( पण ) पांच ( पणदस ) पन्द्रह | ( सिय) तीन (चदु) चार प्रकार के । (विष्णेया) बानने चाहिए।
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गिय्यास्व, अविरति, प्रमाद, योग एवं कषाय ये भावास्त्रय के भेद कम से पांच पांच, पन्द्रह तीन और चार प्रकार के जानने चाहिए।
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प्रध-संग्रह प्र-संक्षेप से भावास्रव के कितने भेद है?
३०-संक्षेप से भावासब के पांच भेद हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रपाक, योग और कषाय।
प्र-विस्तार से भावानव के भेद बताइये।।
उ०-विस्तार से ३२ भेद है-५ मिष्यात्व, ५ अविरति, १५ प्रमाद, ३ योग, ४ कषाय = ३२।
प्र-मिथ्यात्व किसे कहते हैं ? इसमें पांच भेद कौन से हैं !
3०-तत्व का प्रदान नहीं होना मिथ्यात्व कहलाता है। इसके पांच भेद-एकांत, विपरीत, संशय, वेनयिक एवं अज्ञान। प्र०-एकान्त मिथ्यात्व का स्वरूप बताइये ।।
-अनेक धस्मिक वस्तु में यह इसी प्रकार है, इस प्रकार के एकान्त अभिप्राय को एकान्त मिथ्यात्व कहते हैं। जैसे वस्तु निस्य भी है बीर अनित्य भी है किन्तु कोई ( बौख) मतवाले वस्तु को अनिस्य हो मानते हैं तथा कोई ( वेदान्तो) सर्वथा निय ही मानते हैं। { अन्तधर्म, गुण)।
प्र-विपरोत मिथ्यात्व किसे कहते हैं।
३०-उल्टे श्रद्धान को विपरीत मिथ्यारव कहते हैं। जैसे-केवलो के कवलाहार होता है, परिग्रह सहित भो गुरु हो सकता है तथा स्त्रो को भो मोक्ष प्राप्त हो सकता है आदि ।
प्र०-संशय मिथ्यात्व का लक्षण बताओ?
उ.-चलायमान श्रद्धान को संशय मिथ्यात्व कहते हैं। जैसेअहिंसा में धर्म है या नहीं, सम्यक्दर्शन, सम्यक्झान, व सम्पचारित्रये मोक्ष के मार्ग है या नहीं।।
प्रा-वेनयिक मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?
उम्-सभी प्रकार के देवसरागो-बोतरागी, सभी प्रकार के गुरुपरिग्रहरहित-परिग्रहसहित एवं सभी प्रकार के मतों को समान मानना पेनयिक मिथ्यात्व है।
प्र-अज्ञान मिथ्यास्त्र का लक्षण बताइये। उ०-हिताहित को परीक्षा न करके प्रदान करना अझान मिव्याख
प्रा-अविरति किसे कहते हैं, उसके ५ भेद कौन से हैं ? २०-पांच पापों से विरत (स्याग ) नहीं होना अविरति है। उसके
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द्रव्य-संग्रह
पाँच भेद-हिसा अविरति, असत्य अवरति, चौर्य अविरति, कुशील अविरति और परिग्रह अविरति ।
प्र-प्रमाद किसे कहते हैं ? इसके पन्द्रह भेद बताओ।
उ०-शम क्रियाओं में उत्साहपुर्व प्रवृत्ति नहीं करना प्रमाद है या स्वरूप की असावधानी। इसके पन्द्रह भेद-४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रिय विषय, १ निद्रा और १ स्नेह है।
प्र०-योग किसे कहते हैं ? उसके भेद बताइये ?
उ०-मन, वचन, काय को क्रिया को योग कहते हैं। इसके तोन भेद-मनोयोग, वचनयोग और काययोग । प्र. कषाय के ४ भेद कौन से हैं ? ०-१-कोष, २ माघ, २-माया और ४- साम ।
द्रव्यास्त्रव का स्वरूप व भेद णाणावरणादोणं जोग्गं जं पुग्गलं समासदि ।
बम्बासवो स ओ, अणेयभेमो जिगलादो ॥३१॥ बम्बया
(णाणावरणादोणे ) ज्ञानावरण आदि कर्मों के। ( जोग्गं ) योग्य । (जं) जो। (पुग्गलं ) पुद्गल । ( समासवदि ) आता है । (स ) वह । (जिणक्खादो) जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहा हुआ। ( दम्बासवो) द्रव्यास्रव । ( अणेयभेदो) अनेक प्रकार का । ( णेओ) जानना चाहिए। बर्ष
शानावरण आदि आठ कर्मों के योग्य जो पुद्गल आता है, वह व्यास्रव जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा हुआ अनेक प्रकार का जानना चाहिए।
प्र-द्रव्याखव किसे कहते हैं ? .
उ.--ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के योग्य जो पुद्गल आता है, उसे द्रव्यानव कहते हैं।
प्र-संक्षेप में द्रव्यास्रव कितने प्रकार का है ?
उ०-द्रव्यासव संक्षेप में आठ प्रकार का है-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ।
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द्रव्य-संग्रह प्र०--विस्तार से द्रव्यासव के भेद बताइये ।
उ.-विस्तार से-ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ९, वेदनीय २, मोहनीय २८, आयु ४, नान ९ः, गोग: मौन 4 के मेट से १४८ प्रकार का है। सूक्ष्मदृष्टि से इनके भी परिणामों को तारतम्यता की अपेक्षा से संख्यात, असंख्यात भेद भी हो जाते हैं। इसलिए ग्रन्थकार ने द्रव्यानव को ( अणेय भेदो) अनेक भेद वाला कहा है।
भाषबन्ध व द्रव्यबध का लक्षण बज्मवि कम्मं शेण दुचेवणभावेण भावबन्धो सो। कम्मावपवेसाणं । अण्णोण्णपवेसगं इवरो ॥३२॥ अन्वयार्ष
(जेण! जिस । ( चेदणभावेण ) मिथ्यात्वादि रूप आत्मपरिणाम से। (कम्म) कर्म । ( बजादि ) वैषता है। ( सो ) वह । ( भावबंधो) भावबन्ध है । (दु) और । ( कम्मादपदेसाणं) कर्म और आत्मा के प्रवेशों का । ( अपणोण्णपवेसणं ) एकमेक होना । ( इहरो) द्रव्यबन्ध है। अर्थ
मिथ्यात्वादि रूप जिन चेतन परिणामों से कर्मबन्ध होता है वह भावबन्ध है और कर्म तथा आत्म-प्रदेशों का एकमेव होना द्रव्यबन्ध हैं।
प्रा-बन्ध किसे कहते हैं ?
उ०-जीव कषाय सहित होने से कर्म के योग्य कार्मण वर्गणारूप पुद्गल परमाणुओं को जो ग्रहण करता है, वह बन्ध है ।
प्र.-बन्ध के कितने भेद हैं ? उ-दो भेद हैं-१-भाववन्ध, २-द्रव्यबन्ध । प्रम-भावबन्ध किसे कहते हैं ?
उ.-जिन मिथ्यास्दादि आरम-परिणामों से कर्म बैधता है वह भावबन्ध कहलाता है।
प्र०-द्रव्यबन्ध किसे कहते हैं ? १०-जो कर्मवन्ध होता है उसे द्रव्यबन्ध कहते हैं ।
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द्रव्य संग्रह प्र०-आस्मा अमूर्तिक है, कर्म भूतिक हैं। ऐसी स्थिति में आत्मा में फर्म बन्धन कैसे हो सकता है ? बन्ध तो मूर्तिक का मूर्तिक के साप होता है।
उ०-आस्मा अमूर्तिक है तथापि संसारी आत्मा में अनादिकाल से कर्म चिपटे हुए है ना ना नदि पूर्तिका है। मूर्तिक होने के कारण ही उसका कर्मों के साथ बन्ध होता है। यहां भूतिक संसारी आत्मा के साथ मूर्तिक कर्मों का बन्ध जानना चाहिए। ( मूर्तिक के साथ ही मूर्तिक का बन्ध यहाँ है । )
अन्ध के धार भेव व उनके कारण परिद्धिविअणुभागप्पसभेवावु चविषो बंषो।
जोगा परिषदेसा,ठिदिमणुभागा कसायदो होति ॥३३॥ अन्वयार्थ
(बन्यो ) बन्ध । ( पयसिदिदि अणुभागष्पदेसभेदा ) प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से। ( चदुविषो ) चार प्रकार का है । (दु) और। ( पर्याडपदेसा) प्रकृति तथा प्रदेशबन्ध । ( जोगा ) योग से। ( ठिदिअणुभागा ) स्थिति और अनुभाग बन्ध । ( कसायदो ) कषाय से । (होति ) होते हैं।
प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध के मेद से बन्ध चार प्रकार का है। इनमें प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध योग से तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषाय से होते हैं।
प्रक-प्रकृतिजन्य किसे कहते हैं ?
२०-कर्मों के स्वभाव की प्रकृतिबन्ध कहते हैं। जैसे-झानाबरणादि।
प्र-स्थितिबन्ध किसे कहते हैं।
उ-शानावरणादि कर्मों का अपने स्वमाव से च्युत नहीं होना सो स्थितिबन्ध है।
प्र०-अनुभागबन्ध किसे कहते हैं ? च०-पानावरणादि कमों के रस विशेष को अनुभागबन्ध कहते हैं।
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द्रव्य संग्रह
प्र० - प्रदेशबन्ध किसे कहते हैं ?
उ०- ज्ञानावरणादि कर्म रूप होने वाले पुद्गल स्कन्धों के परमाणुओं की संख्या को प्रदेशबन्ध कहते हैं ।
प्र०-चार प्रकार के बन्धों का निमित्त क्या है ?
