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स्वार्थ : स्वमें लीन रहनेकी वृत्ति ।
दूसरोंसे इसका सम्बन्ध नहीं जुड़ता अतः इसका विशेष मूल्य नहीं आँका जाता ।
परार्थ : दूसरोंके लिए अपने 'स्व' का विसर्जन ।
पर और परम
इसका स्वरूप है 'स्व' को दूसरोंमें लीन कर देना । इससे दूसरोंको लाभ पहुँचता है । अतः इसका विशेष मूल्य आँका जाता है ।
परमार्थ: स्वको परममें लीन कर देना ।
परमके लिए सब कुछका त्याग | आत्म-साधक के लिए इसका मूल्य
इन तीनोंमें :
पहला
दूसरा तीसरा
भाव और अनुभाव
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व्यक्तिवाद है ।
समाजवाद है ।
मोक्षवाद है ।
यह आत्मलीनता है । सर्वोत्कृष्ट है |
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