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Jain Education international
भाव और अनुभाव
मुनि नथमल
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
For Private & Perso
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श्रद्धाके आँख नहीं होती, केवल पाँव रहते हैं : वह चुप सिर झुकाये चला करती है। बुद्धिके पाँव नहीं रहते, केवल
आँख होतो है : वह देखती है और दिखा सकती है। पर जीवन पूरा विकसित हो और अपनेको प्रमाणित भी कर सके, इसके लिए न केवल चलते जाना पर्याप्त होगा न देखते-दिखाते रहना। व्यवहार-जगत्में आँख और पाँव दोनोंका रहना आवश्यक है। श्रद्धा हमारी आधारभूमि हो और बुद्धि उसके ओर-छोरको अँजोरती आलोक-शिखा। यहीं सूक्तियों और नीतिवचनोंका विशेष उपयोग और महत्त्व होता है । इनमें श्रद्धा और बुद्धि दोनोंका ऐसा समन्वित स्वर वाचा पाता है जो अनुभूतियोंकी आगमें तपा हुआ भी होता है। इसी कारण सीधे और सरल जीवनयात्रीके लिए सूक्तियों और नीतिवचनोंके संकलन सबसे समीचीन पाथेय रहते हैं । प्रस्तुत संकलन तो अपनी सरसता, सौम्यता और व्यापक दृष्टिको लेकर और भो मूल्यवान् हो जाता है, विशेषकर इसलिए कि इसका जन्म उस अनुभूतिसे हुआ है जो ज्ञान और तप इन दो कूलोंके बीचसे प्रवाहित है। यहाँ अभिव्यक्तिकी रुचिरता व्यक्तित्वकी शुचिताका ही सरस रूपान्तर है ।
मूल्य रुपये
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भाव और अनुभाव
मुनि नथमल
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भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
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ज्ञानपीठ लोकोदय ग्रन्थमाला : ग्रन्श्रांक-१५२ सम्पादक एवं नियामक : लक्ष्मीचन्द्र जैन
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गतिको
अनुभूतिको कल्पनाको
-- मुनि नथमल
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द्वितीय संस्करण
भाव और अनुभावके प्रति जनताका जो लगाव रहा, उसे मैं वाक् और मनस्की समापत्ति मानता हूँ। जहाँ वाक् और मनस् एक दिशागामी होते हैं, वहीं हृदयका स्पन्दन धमनियोंमें नव-रक्त प्रवाहित करता है । सलिल कमलको उत्पन्न करता है पर उसके परिमलका प्रसार वह नहीं करता। वह पवनका काम है। भारतीय ज्ञानपीठने वही काम किया है । इसलिए ‘भाव और अनुभाव'का दूसरा परिवद्धित संस्करण सद्यः अपेक्षित हो रहा है।
- मुनि नथमल
दिल्ली २०२१ आश्विन शुक्ला ७
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दो शब्द
कल्पनाकी ऊमियाँ अभिनय करती हैं, मन अनन्त भविष्यको अपने बाहुपाशमें जकड़ लेता है।
बन्धन और मुक्ति एक क्रम है ।
भविष्यकी पकड़से मुक्ति पानेवाली पहली कली है 'कल' और दूसरी है 'परसों'।
इस कुसुमकी कलियाँ अनन्त हैं । जो खिलती हैं, वह 'आज' बन जाती हैं । सचाई वही है जो आज है।
आज 'कल' बनता है, कार्य कृत बन जाता है, अनुभूतियाँ बच रहती हैं।
जो चले वह वाहन नहीं होता। वाहन वह होता है, जो दूसरोंको चलाये । अनुभूतिके वाहनपर जो चढ़ चलते हैं, उनका पथ प्रशस्त है ।
आजकी धार पतली होती है, उसे वही पा सकता है जो सूक्ष्म बन जाये । कलकी लम्बाई-चौड़ाई अमाप्य है। अनुभूतियोंसे बोध पाठ ले, वर्तमानको परखकर चले और कल्पनाओंको सुनहला रूप दिये चले वह विद्वान् है, वह पारखी है और वह है होनहार ।
'अनुभव चिन्तन मनन' के बाद यह दूसरी पुस्तक है । गद्य काव्यकी यह धारा आगे चले, यह मैं स्वयं चाहता था और ऐसा सुझाया गया, फलतः इसका निर्माण हो गया। आचार्यश्री तुलसी मेरे लिए प्रकाश-स्तम्भ ही नहीं, महान् प्रेरणा-स्रोत हैं। उनके आशीर्वाद और पथ-दर्शन सदा मेरे साथ रहे हैं । इतस्ततः बिखरे हुए कुछ गद्योंका चयन कर मुनि दुलहराजजीने इसे परिवृद्ध करने का यत्न किया है।।
भाव शाश्वत है, सत्य अमिट है। मेरी भाषा उसे अपनेमें प्रतिबिम्बित कर सकी तो उसकी स्वयंमें कृतार्थता होगी। बाल-निकेतन, राजसमन्द
-मुनि नथमल २०१७ ज्येष्ठ कृष्णा १४ ।
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संकेतिका
मिदान
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समयके चरण अतीत जब झाँकता है १४ । यह मुक्ति गतिका क्रम
भाग्य-निर्णय विस्तारका मर्म
टीस, आवेग यन्त्र और चैतन्य
प्रगतिका मन्त्र, चरण-चिह्न पहले तोलो
अखण्ड व्यक्तित्व पहेलियाँ
सब कुछ साँचा
उदय और अस्त मौन
प्रगति और व्यापकता नीचे भी देखो
२२ । गुप्तवाद ऊपर भी देखो, दूसरेको भी अपराध
देखो २३ पूर्णकी भाषा यह कैसा साम्य, यह कैसा ज्ञान २४ | लचीलापन तटका बन्धन, गहराई में २५ सफलताका सूत्र प्रश्न-चिह्न
२६ / बालक्रीड़ा
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४
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४२
१९
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परछाइयाँ
नेतृत्व टेढ़ी-सीधी रेखाएँ, विनोद ४३ | स्वतन्त्र अस्तित्व, चमत्कारको जड़की बात
नमस्कार ६८ अभिव्यक्ति, अनुभूतिका
चमक तारतम्य
कला झुकाव, चुभन
अनावृत, नम्रता सचाईकी समझ
द्वैत, अद्वैत चीर, लघु-गुरु
पण्डित और साधक उलझन, कम-अधिक
व्यक्तिवाद न्यायकी भीख, चाह और राह ५० पर और परम नया और पुराना, अकम्प ५१ कृतज्ञता पारखी, परख
अमाप्य किधर, जागरण
विवेक छिद्र, मार्ग खुल जाये तो ५४ | तर्ककी सीमा स्मृति और विस्मृति
श्रद्धाकी भाषा जीवनके पीछे
दो वाद ज्योतिर्मय
श्रद्धा, श्रद्धय मृत्यु-महोत्सव, मूल्यांकन विरोध अनेक और एक
५९ विरोधका परिणाम
६० समझकी भूल काम्य और अकाम्य, सही समझ ६१ गालीका प्रतिकार श्रेष्ठतम
मला वही गहरी डुबकी
नये-पुरानेकी समस्या ख़तरा
आलोचना अनागृह
आलोचना और प्रशंसा नेता
६६ / आलोचक
0
0
0
प्रिय
८७
10
भाव और अनुभाव
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११०
११२
६
११४ ११५
एक मन्त्र श्रम और सोना भूख और भोग, गठबन्धन नहीं ९४ साधनाका मार्ग ___९५ अर्थवाद उपेक्षा और अपेक्षा, अनुसन्धान ९७ अकर्मण्यता नहीं अंकनका माध्यम रोटी और पुरुषार्थ, रोटीका
दर्शन १०० रोटी और मानवता १०१ सम और विषम १०२ समझसे परे
१०३ सन्तोंका साम्राज्य, भेद-रेखा १९४ यह कैसा आश्चर्य ? १०५ अनुशासनकी समझ,
____ एकान्तवास १०६ तुलसीके प्रति आराध्यके प्रति
१०८
११९
पहल अनेकान्त-दर्शन तुच्छ और महान् महान् कौन ? युवक वह था उतार-चढ़ाव गति कैसे ? ममताका देश सत्यम् शिवम् सुन्दरम् अभिव्यक्ति चरम-दर्शन आँखों देखा सच मानो या मत मानो उपासनाका मर्म स्मृति और विस्मृति आत्म-विश्वास प्रतिबिम्ब व्यक्ति और विराट आत्म-सत्य झुकाव
१२० १२१
१२३
१२४
१२५
१२८
निष्कर्ष
भाव और अनुभाव
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भाव
और अनुभाव [ सूक्तियाँ ]
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समयके चरण
स्मृतिके लिए तुम्हारे पास विशाल अत त है, कल्पनाके लिए असीम भविष्य, पर करनेके लिए केवल वर्तमान है, जो बहुत ही सीमित और बहत ही स्वल्प।
अतीतको तुम क्या देखोगे ? वह तुम्हारी ओर देख रहा है और देख रहा है तुम्हारी कृतियोंको । तुम वर्तमानको देखो। जिससे वह फिर तुम्हारी ओर आँख उठाकर न देख सके।
भाव और अनुभाव
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अतीत जब झाँकता है
मुझे चरण-चरणपर चलने में कठिनाईका अनुभव हो रहा था। यदि वर्तमानपर अतीतका प्रभाव न होता, यदि प्रवृत्ति अपना परिणाम छोड़ जाती, यदि मैं दस मील न चला होता तो मुझे कठिनाईका अनुभव नहीं होता। मेरी कठिनाई मुझे सिखा रही थी कि अतीत वर्तमानको प्रभावित करता है और मनुष्यको प्रत्येक प्रवृत्ति अपना परिणाम छोड़ जाती है।
भाब और अनुमान
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गतिका क्रम
मैंने आगे बढ़े हुए पैर से पूछा, तुम बड़े हो ?
