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● अनुसंधान
मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसूत्त, ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
प्राकृतभाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
११
संकलनकार : आचार्य विजयशीलचन्द्रसूरि • हरिवल्लभ भायाणी
X Υ
શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृतिसंस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद
१९९८
www.jamchorary.org
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त , ५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसंधान
प्राकृतभाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
| ११
संपादको : विजयशीलचन्द्रसूरि
हरिवल्लभ भायाणी
THE
શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदावाद १९९८
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अनुसंधान ११
संपर्क
:
हरिवल्लभ भायाणी २५/२, विमानगर, सेटेलाईट रोड, अहमदावाद - ३८० ०१५.
प्रकाशक :
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदावाद , १९९७
किंमत
:
रू. ३५-००
प्राप्तिस्थान :
सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदावाद - ३८० ००१.
मुद्रक
:
राकेश टाइपो-डुप्लिकेटींग वर्क्स राकेशभाई हर्षदभाई शाह २७२, सेलर, बी.जी. टावर्स, दिल्ली दरवाजा बहार, अहमदावाद - ३८० ००४. (फोन : ४६८९०९)
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सम्पादकीय निवेदन
संपादकोनी फुरसदे चालती अनुसन्धान-यात्रानो आ ११मो मुकाम छे. संशोधनार्ह विषयो अने सामग्री हजी तो एटली अढळक छे के अनुसन्धान जेवी एकाधिक पत्रिकाओ होय अने ते नियतकालिक (अनियतकालिक नहीं) होय; अने मोटी संख्यामां मुनिगण तथा विद्वद्गण तेमां प्रत्यक्ष भाग ले, तो ते विषय-सामग्रीने कंईक अंशे न्याय आपी शकाय.
आ कार्यमा रस लेवा जेवो छे एवं जेमने पण प्रतीत थतुं / थयुं होय, तेओने आ यात्रामां भाग लेवा अमारुं हमेशां जाहेर आमंत्रण छे.
- संपादको
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३.
४.
५.
६.
श्री हरिभद्रसूरिविरचित समसंस्कृतप्राकृत 'जिनसाधारणस्तवन' नो आस्वाद
श्री जिनपतिसूरि पंचाशिका अज्ञात - जैन मुनि कर्तृकं हाल्लार- देश - चरित्रम् अज्ञात कर्तृक गणधर - - होरा तपगच्छपति - श्रीमुनिसुन्दरसूरिकृता पञ्चसूत्रावचूरिः त्रण जिनस्तोत्रो
९.
१०. श्रीहीरविजयसूरिकृत चतुरर्थी वीरस्तुतिः अज्ञातकर्तृकावचूरियुता
७.
८.
अनुक्रम
श्री चारूपमण्डन पार्श्वनाथस्तुतिः
ज्ञानभंडार प्रशस्ति
पंडित कवि तत्त्वविजयजी रचित चोवीस जिन गीतो
११. पञ्चसूत्रना कर्ता कोण, चिरन्तनाचार्य के आ. हरिभद्र ?
१२. शब्द प्रयोगोनी पगदंडी पर ओलुं, पेलुं, अली !, अल्या !
