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श्रद्धाके आँख नहीं होती, केवल पाँव रहते हैं : वह चुप सिर झुकाये चला करती है। बुद्धिके पाँव नहीं रहते, केवल
आँख होतो है : वह देखती है और दिखा सकती है। पर जीवन पूरा विकसित हो और अपनेको प्रमाणित भी कर सके, इसके लिए न केवल चलते जाना पर्याप्त होगा न देखते-दिखाते रहना। व्यवहार-जगत्में आँख और पाँव दोनोंका रहना आवश्यक है। श्रद्धा हमारी आधारभूमि हो और बुद्धि उसके ओर-छोरको अँजोरती आलोक-शिखा। यहीं सूक्तियों और नीतिवचनोंका विशेष उपयोग और महत्त्व होता है । इनमें श्रद्धा और बुद्धि दोनोंका ऐसा समन्वित स्वर वाचा पाता है जो अनुभूतियोंकी आगमें तपा हुआ भी होता है। इसी कारण सीधे और सरल जीवनयात्रीके लिए सूक्तियों और नीतिवचनोंके संकलन सबसे समीचीन पाथेय रहते हैं । प्रस्तुत संकलन तो अपनी सरसता, सौम्यता और व्यापक दृष्टिको लेकर और भो मूल्यवान् हो जाता है, विशेषकर इसलिए कि इसका जन्म उस अनुभूतिसे हुआ है जो ज्ञान और तप इन दो कूलोंके बीचसे प्रवाहित है। यहाँ अभिव्यक्तिकी रुचिरता व्यक्तित्वकी शुचिताका ही सरस रूपान्तर है ।
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