उसने उत्तर दिया, नहीं ।
फिर आगे क्यों? उसके गर्वको सहलाते हुए मैंने कहा ।
उसने उत्तर दिया, गतिका यही क्रम है |
मैंने पीछे रहे पैरसे पूछा, तुम छोटे हो ? उसने उत्तर दिया, नहीं ।
मैंने
फिर पीछे क्यों ? उसके गर्वपर हलकी-सी चोट करते हुए उसने उत्तर दिया, गतिका यही क्रम है ।
मैंने दूसरे ही क्षण देखा, आगेवाला पैर पीछे है और पीछेवाला आगे । मैं मौन नहीं रह सका । मैं कह उठा, यह क्यों ? दोनोंने एक स्वर से उत्तर दिया, गतिका यही क्रम हैं । मैं विस्मय-भरी आँखोंसे देखता रहा चले जा रहे थे ।
वे अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते
-
भाव और अनुभाव
कहा ।
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विस्तारका मर्म
विस्तार वही पा सकता है, जो पैरोंका मूल्य आँक सके । बरगद जो विस्तार पाता है, उसका मर्म यही तो है ।
दूसरे वृक्षोंके पैर शाखाओंको जन्म देते हैं, बरगदकी शाखाएँ पैरोंको जन्म देती हैं - विस्तारका मर्म यही तो है ।
१६
बरगद इस सत्यको पा चुका है कि शाखाओंके आधारपर पैर नहीं टिकते, किन्तु पैरके आधारपर शाखाएँ टिकती हैं ।
भाव और अनुभाव
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यन्त्र और चैतन्य यन्त्र भी चलता है, मनुष्य भी चलता है। पर दोनोंकी गतिमें उतना ही अन्तर है जितना यन्त्र और मनुष्यमें । यन्त्र निश्चित गतिसे चलता है, उसमें देश, काल और परिस्थितिका विवेक नहीं होता, क्योंकि वह मनुष्य नहीं है । मनुष्य अपनी गतिमें परिवर्तन भी लाता है, उसमें देश, काल और परिस्थितिका विवेक होता है, क्योंकि वह यन्त्र नहीं है।
भाव और अनुभाव
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पहले तोलो
सत्य अच्छा है पर उसे पानेका उतना ही यत्न करो, जितना सहन कर सको। तुमने देखा होगा - प्रकाशमें मनुष्य देख पाता है किन्तु प्रखर प्रकाशके सामने आँखें चौंधिया जाती हैं । उसे सहने की क्षमता हर आँख में नहीं होती ।
१८
भाव और अनुभाव
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पहेलियाँ जो दिलाया जाता है वह अविश्वास है। विश्वास दिलानेकी वस्तु नहीं, वह स्वयं प्राप्त होता है।
यह कैसा अचरज ? जो चाहिए उसका भान ही नहीं और उसके
लिए तड़प रहे हो, जो नहीं चाहिए।
तुम आनेवालोंको नहीं पहचानते, क्योंकि वे वहाँसे आये हैं जहाँ तुम नहीं थे। तुम पहचानते हो जानेवालोंको, क्योंकि वे वहाँसे गये हैं. जहाँ तुम रह रहे हो।
भाव और अनुभाव
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साँचा प्रशंसाकी भट्टीमें गलाकर तुम व्यवितको चाहो जैसे ढाल सकते हो, पर याद रखो - अभिमानपर चोट की तो वह अकड़ जायेगा । फिर वह टूट सकता है किन्तु ढल नहीं सकता।
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मौन
समुद्र : जलधर ! जल तूने मुझसे लिया है। आश्रय कहीं है नहीं, तू शून्य विहारी है। आकृतिसे तू श्याम है, फिर भी गरज रहा है ? जलधर : तेरे खारे जलको मीठा बनाकर मैं लोगोंको सन्तुष्ट करता हूँ और वही जल तुझे लौटा देता हूँ। फिर मेरे गर्जनसे तुझे आपत्ति क्यों हो !
जलधर : समुद्र ! पुत्र तेरा कलंकी है, पुत्री है चपल । तू समूचा क्षारमय है फिर तू किस बूतेपर गरज रहा है ? समुद्र : जलधर ! तू भी तो मेरा ही तनुज है - आनन्द देनेवाला, परोपकारपरायण, खारेको मीठा करनेवाला ! तेरे-सरीखे बेटेपर मुझे गर्व है, फिर मुझे गरजनेका अधिकार क्यों न हो ? अब जलधरके पास कहनेको कुछ भी शेष नहीं था।
भाव और अनुभाव
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२२
नीचे भी देखो
यह कितना आश्चर्य है कि केलेसे तुम अनेक बार फल पानेकी आशा करते हो ? केवल बड़े-बड़े पत्तोंको देख मत भूलो। इस तने को भी देखो - कितना कोमल और कितना दुबला-पतला !
फल में रस होता है इसीलिए वह महत्त्वपूर्ण नहीं होता किन्तु वह महत्त्वपूर्ण इसलिए होता है कि उसमें बीज होता है । रसका मूल बीज है, बीजका मूल रस नहीं है ।
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ऊपर भी देखो मैं जितना नीचे देखता हूँ, अपने-आपमें उतना ही विशाल लगता हूँ। जब थोड़ा ऊपर देखता हूँ तो मेरी विशालता इस असीम गगनमें विलीन हो जाती है।
दूसरेको भी देखो जिसे देखना चाहिए वहाँ दृष्टि नहीं जाती। जिसे नहीं देखना चाहिए वहाँ देखनेका प्रयत्न होता है। यह कैसा विपर्यय ! काचमें मनुष्य अपने आपको ही देखता है । कब किसने तनिक भी उसकी स्वच्छताको देखा?
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यह कैसा साम्य ?
परीक्षा-शक्ति नहीं होती, तबतक सब समान होते हैं। सब समान हों, किसीके प्रति राग-द्वेष न हो, यह अच्छाई है । पर ज्ञानकी कमीके कारण सब समान हों, यह अच्छाई नहीं है ।
यह कैसा ज्ञान ? अज्ञान दुःखका मूल है, इसमें कोई सन्देह नहीं । पर ज्ञान दुःखका मूल क्यों बन रहा है - यह प्रश्न-चिह्न आज अधिक स्पष्ट है ।
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तटका बन्धन
तुम भले चाहो, ज्ञान बढ़े। यह मत चाहो, ज्ञानकी बाढ़ आये । तुम यही चाहो, ज्ञानकी धारा सम्यक्-दर्शन और सम्यक्-चरित्रके तटोंके बीच बहती रहे। यह मत चाहो, ज्ञानको धार इन दोनों तटोंको तोड़कर बहे।
गहराईमें
ऊपर क्या देख रहे हो ? यह शैवाल, यह गन्दगी और ये जीवजन्तु ! गहराई में पैठो, डुबकियां लो, फिर बतलाना सागर कैसा है ?
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प्रश्न-चिह्न
मानवमें विद्या और बुद्धि का बल बढ़ रहा है, पर हृदयको सुकुमारता, भ्रातृभाव, सौहार्द और अपनत्व घट रहा है। इसे हम विकास कहें या ह्रास ?
गतिशीलता वस्तुका एक पक्ष है। दूसरा पक्ष है स्थितिशीलता। आज वस्तुका पहला पक्ष प्रबल है, दूसरा निर्बल । आवश्यकता है गति और स्थितिका सन्तुलन रहे। अनन्त आकाशमें केवल गतिसे वस्तु कहाँ जाकर टिकेगी !
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निदान
बड़ा सहृदय है :
हाथमें सत्ता नहीं होगी! बड़ा दयालु है :
पासमें पैसा नहीं होगा ! बड़ा सत्यवादी है :
वाक्पटु नहीं होगा! बड़ा गम्भीर है :
कोई मित्र नहीं होगा ! बड़ा शान्त है :
नासमझ होगा!
भाव और अनुभाव
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यह मुक्ति
भगवान् भक्तिके भूखे होते हैं, भक्त मुक्तिका । भक्त भगवान्को बाँधे या भगवान् भक्तको छोड़े। कौन क्या करे ? मुक्ति बन्धनमें-से निकलती है। जो बाँधना जानता है वह सब कुछ जानता है । कमलने मधुकरको बाँधा, चाँदने चकोरको। मधुकरको वहाँ मृत्यु स्वीकार है, चकोरको अग्नि-पान । ओह ! यह मुक्ति...
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भाग्य-निर्णय
ओ ज्योतिषी ! मेरे भाग्यका निर्णय तुम मुझे ही करने दो। तुम मेरे भविष्यको शब्दोंके कठघरेमें जकड़नेका यत्न मत करो। तुम अतीतके व्याख्याता हो सकते हो पर भविष्यकी व्याख्याका अधिकार मेरे ही हाथोंमें रहने दो । तुम विश्वास रखो कि वर्तमानपर अधिकार रखनेवाला हो भविष्यको व्याख्या कर सकता है ।
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टीस "मैं नहीं होता तो प्रकाशको कौन पूछता? मैंने जिसे जीवन दिया वह मेरी पीठपर प्रहार करे, कैसी कृतघ्नता ?'