१३. तीर्थंकर महावीरनुं देहवर्णन
१४. आजना विज्ञानयुगमां जैन जीवविचारणानी आहारक्षेत्रे प्रस्तुतता
१५. मध्यकालीन धर्म विषय पद्यपरंपरा संगोष्ठी अहेवाल १६. संशोधन माहिती
सं. स्व. आगमप्रभाकर मुनि पुण्यविजयजी
आ. विजयप्रद्युम्नसूरि
सं. मुनि जिनसेनविजय
सं. पारुल मांकड
सं. श्री भंवरलाल नाहटा
सं. मुनि धर्मकीर्तिविजय सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
सं. मुनि धुरन्धरविजय
विजयशीलचन्द्रसूरि
हरिवल्लभ भायाणी हरिवल्लभ भायाणी
१
६
११
२८
३२
३७
४३
४७
६३
६७
७१
९४
९९
१०२
डॉ. नारायण म. कंसारा
प्रा. रमणीकलाल के. शाह ११०
तथा प्रा. विनोद गांधी आ. विजयप्रद्युम्न सूरि
११५
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श्री चारूपमण्डन पार्श्वनाथस्तुतिः ॥
- सं. स्व. आगमप्रभाकर मुनि पुण्यविजयजी अहीं नीचे सात श्लोकोवाली एक स्तुति आपेली छे ते पाटण पासे आवेला गाम चारूपमा बिराजमान श्री पार्श्वनाथ भगवाननी छे. तेना कर्ता कोण छे? तेनी माहिती जाणमां नथी, परंतु स्तुतिनां पद्यो उपरथी मालूम पडे छे के कोई विद्वान आचार्य भक्ते आ स्तुति करेली छे.
स्तुतिमां यमको आवेलां छे अने तेने लीधे ए एक भिन्न काव्यमय बनेली छे.
यमक नामनो एक अलंकार छे. आ अलंकार शब्दरूप छे. यमकनुं स्वरूप महाकवि वाग्भटे पोताना वाग्भटालंकारमां आ प्रमाणे आपेल छे
"स्यात् पाद-पद-वर्णानामावृत्तिः संयुताऽयुता। यमकं भिन्नवाच्यानामादिमध्यान्तगोचरम् " ॥ २२ ।।
(वाग्भटालंकार ४ परिच्छेद) जे पद्यमां भिन्न भिन्न अर्थवाळा एवा समान अक्षरोवाळा पादोनी, पदोनी अने वर्णोनी वारंवार आवृत्ति देखाती होय तेनुं नाम यमक. आवृत्ति एटले फरी फरीने उच्चारण. आ संयुत आवृत्ति एवी होय छे के जेमां वच्चे बीजु कोइ पद आवतुं होय अने आ अयुत आवृत्ति एवी पण होय छे के जेमां वच्चे बीजुं कोइ पद आवतुं होय, वळी आ यमक, आदिमां वच्चे अने अंते पण होय छे, क्यांय आदिमां यमक होय छे, क्यांय मध्यमां अने क्यांय अंतमां पण यमक होय छे. जेमां चारे पाद एक सरखां होय तेने चतुष्पद एवं महायमक कहेवामां आवे छे.
आ स्तुतिमां शरूआतनां बे पद्योमां बीजुं अने चोथु पाद आय यमकमां छे. त्रीजा अने चोथा पद्यमां प्रथम पाद अने तृतीय पाद यमकमां छे अने बीजुं अने चोथु पाद पण यमकमां छे. पांचमा पद्यमां प्रथम पाद अने चतुर्थ पाद यमकमां छे तथा बीजा पादमां अने त्रीजा पागमां अनुप्रास अलंकार छे. अनुप्रास एटले "तुल्यश्रुत्यक्षरावृत्तिः अनुप्रासः स्फुरद्गुणः" (वाग्भटालंकार श्लो. १७ चोथो परिच्छेद) अर्थात् जे काव्यमां सरखे सरखा पण भिन्न अर्थवाळा अक्षरोनी वारंवार आवृत्ति होय ते काव्यमां अनुप्रास अलंकार समजवो. एकने एक अक्षरोनी आवृत्ति होय तेनुं नाम तत्पद अनुप्रास अने नोखा नोखा अक्षरोनी आवृत्ति होय तेनुं नाम अतत्पद अनुप्रास. अतत्पद अनुप्रासने छेकानुप्रास कहेवामां आवे छे. अने तत्पद
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अनुप्रासने लाटानुप्रास कहेवामां आवे छे. आ पांचमा पद्यमां छेकानुप्रास छे.
