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द्रव्य संग्रह प्र०-आस्मा अमूर्तिक है, कर्म भूतिक हैं। ऐसी स्थिति में आत्मा में फर्म बन्धन कैसे हो सकता है ? बन्ध तो मूर्तिक का मूर्तिक के साप होता है।
उ०-आस्मा अमूर्तिक है तथापि संसारी आत्मा में अनादिकाल से कर्म चिपटे हुए है ना ना नदि पूर्तिका है। मूर्तिक होने के कारण ही उसका कर्मों के साथ बन्ध होता है। यहां भूतिक संसारी आत्मा के साथ मूर्तिक कर्मों का बन्ध जानना चाहिए। ( मूर्तिक के साथ ही मूर्तिक का बन्ध यहाँ है । )
अन्ध के धार भेव व उनके कारण परिद्धिविअणुभागप्पसभेवावु चविषो बंषो।
जोगा परिषदेसा,ठिदिमणुभागा कसायदो होति ॥३३॥ अन्वयार्थ
(बन्यो ) बन्ध । ( पयसिदिदि अणुभागष्पदेसभेदा ) प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से। ( चदुविषो ) चार प्रकार का है । (दु) और। ( पर्याडपदेसा) प्रकृति तथा प्रदेशबन्ध । ( जोगा ) योग से। ( ठिदिअणुभागा ) स्थिति और अनुभाग बन्ध । ( कसायदो ) कषाय से । (होति ) होते हैं।
प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध के मेद से बन्ध चार प्रकार का है। इनमें प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध योग से तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषाय से होते हैं।
प्रक-प्रकृतिजन्य किसे कहते हैं ?
२०-कर्मों के स्वभाव की प्रकृतिबन्ध कहते हैं। जैसे-झानाबरणादि।
प्र-स्थितिबन्ध किसे कहते हैं।
उ-शानावरणादि कर्मों का अपने स्वमाव से च्युत नहीं होना सो स्थितिबन्ध है।
प्र०-अनुभागबन्ध किसे कहते हैं ? च०-पानावरणादि कमों के रस विशेष को अनुभागबन्ध कहते हैं।