उ०- इन चार प्रकार के बन्धों में प्रकृति और प्रदेशबन्ध योग के निमित्त से होते हैं तथा स्थिति और अनुभागबन्ध कषाय के निमित्त से होते हैं।
भाव संवर और व्रव्यसंवर का लक्षण
L
चेवणपरिणामो यो कम्मस्सासवणिरोहणे हेऊ । सो भावसंवरो ललू दव्वस्सावरोहणे अन्गी ॥३४॥
1
अभ्ययार्थ
( जो ) जो । ( चेंदणपरिणामो ) आत्मा का भाव। (कम्मस्ट ) कर्म पुद्गल के । ( आसवणिरोहणे ) आस्रव के रोकने में १ { हेऊ ) कारण है । ( सो ) बह । ( भावसंवरो) भावसंवर है । ( दव्वस्स) कर्मरूप पुद्गल द्रव्य का । ( आसवरोहणे ) बास्रव रुकना । ( खलु ) निश्चय से । ( अण्णो ) अन्य अर्थात् द्रव्यसंवर है ।
अर्थ
आत्मा का जो परिणाम कर्म पुद्गल के रोकने में कारण है वह भावसंबर है तथा कर्म रूप पुद्गल द्रव्य का आस्रव हकना निश्चय से द्रव्य संगर है।
प्र०-संवर के कितने भेद हैं ?
उ०-दो भेष है---भावसेवर, २-द्रव्यसंवर ।
प्र०- भावसंवर किसे कहते हैं ?
उ०- आखव को रोकने में कारणभूत आत्म-परिणाम माक्र्सवर है ।
प्र० - द्रव्यसंवर किसे कहते हैं ?
ज० कर्मकप पुद्गल द्रव्य का आसव रुकना द्रव्यसंबर है ।
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४
द्रव्य संग्रह
भावसंवर के भेद धदसमिदोगतीओ धम्माणुपेहा परीसहजओ य ।
चारित्तं बहुभेया गायब्बा भावसंवरविसेसा ॥३५॥ अन्वयार्थ
( वक्षसमिदोगुत्तीओ ) व्रत, समिति, गुप्ति । ( धम्माणुपेहा ) धर्म, अनुप्रेक्षा। (परीसहजओ) परीषजय । (य) और । ( चारित) चारित्र । ( बहभेया) ये अनेक प्रकार के । (भावसंवरविसेसा ) भावसंवर के भेद । ( णायब्बा ) जानना चाहिए। वर्ष
व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परोपहजय और चारित्र-ये अनेक प्रकार के भावसंबर के भेद जानना चाहिए ।
प्र०-संक्षेप से भावसंबर के कितने भेद हैं।
उ०-सात भेद हैं-वत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र।
प्र०-विस्तार से भावसंबर के भेद बताइये ।
उ०-विस्तार से भावसंवर के ६२ भेद हैं-५ व्रत, ५ समिति, ३ गुप्ति, १० धर्म, १२ अनुप्रेक्षा, २२ परीषहजय और ५ चारित्र = ५+५ +३+ १० + १२ + २२+५ = ६२
प्र-व्रत किसे कहते हैं ? पाँच ब्रतों के नाम बताओ।
जल-पाच पापों का त्याग करना प्रत है। ५ व्रत-अहिंसावत, सत्यव्रत, अचौर्यवत, ब्रह्मचर्यन्वत और अपरिग्रहवत ।
प्र०-समिति किसे कहते हैं ? पांच समितियां कौन-सी हैं ?
१०-जीवों की रक्षा के लिए यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करने को समिति कहते हैं । वे पांच-१. ईर्या समिति, २. भाषा समिति, ३. एषणा समिति, ४. आदाननिक्षेपण समिति और ५. प्रतिष्ठापना समिति हैं।
प्रा-गुप्ति किसे कहते हैं ? उसके तोन भेव बताइये।
चर-संसार भ्रमण के कारणभूत मन, वचन, काय तीनों योगों का निग्रह करना गुप्ति है। उसके तीन भेद-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति है।
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કાવ
द्रव्य संग्रह
प्र०-धर्म किसे कहते हैं ? उसके दस भेद बताइये ।
उ०- जो आत्मा को संसार के दुःखों से छड़ाकर उत्तम स्थान में प्राप्त करावे उसे धर्म कहते हैं। दस धर्म - उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप उत्तम त्याग उत्तम आकिञ्चन्य, उत्तम ब्रह्मचर्य ।
प्र०-अनुप्रेक्षा का लक्षण व उसके बारह भेद बताइये ।
उ०- शरीरादिक के स्वरूप का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। ३. संसार, ४ एकत्व, बारह अनुप्रेक्षाएँ -- १. अनित्य, २. अशरण, ५. अन्यत्व, ६. अशुचि, ७. आस्रव ८. संवर, ९. निर्जरा, १०. लोक, ११. बोविदुर्लभ और १२. धर्म ।
प्र०-परोषहजन किसे कहते हैं ? उसके बाईस भेद बताइये ।
उ०-क्षुवा. तषा ( भूख-प्यास ) आदि की वेदना होने पर कर्मों की निर्जरा के लिए उसे शान्त भावो से सह लेना परोषहजय कहलाता है । बाईस परीषह - १ - क्षुधा तृषा, ३- शीत, ४- उष्ण, ५- देश मशक, ६- ताग्न्य, ७-- अरति, ८- स्त्री, २ - चर्या, १०- निषद्या, ११-सय्या, १२ - आक्रोश, १३ – वध, १४ - याचना, स्पर्श, १८- मल १९ - सरकार पुरस्कार, २२- अदर्शन |
१५ - अलाभ, १६ - रोग, १७ – तृग२१- अज्ञान,
२०- प्रज्ञा,
इन २२ परीषड़ों को जोड़ना २२ प्रकार का परीषह्जय कहलाता है । प्र० - चारित्र का लक्षण बताकर उसके पांच भेद बताइये । उ०- कर्मों के आस्रव में कारणभूत बाह्य आभ्यन्तर क्रियाओं के रोकने को चारित्र कहते हैं। पाँच प्रकार का चारित्र - १ - सामायिक, २- छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि ४ - सूक्ष्मसाम्पराय और ५ - यथा
ख्यात ।
प्र० - उपसर्ग और परीषह में क्या अन्तर है ? उ०- उपसर्ग कारण है और परीषद् कार्य है ।
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द्रव्य-संग्रह
भावसंबर
५ प्रत अहिंसा
५ समिति ईया भाषा एषणा अदाननिक्षेपण प्रतिष्ठापना
३ गुप्ति मनोगुप्ति वपनगुप्ति कायगुप्ति
सत्य
१० धर्म उसमकामा .. मार्दव , आव ॥ शौष
आचार्य ब्रह्मपर्य अपरिग्रह
" सत्य
संयम
, त्याग " माकिन्य
, ब्रह्मचर्य
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द्रव्य संग्रह
२२ परीषहजय
१२ अनुप्रेक्षा अनित्य
क्षुधा तृषा
५ चारित्र सामायिक छेदोपस्थापना परिहारविशुदि सूक्ष्मसाम्पराय यथास्यात
संसार एकत्व अन्याव अशुचि आश्रय संवर निर्जरा लोक बोधि दुर्लभ
शोत तण दंशमशक मान्य अरनि स्त्री
चर्या
धर्म
निष्या शय्या आक्रोश वध याचना बलाभ रोग तुणस्पर्श मल सत्कार-पुरस्कार प्रज्ञा अज्ञान अदर्शन
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द्रव्य संग्रह निर्जरा का लक्षण व उसके भेद जहकालेण तवेण च भुत्तरसं कम्मपुरगलं जेण । भावेण सडवि णेया तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा ॥३६॥
बम्बयाणं
( जहकालेण ) यथाकाल में ( अवधि पुरो होने पर)। ( य ) और । ( तवेण } तप से। ( भुत्तरस } जिनका फल भाग लिया है। ( कम्मपुग्गलं ) ऐसा कर्म पुद्गल । (जेग) जिस। { भावेग ) भाव से । ( सडदि ) झड़ जाता है। (च) और। (तस्पडणं ) कर्मों का झड़ना । { इदि ) इस प्रकार 1 ( णिज्जरा) निर्जरा । ( विहा) दो प्रकार को। पिप जानना चाहिए।
धर्म
अवधि पूरी होने पर और तप से जिसका फल भोग लिया है ऐसा कम पुद्गल जिन भावों से झड़ जाता है वह भावनिर्जरा है और को का झड़ना व्यनिर्जरा है। इस प्रकार निर्जरा दो प्रकार को जाननो चाहिए।
प्र-निर्जरा किसे कहते हैं ? उसके भेद बताइये।
जा-अंधे हुए कर्मों का अंशतः झड़ना निर्जरा कहलातो है। निर्जरा के दो भेद हैं-१-भाव निर्जरा, २-व्य निर्जरा । ( दूसरे प्रकार से)
१-सविपाक, २-अविपाक निर्जरा। प्र.-भावनिर्जरा किसे कहते हैं ?
०-जिन परिणामों से बंधे हुए कर्म एकदेश सड़ जाते हैं उसे भावनिर्जरा कहते हैं।
प्र.-द्रम्यनिर्जरा किसे कहते हैं ? च-बंधे हुए कर्मों का एकदेश निर्जरित होना द्रव्यनिजरा है। प्र-सविपाक निर्जरा बताइये ।
ज०-अपनी अवधि पाकर या फल देकर बंधे हुए कर्मों का अंशतः सड़ना सविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा समय के अनुसार पक कर अपने भाप गिरे हुए बाम के समान होती है।
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द्रव्य संग्रह प्र-अविपाक निर्जरा बताइये? उतपश्चरण के द्वारा अवधि के पहले हो बंधे हुए कर्मों का एकदेश मड़ना अधिपाक निर्जरा है। यह निर्जरा पाल में डालकर पकाये गये आम के समान होती है।
प्र०-पाक्षमार्ग को सहचारी या मुक्ति में कारणभूत निर्जरा कौन-सो
उ०-अविपाक निजरा मोक्षमार्ग को सहकारी है । कारण कि सविपाक निर्जरा 'गजस्नान' के समान अप्रयोजनोय है ।
प्रा-निर्जरा में विशेष कार्यकारी कौन है | कैसे ?