"विभावरीनाथ विभास्वभावा" तथा "वामेय मे कामितका तनश्री" आ बन्ने पादोमांना बीजा पादमां 'भा' अक्षरनी वारे वारे आवृत्ति थयेली छे. अने त्रीजामां एटले 'वामेय' ए पादमां 'मे' 'का' अने 'त' अक्षरनी आवृत्ति थयेली छे.
__ छठं पद्य तो महायमक रूप छे, केमके एमां चारे पादो यमकमय छे. आवां यमकवाळां पद्योनी गणना चित्रकाव्यमां थाय छे. आवां पद्योमा विशेष करीने शब्दोनी चमत्कृति होय छे. अर्थनी तो खेंचाखेंच करवी पडे छे. तेम ए अर्थमां कोइ विशेष खूबी पण नथी आवती. आवां काव्यो शब्दप्रधान होय छे, एटले एमां शब्दनी ज चमत्कृति विशेष रीते ध्यान खेंचे एवी होय छे. आ पद्यो जोनार पंडित आ हकीकत विना प्रयासे समजी शके एम छे.
आ पद्योनी अवचूरि पण मळे छे. ए अवचूरि पण आ साथे ज दरेक श्लोकनी नीचे आपेली छे. एमां [ ] आवा कांउसमां जे मूकेलुं छे ते संपादके पोते शुद्धरूप बताववा मूकेलुं छे. केमके अवचूरिमां लहियानी सरतचूकथी क्यांक अशुद्धि आवी गइ छे. गोळ कांउसमां एटले () आ निशानमा जे लखाण छे ते पण संपादके लखेल छे. ते लखाण एटला माटे मूकेलुं छे के अर्थ समजनार पादना पदच्छेदनी बराबर समज अने क्यांक अर्थनी स्पष्टतानी पण गरज ए लखाण सारे छे.
त्रीजा पद्यमां मूळमां 'तारकाय' एम बे ठेकाणे छे त्यां अवचूरिमां एक स्थळे 'तारण' छे अने नीचेना स्थळे 'तारकार' छे ए बराबर बंध बेसतुं नथी माटे त्यां स्पष्टता आपेली छे.
___चोथा पद्यमां 'लसमाननन्द' एवा पाठ छे. एनो अर्थ करतां अवचूरिकार 'अलसः' एवो अर्थ आपे छे. भगवानने 'अलसः' विशेषण बराबर बेसतुं नथी माटे संपादके 'लस' एम सूचवेलुं छे छतां 'अलसः' ने ज अहीं लगाडवू होय तो 'अरस' एम अर्थ करवो जोइए. 'अरसः' एटले जेमने संसारनी प्रापंचिक प्रवृत्तिओमां रस नथी अथवा जेमणे रसना नो जय करेलो छे. चित्रकाव्यमां जेम 'व' अने 'ब' एक मनाय छे तेम 'र' अने 'ल' पण एक मनाय छे. पांचमा पद्यमां 'अबालभाल' अने 'नवालभाल' एमां 'व' अने 'ब' नी एकतानी नोंध आपेल छे.
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आटली नोंध आ पद्यो माटे पूरती छे. अर्थो बराबर स्पष्ट थाय ए माटे संपादके दरेक पद्यमां ते ते शब्दो उपर नंबरो राखेला छे अने आ नंबरो दरेक पद्यमां जुदा जुदा मूकेला छे.
वाचको भगवान-वीतरागदेवनी भक्तिधारा पोतामां कोई विशेष गुणनी प्राप्ति माटे प्रयत्न करे एवी ज एक इच्छाथी आ पद्योने प्रकाशमां मूकुं छु. प्रयत्न विना विशेष गुणनी प्राप्ति थती नथी अने एवा प्रयत्न माटे भक्ति एक निमित्त रूप छे.