तिमिरके इन शब्दोंमें एक गहरी टीस है, आह है, पुकार है और है एक...
आवेग अपनी सम्पत्तिमें धैर्य होता है, पर-सम्पत्तिमें आवेग । पानीका पूर आता है, तटवर्ती वृक्षोंको धराशायी करता चला जाता है। पर्वतके पानीका उसमें क्या बिगड़ा ? शोभा नदीकी घटी, तट नदीका टूटा ।
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प्रगतिका मन्त्र
सहगमन कैसे होगा ? तुम शीघ्र चलते हो, वह चलता है धीमे । सहगमन होगा : तुम कुछ धीमे चलो, और वह कुछ तेज़ चले। यह गतिरोध नहीं है। यह है हजारोंकी प्रगतिका मूल-मन्त्र ।
चरण-चिह्न
तू चलेगा तो तेरे चरण धूलमें अंकित होंगे, परन्तु ऐसे चल कि लोग तेरे पद-चिह्नोंके पीछे चलने के लिए लालायित हों।
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अखण्ड व्यक्तित्व
वहाँ सारो भाषाएँ मूक बन जाती हैं, जहाँ हृदयका विश्वास बोलता है । जहाँ हृदय मूक होता है वहाँ भाषा मनुष्यका साथ नहीं देती । जहाँ भाषा हृदयको ठगनेका यत्न करती है वहाँ व्यक्तित्व विभक्त हो जाता है । अखण्ड व्यक्तित्व वहाँ होता है जहाँ भाषा और हृदय में द्वैध नहीं होता ।
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सब कुछ
दूसरोंपर अधिक भरोसा वही करता है जिसे अपनी शक्तिपर भरोसा नहीं होता । मनुष्य जागकर भी सोता है इसका मतलब है कि उसे अपने-आपपर भरोसा नहीं है। मनुष्य सोकर भी जागता है, इसका अर्थ है कि उसे अपने-आपपर भरोसा है । जिसे अपनेपर भरोसा है, वह सब कुछ है ।
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उदय और अस्त
उनपर मधुकर मँडरा
।
उसे यह अच्छा नहीं
एक व्यक्ति ने देखा : कमल खिले हुए हैं, रहे हैं, सूर्य की रश्मियाँ उन्हें छू रही हैं लगा । वह सूर्यके पास जा पहुँचा । "सूर्य ! तू कितना भोला है । कमल तेरी ओर नेत्रोंको लाल किये निहार रहा है और तू उसपर अपना सारा प्यार उँडेल रहा है" - सूर्यके दिल में एक चुभन पैदा करते हुए उसने कहा ।
अब वह् कमलके पास था । " तू सूर्य से प्यार करता है, पर नहीं जानता भोले कमल ! वह तेरी जड़ को काट रहा है जल और पंकका शोषण कर रहा है ।" उसकी इस वाणीने कमलको मर्माहत
कर डाला 1
अब वह मधुकर के पास पहुँचा । "यह कमल सूर्यके लिए खिला हुआ है, तेरे लिए नहीं । मूर्ख मधुकर ! तेरी गुंजारपूर्ण आरानाका क्या अर्थ है ?"
दिन अस्त होनेको था, तीनोंके मन फट गये । वे बिछुड़ गये । दुर्जनका दिल नाच उठा ।
—
समयने उन्हें सम्मति दी । वे फिर आ मिले । उसने फिर उन्हें विलग करनेका यत्न किया पर उदयकी वेला थी, इस समय उस दुर्जनकी बात कौन माने ?
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भाव और अनुभाव
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प्रगति और व्यापकता
तुम इसी दृष्टिसे क्यों देखते हो कि कोल्हूका बैल घेरेको तोड़ आगे नहीं बढ़ता, प्रगति नहीं करता । इस दृष्टिसे क्यों नहीं देखते कि वह लक्ष्यकी दूरीको कम कर रहा है, प्रगति कर रहा है । यह घेरा प्रगति में बाधक नहीं है, उसमें बाधक है लक्ष्यका अभाव ।
तुम इस दृष्टिसे क्यों देखते हो कि नदी तटोंसे बँधकर बहती है, व्यापक नहीं है । इस दृष्टिसे क्यों नहीं देखते कि वह नया जीवन लिये बह रही है, स्वच्छताको व्यापक बना रही है । ये तट व्यापकताके बाधक नहीं हैं, उसके बाधक हैं - प्राचीनताका व्यामोह और गन्दगी ।
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गुप्तवाद
प्रेम प्रदर्शनकी वस्तु नहीं है । सरसोंके पीत पुष्पोंमें सौन्दर्यका दर्शन हो सकता है, उनके सौरभकी अनुभूति हो सकती है, पर स्नेहको कल्पना नहीं हो सकती। वह तब प्रकट होता है, जब उसके प्राण लिये जाते हैं ।
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अपराध
यह सीधा-सरल ताड़का वृक्ष है । यह दुबला-पतला खजूरका पेड़ है। ये नीरा लेनेवाले हँसिया और हँडिया लिये उनके पीछे पड़ रहे हैं । इस सर्दी के समयमें इनके घाव चू रहे हैं। इनका और कोई अपराध नहीं है, अपराध यही है कि इनमें मिठास है ।
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पूर्णकी भाषा अपने-आपमें सब पूर्ण हैं । अपूर्णता तब आती है, जब एक-दूसरेमें लगाव होता है । वक्ताके बिना श्रोता और श्रोताके बिना वक्ता अपूर्ण है । दृश्य के बिना दर्शक और दर्शकके बिना दृश्य अपूर्ण है। अपनेआपमें कोई अपूर्ण नहीं है और दूसरेसे लगाव रखकर कोई पूर्ण नहीं है।
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लचीलापन
आग्रह में मुझे रस है, पर आग्रही कहलाऊँ, यह मुझे अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैं आग्रहपर अनाग्रहका झोल चढ़ा देता हूँ । रूढ़ि से मैं मुक्त नहीं हूँ, पर रूढ़िवादी कहलाऊँ, यह मुझे अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैं रूढ़िपर परिवर्तनका झोल चढ़ा देता हूँ ।
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सफलताका सूत्र
जिसका संकल्प फलवान् होता है उसे बल मिलता है, किन्तु फल उसीको मिलता है जिसका संकल्प बलवान् हो ।
तुम कार्यका प्रारम्भ करते ही सफलता चाहते हो, यह कैसा मोह ? तुमने देखा होगा, वृक्ष कितने वर्षोंके बाद सफल बनता है ।
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बालकोड़ा
देव ! मैं तुम्हें ढूढ़नेको बाहर गया, तब तुम नहीं दीखे । मैं थककर अपने घरमें चला आया। मैंने विस्मयके साथ देखा कि तुम वहाँ बैठे हो। मैं स्थूल हुआ, तुम सूक्ष्म हो गये। मैं सूक्ष्म हुआ, तुम स्थूल हो गये। देव ! तुम मेरे साथ बाल-क्रीड़ा कर रहे हो। इस प्रकार तुम्हारा बड़प्पन कैसे सुरक्षित रहेगा ?
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परछाइयाँ
अच्छे कार्यका अर्थ ही है : स्वल्पता। वह अच्छा कार्य ही क्या, जो विघ्नोंसे खाली हो और बहुत हो जाये ।
आदि और अन्तमें बीज ही होते हैं। विस्तार केवल मध्यमें होता है।
मध्यको पकड़ो : एकता-ही-एकता दीखेगी । अनेकता इसलिए हाथ लगती है कि तुम केवल छोरोंको पकड़ते हो ।
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टेढ़ी-सीधी रेखाएँ राजनीतिक चालोंका स्वरूप ही ऐसा है कि उससे प्रारम्भमें समस्या सुलझती-सी लगती है, किन्तु अन्तमें उलझ जाती है। और स्पष्टताका रूप यह है कि प्रारम्भमें उससे समस्या उलझतीसी लगती है किन्तु अन्तमें सुलझ जाती है।
विनोद विनोद जीवनकी वह उर्वरा है जहाँ आनन्दोंकी बुआई होती है, पर ध्यान रहे कहीं हलकेपनकी खाद न गिर जाये, उसमें विषादका बीज न उग आये ।
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जड़कों बात
विकास स्वतन्त्र परिस्थिति में ही हो आलोक में मैने देखा : शाखाएँ बढ़ती
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सकता है, इस सिद्धान्त के चली जा रही हैं ।
विकास तभी हो सकता है जब मूल सुदृढ़ हो, इस सिद्धान्त के आलोक में मैंने देखा : शाखाएँ बढ़ती चली जा रही हैं ।
टिकेंगे वे ही, जिनकी जड़ें सुदृढ़ हैं । पत्र, परिणाम हैं, निदान नहीं । ये उसको शोभा नहीं ।
पुष्प और फल वृक्षके बढ़ानेवाले हैं, आधार
भाव और
अनुभाव
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अभिव्यक्ति वह शक्ति किस कामकी जिसकी अभिव्यक्ति न हो। सूर्य और तपे हुए पथिकके बोच वही बोज शान्तिपूर्ण मध्यस्थता कर सकता है जिसकी अभिव्यक्ति हो गयी हो, जो वृक्ष बन गया हो।
अनुभूतिका तारतम्य जहाँ साध्यकी पूत्तिके लिए कष्ट सहा जाता है, वहाँ आनन्दको अनुभूति होती है ! कष्टको अनुभूति वहाँ होतो है, जहाँ वह साध्यको पूत्तिके लिए नहीं सहा जाता।
भावं और अनुभाव
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भुकाव
तुम किसी के प्रति झुकते हो और किसीसे दूर होते हो उससे मुझे क्या ? मेरी आपत्ति वहीं है कि जहाँ तुम हजारोंके भाग्य की कुंजी अपने हाथमें थामे किसीके प्रति झुकते हो और किसीसे दूर होते हो ।
चुभन
फूलने काँटेका नुकीलापन नहीं लिया पर उसकी चुभन ले लो। परिमलकी चुभन काँटेकी चुभनसे कम कष्ट नहीं देती !