उ.-निर्जरा में विशेष कार्यकारी तप है। बिना तप के आत्मा कभी भो शुद्ध नहीं हो सकती है 1 बिना तपाये सोना शुद्ध नहीं होता, बिना अग्नि में तपाये रोटो नहीं पकती, उसी प्रकार बिना बाह्य-आभ्यन्तर तप के आत्मा पर लगा कर्ममेल छूटता नहीं है । यद्यपि सिद्धराशि के अनातवें भाग तथा अभव्यराशि के अनन्त गुणा कर्मपरमाणु प्रतिसमय खिरते हैं पर 'तप' रूप अलौकिक शक्ति के द्वारा इससे अधिक मो खिरते हैं।
प्र.-तप किसे कहते हैं ? संक्षेप में तप के भेद फितने हैं ? उ.-संक्षेप में तप दो प्रकार का है-१-बाल तप, २-आभ्यन्तर
तप।
प्रक-बाह्य तप किसे कहते हैं?
उ-जो बाहर से देखने में आता है अथवा जिसे अन्यजन भी करते हैं, यह बाह्म तप है।
प्र-बाह्य तप के भेद बताओ।
उ.-१-अनशन, २-अवमौदर्य, ३-वृतिपरिसंस्थान, ४-रसपरित्याग, ५-विविक्तशय्यासन और ६-कायक्लेश ।
प्र.-आभ्यन्तर तप किसे कहते हैं ?
उ.-जिन तपों का आत्मा से घनिष्ठ सम्बन्ध है वै आभ्यन्तर सप कहलाते हैं।
प्र०-आभ्यन्तर तप के भेद बताइये ।
उ.-१-प्रायश्चित, २-विनय, ३-वैश्यावृत्य, ४-स्वाध्याय, ५-युत्सर्ग और ६-ध्यान ।
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द्रव्य संग्रह
प्र०-प्रायश्चित तप के भेद व लक्षण बताइये ।
३०-प्रायश्चित तप के नव भेद-१-आलोचना, २-प्रतिक्रमण, २-तदुभय, ४-विवेक, ५-व्युत्सर्ग, ६-तप, ७-छेद, ८-परिहार, १-उपस्थापना । अपराध की शुद्धि करना प्रायश्चित है।
प्र०-विनय के भेद बताइये तथा लक्षण कहिये।
उ.-१-शान विनय,-दर्शन विनय, ३-चारित्र विनय, ४-उपचार विनय । ये चार भेद हैं । पूज्य पुरुषों का आदर करना विनय है।
प्र०-वैश्यावृत्य का भेद व लक्षण बताइये।
उ.-वैग्यावरय तप के १० भेद हैं-१-आचार्य, २-उपाध्याय, ३-तपस्वी, ४-शैक्ष्य, ५-ग्लान, ६-गण, ७-कुल, ८-संघ, ९-साष, १०-मनोज्ञ। इन दस प्रकार के मुनियों को सेवा करना दस प्रकार की
म्यावृत्य है। शरीर तथा अन्य वस्तुओं से मुनियों की सेवा करना वैय्यावृत्य तप है।
प्रा-स्मानाय तप के भेद व लक्षण बताओ।
उ०-स्वाध्याय ५ प्रकार का है-१-वाचना, २-पृच्छना, ३- अनुप्रेक्षा, ४-आम्नाय और ५-धर्मोपदेश । ज्ञान को भावना में आलस्य नहीं करना स्वाध्याय है। प्र०-व्युत्सर्ग के भेद व लक्षण बताइये।
-प्युत्सर्ग तप के २ भेद-बाह्य और आभ्यन्तर । धन-धान्यादि बाह्म परिग्रहों का त्याग तथा क्रोधादि अशुभ भावों का रयाग। बान और आभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग व्युत्सर्ग तप है । प्र.-ध्यान तप के भेद व लक्षण बताओ।
उन-ध्यान तप के चार भेद हैं-१-आर्तध्यान, २-रौद्र ध्यान, ३-धर्य ध्यान और ४-शुक्ल ध्यान । चित्त को चंचलता को रोककर किसी एक पदार्थ के चिन्तन में लगाना ध्यान है।
प्र०-मनन को कौन सा तप करना चाहिए ? और क्यों ?
.-मुमुक्षु को बाध और अन्तरंग दोनों तप करना आवश्यक है। इसके बिना मोक्ष की विधि बन नहीं सकती है। दोनों तप एक सिक्के के दो पहलू के समान है । एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। रोटो दोनों ओर से सेकी जातो है तब शरीर को पुष्ट करती है। वैसे ही दोनों तपों को तपने बाला ही सच्चे शानामृत का पान पर आत्मा को पुष्ट बनाकर मुणित-महल ले जा सकता है।
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द्रव्य संग्रह
मोक्ष के भेद व लक्षण सम्बस्स कम्मणो जो लयहेतू अपणो परिणामो।
ओ स भावमोक्तो बब्वविमोखो प कम्मपुहभावो ॥२७॥
अनाया
तो जो! (पणे) भागमा ! ! परिणामो) परिणाम । (सम्वस्स) समस्त । ( कम्मणो) कर्मों के। (खयहेद्र)क्षय का कारण है। (स ) वह । (हु ) निश्चय से । ( भावमोखो) भावमोश है। (२) और। (कम्मपुहभावो ) कर्मों का आरमा से पृपक होना । ( दयवि. मोक्खो) द्रव्यमोक्ष ! (ओ) जानना चाहिए।
___ आत्मा के जो परिणाम समस्त कर्मों के क्षय में कारण हैं वह निश्चय से भाव मोक्ष है और कर्मों का आत्मा से पृथक होना द्रष्य मोक्ष जानना चाहिए।
प्रम-मोक्ष किसे कहते हैं ? इसके भेद बताइये।
उ.-समस्त कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना मोक्ष कहलाता है। मोश के दो भेद हैं-भाव मोक्ष व द्रव्य मोक।
प्रा-मोक्ष किसे प्राप्त होता है ? उ.-कर्मरहित जीव को मोक्ष प्राप्त होता है।
प्र.-मोक्ष प्राप्त जीव कहाँ रहता है ? वहाँ से आता है या नहीं ?
उ०-मोक्ष प्राप्त जीव लोक के अग्रभाग, सियालय में रहता है। वह यहां से फिर लौटकर कभी भी नहीं आता।
प्रा-क्या संसार के सभी जीव मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं? उ.-नहीं, भव्य जीव ही मोक्ष प्राप्त कर सकते है।
प्र.-भव्य किसे कहते हैं ?
उ-जिसमें सम्यग्दर्शन, सभ्यज्ञान और सम्यक्चारित्र प्राप्त करने को योग्यता है, वह भव्य है ।
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द्रव्य संग्रह पुण्य और पाप का निरूपण सुहअसुहभावजुत्ता,पुणं पावं हवंति खलु जोषा ।
सावं सुहाज णाम, गोदं पुण्णं पराणि पाय च ॥३८ सावयार्थ
( सुहअसुहभावजुत्ता) शुभ और अशुभ भाव से युक्त । ( जोषा) जीव । (खल ) निश्चय से (गणं ) गा मा पाप रूप । (हवंति ) होते हैं। । सादं ) सातावेदनोय। ( सुहाउ ) शुभ आयु । (णामं ) शुभ नाम । ( गोद ) उच्च गोत्र । ( पुष्णं ) पुष्य रूप है । ( च ) और । ( पराणि) असातावेदनीय, अशुभ नाम कर्म, अशुभायु और नीच गोत्र । ( पावं ) पास रूप हैं।
शुभ भाव युक्त जीव पुण्यरूप तथा अशुभ भाव युक्त जोष पापल्प होते हैं। सातावेदनीय, शुभमआयु, शुभनाम और उच्धगोत्र-ये पुण्यस्य कर्म हैं और दूसरे असातावेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम और नीच गोत्र पापरूप हैं।
प्र०-पुण्य कितने प्रकार का है? उ०-पुण्य दो प्रकार का है-भावपुण्य और द्रव्यपुण्य । प्र०-पाप कितने प्रकार का है ? ३०-पाप भी दो प्रकार का है-भावपाप और द्रव्यपाप । प्र०-भावपुण्य और द्रव्यपुण्य का स्वरूप बताओ।
२०-शुभ भावों को धारण करने वाले जोव भावपुण्य कहलाते हैं. तथा कर्मों की प्रशस्त प्रकृतियों को द्रव्यपुण्य कहते हैं।
प्र-शुभभाव कौन से है ? बताइये ।
स०-जोवों की रक्षा करना, सत्य बोलना, चारी नहीं करना, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अरहन्त भक्ति करना, पञ्चपरमेष्ठो नमन, गुरुभक्ति, वैश्यावृत्य, बान, दया, मैत्री, प्रमोद आदि शुभ भाव हैं।
प्र०-अशुभ भाव कौन से है ?
30-हिसा, झूठ, चोरी आदि पांच पाप करना, देव-शास्त्र-गुरु को उपासना नहीं करना, गुरुओं की निन्दा करना, दान, दया, संयम, तपादि का पालन नहीं करना, वेष, मान, माया, लोभादि पाप भाव अशुभ भाव है।
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द्रव्य संग्रह
प्र० भाव पाप और द्रस्थ पाप किसे कहते हैं ?
उ०- अशुभ भावों को धारण करने वाले जीव भाव पाप कहलाते हैं तथा कर्मों की अप्रशस्त प्रकृतियाँ द्रव्य पाप हैं ।
प्र०-आठ कर्मों के किसने भेद हैं ?
० आठ प्रकार के कर्म दो भेद वाले हैं- १ - घातिया कर्म, २- अघातिया कर्म ।
प्र० - घातिया कर्म किसे कहते हैं ?