तमालनीलच्छविपिच्छिलाङ्गः सिद्धान्तमुद्रासहितो मनोज्ञः ।
जीयाज्जिनेन्द्रः प्रभुपार्श्वनाथः सिद्धान्तमुद्रासहितो मनोज्ञः ॥१॥ १. पिच्छिलाङ्गः व्याप्तवपुः । २. सिद्धान्तमुद्रासहितः सिद्धान्तश्च मुच्च मुद्हर्षः रा-दानम् , तेन सहितः प्रधानः । (अर्थात् सिद्धान्त-मुद्-रा एतैः सहितः)। ३. अन्तं मरणम् तस्य मुद्रा (अन्तमुद्रा) ता [ ताम् ] स्यति विनाशयति इति (सः अर्थात् अन्तमुद्रासः ) सिद्धः प्रसिद्धः अन्तमुद्रासो यस्य सः (अर्थात् सिद्ध-अन्तमुद्रा-सहितो)। ४. मनो वर्जितमुक्तत्वात् (?) ॥१॥
वरेण्यलावण्यनिधे ! विधेहि सदा महानन्दमहासुखानि ।
प्रभावभङ्गीभरितत्रिलोक ! सदामहानन्दमहासुखानि ! ॥२॥ १. महानन्दमहासुखानि - परमपदसुखानि (महानन्दो मोक्षः निर्वाणम् "महानन्दोऽमृतं सिद्धिः कैवल्यमपुनर्भवः" देवाधिदेवकाण्ड श्लो-७४ अभिधानचिंतामणि) (कर्मपदम्) । २. प्रभावभङ्गीभरितत्रिलोक!-महिमाविलासभरितविश्व ! (प्रभावभङ्गी महिमाविलासः तेन भरितः त्रिलोकः येन सः, तस्य सम्बुद्धौ)। ३. सदामहानन्दमहासुखानि-सतां शिष्टानाम् ये आमाः रोगाः तान् हन्ति स सदामहा । आनन्दो हर्षः (मह:)-उत्सवः तयोः असवः प्राणाः तेषां खानिः (सत्-आम-आनन्द-मह-असु-खानि) (एतदपि सम्बोधनैकवचनम्) ॥२॥
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सदर्थमुक्तोपमतारकाय सुबन्धुरारामजयाङ्गसार । सदर्थमुक्तोपमतारकाय सुबन्धुरामजयाङ्गसार ||३||
१. सदर्थः समर्थः। २. मुक्तोपमः । ३. तारण स्त्रीरहित (?) । ४. अङ्ग इति कोमलामन्त्रणे । ५. सा लक्ष्मीः तां राति ददाति (सार) । ६. सदर्थः सद्भिः अर्थ्यते । अथवा सन्तः रुचिरा अर्था भावा यस्य । ७. मुक्तोपमः लक्ष्मीरहितः मुक्तत्वात् । ८. तारं भास्वरं कारं (कार्य) यस्य ( स तारकाय ) । ९. सुबन्धुः शोभनबान्धवः उपकारित्वात् । १०. अरीणां समूहः आरम् । आमा रोगाः । तेषां जयो यत्र (सुबन्धुः आर - आम - जय ) । ११. अङ्गेन सारः प्रधान: (अङ्गसारः) ॥३॥
संत्यागमासारवरङ्गनाना-दराधिकान्तो लुसमाननन्द । सत्यागमौसारवरङ्गनाऽनादराधिकान्तो लसमाननन्द ||४||
-
१. सत्यागमासारवरङ्ग । सत्यसिद्धान्तस्य (आ) सारो वर्षः तेन रम्यदेह । २. नानादराधिकान्तः-नानाभयाधिकानां मनः पीडानाम् अन्तो विनाशो यस्य (नाना-दर-अधिक-अन्त (दर: भयम्) । ३. देदीप्यमानदेह । ४. सत्याग सदान (स-त्याग – त्यागेन दानेन सहित ) । ५. मासार श्रीवर (मा-लक्ष्मी: तस्याः सारः) । ६. वा (व) राङ्गना: नायिकाः तासु अनादरः तेन अधिकतो रमणीयः (अधि-अधिकतः कान्तः रमणीयः । वराङ्गना - अनादर - अधि-कान्त) | ७. अलसश्चासौ मानश्च पूजा तेन नन्दति वर्धते सः [लसश्चासौ मानश्च पूजा ] (लस-माननन्द) । लसः सुशोभः ॥४॥
२
गुरो सदालोक बाल भाल विभावरीनाथविभास्वभाव ।
५