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भाव और अनुभाव
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सचाईको समझ
जो सामने है वह सचाई कहाँ है, सचाई वह है जो सामने नहीं है। जो तरुण हैं, वह सचाईको नग्न रूपमें कैसे रख सकता है ? और जो तरुण है उसके सामने सचाई नग्न रूपमें कैसे उपस्थित होगी ? एक शिशु हो सचाईका निरावरण कर सकता है और एक शिशु ही उसका नग्न रूप देख सकता है । भयसे अधिक तरुण कौन होगा जिसके सामने सचाई अपना चूंघट कभी नहीं खोलती। अभयसे बढ़कर शिशु कौन होगा जिसके सामने सचाई कभी अपना रूप नहीं छिपाती।
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चीर
कल्पनाका चीर इतना पतला है कि उसमें से तुम देख सकते हो पर उसे ओढ़कर चल नहीं सकते। पुरुषार्थका चीर इतना सघन है कि उसमें से तुम देख नहीं सकते, पर उसे ओढ़कर चल सकते हो।
लघु-गुरु गुरुत्वने अन्तःकरणको छुआ कि मनुष्य लघु बन गया और लघुत्वने अन्तःकरणका स्पर्श किया कि वह गुरु बन गया ।
भाव और अनुभाव
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उलझन
तुम दूसरोंको अपनी दृष्टि से देखते हो और अपनेको दूसरोंकी दृष्टिसे । तुम दूसरोंको अपनी गज़से नापते हो और अपनेको दूसरोंकी गज़से । यही तो वह उलझन है जिससे सारी उलझनें जन्म पाती हैं ।
कम-अधिक अन्तर्की शुद्धिका महत्त्व अपने लिए अधिक होता है, दूसरोंके लिए कम । व्यवहारको शुद्धिका महत्त्व अपने लिए कम होता है, दूसरोंके लिए अधिक।
भाव और अनुभाव
४२
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न्यायकी भीख न्याय और अन्यायके गीत गाना छोड़ो। अपनी दुर्बलताके अतिरिक्त
और अन्याय है भी क्या ? न्याय है शक्ति, न्याय है सत्ता और न्याय है अधिकार । जिनके पास शक्ति, सत्ता और अधिकार नहीं है, वे न्यायकी भीख माँगते ही रहेंगे।
चाह और राह मनुष्यमें परिणामके प्रति जो अभिलाषा होती है, वह कारणके प्रति नहीं होती। वह स्वर्ग चाहता है, स्वर्गकी साधना नहीं चाहता।
भाव और अनुभाव
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नया और पुराना दुनियामें नया तत्त्व कोई है भी नहीं। जो है, वह पुराना है, बहुत पुराना है। नयेका अर्थ है, पुरानेको प्रकाशमें लाना । जो आलोक बनकर पुरानेको प्रकाशित करता है वही नव-निर्माता है । संसारके जितने भी नव-निर्माता हुए हैं उन्होंने यही किया है - आलोक बनकर प्राचीनको नवीन बनाया है।
अकम्प
सदाचार उसीके पीछे चलता है, जो देश, काल और परिस्थितिके सामने नहीं झुकता।
भाव और अनुभाः
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पारखी
अपने रूपमें सब वस्तुएँ शुद्ध होती हैं । अशुद्ध वह होती है, जिसका अपना रूप कुछ दूसरा हो और दीखे वह दूसरे रूपमें । यह अन्तर् और बाहरका भेद जनताको भुलावेमें डालता है। इसीलिए मनुष्यको पारखी बननेकी आवश्यकता हुई।
परख
परीक्षाके लिए शरीर-बल अपेक्षित नहीं है। वह बुद्धि-बलसे होती है। शरीर-बल जहाँ काम नहीं देता वहाँ बुद्धि-बल सफल हो जाता है।
भाव और अनुभाव
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किधर विमुखतासे दूरी बढ़ती है और उन्मुखता सामीप्य लाती है । कलकत्तासे हम चले और घसड़ी आये। कलकत्ता चार मील दूर था और दिल्ली आठ सौ इक्यासी मील। किन्तु हम दिल्लीके उन्मख थे और कलकत्ताको ओर पीठ किये हुए चल रहे थे। हमने देखा, एक दिन दिल्ली चार मोल दूर है और कलकत्ता आठ सौ इक्यासी मील ।
जागरण
सोनेके लिए जागनेवाले बहुत होते हैं पर जागृतिके लिए जागनेबाले विरले ही होते हैं।
भाव और अनुभाव
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हिरनी छलाँगें भर रही थी ।
संगीतकी ध्वनि कानोंमें आ टकरायी ।
छिद्र
चरण रुक गये ।
छोटे-से छेदने गतिरोध पैदा कर दिया | छेद आखिर छेद ही होता है, भले फिर वह छोटा हो या बड़ा ।
५४
मार्ग खुल जाये तो ?
नीमका कीड़ा नीममें ही आनन्द मानता है । भी कैसे ? यदि उसे आमका पेड़ और उसकी तो क्या वह वापस नीममें आना चाहेगा ?
न माने तो जिये महक मिल जाये
भाव और अनुभाव
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स्मृति और विस्मृति कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें सदा याद रखना चाहिए। कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें तत्काल भुला देना चाहिए । याद रखनेकी बातें वे ही नहीं होतीं, जो प्रिय हैं । और भुला देने की भी वे ही नहीं होतीं, जो अप्रिय हैं। वे प्रिय और अप्रिय दोनों प्रकारकी बातें याद रखनेकी होती हैं, जो जीवनपर अपना असर छोड़ जायें और वे प्रिय और अप्रिय बातें भुला देनेकी होती हैं, जिनका जीवनपर कोई प्रभावोत्पादक परिणाम नहीं होता।
भाव और अनुभाव
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जीवनके पीछे जीवन और क्या है ? देह और प्राणोंको चेतनाके साथ जो समन्विति है वही तो है। जो जिया जाता है, वही जीवन नहीं है। जिससे जिया जाता है वह भी जीवन है। खाये बिना कोई नहीं जीता, यह जितना सच है, उतना ही नहीं। उससे कहीं अधिक सच यह है कि खाने में संयम रखे बिना कोई नहीं जीता। संयम जीवन ही नहीं किन्तु जीवनका भी जीवन है।
भाव और अनुभाव
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ज्योतिर्मय ज्योतिहीन जीवन भी श्रेय नहीं है और ज्योतिहीन मृत्यु भी श्रेय नहीं है। ज्योतिर्मय जीवन भी श्रेय है और ज्योतिर्मय मृत्यु भी श्रेय है। वीर पत्नी विदुलाने अपने पुत्रसे कहा, "बिछौनेपर पड़े-पड़े सड़नेकी अपेक्षा यदि तु एक क्षण भी अपने पराक्रमकी ज्योति प्रकट करके मर जायेगा तो अच्छा होगा।"
भाव और अनुभाव
५७
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मृत्यु- महोत्सव
सफलता जीवनमें होती है पर मृत्यु सबसे बड़ी सफलता है । जिसकी मृत्यु उत्कर्ष में न हो, आनन्दकी अनुभूतिमें न हो उसके मध्य जीवनकी सफलता विफलता में परिणत हो जाती है ।
मूल्यांकन
जो कुछ अच्छा कार्य होता है उसका अपने-आपमें मूल्य होता है किन्तु जनता के द्वारा उसका मूल्यांकन तभी होता है जब वह उस तक पहुँच पाये ।
५८
भाव और अनुभाव
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अनेक और एक तुम शाखाओंकी अनेकता देख चिन्तित मत होओ। तुम देखो उनका मूल एक है। अनेकताका अर्थ विरोध ही नहीं होता, विकास भी होता है। तुम दूध और पानीकी एकता देख हर्षित मत होओ। इनका मूल एक नहीं है । एकताका अर्थ संवर्धन ही नहीं होता, शक्तिका अल्पीकरण भी होता है ।
दीन व्यक्तियोंको देखकर दीन होनेवाले कितने हैं, परन्तु वे विरले हैं, जो दोनोंका उद्धार करें।
भाव और अनुभाव
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प्रिय
जो मनको भाता है वही प्रिय है । प्रिय क्या है और क्या नहीं ?