० आत्मा के अनुजीवी गुणों को घात करने वाले कर्म घातिया कहलाते हैं । ये पाप रूप ही है।
प्र. अषातिया कर्म किसे कहते हैं ?
० - जो आत्मा के अनुजोवी गुणों का घात नहीं करते हैं वे अघातिया कर्म कहलाते हैं । अघातिया कर्मों में कुछ कर्म पुण्य रूप और कुछ कर्म पाप रूप कहलाते हैं ।
प्र०-पाप प्रकृतियाँ कितनी और कौन सो हैं ?
उ०-पाप प्रकृतियाँ १०० हैं - घातिया की ४७, असातावेदनीय १, नीचगोत्र १, नरकायु १ और नाम क्रम को ५० नरकगति, नरक मयानुपूर्वी, तिर्यग्गति १ तिर्यग्गत्यानुपूर्वी १ जाति में से आदि की ४ जातियाँ संस्थान अन्त के ५, संहनन अन्त के ५, स्पर्शादिक अशुभ २०, उपधान १, अप्रशस्त विहायोगति १, स्थावर १, सूक्ष्म अपर्याप्त १, मनादेय १, अयशः कीर्ति ( अस्थिर अशुभ १, दुभंग १, दुःस्वर १, और साधारण १ कुल सौ ।
प्र०-पुष्य प्रकृतियाँ कितनी और कौन-सी हैं ?
४० - प्रसठ हैं - कर्मों की समस्त प्रकृतियाँ १४८ हैं उनमें से पापप्रकृतियाँ १०० घटाने से शेष रहीं ४८ । उनमें नामकर्म को स्पर्शादि शुभ प्रकृतियाँ मिलाने से सम्पूर्ण पुण्य प्रकृतियां अड़सठ होती हैं ।
प्र०- क्या पुण्य छोड़ने योग्य है ? यदि नहीं तो क्यों ?
उ०- नहीं, पुण्य कथंचित् प्रहण करने योग्य है, इसको सर्वया छोड़ना मुमुक्षु का कर्तव्य नहीं है क्योंकि पुण्य आत्मा को पवित्र करता है।
॥ इति द्वितीयोऽधिकारः ॥
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द्रव्य संग्रह
तृतीयोऽधिकार व्यवहार और मिश्चय मोक्षमार्ग का लक्षण सम्मईसणणाणं धरणं मोक्तस कारणं जाणे ।
बवहारा गिसचयो तसिपमइओ जियो अप्पा ॥३९॥ अम्बचार्य
(बबहारा ) व्यवहारनय से । ( सम्मइंसणणाणं) सम्यग्दर्शन, सम्यगशान । (चरण) सम्यचारित्र को। (मोक्खस्स) मोक्ष का। ( कारणं) कारण। (जाणे ) जानो। । णिच्चयदो) निश्वयनय से । ( तत्तियमइओ) सम्यग्दर्शन, सम्परज्ञान और सम्यक्चारित्र सहित । ( गिओ) अपना । ( अप्पा ) आत्मा ( मोक्ष का कारण जानो)। धर्म
व्यवहारनय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारिष को मोक्ष का कारण जानो तथा निश्चयनय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकपारित्र सहित अपना मारमा मोक्ष का कारण जानो।
प्र०-मोक्ष क्या है? उ०-आठ कर्मा से आस्मा का पूर्ण छुटकारा पाना मोक्ष है। प्र.-मोक्ष मार्ग कितने प्रकार के हैं ? उक-दो प्रकार के हैं-व्यवहार मोक्षमार्ग और निश्चय मोक्षमागं । प्र०-व्यवहार मोक्षमार्ग किसे कहते हैं।
उ.-व्यवहारनय से सम्प्रदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग है।
प्र०-निश्चय मोक्षमार्ग कौन-सा है। उ.-रत्नत्रय युक्त आत्मा को निश्चय मोक्षमार्ग कहते हैं। प्र०-संसार में अनुपम रत्न बताइये। उ-रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यक्सान और सम्यक्धारित्र ।
रत्नत्रय युक्त आत्मा ही मोक्ष का कारण क्यों ? रयणतये ण बट्टा , अप्पाणं मुयस अन्नविम्हि । तम्हा तत्तियमइमओ,होवि हु मोक्खस्स कारणं आवा ॥४०॥
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५७
द्रव्य संग्रह अम्बया--
( रयणतयं ) रस्नत्रय (सम्यकदर्शन, शान और चारित्र ) । (अप्पाणं ) यात्मा को 1 ( मुयस्तु ) छोड़कर । ( अण्णववियम्हि ) दूसरे द्रव्य में । (ण) नहीं । ( वट्टई ) रहता! ( तह्मा ) इसलिए । । तत्तियमहो) रत्नत्रय सहित । ( आदा ) आत्मा। (ह) हो। ( मोक्खस्स ) मोक्ष का । ( कारणे ) कारण । ( होदि ) होता है। पर्व
रलत्रय आरमा को छोड़कर दूसरे द्रव्यों में नहीं रहता है इसलिए रत्नत्रय सहित आत्मा हो मोक्ष का कारण होता है।
प्र-निश्चयनय से रत्नत्रययुक्त मारमा ही मोक्ष का कारण क्यों है ?
उ०पयोंकि रत्नत्रय आरमा अर्थात् जीवद्रव्य को छोड़कर अन्य में नहीं पाया जाता है।
प्र-ये रत्नत्रय कौन-से हैं? उ.-1-सम्यकदर्शन, २-सम्यक्शान, ३-सम्यकनारित्र ।
सम्यक् न किसे कहते हैं ? जोबाकीसदहणं, सम्मतं वामप्पणो तं तु। दुरभिणिवेसविमुक्कं गाणं सम्म खु होवि सदि अम्हि ॥४१॥ बम्बया
{ जीवादीसदहणं ) जीवादि सात तरवों का श्रदान करना । ( सम्मतं) सम्यग्दर्शन है। (स ) वह । ( अपणो ) आरमा का। (रुवं ) स्वरूप है। {तु ) और । ( जम्हि ) जिस सम्यग्दर्शन के। ( सदि ) होने पर । (दुरभिगिवेसविमुषर्क ) संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित । { णाणं ) शान । ( ख ) से। ( सम्म ) सम्यक्झान । ( होदि ) होता है ।
जोवादि सात तस्वों का श्रदान करना सम्यग्दर्शन है। यह सम्यकदर्शन आत्मा का वास्तविक स्वरूप है। इस सम्यकदर्शन के होने पर हो शान सम्पज्ञान कहलाता है। और यह शान संशय, विपर्यय प्रया अनध्यवसाय से रहित होता है।
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५८
द्रव्य संग्रह
प्र० - सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं ?
उ०-जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संबर, निर्जरा और मोक्ष इन सात शस्त्रों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है ।
प्र०-आत्मा का वास्तविक स्वरूप क्या है ? उ०- सम्यक् दर्शन |
प्र०-ज्ञान में समीचीनता कम आती है ?
उ०- सम्यक् दर्शन के होने पर ज्ञान समोचीन या सम्यक् ज्ञान कहलाता है ।
प्र० - सम्यक् ज्ञान में कौन से दोष नहीं होते ? ०-१-संशय, २ - विपर्यय और ३-अनध्यवसाय |
प्र०-संशय किसे कहते हैं ?
रा०-विरुद्ध नाना कोटि के स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। इसके होने पर किसी पदार्थ का निश्चय नहीं हो पाता, क्योंकि इसके होने पर बुद्धि सो जाती है - 'समीचीनतया बुद्धिः शेते यस्मिन् सः संशयः' ।
प्र० - विपर्यय किसे कहते हैं ?
७- विपरीत एक कोटि को स्पर्श करने वाला ज्ञान विपर्यय कहलाता है । जैसे- सीप को चाँदी समझ लेना ।
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प्र० - संशय और विपर्यय में क्या अन्तर है ?
० संशय में सोप है या चाँदी ? ऐसा संशय बना रहता है। निर्णय नहीं हो पाता, परन्तु विपर्यय में एक फोटि का निश्चय होता है जैसे-सीप को सोप न समझकर चांदी समझ लेना ।
प्र-अनध्यवसाय किसे कहते हैं ?
० -अध्यवसाय का अर्थ है निश्चय और इसका न होना अनव्यवसाय कहलाता है। जैसे रास्ते में चलते समय पैरों के नीचे अनेक चीज आती हैं, पर उनमें से निश्चय किसी एक का भी नहीं हो पाता है, यही ज्ञान. अनव्यवसाय कहलाता है ।
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द्रव्य संग्रह
सम्यक ज्ञान का स्वरूप संसयविमोहविग्भमविज्जियं अप्पपरसरुवस्स ।
गणं सम्मण्णाण सायारमणेयभेयं च ॥४२॥ भावया
( संसयविमोहविन्भमविवक्जियं) संशय, अनभ्यवसाय, विपर्यय रहित । ( सायारं ) आकार सहित । ( अप्पपरसरुवस्स ) अपने व दूसरे के स्वरूप का। (गहणं ) ग्रहण करना अर्थात् जानना । ( सम्मण्णाण) सम्यक् शान है । {च ) और । ( अणेयभेयं ) वह अनेक प्रकार का है । मर्च
संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित ब आकार सहित अपने और पर के स्वरूप का जानना सम्यक ज्ञान कहलाता है और वह सम्यक ज्ञान अनेक प्रकार का है।
प्रक-सम्यकसान के कितने भेद हैं ?
स-पांच भेद है-१-मतिज्ञान, २-श्रुतज्ञान, ३-अवधिज्ञान, ४-मनःपर्ययज्ञान और ५-केवलशान।
प्र०-सम्यक ज्ञान के अनेक भेद क्यों कहे?