वामेय में कामितका तनु श्री - गरो सदालोकनवाऽऽलभा ॥५॥
१. संत् प्रधानम् । आलोको ज्ञानं यस्य (सत् - आलोक) । २. गुरुललाटे चन्द्र-विभावत् स्वभावो यस्य निर्मलत्वात् (न बाल भाल- विभावरीनाथ - विभास्वभाव । न बाल अबाल अर्थात् गुरु, लाल- ललाट, विभावरीनाथ-चन्द्र) ।
-
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३. (वामेय - वामातनय-पार्श्वप्रभो! । ४. मे मम, कामितका [कामितकम्] इष्टसुखम् )। ५. तनु-विस्तारय । ६. श्रीगरिष्ठ । ७. सदा नित्यम् । ८. लोकेभ्यः नवः स्तव्यो यस्य (लोक-नव, व-बयोः चित्रकाव्ये ऐक्यात् प्रथमपादे 'न बाल' इति अत्र च 'न वाऽऽल' इति ग्राह्यम् । 'नु स्तुतौ' इत्यस्मात् धातोः' नवः स्तव्यः- स्तवनम्) अलीनाम् इयं आला, आला चासौ भा च कान्तिः ता (ताम्) लाति गृह्णाति चमर (भ्रमर) कान्ति सदृश इत्यर्थः (आल-भा-ल) ॥५॥
कल्याणमालाकरणाधिहारी कल्याणमालाऽकरणाऽऽधिहारी ।
कल्याणमालाऽकरणाधिहाऽरीकल्याणमाऽऽलाकरणाऽधि हारी ॥६॥ १. कल्याणश्रेणिकरणेन अधिहारी-रम्यः। २. स्वर्णस्य मा-लक्ष्मी: तस्या ला ग्रहणम् न करोति नीरागत्वात् । (कल्याण-मा-ला-अकरण) । ३. आधि: चित्तपीडा तां हरति इत्येवंशीलः । आधि-हारी। ४. कल्यः प्रधान: आण: तं मलति धारयति कल्याणमालाः (कल्य-आण-माल)। ५. लं (अकम्) अदुःखं (दुःखम्) रणः सङ्ग्रामः तौ अधिजहाति । (अक-रण-अधिहअकरणाधिह)। ६. अरिश्चासौ इ: काम: तस्य कल्यर्थं सङ्ग्रामार्थं आण: शब्दः सिंहनादः तम् मनोति (मिनोति) विनाशयति सः (अरि-इ-कलिआण-म – अरीकल्याणम)। ७. आलम् अलीकदानम् आ सामस्त्येन न किरति क्षिपति स (आल-आ-करण -- आलाकरण)। ८. बुद्धिरहितं यथा भवति सः (अधि)। ९. हारधारी (हारी-हार: यस्य अस्ति हारी) वीतरागत्वात् । (वीतरागो हारं धारयति तथापि तत् तस्य धारणम् , अधि-अनासक्तवृत्त्या अत एव अधि-बुद्धिरहितम्) ॥६॥
इत्थं स्तुतं यमकैरवेन्दुं चारूपभूमिरमणीरमणीयहारम् । श्रीपार्श्वनाथजिनयं जिनपद्मयाऽऽढ्यं ध्यायामि भावसहितं
सहितं समन्तात् ॥७॥ १. यमानि एव कैरवाणि (यमाः महाव्रतानि)
(प्रेषक : आ. विजयप्रद्युम्नसूरि)
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ज्ञानभंडार प्रशस्ति
- आ. विजयप्रद्युम्नसूर
प्राचीन प्रतिमाना शिलालेखो, ग्रन्थोनी प्रशस्तिओ, ग्रन्थ लेखकनी पुष्पिकाओ, दानपत्रो, ग्रन्थ ज्ञानभंडारमां समर्पित कर्यानी नोंधो ऐतिहासिक दृष्टिए जेम महत्त्वनी छे, तेम इतिहासनी कडीने सळंग जोडवामां तथा तेने समजवामां उपयोगी छे. तेना द्वारा ते ते काळना सामाजिक संदर्भो मळे छे, ते समयनुं एक व्यापक दर्शन सांपडे छे अने तेमांथी तेना पछीनी पेढीने प्रेरक बोध पण मळे छे. ए ज रीते ए प्रशस्तिओना जेवोज एक महत्त्वनो प्रकार छे - चित्कोशप्रशस्ति. एटले के आखा ज्ञानभंडारनी प्रशस्ति. आपण एक अगत्यनो प्रकार छे.