इसे परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता । प्रत्येक व्यक्तिकी अपनी-अपनी रुचि और अपना-अपना मनोभाव होता है । प्रत्येक व्यक्ति देश, काल और परिस्थिति के अनुसार किसीके प्रति झुकता है तो किसीसे दूर होता है । एक ही वस्तुके साथ प्रियताका शाश्वत बन्धन नहीं होता ।
६०
C
भाव और अनुभाव
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काम्य और अकाम्य
रुचिकी अपेक्षा सच यह है : जीवन काम्य है, मृत्यु अकाम्य । आचरणकी अपेक्षा सच यह है : जिसे जीवन काम्य है, उसे मृत्यु भी काम्य है और जिसे मृत्यु अकाम्य है, उसे जीवन भी अकाम्य है।
सही समझ
मायावीकी चालोंको समझना ज़रूर चाहिए। चालाकीको समझना हिंसा नहीं है, हिंसा है चालाकी करना।
भाव और अनुभाव
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श्रेष्ठतम
तोन वैद्य थे। पहले वैद्यका प्रयत्न ऐसा होता, जिससे किसीके
रोग हो ही नहीं, दूसरा वैद्य रोग होते ही औषधि दे रोगीको स्वस्थ बना देता । तीसरा वैद्य रोगको बढ़ने देता और जब वह असाध्य-सा हो जाता तब ऐसी पुड़िया देता कि रोगी स्वस्थ हो जाता । लोग उसे बहुत बड़ा वैद्य मानने लगे । सारे नगर में उसका प्रभाव फैल गया ! एक दिन उसके प्रशंसक उसका यश गा रहे थे, तब तीसरे वैद्यने कहा, "श्रेष्ठतम वैद्य मेरा बड़ा भाई है, जो रोग होने ही नहीं देता । मेरा दूसरा भाई श्रेष्ठतर है, जो रोग होते ही रोगीको स्वस्थ कर देता है। उनका कार्य आपके सामने नहीं आता इसलिए आप लोग उसका मूल्य नहीं आँक सकते। मेरा कार्य आपके सामने आता है, इसलिए उसका मूल्य आँका जाता है ।
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भाव और अनुभाव
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गहरी डुवकी जितना प्रयत्न पढ़नेका होता है, उतना उसके आशयको समझनेका नहीं होता। जितना प्रयत्न लिखनेका होता है, उतना तथ्योंके यथार्थ संकलनका नहीं होता। अपने प्रति अन्याय न हो, इसका जितना प्रयत्न होता है, उतना दूसरोंके प्रति न्याय करनेका नहीं होता । गहरी डुबकी लगानेवाला गोताखोर जो पा सकता है, वह समुद्रकी झाँकी पानेवाला नहीं पा सकता।
भाव और अनुभाव
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खतरा
जलधर नया-नया आया और पवनके सहारे ऊँचे आकाशमें चढ गया। उसे बाहरी जगत्का कब अनुभव था ? दूसरोंके सहारे ऊँचा चढ़ना, भय से खाली नहीं होता, इसे वह नहीं जानता था। पवनने अपना हाथ खींचा और जलधर धरतीपर आ गिरा।
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भाव और अनुभाव
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अनाग्रह
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एक रस्सीको पकड़ दो आदमी खींचते हैं एक इधर और एक उधर । परिणाम क्या होता है ? रस्सी टूटती है, दोनों आदमी गिर जाते हैं । खिचाव करनेवाले अर्थात् गिरनेवाले | जो खिचात्रको मिटाता है वह गिरनेसे उबार लेता है
भाव और अनुभाव
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नेता नेताका अर्थ है दूसरोंको ले चलनेवाला। जो व्यक्ति नेता होकर भी दूसरोंके मनको नहीं पढ़ सकता, वह दूसरोंको साथ लिये नहीं चल सकता। दूसरोंको साथ लेकर चलनेके लिए जो चलता है वह दूसरोंके मनको नहीं पढ़ सकता। दूसरोंके मनको वह पढ़ सकता है, जिसके मनकी स्वच्छतामें दूसरोंका मन अपना प्रतिबिम्ब डाल सके । जिसका मन इतना स्वच्छ होता है उसकी गतिके साथ असंख्य चरण चल पड़ते हैं।
माव और अनुभाव
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नेतृत्व
प्रत्येक मनुष्य चिन्तन नहीं कर सकता कि मुझे कहाँ जाना है। सोचनेवाले कुछ दूरकी सोचते हैं। पर नेता सोचता है, मुझे समाजको उस केन्द्र-बिन्दुपर ले जाना है, जहाँ सबका लाभ है। सब नेता नहीं होते और सब अनुयायी भी नहीं होते। सब गायें ही हों तो उन्हें कौन ले जाये ? अगर सब वाले ही हों तो किसको ले जायें ?
भाव और अनुभाव
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स्वतन्त्र अस्तित्व
हम हमारी विशालतामें ही दूसरोंकी विशालताको लीन न करें किन्तु अपनी दृष्टिको स्वच्छ रखकर ही उसमें दूसरोंकी विशालताको प्रतिबिम्बित होने दें ।
चमत्कारको नमस्कार
दुनिया चमत्कार को नमस्कार करती है । व्यक्ति नहीं पूजा जाता शक्ति पूजी जाती है । पूर्णिमाके चाँदकी पूजा नहीं होती, दूजका चाँद पूजा जाता है ।
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भाव और अनुभाव
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चमक
जहाँ सिद्धान्तकी गुरुता कार्यकी गहराई में लीन हो जाती है वहाँ कार्य और सिद्धान्त एक दूसरे में चमक ला देते हैं ।
सामग्री चौंधिया देती है पर प्रथम दर्शन में आदिसे अन्त तक व्यक्तिका तेज ही चमकता है। उपकरण किसीके अन्तो नहीं छू सकता।
भाव और अनुभाव
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कला
कला आखिर वस्तु क्या है ? आकर्षक शक्तिका जो अंश है, वहो तो कला है। प्रकृतिमें कला है, चैतन्यमें भी। आचारमें कला है, विचारोंमें भी। सत्के कण-कणमें कलाकी अभिव्यक्ति है। सबसे बड़ी कला है दूसरोंके हृदयका स्पर्श करना । उस कलाका मूल्य कैसे आँका जाये जो दूसरोंके हृदय तक पहुँच ही नहीं सकती।
भाव और अनुभाव
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अनावृत
मनकी शुद्धि और दिलकी भलाई न मिले तो साफ़-सुथरा शरीर
और मदु मसकान केवल धोखा है। फटे-चिथड़े और रूखा व्यवहार महत्ताको ढाँक नहीं सकते।
नम्रता
दूसरोंके गुणोंके प्रति जो अनुराग और अपनी वृत्तियोंमें जो मृदुता होती है वही नम्रता है। बुराई या अन्यायके सामने झुकना नम्रता
नहीं, कायरता है।
भाध और अनुभाव
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द्वैत
जहाँ द्वैत है वहाँ परस्पर सापेक्षता आवश्यक है। एकको समझनेके लिए दूसरेको समझना ही होगा। जहाँ एक ही होता है, वहाँ समझनेकी स्थिति ही नहीं बनती। एक अनेक-सापेक्ष होता है।
और अनेक एक-सापेक्ष ।
अद्वैत
अभेद एकता नहीं समता है। समताका हो दूसरा रूप है - एकता । इसका फलित होता है कि द्वैतमें समताकी भावना ही अद्वैतको परिभाषा है।
भाव और अनुभाव
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पण्डित और साधक पशु और पण्डितमें जितना भेद है, उतना ही भेद पण्डित और साधकमें है। पशु अहिंसाकी भाषा नहीं जानता जब कि पण्डित जानता है। साधक वह है, जो उसकी भाषा जानने तक ही न रहे, उसको साधना करे।
आर्य ! तू ब्रह्मचारी होना चाहता है तो तू सब कुछ उसीके लिए कर । आस्वादके लिए मत सूंघ, आस्वादके लिए मत देख, आस्वादके लिए मत चख, आस्वादके लिए मत सून, और आस्वादके
लिए मत चिन्तन कर।
भाव और अनुभाव
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व्यक्तिवाद अपने अभिप्रायोंको ही सोलह आना सही मान उन्हें दूसरोंपर लादनेकी प्रवृत्ति बढ़ रही है, वह सामाजिक
भलाईके नामपर व्यक्तिवादी मनोवृत्तिका विस्तार है । व्यक्ति-स्वातन्त्र्यकी बात सूझी है, पर यह जाल है। इसमें फंसना सहज है, निकलना कठिन ।
७४
भाव और अनुभाव
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स्वार्थ : स्वमें लीन रहनेकी वृत्ति ।
दूसरोंसे इसका सम्बन्ध नहीं जुड़ता अतः इसका विशेष मूल्य नहीं आँका जाता ।
परार्थ : दूसरोंके लिए अपने 'स्व' का विसर्जन ।
पर और परम
इसका स्वरूप है 'स्व' को दूसरोंमें लीन कर देना । इससे दूसरोंको लाभ पहुँचता है । अतः इसका विशेष मूल्य आँका जाता है ।
परमार्थ: स्वको परममें लीन कर देना ।
परमके लिए सब कुछका त्याग | आत्म-साधक के लिए इसका मूल्य
इन तीनोंमें :
पहला
दूसरा तीसरा
भाव और अनुभाव
व्यक्तिवाद है ।
समाजवाद है ।
मोक्षवाद है ।
यह आत्मलीनता है । सर्वोत्कृष्ट है |
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कृतज्ञता
कृतज्ञताके दो शब्दोंका मूल्य वह नहीं आँक सकता, जो केवल लेना ही जाने । जिसके पास कृतज्ञताके दो शब्द
भी देने को न हों, उससे दरिद्र कौन होगा? । एक पुष्प अपने उपादानोंसे उतना भिन्न हो ही नहीं पाता कि वह उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करे।
भाव और अनुभाव
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अमाप्य
उस पुरुषके बारे में लिखना कठिन होता है, जो अपने अन्तर्जगत्में खिलकर संसारके सामने आये, जिसे अपनी श्रीवृद्धिमें बहिर्जगत्का प्रत्यक्ष सहयोग न मिले ।
महापुरुषके जीवन में विकल्प नहीं होता। उसमें कुशल कल कारकी तूलिका और कविकी मनोविहारी लेखनी
चरम नहीं बनती, तब दूसरा क्यों कुछ सोचे ?