उस-यद्यपि सम्यक् शान के मूल में पांच भेद ही हैं परन्तु पांचों में केवलज्ञान को छोड़कर अन्य चार शानों के अनेक भेद हैं इसलिए सम्यक शान के ग्रन्थकार ने 'अणेयभेयं'–अनेक भेद कहे हैं ।
वर्शनोपयोग का स्वरूप जसामण्णं गहणं, भावाणं गेव कट्टमायारं ।
अविसेसिदूण अटे, बसणमिति मण्णए समए ॥४३ अन्वयार्च
(षट्ठ) पदार्थ के विषय में। ( अविसेसिदूण ) विशेष अंश को ग्रहण किये विना । ( आयारं ) आकार को। (व ) नहीं । ( क ) करके। (मावाणं) पदापों का। (ज) जो। ( सामण ) सामान्य । ( महण) प्रहण करना अर्थात् जानना । (समए) शास्त्र में। (वंस ) वचन । (दि ) इस प्रकार । ( भण्णए) कहा जाता है ।
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६०
द्रव्य संग्रह
अर्थ
पदार्थ के विषय में पदार्थों का विशेष अंश ग्रहण नहीं करके, पदार्थों का जो सामान्य ग्रहण अर्थात् जानना है उसे आगम में दर्शन कहा जाता है।
प्र० - किसी भी पदार्थ में कितने अंश पाये जाते हैं ?
उ०- प्रत्येक पदार्थ में दो अंश पाये जाते हैं -१ - सामान्य अंश और २- विशेष अंश ।
प्र० - सामान्य अंश को ग्रहण करने वाला क्या कहा जाता है ?
उ०- सामान्य अंश का जानना दर्शन कहलाता है। इसमें पदार्थ के आकार का ज्ञान नहीं होता है, केवल सत्ता का भान होता है। जैसेसामने कोई पदार्थ आने पर सबसे पहले यह कोई पदार्थ है इतना मात्र जानना 'दर्शन' है ।
प्र० - विशेष अंश का ग्राहक किसे कहते हैं ?
11
उ०- सामान्य अंश के ग्रहण के बाद विशेष अंश का ग्राहक या जानने वाला 'ज्ञान' कहलाता है। जैसे- सामने कोई पदार्थ आने पर पदार्थ मात्र का ग्रहण करने वाला तो दर्शन है पर वह पदार्थ काला है, पीला है या - लाल है आदि रूप विकल्प सहित शान होता 'ज्ञान' कहलाता है ।
दर्शन और ज्ञान की उत्पत्ति का नियम
बंसणपुण्वं जाणं, छद्मस्थानं ण तुष्णि उवओोगा । जुगवं जम्हा केवलिणाहे जुगवं तु ते बोनि २२४४॥ अम्ययार्थ—
(छद्मस्थान ) अल्पज्ञानियों के । ( दंसणपुब्वं ) वर्षांनपूर्वक 1 ( णार्ण ) ज्ञान होता है ! ( जम्हा ) क्योंकि । ( दुण्णि ) दोनों। ( उवओोगा ) उप
योग ( जुगवं ) एक साथ। (ण) नहीं होते हैं। (तु) किन्तु । ( केवलिणाहे } केवलज्ञानी के । (ते ) वे । ( दोषि ) दोनों हो। ( जुगवं ) एक साथ होते हैं ।
琳
अल्पज्ञानियों के दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है क्योंकि उनके दोनों उपयोग
एक साथ नहीं होते हैं किन्तु केवलज्ञानी के ये दोनों ही उपयोग एक साथ होते हैं ।
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द्रव्य संग्रह प्र-दर्शन किसे कहते हैं ? उ०-सामान्य अंश को जानना दर्शन है। प्र.-शान किसे कहते हैं ? उ-विशेष अंश को जानना ज्ञान है। प्र-छमस्थ (अल्पज्ञानो) किसे कहते हैं ?
उ.-संक्षेप में पांच ज्ञान होते हैं-- मतिज्ञान, श्रुतमान, अबधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । इन पांच ज्ञानों में से प्रारम्भ के चार ज्ञान वाले छमस्थ ( अल्पत्र ) कहलाते हैं।
प्र० केवली किसे कहते हैं ? उ०-जिन्हें केवलज्ञान हो जाता है वे सर्वज्ञ या केवली कहलाते हैं। प्र-छमस्थ जीव के उपयोग का क्रम बताइये ।
२०-छद्मस्थ जोन पहले देखते हैं और फिर बाद में जानते हैं, किसो पदार्थ को देखे बिना छद्मस्थ उसे जान हो नहीं सकते इसलिए छदमस्थों के पहले दर्शनोपयोग होता है और बाद में ज्ञानोपयोग होता है।
प्र. केवलशानो के उपयोग का क्रम बताइये ।
ज-केवलज्ञानी किसी भी पदार्थ को एक हो साथ देखते और जानते हैं इसलिए उनका दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग एक साथ होता है ( बक्रम)
प्र० केवलज्ञानी किसे कहते हैं?
उ०-जो त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् जानते हैं वे केवलशानी कहलाते हैं।
व्यवहार चारित्र का स्वरूप असुहावो विणिवित्ती सुहे पविसी य जाण चारितं ।
पसमिविगुत्तिभव, यवहारणया दु मिणभणियं ॥४५॥ अन्वयार्थ
( ववहारणथा ) व्यवहारनय से। ( असुहादो) अशुभ कार्य से । (घिणिवित्ती ) निवृत्ति । ( ब ) और । ( सुहे ) शुभ कार्य में। (पवित्ती) प्रवृत्ति ! ( जिणभणियं ) जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा हुआ। (धारित) चारित्र । (जाण) जानो । (दु) और वह पारिष । ( वयसमिदिगुत्तिस्व ) वत, समिति, गुप्तिरूप है ।
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दव्य संग्रह अर्थ
अशुभ कार्यों को छोड़ना और शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा हुआ व्यवहार चारित्र जानो और वह चारित्र पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्तिरूप से १३ प्रकार का है।
प्र०-व्यवहार चारित्र किसे कहते हैं ?
उ०-अशुभ कार्यों-हिंसा, झूठ, चोरी, नशील और परिग्रह पापों का स्याग करना, अयस्ताचार पूर्वक चलना, बोलना, बैठना, खाना आदि न करना तथा अशुभ मन-वचन और काय को वश में करना तथा शुभ कार्यों में प्रति करना शहार पारित है।
निश्चय चारित्र का स्वरूप बहिरम्भंतरकिरियारोहो भवकारपप्पणासटुं।
णागिस्स जं जिणुतं तं परमं सम्माचारितं ॥४६॥ अम्बयार्ष
(भवकारणप्पणासट्ठ ) संसार के कारणों को नष्ट करने के लिए। ( णाणिस्स )शानी पुरुष का । (5) जो। (बहिरमंतरकिरियारोहो) बाह और आभ्यन्तर क्रियाओं का रोकना । (२) वह। ( जिणुतं) जिनेन्द्र देव द्वारा कहा हुआ। ( परमं ) उत्कृष्ट निश्चय । ( सम्मचारितम् ) सम्यकचारित्र है। अर्थ___ संसार के कारणों को नष्ट करने के लिए ज्ञानी पुरुषों के द्वारा बाह्यआभ्यन्तर क्रियाओं को रोकना निश्चय सम्यक् चारित्र, ऐसा जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहा हुआ है।
प्र०-संसार किसे कहते हैं ?
उ०-'संसृति इति संसार' जहाँ जाव चारों गतियों में घमता है वह संसार है।
प्र-संसार का कारण क्या है ? उ-बाह्य और आभ्यन्तर क्रियाएँ संसार को कारण है। प्र-बाह्य क्रिया कौन-सी है?
To-कायिक और वाचनिक क्रियाएँ--हिंसा, झूठ, चोरो, कुशोल जौर परिग्रह माविबाह क्रियाएं हैं।
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द्रव्य संग्रह
प्र०-आभ्यन्तर क्रियाएँ कौन-सी हैं ?
१०-मानसिक भीतरी ग्राओं सौ ग्यतार मा कहाँ है। जैसे-क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, राग-द्वेष आदि। मानसिक अशुभ बिचारों का द्वन्द्व आदि सब आभ्यन्तर क्रियाएं हैं।
प्र०बाह्य-आभ्यन्तर क्रिया कौन रोकता है ?
7-'णाणो'-शानी पुरुष अपनी मानसिक, वाचनिक व कायिक याभ्यन्तर और बाह्य क्रियाओं को रोकते हैं।
प्रक-बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के निरोध से ज्ञानो के फिसकी प्राप्ति होतो है ?
उ०-निश्चय चारित्र की। प्र-निश्चय चारित्र किसे कहते हैं ?
उ०-बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के निरोष से प्रादुर्भूत आत्मा को -शुद्धि को निश्चय सम्यक् चारित्र कहते हैं।
मोक्ष के हेतुओं को पाने के लिए ध्यानकी प्रेरणा कुविहं पि मोक्लहे माणे पाउणविज मुणो णियमा । सम्हा पयत्तचित्ता, जूयं झाणं समग्भसह ॥४७॥ अम्बया
(ज) क्योंकि । ( मणी ) मुनिजन । ( दुविहं पि)दोनों ही प्रकार के । ( मोक्खहे) मोक्ष के कारणों को । ( णियमा) नियम से । (माणे) ध्यान में। ( पाउपादि) पा लेते हैं। (तम्हा ) इसलिए। (जयं ) तुम सब । ( पयत्तचित्ता) सावधान होकर । ( साणं ) ध्यान का । (समग्मसह) अभ्यास करो।
अर्थ
__क्योंकि मुनिराज दोनों हो प्रकार के कारणों को नियम से ध्यान में पा लेते हैं इसलिए तुम सब सावधान होकर ध्यान का अभ्यास करो।
ध्यान करने का उपाय मा मुखमाह मा रजह सा दुस्सह इटुणिस्थेसु । मिरमिन्ह मा विसं विवित्तमाणपसिसीए ॥४॥
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द्रव्य संग्रह अबया
(विचित्तझाणपसिद्धोए ) अनेक प्रकार के ध्यान की सिद्धि के लिए । ( जइ ) यदि । ( चिर्स | चित्त को। ( थिरं ) स्थिर करना । (इच्छह ) चाहते हो तो । ( इणिठ्ठात्थेसु) इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में । ( मा मुझह ) मोह मत करो। ( मा रजह ) राग मत करो। ( मा दुस्सह ) देष मत करो। अपं
( भव्य जीवो ! ) अनेक प्रकार के ध्यान को सिद्धि के लिए यदि चित्त को स्थिर करना चाहते हो तो इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में मोह मत. करो। राग मत करो । द्वेष मत करो।
प्रा-ध्यान की सिद्धि के लिये आवश्यक सामग्री क्या है ? १०-चित्त ( मन ) को एकाग्रता। प्र०-चित्त की एकाग्रता के लिये आवश्यक सामग्रो क्या है ?