•
आवी प्रशस्तिओ पण मळे छे. आवी एक प्रशस्तिनो उल्लेख मुनि जिनविजयजीए विज्ञप्तित्रिवेणीनी पहेली आवृत्तिनी प्रस्तावनामां कर्यो छे.
एवीबीजी एक प्रशस्तिनी वात अहीं प्रस्तुत छे. पाटण भाभानां पाडाना विमलगच्छना जैन उपाश्रयना ज्ञानभंडारमां केटलीक प्रतो सचवाई छे तेमां थोडीक प्रतो ए रीते एकज श्रेष्ठिए एक ज गुरुमहाराजना उपदेशथी एक ज लहीया द्वारा लखावी होय तेवी प्रतो छे.
वि.सं. १५५७मां तपागच्छनी लहुडी पोसाळना प्रसिद्ध आचार्य श्री विमलसूरीश्वरजी महाराजना शिष्य श्री जिनहंस अने तेमना शिष्य अनंतहंस ना उपदेशथी सुश्नावक पासवीरे एक दिव्य भंडार लखाव्यो छे, तेमां छ लाख अने छत्रीस हजार श्लोक प्रमाण ग्रन्थो लखाव्या छे.
पिताजी पासवीरे आ कार्यनो प्रारंभ करेलो अने तेओना स्वर्गवास पछी तेओना सुपुत्र रामे आ कार्य पूर्ण कर्यु. लखेला ग्रंथो शुद्ध करवा पंडित पण खेलो. ए प्रशस्तिनो सारांश आ प्रमाणे छे.
बनासकांठानुं भीलडी गाम. त्यां पोरवाड पाल्हणसिंह तेमनां पत्नीनं नाम पण पाल्हणदेवी. तेमनो दीकरो डूंगर, तेमनी 'साख' नामे पत्नी. मना बे पुत्र सीधर अने शोभाक. आ बन्ने भाइओ अणहिल्लपुर पाटणमां
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आवीने वस्या. बन्ने “परीक्षक" तरीके खूब जाणीता थयेला. सीधरने कपूरी नामे अत्यन्त गुणियल पत्नी. अने तेमनो पुत्र ते पासवीर. ते पण परीक्षकोमां श्रेष्ठ तरीके पंकायेलो. तेणे श्रेष्ठ कही शकाय तेर्बु जिनेश्वर परमात्मानुं गृहचैत्य बनावरावेलुं ते आ चित्कोश लखावराव्यो त्यारे पण अनेक मनुष्योना चित्तने आश्चर्य चकित करे छे. ___ आ पासवीरने पूतलीबाई नामे पत्नी. अने तेना त्रण पुत्र - १. राम, २. देवाक , ३. वर्धमान.