भाव और अनुभाव
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विवेक
विवेकका अर्थ है पृथक्करण । भलाई और बुराई दो हैं। विवेक इन्हें बाँट देता है। कोई आदमी आज भला है पर वह पूर्वसंचित बुराईका फल भोगता है। प्रश्न हो सकता है -
यह क्यों ? इसका उत्तर यही है कि विश्वकी व्यवस्थामें विवेक है। कोई आदमी आज बुरा है पर वह पूर्वसंचित भलाईका फल भोगता है तब सन्देह होता है। उसके समाधान के लिए यह पर्याप्त है कि विश्वको व्यवस्थामें विवेक है।
भाव और अनुभाव
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तर्ककी सीमा प्रत्यक्ष या सीधी बातके लिए तर्क आवश्यक नहीं होता। तर्कका क्षेत्र है, अस्पष्टता । स्पष्टता माने है प्रत्यक्ष । प्रत्यक्षका अर्थ है तर्कका अविषय । तर्ककी अपेक्षा प्रेम और विश्वास अधिक सफल होते हैं । जहाँ तक होता है वहाँ जाने-अनजाने दिल सन्देहसे भर जाता है । जहाँ प्रेम होता है वहाँ सहज विश्वास बढ़ता है ।
श्रद्धाके आलोकमें जो सत्य उपलब्ध होता है, वह बुद्धि या तर्कवादके आलोक में नहीं होता।
भाव और अनुभाव
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श्रद्धाको भाषा
श्रद्धा ज्ञानको परिपक्व दशाका नाम है। ज्ञानके अभावमें जो श्रद्धा होती है वह यथार्थमें श्रद्धा नहीं होती, किन्तु एक संस्कारगत रूढ़ि होती है।
व्यक्तिमें सबसे बड़ा बल श्रद्धाका है। श्रद्धा टूटती है, तब पैर थम जाते हैं, वाणी रुक जाती है और शरीर जड़ हो जाता है। श्रद्धा बनती है तब ये सब गतिशील बन जाते हैं ।
भाव और अनुभाव
___
ww
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दो वाद कहीं श्रद्धा होती है, बुद्धि नहीं होती। कहीं बुद्धि होती है, श्रद्धा नहीं होती। कहते हैं, श्रद्धा अन्धी होती है, बुद्धि लँगड़ी। श्रद्धालु चलता है और बुद्धिमान् देखता है। ये दोनों अधूरे हैं । पूर्णता इनके समन्वयसे आती है। प्रतिभाका सम्बन्ध मस्तिष्कसे है और वैराग्यका हृदयसे । विश्वास
हृदयसे जुड़ता है तभी उसका सम्बन्ध मस्तिष्कसे होता है।
भाव और अनुभाव
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স্ব। समस्याके समाधानका सबसे बड़ा सूत्र है श्रद्धा। किसी भी विवादका अन्त तकसे नहीं होता, किन्तु श्रद्धासे होता है। श्रद्धा जीवनको सबसे बड़ी सफलता है।
श्रद्धेय
समान श्रेणीके लोगोंपर सहज श्रद्धा नहीं होती। उसके लिए आवश्यक है कि एक पहलेका हो, दूसरा बादका । एक ऊपर हो दूसरा उससे नीचे, और श्रद्धा करनेवालेको श्रद्धेयको उदारता, समवृत्ति और विशेष योग्यतामें विश्वास हो।
२
भाव और अनुभाव
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विरोध
विरोध ज्योतिसे पूर्व होनेवाला धुआँ है । वह क्षण-भरके लिए भले हो लोगोंकी आँखोंको धमिल बना दे पर अन्तमें ज्योति जगमगा उठती है । वे व्यक्ति धुएँ से कभी निराश नहीं होते जिन्हें ज्योतिकी आशा होती है।
भाव और अनुभाव
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विरोधका परिणाम
विरोधसे अप्रिय वातावरण ही नहीं बनता, उससे प्रिय परिस्थितिका निर्माण भी होता है । विरोधके समय जो संगठन होता है, वह साधारण स्थितिमें नहीं होता । अप्रिय परिस्थितिको एक बार सहना ही कठिन होता है । जो एक बार उसे सह लेता है उसके लिए वह अप्रिय नहीं होती । विरोध मानसिक सन्तुलनकी कसौटी है । विरोधी वातावरणको देख जो घबरा जाता है वह पराजित हो जाता है और जो उससे घबराता नहीं वह उसे पराजित कर देता है ।
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भाव और अनुभाव
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समझकी भूल
यह मनुष्यकी मानसिक दुर्बलता है कि वह दूसरोंकी प्रगतिको अवरुद्ध करनेके लिए ग़लत तत्त्वोंको प्रोत्साहित करता है पर वह इस सत्यको भुला देता है कि बुराईको प्रोत्साहन देनेका परिणाम कभी उसके लिए भी खतरनाक हो सकता है ।
भाव और अनुभाव
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गालीका प्रतिकार गाली वही देता है जो दुर्बल होता है, जो मानसिक सन्तुलन नहीं रख पाता और जिसका स्नायु-संस्थान विकृत होता है । गालीसे गालीका प्रतिकार करने में वही समर्थ हो सकता है, जो दुर्बल बने, मानसिक सन्तुलनको खोये और स्नायु-संस्थानको विकृत बनाये।
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भाव और अनुभाव
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भला वही बराई करनेवाला अवश्य ही बरा होता है पर बहत अच्छा तो वह भी नहीं होता जो बुराईके भारसे दब जाये । बुराईको पैरोंसे रौंदकर चलनेवाला ही अपने मनको मज़बूतीसे पकड़ सकता है।
भाव और अनुभाव
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नये - पुरानेकी समस्या
लोग दो प्रकारकी रुचिवाले होते हैं । कुछ लोग पुरानेमें ही रुचि रखते हैं, परिवर्तन नहीं चाहते । कुछ लोग नयेको ही चाहते हैं, परिवर्तन चाहते हैं । यह नये और पुरानेका प्रश्न उन्हीं के सामने होता है, जो चिन्तक नहीं होते ।
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परिवर्तन के साथ आलोचना आती है, उसे असफलता नहीं माना जा सकता ।
भाव और अनुभाव
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आलोचना आलोचना जहाँ लोचन है वहाँ निमेष भी है। आलोच्यके लिए वह लोचन है क्योंकि उसके द्वारा आत्मालोकन-विवेक-चक्षके उन्मेषका अवसर मिलता है । आलोचकके लिए आलोचना निमेष है, क्योंकि उसकी दृष्टि आलोचनामें ही गड़ जाती है, फिर वह पारिपाश्विक सत्यको भी नहीं निहार सकता।
भाव और अनुभाव
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आलोचना और प्रशंसा
आलोचना दोषकी होनी चाहिए और प्रशंसा गुणकी। किसी व्यक्तिकी आलोचना करनेवाला अपने लिए खतरा उत्पन्न करता है, आलोच्य के लिए वह न भी हो । प्रशंसा करनेवाला प्रशस्य व्यक्ति के लिए खतरा उत्पन्न करता है, अपने लिए वह न भी हो ।
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भाव और अनुभाव
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आलोचक
कुछ लोगोंका सिद्धान्तसे लगाव नहीं होता, उन्हें आलोचना प्रिय होती है । वे हर किसी विषयको उसकी सामग्री बना लेते हैं । कुछ लोग बेकार हैं। बेकारोभे मनुष्य आलोचनाके सिवाय और करे क्या ?