-प्रिय पदार्थों में मोह मत करो, राग मत करो और प्रिय पदार्थों में द्वेष मत करो।
प्र.-मोह किसे कहते हैं ?
उ०-परवस्तु को अपना मानना व अपने को भूल जाना मोह काह लाता है।
प्र०-राग किसे कहते हैं ? २०-इष्ट वस्तु में प्रोति को राग कहते हैं । प्र०-वेष किसे कहते हैं ? उ.-अनिष्ट वस्तु में अप्रीति को द्वेष कहते हैं। प्र०-ध्यान के अनेक प्रकार कौन-से हैं? उ०-१-पिण्डस्थ, २-पदस्थ, ३-रूपस्थ, "-रूपातीत । पिण्डस्प-पिण्डस्थं स्वारम चिन्तन'–अर्थात शरीर में स्थित वाल्मा का चिन्तन करना।
पदस्थ -'मन्त्रवाक्यों' के चिन्तन को पदस्थ ध्यान कहते हैं। रूपस्थ-शुचिदरूप अहंन्तों का ध्यान । रूपातीत-रूपातीतं निरन्जन सिद्धपरमेष्ठी का ध्यान करना। प्र०-ध्यान की आवश्यकता क्यों है? १०-क्योंकि मोक्षमार्ग की सिद्धि बिना ध्यान के नहीं हो सकता है।
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द्रव्य संग्रह
ध्यान करने योग्य मन्त्र
पणतोस सोल छपणच जवह ज्झाए । परमेट्ठिवाचयाणं अच्णं च
मनमार्थ
1
(परमेट्ठिवाचयाणं ) परमेष्ठी वाचक ( सोल ) सोलह 1 ( छ ) छह । ( पण ) पांच दो। (च) और । ( एवं ) एक अक्षर के मन्त्र का ( ज्झाएह ) ध्यान करो । ( च ) और ( अष्णं ) अन्य मन्त्रों को । (गुरुवरसेण) गुरु के उपदेश से जपो और ध्यान करो ।
अर्थ-
गुरुबएसे ।। ४९ ॥
परमेष्ठी वाचक पैंतीस, सोलह, छह, पाँच, चार, दो और एक अक्षर के मन्त्र का जप करो, ध्यान करो और अन्य मन्त्रों को गुरु के उपदेश से अपो व ध्यान करो ।
(पणतोस ) पैंतीस |
(च) जार। (दुगं )
( जवह) अप करो ।
प्र०- परमेष्ठी किसे कहते हैं ?
०-जो परम पद में स्थित है ये परमेष्ठी कहलाते हैं।
प्र०- परमेष्ठीवाचक पैंतीस अक्षरों का मन्त्र कौन-सा है ?
० णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं ।
णमो उनमझायाणं, णमो लोए सब्यसाहूणं ॥
इसे णमोकार मन्त्र, अनादिनिधन मन्त्र, मंगलमन्त्र बादि अनेक नामों से कहा जाता है ।
२- नमस्कार मन्त्र
३- मंगल मन्त्र
४- परमेष्ठी वाचक मन्त्र
२०- नमोकार मन्त्र के अनेक नाम कौन से हैं ?
०-१णमोकार मन्त्र
५- अनादिनिधन मन्त्र ६- बोरासी लाख मन्त्रों का राजा
७-तरण-तारण मन्त्र
८ - महामन्त्र
- राति मन्त्र
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द्रव्य संग्रह
१०-मूल मन्त्र ११-मन्त्रराज १२-सर्वमान्य मन्त्र कायोम को परमेष्ठी वाचल पाता है इसको मिनि कोजिए।
१०-अरहंत, अशरोरो अर्थात् सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, मुनि ( साधु ) ये पांच परमेष्ठी हैं। इनके पहले अक्षरों के मिलाने से 'ओम' को सिद्धि होती है।
__ अरहंत का पहला अक्षर 'अ' अशरीरी। सिद्ध ) का पहला अक्षर 'अ' = अ+अ-आ आचार्य का पहला अक्षर 'आ' - आ + आ आ उपाध्याय का पहला अक्षरेउ-आ+उ-ओ मुनि का पहला अक्षर म् = ओ+म् - ओम् शब्द बनता है।
अ+अ+ आ इन समान वर्गों के मिलाने के लिए संस्कृत व्याकरण में 'अकः सवर्णे दोर्घः' सूत्र है। सूत्रानुसार दोर्घ 'आ' बन जाता है।
मा+उ दोनों के मिलाने के लिए आद्गुणः सूत्र लगने से आ और उ मिलकर ओ बनता है | ओ के साथ म् मिलाने से 'ओम' शब्द बन जाता है।
प्र-ओम् की मान्यता ।
ज०-ओम् यह सर्वमान्य मन्त्र है । यह जैन व जेनेतर सभी सम्प्रदायों में पूज्य माना गया है।
जेन लोग-ओम् को परमेष्ठी वाचक मानते हैं।
जेनेतर लोग अ+उ+म्-तीनों मिलाकर ओम् मानते हैं । तथा उनके अनुसार 'अ' विष्णुवाचक है ।
'उ' महेश्वर वाचक है।
और म ब्रह्मा का वाचक है। प्रा-'ओम, ओरम् और 'ओं' में से शुद्ध कौन-सा है ?
२०-तोनों (ओम, ओ३म्, ओं) शुद्ध हैं। तीनों की व्याकरण से सिद्धि होती है । मोऽनुस्वारः सूत्र से ओम के म् का अनुस्वार होने पर 'मों हो जाता है । 'बोनस' का तन्त्र व्याकरण के अनुसार मिपातन से सिव है।
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द्रव्य संग्रह
प्र०-णमोकार मन्त्र जपते समय मन को स्थिर रखने का आय बताइये?
उस-प्णमोकार मंत्र जाप्य के लिए आचार्यों ने मुख्य तीन विधियाँ बताई हैं-इनमें मन स्थिर हो जाता है-(१) पूर्वानुपूर्वी विधि, (२) पश्चातानुपूर्वी विधि, (३) यथातथ्यानुपूर्वी विधि । वैसे यह मन्त्र १८४३२ प्रकार से बोला जा सकता है। पूर्वानुपूर्वी विधि-गमोकार मन्त्र जैसा है उसी रूप मे पढ़ना ।
णमो अरहताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं ।
णमो उबतायाणं णमो लोए सव्यसाहूणं ।। ?म निधि को प्रायः आदत होने से मन चंचलता से इधर-उधर दौड़ लगाता है । अतः दुसरो विधि उपयोगो देखिये। पश्चातानुपूर्वी-पोछे से पहिये । णमोलोए सव्वसाहणं, णमो उवमायाणं । णमो आइरियाणं णमो सिवाणं णमो अरहताण ॥ इस विधि से भी आगे बढ़कर
यथातथ्यानुपूर्वी-ऊपर से, नीचे में, मध्य से कहीं से भी पढ़िए । बस शर्त यही है कि पांच पद से अधिक न हों व कम भो न हों।
जैसे—णमो अरहन्ताणं । णमो उवज्मायागं, णमो सिद्धार्ण, णमो आइरियाणं । शमी लोए सव्वसाहणं ।
कम से, आगे-पोछे दूसरा पद फिर तोसरा आदि क्रम से पढ़ने पर मन एकदम स्थिर हो जाता है । यह ध्यान को एक अमूल्य निधि है।
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द्रव्य संग्रह प्र-जाप्य को इस प्रकार मागे-पीछे बोलने में कोई दोष नहीं लगता?
उ-नहीं। जैसे-लड्डू को किधर से भी खाइये, मीठा-ही-मोठा है । उसी प्रकार णमोकार मंत्र का { ३५ अक्षर का मन्त्र ) जाप कहीं से भी अपिये, आनन्द और शांति का ही प्रदाता है।
प्र०-ध्यान की सिद्धि के लिए जाप्य को विधि बताइये।
उ०-जाप्य तीन प्रकार से किया जाता है १-वाचनिक, २-मानसिक, ३-उपांशु जाप्य
वाचनिक-वचन मे बोलकर जप करना । मानसिक-मन-मन में उच्चारण करना । उपांश-ओठों को हिलाते हुए मन्द-मन्द स्वर में जाप करना ।
इनमें मानसिक बार उत्तम है 1 उसका फल भी उनम है। 'उपाश्" जाप मध्यम है तथा वाचनिक जाप जघन्य है।
प्र०-एक हो जप को १०८ बार बोलते-बोलन भो मन स्थिर नहीं रहता है । उसे रोकने का क्या उपाय है ?
