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निश्चय एवं व्यवहार मोक्षमार्ग का अत्यन्त सरल एवं सुबोध भाषा एवं शैली में वर्णन करके ग्रन्थकार ने "गागर में सागर" की उक्ति को चरितार्थ किया है। इसमें विषय का विवेचन लाक्षणिक शैली में किया गया है । इसका यह वैशिष्टय है कि प्रत्येक लक्षण द्रव्य और भाव ( व्यवहार और निश्चय ) दोनों दृष्टियों से प्रस्तुत किया गया है । इसी कारण लाक्षणिक ग्रन्थ होकर भी "अध्यात्मशास्त्र" के रूप में ही इसकी महत्ता सामने आती है। इस ग्रन्थ में उपर्युक्त विषयों के साथ ही पंचपरमेष्ठी तथा ध्यान का भी संक्षेप में विवेचन है किन्तु प्रारम्भ में द्रव्यों का विशेष कथन होने से इसका नाम " द्रव्यसंग्रह" रखा गया। लघु होते हुए भी इस ग्रन्थ में जैनधर्म सम्मत प्रायः सभी प्रमुख तत्वों का जितना व्यवस्थित, सहज और संक्षेप रूप में स्पष्ट विवेचन किया गया है वैसा सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय में दुर्लभ है ।
मूल ग्रन्थ में विषयानुसार अधिकारों का विभाजन न होते हुए भी वृत्तिकार ब्रह्मदेव ने इसे मुख्यतया दोन अधिकारों में विभव किया है। षद्रव्य - पञ्चास्तिकाय प्रतिपादक प्रथम अधिकार आरम्भिक २७ गाथाओं से युक्त है | गाथा सं० २८ से गाथा सं० ३८ तक कुल ११ गाथाओं वाला दूसरा अधिकार 'सप्ततत्त्व - नवपदार्थ' प्रतिपादक है। 'मोक्षमार्ग - प्रतिपादक' नामक तृतीय अधिकार में ३९वीं गाया में ४६वीं गाथा तक की इन आठ गाथाओं में व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्ग सुन्दर विवेचन किया गया है। बादकी दो गाथाओं में मोक्षमार्ग प्राप्ति का साधन ध्यान तथा ध्यान के आलम्बन (ध्येय) पंचपरमेष्ठी का सारभूत विवेचन करके अन्तिम (५८वीं ) स्वागताछन्द की इस गाथा में ग्रन्थकार ने अपने नाम निर्देश के साथ अपनी लघुता प्रकट की है ।
द्रव्यसंग्रह का उपर्युक्त विषयों का प्रतिपादन अत्यन्त प्रामाणिक और सारभूत देखकर परवर्ती अनेक आचार्यों ने इस ग्रन्थ की गाथाओं को अपने विषय पुष्टि के रूप में उद्घृत करके द्रव्यसंग्रह के प्रति अपना गौरव प्रकट किया है । वृत्तिकार ब्रह्मदेव ने तो "भगवान् सूत्रमिदं प्रतिपादयति" कहकर द्रव्यसंग्रह की गाथाओं को सूत्र और और ग्रन्थकर्ता को भगवान् शब्दों से सम्बोधित करके इस ग्रन्थ की श्रेष्ठता और पूज्यता मान्य करके बहुमान बढ़ाया है । सरल, लघु जोर सारभूत आदि विशेषताओं से युक्त यह ग्रन्थ प्रारम्भ से ही अत्यन्त लोकप्रिय रहा है । अतः संस्कृत, भाषावचीवनिका ( ढूँढारी अथवा पुरानी हिन्दी ), हिन्दी अंग्रेजी