विरोधका मूल संस्थाओंमें नहीं खोजा जा सकता। वह व्यक्तियोंमें मिलता है।
भाव और अनुभाव
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एक मन्त्र
संसारमें सब एक रूप नहीं होते। कुछ लेनेका होता है, कुछ छोड़नेका। जाननेका सब होता है। जो छोड़नेका हो उसोको छोड़ा जाये, शेषको नहीं । जीवनको सफलताका यह एक मन्त्र है।
जहाँ लक्ष्य एक होता है वहाँ प्रेम और एकता होनी चाहिए, क़दम एक साथ आगे बढ़ने चाहिए किन्तु ऐसा होता नहीं। सामने कोई कार्य होता नहीं तबतक एकता या विरोधका परिचय नहीं मिलता।
भाव और अनुमाव
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श्रम और सोना सोनेसे जो चाहें वह मिलता है, इसलिए उसका मूल्य है, धूलका नहीं। इसीलिए सोनेका संग्रह होता है धूलका नहीं। मूल्यका आरोप यदि श्रममें हो, सोनेसे कुछ न मिले तो आज सोनेकी वही गति हो जाये जो धूलकी है ।
भाव और अनुभाव
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भूख और भोग भूख न आत्माको लगती है और न शरीरको। भोगकी इच्छा न आत्मामें होती है और न शरीरमें । आत्मा और शरीरका योग ही जीवन है । जीवन में भूख भो है और भोग भी है।
गठवन्धन नहीं
अवस्था गणितका सवाल है। संस्कारका . उद्बोधन अन्तरको वत्तियोंका सवाल है । इन दोनोंमें कोई गठबन्धन नहीं ।
भाव और अनुभाव
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साधनाका मार्ग निग्रह और अनुग्रह ये दोनों एक हो वस्तु के दो पार्श्व हैं। किसीपर अनुग्रह करनेवाला किसीका निग्रह भी कर सकता है और किसी का निग्रह करनेवाला किसीपर अनुग्रह भी कर सकता है। साधनाका मार्ग निग्रह और अनुग्रहसे परे है।
भाव और अनुभाव
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अर्थवाद
जिस दिन यह समझमें आ जायेगा कि संग्रहकी वृत्तिने मानवताकी जड़ खोखली कर दी, उस दिन सिर्फ अर्थ रहेगा, उसका वाद नहीं। अपरिग्रह फैलेगा उसका अनुवाद नहीं ।
यह सही है कि सब अपरिग्रही नहीं बन सकते पर अपरिग्रहके पथिक बन सकते हैं। परिग्रह पीठके पीछे रहे मुँहके सामने नहीं। लोग उसको न देखें, वह उनको देखे ।
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भाव और अनुभाव
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उपेक्षा और अपेक्षा उपेक्षासे अपेक्षा ठीक चलती है। अपेक्षासे अपेक्षा पूरी नहीं होती। अपेक्षा सुखकी होनी चाहिए। वह परिग्रहमें नहीं अपने-आपमें है।
अनुसन्धान अन्वेषणका युग है। दृष्टि पड़े वहीं अनुसन्धान-शालाएँ और अनुसन्धाता हैं। अनुसन्धान और सभी वस्तुओंका हुआ, दोका नहीं - मानवताका और मानवको अपनी परिधिका ।
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अकर्मण्यता नहीं जैनधर्मने सिखाया असत् मत करो, सत् करो। सत्की मात्रा बढ़ेगी, तब नहीं करनेकी दशा आयेगी। नहीं करनेका अर्थ अकमण्यता नहीं, किन्तु कर्मण्यताका पथ-प्रशस्त करना है। असतका निषेध नहीं आता, तब सत्का रूप नहीं खिलता । कुशलमें अकुशलका निरोध होता है, तब ही कुशलका कौशल टिकता है।
माव और अनुभाव
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अंकनका माध्यम
आज मनुष्यके अंकनका साधन उसका अच्छा या बुरा आचरण नहीं रहा है। वह धार्मिक या राजनैतिक सम्प्रदायके लेबलसे आँका जाता है। आस्था और सुझाव अपना-अपना अलग होता है । पर दूरीसे सन्देह बढ़ता है और सम्पर्कसे प्रेम ।
बात साधारण है पर है श्रेष्ठ ।
भाव और अनुभाव
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रोटी और पुरुषार्थ आचारके लिए रोटीको ठुकरानेमें पुरुषार्थ है; रोटीके लिए आचारको ठुकराने में पुरुषार्थ नहीं, उसका अभाव है।
रोटीका दर्शन आत्मा और परमात्माके गहरे चिन्तनमें डुबकी लगानेवाला भारतीय आज रोटी-दर्शनकी ओर टकटकी बाँधे बैठा है। पहले वह रोटीकी चिन्तासे मुक्त होकर ही वहाँतक पहुँचा। आज वह वहाँ नहीं पहुँचकर रोटोकी चिन्तासे मुक्त नहीं है ।
भाव और अनुभाव
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रोटी और मानवता रोटी मानवके लिए ज़रूरी है किन्तु वह उसका मूल्य नहीं है। मानवता रोटी-जैसी ज़रूरी नहीं लगती पर वह मानवका सही मूल्य है। रोटीके बिना मनुष्य मरता है और विवेकके बिना मानवता।
भाव और अनुभाव
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सम और विषम
जब आवश्यकता पूरी नहीं होती, तब मनुष्य क्रूर बनता है । जब आवश्यकतापूर्ति के साधन अधिक होते हैं, तब मनुष्य विलासी बनता है । यह विषम स्थिति है ।
सम स्थिति यह है कि श्रम करनेवाला आवश्यकता पूरी किये बिना न रहे और श्रम न करनेवाला अधिक न पाये ।
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भाव और अनुभाव
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समझसे परे
अवसरको समझकर बरतना एक बात है और अवसरवादिता दूसरी बात । अवसरको जानना बुरा नहीं, उसे जानकर बरतना बुरा नहीं, बुरा है उसका वाद । 'वाद'ज्ञान और समझसे परे होता है।
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सन्तोका साम्राज्य
विचार सन्तोंका साम्राज्य है। सन्त-विचार सिर्फ़ माथेकी उपज नहीं, वह द्विजन्मा होता है। मस्तिष्कसे हृदयमें उतरता है, वहाँ पकनेपर फिर बाहर आता है ।
भेद-रेखा
सामाजिक जीवन सुविधा देता है, दर्शन नहीं। इसमें वर्तमानको सरल बनाये रखनेका प्रयत्न होता है, भूत और भविष्यका विश्लेषण नहीं।
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यह कैसा आश्चर्य? पत्रकार-सम्मेलनमें अपनी चंचलतापर प्रकाश डालते हुए लक्ष्मीने कहा, "मैं तबतक एक जगह नहीं रह सकती, जबतक मुझे सहृदय स्थान न मिल जाये।" एक पत्रकारने चुटकी लेते हुए कहा, "मातर् ! तुम्हारे पास आते ही हृदय कूच कर जाता है फिर यह अन्वेषण कैसा ?"
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अनुशासनकी समझ
अनुशासन आत्माके गुरुत्वकी कसौटी है। उससे लाघव नहीं आता । लघुता लानेको अनुशासन आये, वह बलात्कार है ।
एकान्तवास
सूर्य ! तुम एकान्तवास चाहते हो ? पर क्या तुम्हारा प्रकाश तुम्हें
अकेला रहने देगा?
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तुलसीके प्रति विनीतात्मन् ! क्या कहूँ ? तुम्हारी कृतियोंने पूर्ववर्ती आचार्योंकी स्मृति भुला-सी दी है यह क्या विनय ?
घड़े चार-पांच सेर पानी समाता है, अगस्त ऋषि तीन चुल्लूमें सारा समद्र पी गये। यह कैसा बेटा?
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आराध्यके प्रति भगवन् ! मैं ज्यों-ज्यों तुम्हारे पास पहुँचनेकी चेष्टा करता हूँ त्योंत्यों तुम आगे सरक जाते हो। यह कैसी आँख-मिचौनी ? भगवन् ! तुम्हारी दृष्टिमें अमृत रहता है। उससे अमरत्व मिलता है-कैसे मानूँ ? भक्त अपने-आपको खो देता है फिर अमरत्व कैसा? प्रभो ! तुम अन्तर्यामी हो-यह कैसे मानूं ? मैं तुम्हारे अन्तर्मे पैठनेकी चेष्टा करता हूँ-तुम ऐसा कब करते हो ? प्रभो! मुझे वह औषध दो जिसे पी मेरा उत्साह बालक-सा चपल, युवक-सा बलवान् और वृद्ध-सा अनुभवी बने ।
भाव और अन
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निष्कर्ष
आग सबको जलाती है । सोना उसमें जल-जलकर चमक उठता है, इसीलिए तो वह सुवर्ण है । मुक्ताओंने अपना हृदय सौंपा, कलाकारने उन्हें एक सूत्रमें बाँधा, इसीलिए तो वे अलंकार है । प्रकाश अन्धकारको अपना गुण नहीं दे सका, इसीलिए तो वह आलोक है।
भाव और अनुभावः
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पहल
विधान दूसरोंके लिए होता है, अपने लिए नहीं, वहाँ वह जीकर
भी निर्जीव बन जाता है। महान् जो होता है वह सबसे पहले विधानको अपनेपर ही लागू करता है ।
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अनेकान्त-दर्शन इस दुनियामें फाड़नेवालोंकी कमी नहीं है परन्तु तुम मत सोचो कि फाड़नेवाला बुरा ही होता है। छाछने दूधको फाड़ा, इसमें बुराई कौन-सी है ? दूध दही बन गया। इस दुनियामें आघात करनेवालोंकी कमी नहीं है पर तुम मत सोचो कि आघात करनेवाला बुरा ही होता है । मथानीने दहीपर आघात किये, इसमें बुराई कौन-सी है ? नवनीत निकल आया, स्नेह साकार हो उठा।
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तुच्छ और महान् जो निसर्गसे महान है
उसमें कुसंग क्या परिवर्तन लायेगा? जो निसर्गसे तुच्छ है
वह सत्संगमें रहकर भी क्या कर पायेगा ? उसे कुसंगसे बचाओ
जो संसर्गसे महान् है। उसे सत्संगमें रखो
जो संसर्गसे तुच्छ है ।
भाव और अनुभा
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महान कौन ?
जलकणोंने मिलकर सिन्धुको रूप दिया, वह महान् बन गया । ज्वार आया, बूँदोंको असहाय छोड़ चला गया । प्रश्न होता है : महान् कौन - सिन्धु या बिन्दु ?
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युवक वह था जहाँ उल्लास अठखेलियाँ करे वहाँ बुढ़ापा कैसे आये ? वह युवा भी बूढ़ा होता है, जिसमें उल्लास नहीं होता - पैडो भलो न कोसको - चलना एक कोसका भी अच्छा नहीं है, यह जिसने कहा वह युवक नहीं था। युवक वह था, जिसने कहा- चरैवेति, चरैवेति -चलते चलो, चलते चलो।
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उतार-चढ़ाव किसने नहीं देखे |
अनुभूति में अन्तर है |
चढ़ावको अनुभूति गर्वपूर्ण होती है । उतारकी अनुभूति में वापसीका भाव होता है । चढ़ाव में फिर भो सन्तुलन रहता है । उतार में उसे रखना कठिन होता है ।
भाव और अनुभाव
उतार-चढ़ाव
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गति कैसे ?