०-एक माला में एक ही मन्त्र का उच्चारण करना आवश्यक नहीं है। स्थिरता के लिए एक ही माला में भिन्न-भिन्न जाप भी कर सकते है, जिससे चञ्चल मन क जाता है जैसे-ओम् नमः । ओ३म ह्रीं नमः । बो३म् असि आ उ सा नमः। ओश्म अर्हद्भ्यो नमः । सिद्धेभ्यो नमः । सरिभ्यो नमः । पाठकेभ्यो नमः । माधुभ्यो नमः आदि रूप से चौबीस तीर्थकर, स धर्म, रत्नत्रय, सोलहकारण भावना, पूज्य परमेष्ठियों के वाचक माम आदि के आधार से भिन्न-भिन्न जाप करें। उस समय अन्दर में विचार करें, एक बार जिस बाप को जप लिया है पुनः नहीं जपूंगा । नये-नये की खोज में मन केन्द्रित हो जायेगा। ध्यान की साधना में सफलता प्राप्त होगी।
अरहंत परमेष्ठी का स्वरूप नहषाइकम्मो । सनसुहणाणवोरियमईओ। सुहबेहत्यो अप्पा, सुबो मरिहो विचितिम्रो ॥ ५० ॥
(षट्चक्षुधाइकम्मो) जिसने चार पातिया कर्म नष्ट कर दिये हैं। (सणसुदणाणवोरियमईओ) बो दर्शन, सुख, शान तथा बीर्यमय है।
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द्रव्य संग्रह (सुइदेहत्यो ) शुभ देह में स्थित है। ( सुबो ) वह शुद्ध। ( अप्पा) वात्मा । ( अरिहो ) अरिहंत है। (विचितिजो) वह ध्यान करने योग्य
निशानेबार घालिगा कर्भ नष्ट कर दिये हैं। जो दर्शन, शान, सुक मौर वीर्य से सहित हैं, शभदेह में स्थित हैं वे शुद्ध आस्मा अरिहंत हैं और ध्यान करने योग्य हैं।
मा-नित्य ध्यान करने योग्य कौन है ? ज.-'अरिहंत'। प्र०-अरिहंत किन्हें कहते हैं ?
उ०-जिसने चार घातिया कर्म नष्ट कर दिये हैं तथा जो अनन्त दर्शन, शाल, सुख और वोर्य से युक्त हैं, उन्हें अरिहन्त कहते हैं।
प्र.-वातिया कर्म किसे कहते हैं ? वे चार कौन से हैं ?
उम्-जो जीव के अनुजोवो गणों का बात करते हैं वे घातिया कर्म कहलाते हैं। वे चार---ज्ञानावरण, २-दर्शनावरण, ३-मोहनीय और ४-अन्तराय हैं।
प्र०-अनुजीवो गुण किसे कहते हैं ? उभ-भावस्वरूप गुणों को अनुजीवी गुण कहते हैं। प्र०-अनन्त चतुष्टय कौन से हैं ?
उ.-अनन्तदर्शन, अनन्तमान, अनन्तसुल और अनन्तवीय-ये अनन्त चतुष्टय कहलाते हैं।
प्र.-किस कर्म के नाश से कौन-सा गुण प्रगट होता है ? उ०-ज्ञानावरण कर्म के क्षय से अनन्तमान ।
वर्शनावरण , , अनन्तदर्शन । मोहनीय , अनन्तसुख । अन्तराय ,
अनन्तवोर्य प्रकट होता है। प्र०-अरिहन्त जिस शुभ देह में स्थित रहते हैं उसका नाम बताइये।
च०-परमौदारिक शरीर को शुभ देह कहते हैं। अरिहन्त भगवान का यही शरीर होता है। प्र.-परमौदारिक शरीर किसे कहते हैं ?
-जिस शरीर में से हरीराषित अनन्त निगोदिया बीय पूर्णरूपेण
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द्रव्य संग्रह निकल जाते हैं जो स्फटिक के समान शुद्ध स्वच्छ होता है वह शरोर परमौदारिक शरीर कहलाता है ।
प्र.-अरिहन्तों के साथ शुद्ध विशेषण क्यों दिया ?
उ०-अठारह दोषों से रहित होने से वे शुद्ध आन्मा हैं इसलिए शुद्ध विशेषण दिया है।
सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप गट्टकम्मवेहो, लोयालोयस्स जाणो बट्ठा । पुरुसायारो अप्पा, सिद्धोझाएह लोयसिहरत्थो ।। ५१ ॥
बाययार्थ
(गट्टकम्मदेहो ) आ5 कर्म और पांच शरीर रहित । ( लोयालोयस्स) लोक और अलोक का (जाणओ) ज्ञाता। (दहा ) और द्रष्टा । पुरुसायारो) पुरुपाकार । ( लोयसिहरस्थो । लोक के शिखर पर स्थित । ( अप्पा ) आस्मा । ( सिद्धो ) मिद्ध परमेष्ठी हैं। (झाएह ) तुम सभी उनका ध्यान करो। अर्थ
आठ कर्मों तथा पांच शरीरों से रहित, लोक-अलोक को जानने व देखने वाले, पुरुषाकार से लोक के शिखर पर स्थित आत्मा सिद्ध परमात्मा है, उनका ध्यान करो।
प्र-ध्यान के लिए योग्य कौन हैं ? उ०-सिद्ध परमात्मा ध्यान के योग्य है। प्रा-सिद्ध परमात्मा कैसे होते हैं ?
३०-जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय--इन आठ कर्मों से रहित हैं, औदारिक, येक्रयिक, आहारक, तजस व कार्मण शरीर से रहित है, वे लोक-अलोक को जानने वाले हैं । वे सिद्ध परमेष्ठो हैं।
प्रा-सिद्ध परमेष्ठी कहाँ रहते हैं ? उ.-लोक के अग्रभाग में रहते हैं । प्र.-लोक के अग्रभाग को क्या कहते हैं ? उ.-'सियालय'।
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:
EX
द्रव्य संग्रह
प्र० - सिद्धालय में सिद्धों का आकार बताइये ।
उ०- सिद्ध परमेष्ठी का आकार पुरुषाकार है। वे लोकान में अपने अंतिम शरीर से किञ्चित् न्यून आकार के रूप में रहते हैं ।
प्र० - सिद्ध परमेष्ठी की प्रतिमा केसी होती है ?
उ०- सिद्ध परमेष्ठी की प्रतिमा अष्टप्रातिहार्य रहित तथा चिह्न रहित होती है।
प्र० - अरहन्त परमेष्ठों की प्रतिमा कैसी होती है ?
उ०- नासाग्र दृष्टि, वीतराग मुद्रा अष्टप्रातिहार्य, यक्ष-यक्षिणी और चिह्नादि परिकर सहित प्रतिमा मरहन्त परमेष्ठी को होती है ।
प्र० - सिद्धालय में अनन्त सिद्ध एक साथ कैसे सिर्फ ४५ लाख योजन का है ) क्या वे एक दूसरे से हैं ?
रहते हैं ? ( वह बाधित नहीं होते
उ०- यद्यपि सिद्धक्षेत्र ४५ लाख योजन का है फिर भी वह अनन्तानन्स सिद्ध परमेष्ठी रहते हैं । यह 'अवगाहन' गुण को विशेषता है। शुद्ध आरमा अमूर्तिक है अतः सभी सिद्ध अमूर्तिक होने से परस्पर बाबा को प्राप्त नहीं होते हैं ।
प्र०- उदाहरण देकर समझाइये।
उ०- जैसे— एक कमरे में एक हजार पावर का लट्टू ( बल्ब) का काश फैल रहा है उसी में उसी पावर के सौ-दो सौ और भी बल्ब लगा दीजिए। सबका प्रकाश, प्रकाश में समाता जाता है। कोई किसी को बाधा नहीं पहुंचाता है ठीक उसी प्रकार सिद्धालय में चैतन्य बल्ब रूप आत्माओं का ज्ञान प्रकाश, अनन्त आत्माओं का एक साथ विस्तारित होकर रहता है, किसी को बाधा नहीं होती है।
आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप
सण गाणपहाणे, बोरियचारितवरतवायारे ।
1
अप्पं परं च जुज, सो बाइरिओ सुणी होओ ।। ५२ ॥ अन्ययार्थ
( जो ) जो ( मुणी ) मुनि । ( दंसणणाणपहाणे ) दर्शन और मान की प्रधानता सहित। ( वीरियचा रित्तवरतवायारे) कोर्य, चारित्र तथा श्रेष्ठ तपाचार में। (अप्पं ) अपने को । (च ) और ( परं) दूसरों को
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( जुजइ ) लगाते हैं । ( सो ) दे । (आइरिओ) आचार्य (भेश्रो ) ध्यान करने योग्य है ।
जो दर्शन, ज्ञान को प्रधानता से युक्त हैं। वीर्य, चारित्र तथा श्रेष्ठ तप में अपने को तथा शिष्यों को लगाते हैं वे आचार्य ध्यान करने योग्य हैं ।
प्र० - आचार्य परमेष्ठी किन्हें कहते हैं ?
उ०- जो पंचाचार का स्वयं पालन करते हैं तथा शिष्यों से भी पालन कराते हैं वे आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं।
प्र० - पंचाचार के नाम व लक्षण बताइये ।
० - पंचाचार - १ - दर्शनाचार, ४- तपाचार, ५- -वीर्याचार |
२ - ज्ञानाचार, ३ चारित्राचार,
दर्शनाचार - निर्दोष सम्यक् दर्शन का पालन करना दर्शनाचार है । ज्ञानाधार - अष्टांग सहित सम्यक ज्ञान को आराधना करना शानाचार है ।
चारित्राचार - तेरह प्रकार के चारित्र का निर्दोष रूप से आचरण
करना ।
तपाचार- बारह प्रकार के तपों का निर्दोष रीति से पालन
करना ।
वोर्याचार — अपनी शक्ति नहीं छिपाते हुए उत्साहपूर्वक संयम को आराधना करना बीर्याचार है ।
प्राचार्य परमेष्ठो का उपकार बताइये ।
उ०- भव्यजीवों को जिनधर्म की दीक्षा देकर मोक्षमार्ग में लगाना, हित की शिक्षा देना, शिष्यों का संग्रह -निग्रह आदि आचार्य परमेष्ठी के उपकार हैं !
