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________________ द्रव्य संग्रह सम्यक ज्ञान का स्वरूप संसयविमोहविग्भमविज्जियं अप्पपरसरुवस्स । गणं सम्मण्णाण सायारमणेयभेयं च ॥४२॥ भावया ( संसयविमोहविन्भमविवक्जियं) संशय, अनभ्यवसाय, विपर्यय रहित । ( सायारं ) आकार सहित । ( अप्पपरसरुवस्स ) अपने व दूसरे के स्वरूप का। (गहणं ) ग्रहण करना अर्थात् जानना । ( सम्मण्णाण) सम्यक् शान है । {च ) और । ( अणेयभेयं ) वह अनेक प्रकार का है । मर्च संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित ब आकार सहित अपने और पर के स्वरूप का जानना सम्यक ज्ञान कहलाता है और वह सम्यक ज्ञान अनेक प्रकार का है। प्रक-सम्यकसान के कितने भेद हैं ? स-पांच भेद है-१-मतिज्ञान, २-श्रुतज्ञान, ३-अवधिज्ञान, ४-मनःपर्ययज्ञान और ५-केवलशान। प्र०-सम्यक ज्ञान के अनेक भेद क्यों कहे? उस-यद्यपि सम्यक् शान के मूल में पांच भेद ही हैं परन्तु पांचों में केवलज्ञान को छोड़कर अन्य चार शानों के अनेक भेद हैं इसलिए सम्यक शान के ग्रन्थकार ने 'अणेयभेयं'–अनेक भेद कहे हैं । वर्शनोपयोग का स्वरूप जसामण्णं गहणं, भावाणं गेव कट्टमायारं । अविसेसिदूण अटे, बसणमिति मण्णए समए ॥४३ अन्वयार्च (षट्ठ) पदार्थ के विषय में। ( अविसेसिदूण ) विशेष अंश को ग्रहण किये विना । ( आयारं ) आकार को। (व ) नहीं । ( क ) करके। (मावाणं) पदापों का। (ज) जो। ( सामण ) सामान्य । ( महण) प्रहण करना अर्थात् जानना । (समए) शास्त्र में। (वंस ) वचन । (दि ) इस प्रकार । ( भण्णए) कहा जाता है ।
SR No.090157
Book TitleDravyasangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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