उत्तर में देख : वे चिकनी चट्टानें खड़ी हैं। फिसल न जाना। फिसलनेवाला विजेताके पद-चिह्नोंपर नहीं चल सकता। दक्षिणमें देख : वह निर्झरका कलरव हो रहा है। बह न जाना। प्रवाहमें बहनेवाला विजेताके पद-चिह्नोंपर नहीं चल सकता। पर्वमें देख : वह वनस्थलीका झुरमुट। फैस न जाना। फंसनेवाला विजेताके पद-चिह्नोंपर नहीं चल सकता। पश्चिममें देख : ये मालतीके फूल बिछे हैं । मीठी परिमलको पा छितर न जाना। छितरनेवाला विजेताके पद-चिह्नोंपर नहीं चल सकता।
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ममताका देश
मेरा देश वह है, जहाँ स्त्री और पुरुष नहीं हैं ।
__ मेरा देश वह है, जहाँ धर्म और सम्प्रदाय नहीं है।
मेरा देश वह है, जहाँ गार्हस्थ्य और संन्यास नहीं है।
मेरा देश वह है, जहाँ शिक्षक और शिष्य नहीं है । ओ समताके शास्ता ! मुझे मेरी ममताके देशमें ले चल ।
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सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जो रमणीय होता है वह शिव भी होता है। जो शिव न हो, कल्याणकारी न हो, वह पल-भर रमणीय भले लगे पर वास्तवमें रमणीय नहीं होता।
जहाँ सत्य भी हो, कल्याण भी हो और रमणीयता भी हो, वहाँ आनन्द होगा ही, भले फिर कष्ट हो या आराम ।
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अभिव्यक्ति विफलतासे शून्य सफलता है भी कहाँ ? विद्युत्की पूर्ण अभिव्यक्तिमें बल्ब सफल नहीं होता पर प्रकाशकी व्यंजनामें जो क्षमता उसे प्राप्त है, वह उसकी विफलता नहीं है। यदि बल्ब नहीं होता तो विद्युत्-शक्ति ही रहती, प्रकाश-रूपमें अभिव्यक्ति नहीं पाती। शक्तिका स्वयंमें मूल्य है। व्यवहार-जगत्में मूल्य अभिव्यक्तिका
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चरम दर्शन
घोड़ा खड़ा रहा, आरोही उड़ चला। नाव पड़ी रही, नाविक उस पार चला गया। पिंजड़ा पड़ा रहा, पंछी उड़ चला। फल लगा रहा, सौरभ चल बसा । बाती धरी रही, ज्योति-पुंज ज्योति-पुंजसे जा मिला।
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आँखो देखा सच
बहुत बार लोग गर्वको भाषामें कहते हैं - यह आँखों देखा सच है । पर प्रश्न यह है कि क्या सत्य आँखोंसे देखा जा सकता है। गाड़ी दौड़ती है - दीखता है पासमें खड़े पेड़ दौड़े जा रहे हैं। पर जो दौड़ते हैं, वे पेड़ नहीं होते ।
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मानो या मत मानो मैं धार्मिक हूँ - यह तुम मानो या मत मानो किन्तु यह तो मानो कि मैं अधार्मिक हूँ। मैं आस्तिक हूँ – यह तुम मानो या न मानो किन्तु यह तो मानो कि मैं नास्तिक हूँ। मैं प्रकाश हूँ-- यह तुम मानो या न मानो किन्तु यह तो मानो कि मैं अन्धकार हूँ। तुम नहीं जानते प्रकाश वही होता है कि जो अँधेरेमें-से निकलता है। धर्म वही होता है जो अधर्ममें से निकलता है। आस्था वही होती है, जो अनास्थामें-से उपजती है ।
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उपासनाका मर्म सम्प्रदाय छोटा होता है और सत्य बड़ा। बड़ेकी उपासना करनेवाला छोटेको स्वयं पा जाता है । छोटेकी उपासना करनेवाला बड़ेसे दूर रह जाता है। सत्यका ठेका तुम्हारे पास भी नहीं है और मेरे पास भी नहीं है। तुम जो कहते हो वही सत्य है और वह सत्य नहीं है, जो मैं कहता हूँ। इसका तुम्हारे पास क्या प्रमाण है ?
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स्मृति और विस्मृति
बहुत बार हम शब्दात्माको भुलाकर भी अर्थात्माको नहीं भुलाते और बहुत बार हम अर्थात्माको भुलाकर भी शब्दात्माकी रट लगाया करते हैं । दोनोंको अपूर्ण कहा जा सकता है पर दोषपूर्ण नहीं |
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आत्म-विश्वास
जिसे अपने-आपपर भरोसा नहीं, उसके लिए यह दुनिया भयंकर होगो और भरा होगा उसके लिए इस दुनियामें जहरका समन्दर । पर मेरे लिए तो यह दुनिया बहुत ही मधुर है, बहुत हो सुखद और बहुत ही प्यारी। वह इसलिए कि मेरा प्यारा प्रभु परिस्थितिकी खिड़कीसे कभी नहीं झाँकता।
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प्रतिबिम्ब
सामनेवाला मेरे साथ अच्छा व्यवहार करता है, इसलिए मैं उसके साथ अच्छा व्यवहार न करूँ किन्तु उसके साथ मैं अच्छा व्यवहार इसलिए करूँ कि वह मेरा धर्म है। सामनेवाला मेरे साथ बुरा व्यवहार करता है फिर भी मैं उसके साथ अच्छा व्यवहार करूँ और इसलिए करूँ कि वह मेरा धर्म है। अच्छा व्यवहार करनेवालेके साथ मैं अच्छा व्यवहार करूँ और बुरा व्यवहार करनेवालेके साथ बुरा व्यवहार करूँ तो इसका अर्थ है कि अच्छाईमें मेरी कोई आस्था नहीं है और बुराईसे मेरा कोई वास्तविक विरोध नहीं है। मेरा कोई सिद्धान्त भी नहीं, जिसे मैं सुरक्षित रखू और मेरी अपनी कोई आकृति भी नहीं, जिसे मैं देखू । क्या मैं परिस्थितिके दर्पणमें वैसा प्रतिबिम्ब डालूँ जो मेरा अपना नहीं है।
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व्यक्ति और विराट
जो अपने बारेमें सोचता है, वह समूचे विश्वके बारे में सोचता है। अपना विश्व उतना ही विराट है, जितना यह विश्व है। अपनी समस्याएँ उतनी ही जटिल हैं, जितनी विश्वकी हैं।
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आत्म-सत्य
रस्सीका एक ही सिरा होता तो गाँठ नहीं होती । मनुष्य अकेला ही होता तो द्वन्द्व नहीं होता । सिरपर एक ही बाल होता तो जटिलता नहीं होती । एक ही मस्तिष्क होता तो संघर्ष नहीं होते ।
ये अलगाव, लड़ाइयाँ, उलझनें और चिनगारियाँ बहुता के परिणाम हैं । यह विश्वाकाश बहुता और एकताके चाँद-सूरजसे रुका हुआ है । यह हमारा सूर्य बहुताकी अनभिव्यक्ति में एकताकी स्पष्ट व्यंजना है । अमावसकी रात एकताकी अनभिव्यक्तिमें बहताको स्पष्ट व्यंजना है ।
पूर्णिमाको रात व्यक्ति और समष्टिका सुन्दर समन्वय है । व्यक्ति और समष्टिका संगम मिटनेवाला नहीं है । व्यक्ति भी सत्य है, समष्टि भी सत्य है । सत्यको मिटाया नहीं जा सकता ।
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झुकाव अपने सम्प्रदायके विचार जो बुद्धिगम्य हैं, वे मेरी दृष्टिसे सत्य हैं और जो बुद्धिसे परे हैं, वे मेरे लिए चिन्तनीय हैं। दूसरे सम्प्रदायके विचारोंके प्रति भी मेरा यही दृष्टिकोण होना चाहिए । यह आग्रह नहीं, सत्यकी शोधका भाव है। इयत्ता नहीं, अनन्तकी ओर झुकाव है।
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मुनि नथमल जन्म : वि० सं० १९७७ आषाढ कृष्णा
१३, टमकौर, राजस्थान दीक्षा : वि० सं० १९८७ माघ शुक्ला
१०, सरदार शहर, राजस्थान। आचार्य श्री तुलसीके सतत सान्निध्य में रहकर संस्कृत, प्राकृत और हिन्दीका अध्ययन । संस्कृतके प्रतिभासम्पन्न आशु कवि । मुकुलम्, अश्रुवीणा, सम्बोधि आदि अनेक संस्कृत ग्रन्थों एवं विभिन्न विषयोंके लगभग पचास हिन्दी ग्रन्थोंके रचयिता। हिन्दी ग्रन्थोंमें उल्लेखनीय हैं : जैन दर्शनके मौलिक तत्त्व, अहिंसा तत्त्व दर्शन, अनुभव चिन्तन मनन, फूल और अंगारे आदि। आचार्य श्रीकी देख-रेखमें चल रहे आगम शोध कार्यके भी आप ही प्रधान निर्देशक और सम्पादक हैं। अभी-अभी आपने दशवकालिक, उत्तराध्ययन, स्थानांग, समवायांग आदि सूत्रोंका विवेचन और सम्पादन किया है। lainelibrary.org
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________________ (CS NOROना पाण.TOS बाOINO पियासया भारतीय ज्ञानपीठ भारतीय ज्ञानपीठ उद्देश्य सानको विलुप्त, अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्रीका अनुसन्धान और प्रकाशन तथा लोक-हितकारी পালি-পাথা নসথা संस्थापक साह शान्तिप्रसाद जैन अध्यक्षा श्रीमती रमा जैन Jain Educadores donarfa ofiar, personal y eu, Tu W.manelibrary.org