उपाध्याय परमेष्ठी का स्व
जो रयणत्तयत्तो,
निरो सो उनन्सानो अप्पा, अविवरक्सो नमो तस्स ॥५३॥ 'अन्ययार्थ
( रयणसयतो ) रस्तजय से युक्त (ओ) ओ । (अप्पा) बारमा । (वि) निष्य (शम्भोबदेसणे ) धर्मोपवेश देने में ( भिरदो )
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दव्य संग्रह तत्पर है। (जविवरखसहो) यतियों में श्रेष्ठ । ( सो) कह । ( उकमामो ) उपाध्याय परमेष्ठी है। (तस्स ) उसको । ( नमो ) नमस्कार
रत्नत्रय से युक्त, जो आत्मा नित्य धर्मोपदेश देने में तत्सर है मुनियों में श्रेष्ठ वे उपाध्याय परमेष्ठो हैं । उनको नमस्कार है । प्र-मुनियों में श्रेष्ठ कौन है ?
-'उपाध्याय परमेष्ठी'। प्र०-'उपाध्याय परमेष्ठी' कौन कहलाते हैं।
उल-जो रत्नत्रय से युक्त हैं, नित्यधर्मोपदेश देने में तत्पर हैं वे 'उपाध्याय परमेष्ठी' हैं।
प्र०-रलत्रय कौन-से हैं ?
उ.-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र-ये तीन रत्न हैं।
प्र-उपाध्याय परमेष्ठो का उपकार बताइये।
ज०-भव्य जोवों को सत्य मार्ग का उपदेश देना तथा शिष्यों को पाठन कराना उनका महान उपकार है ।
साधु परमेष्ठी का स्वरूप बसणणाणसमा मा मोक्तारस मोचरितं । सापयदि पिच्चरं सारस मुजी नमो तस्स ॥५४॥
( जो ) जो । { मुणो) मुनि । हु ) निश्चय से ( देसणणाणसमग्गे ) दर्शन और शान से परिपूर्ण ! ( मोक्खस्स ) मोक्ष के । ( मग्गं ) मार्गभूत । (बारितं ) चारित्र को। ( गियासुर) हमेशा शुभ रोवि से । ( सापयदि ) सिद्ध करते हैं । (स ) वह । (ख) परमेष्ठो है । (रासस) जन्हें । ( णमो) नमस्कार है।
जो मुनि निश्चय से दर्शन और जान से परिपूर्ण है, मोक्षमार्म में कारणभूत चारिखको निस्य अधति से किया करते है साघु परमेच्छी कहलाते हैं। उन्हें हमारा मातार हो।
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द्रव्य संग्रह प्र०-मोक्षमार्ग कौन-सा है ? उभ-निश्चय से सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र मोक्षमार्ग है। प्र० साधु कौन कहलाते हैं ?
उ-जो रत्नत्रय को साधना शुद्ध रोति से करते हैं वे साधु परमेष्ठो कहलाते हैं।
ध्येय, ध्याता, ध्यान का स्वरूप जं किंधिधि वितंतो णिरोहवित्ती हवे जवा साहू।
लखूणय एयत्तं तदाहु तं तस्स पिच्चर्य झाणे ॥५५॥ अमाया
( अदा ) जिस समय! ( साह ) साधु । (एयत्तं ) एकाग्रता को। (लद्धणय ) प्राप्त कर । ( जं) जिस । ( किंचिवि) किसी भी ध्यान करने योग्य बनाको । (मिमी) विचार करता आ (चिरोहवित्तो) इच्छारहित हो जाता है । ( तदा) उस समय । (छ) निश्चय से (सं) यह । (तस्स ) उसका । ( णिच्चयं ) निश्चय से 1 (माण ) ध्यान । (हवे ) होता है।
जिस समय साधु विषय-कषायों को त्याग कर अरहन्तादि किसी भो ध्यानयोग्य वस्तु का ध्यान करता था, इच्छारहित होता है । (आत्मचिन्तन में लीन हो जाता है। उस समय उसके निश्चय से ध्यान होता है।
प्रा-साधु के निश्चय ध्यान कब होता है ?
उप-अब साधु विषयकषायों से विमुख होकर अरहन्तादि का ध्यान करता हुआ आएम-चिन्तन में लीन हो जाता है तब उसके निश्चय ध्यान होता है।
प्र-निश्चय ध्यान किसे कहते हैं? उ०-पर से भिन्न स्व आत्मा में लोनता निश्चय ध्यान है । प्र०-ध्यान करने वाला क्या कहलाता है? उ०-ध्याता' कहलाता है। प्र-जिसका ध्यान किया जाता है उन्हें क्या कहते हैं ? उस-'ध्येय' कहते हैं।
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द्रव्य संग्रह
प्र०चित की एकाग्रता को क्या कहते है ? उ०- 'ध्यान' कहते हैं ।
प्र० ध्यान का फल क्या है ?
उ०- निराकुल सुख को प्राप्ति ध्यान का फल है ।
परम ध्यान का लक्षण
मा चिट्टह मा जंपह मा चितह किवि जेण होइ थिरो । अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे शाणं ॥ ५६ ॥ अन्वयार्थ
15,
मा
( किवि ) कुछ भी । ( मा चिगृह ) शरीर से चेष्टा न करो । अंह ) मुंह से न बोलो। ( मा चितह) मन से न सोचो। ( ग ) जिससे (अप्पा) आत्मा । ( अप्यस्मि आत्मा में (थिरो ) स्थिर । ( होइ ) होकर । ( रओ) लवलीन हो । इणमेव ) यही । उत्कृष्ट । ( झाणं ) ध्यान | ( हवे ) है |
)
( परं )
अर्थ
शरीर से चेष्टा न करो। मुँह से कुछ भी न बोलो। मन से कुछ भी मत सोचो जिससे मात्मा, आत्मा में स्थिर होकर लवलीन हो यही उत्कृष्ट ध्यान है ।
प्र० - ध्यान परम कौन-सा है ?
उ०- मानसिक, वाचनिक और कायिक व्यापार को छोड़कर आरमा का आश्मा में लीन हो जाना परम ध्यान है ।
प्र०- परम ध्यान की सिद्धि कैसे होती है ?
उ०- वीतरागी, निर्ग्रन्य, दिगम्बर मुनिराज को ही परम धान को सिद्धि होती है ।
ध्यान के उपाय
तवसुदवदयं चेवा झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा
तम्हा ततियणिरदा तल्लद्धीए सवा होई ॥५७॥ अन्वयार्थ
( जम्हा ) क्योंकि । ( तयसुवदनं) तप, श्रुत और व्रत को धारण करने वाला । ( वेदा ) आत्मा । ( माणरहधुरंधरो ) ध्यानरूपी रथ की घुरा को धारण करने में समर्थ | ( हवे ) होता है । ( तम्हा ) इसलिए ।
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ब्रम्प संपह (तस्बीए । ) उस ध्यान की प्राप्ति के लिए । (सा) हमेशा । (तसिपमिरवा) उन सीमों में लवलीम (होह) होजो।
क्योंकि सफ, भुत बार व्रत को धारण करने वाला मात्मा उस ध्यान रूपी रप की धुरा को धारण करने में समर्थ होता है इसलिए उस ध्यान को प्राप्ति के लिए हमेशा उन तीनों में लवलीन होत्रो।
प्र.-ध्याता केसा होना चाहिए?
उ०बारह तप, पांच महायतों का पालन करने वाला एवं बालों का मनन करने वाला तपमान, श्रुतवान और प्रतवान आत्मा ही योग्य ध्याता हो सकता है।
प्र०-क्यों?
उ०-वही व्यानरूपी रथ को धुरा को धारण करने में समर्थ होता है।
प्र.-ध्यानी का वाहन बताइये। उ.-ध्यानरूपी 'रथ' ध्यानी का वाहन है। प्र०-ध्यानरूपो रथ में यात्रा करने वाला किस नगर में प्रवेश
.-'मोक्षनगर में प्रवेश करता है। प्र-ध्यान की सिद्धि के लिए आवश्यक सामग्री क्या है?
२०-ध्यान की सिद्धि के लिए-सप, श्रत और व्रतों का परिपालन करना आवश्यक है।
अम्मकार की प्रार्थना सम्बसंगहमि मुणिमासमोलसंचयका पुतुला। सोपपंतु तत्वरेन मिनिमा मणिय ॥५॥
( तमुसुत्तधरेण) अपमानी। {णेमिचंदमुनिणा) नेमिचन्द्र मुनि ने। (जं)जो ( इण यह। (दबसंगह) व्यसंग्रह नामक पम्प । (मणिय ) कहा है। ( सुदपुष्णा ) शास्त्र के माता । (दोससंचयनुवा) समस्त दोषों से रहित । ( मणिणाहा ) मुनिराज । (सोपवेतु ) शुद्ध करें।
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________________ द्रव्य संग्रह अल्पज्ञानी नेमिचनः मुनि ने जो यह द्रव्यसंग्रह नामक ग्रन्थ कहा है, शास्त्र के माता समस्त दोषों से रहित मुनिराम शुद्ध करें। प्र.स पन्थ का माम क्या है ? २०-'द्रव्य-संग्रह है। प्र०-'द्रम्पसंग्रह' के रचयिता कौन थे? उ०-आचार्यश्री 108 नेमिचन्द्र मुनि / प्र. अल्पज्ञानी शब्द किस बात का सूचक है ? उ०-आचार्य की लघुता प्रदर्शन एवं विनय गुण का प्रतीक है / प्र.-यहाँ शास्त्र शुद्धि करने का अधिकार किसे दिया है ? उ.-निर्दोष मुनिराज को जो कि समस्त शास्त्रों के ज्ञाता हैं 1 (के मुनिराज ही शास्त्र शुद्ध करने के अधिकारी हैं।) ॥इति तृतीयोऽधिकारः॥