रामनां पत्नी बे, कीकी अने मानी. देवाकनां पत्नी नुं नाम रमाइ अने वर्धमाननां पत्नी हांसी. देवाकना पुत्रनुं नाम जगपाल अने वर्धमाननां पुत्रनुं नाम सूरचंद. राजस्थानमां धरणासाहे जे आचार्यश्रीना वरद हस्ते राणकपुरना विश्वविख्यात चतुर्मुख प्रासादनी प्रतिष्ठा करावी ते आचार्यश्री सोमसुन्दरसूरिजी महाराज. तेमना पट्टशिष्य मुनिसुन्दरसूरि (जेओ सहस्रावधानी कहेवाया). तेमना शिष्य जयचन्द्रसूरिजी अने तेमना शिष्य रत्नशेखरसूरिजी. तेमना पट्टशिष्य लक्ष्मीसागरसूरि, तेमना शिष्य सुमति साधुसूरिजी अने तेमना पट्टशिष्य आचार्यश्री हेमविमलसूरिजी तेमना शिष्य श्री जिनमाणिक्य अने तेमना शिष्य श्री अनंतहंस ना उपदेशथी परीक्षक (परीख) पासवीरे आ चित्कोश (ज्ञानभंडार) लखाववानो प्रारंभ कराव्यो अने पछीथी तेमना पुत्रे रामे (वि.सं. १५५७) आ महान कार्य पूर्ण कराव्यु. छ लाख अने छत्रीस हजार श्लोक प्रमाणे ग्रन्थो लखाव्या. शुभभूषण नामना पंडिते ए लखेला ग्रन्थनुं संशोधन कर्यु, वळी आ ग्रन्थोने राखवा माटे ग्रन्थनी आगळ पाछळनी पाटली, पण रसपूर्वक बहुमूल्यवाळी बनावरावी अने आ आखा ज्ञानभंडार- सुंदर मरोडदार अक्षरोमां भगीरथ लेखन कार्य करनार लहीया माढ-त्रवाडी ज्ञातीय वासा तेना पुत्र श्रीनाथे तथा तेमना भाइ गोविंदे आ लेखन कार्य पूर्ण कर्यु छे. आम आ २४ श्लोकनी संस्कृत प्रशस्ति पण मनोरम छे. एकवीसमा श्लोकमां 'फरंगी' अने 'कतीफक' आ बे शब्दो फारसी भाषाना जणाय छे. कोई ए भाषाना विद्वान तेना अर्थ जणावशे तो आनंद थशे.
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उपसंहार
विक्रमना सोळमा सैकामां ग्रन्थलेखनक्षेत्रे नोंधपात्र काम थयुं छे. आजे प्राचीन ज्ञानभंडारोमां जे हजारो हस्तप्रतो मळे छे तेमां घणो भाग सोळमा सैकानो छे अने जेटली सुवर्णाक्षरी 'श्रीकल्पसूत्र' वगेरे मळे छे ते तो प्रायः बधीज. आजे लगभग ४५ थी ५०नी संख्यामां सुवर्णाक्षरी ग्रन्थो मळे छे ते बधा ज सोळमा सैकामां लखायेला मळे छे.
ज्ञान प्रत्येनी अपार भक्ति अने उपदेशकोना उपदेशनुं केन्द्र आ ज्ञानभक्ति हशे (आजे चैत्य भक्ति छे तेम-) तेनुं ज आ सुपरिणाम आपणे मळ्युछे.
॥चित्कोश प्रशस्तिः ॥ श्रीमन्महे महेभ्यश्रेणिसमृद्धेऽत्र भेलडी नगरे । पूर्वं पाल्हणसिंहः प्राग्वंशावतंसक: समऽभूत् ॥ १ ॥ तत्रैव सुजनरंजन-जिनभवन विधापनैकविधिना यः । सुकृतार्थी सुकृतार्थीचकार निजर्जितं वित्तम् ॥ २ ॥ पाल्हणदेवी नाम्नी गृहिणी स्पृहणीयसद्गुणा तस्य । निजनिर्मलतरपक्ष-द्वितययुता राजहंसीव ॥३॥ डूंगरनामा तनयस्तयोरभूद् भूरिगुणगणोपेतः । सारूः सा रूपवती सती च सीतेव यद् युवती ॥ ४ ॥ तत्तनयौ प्रत्तनयौ विशिष्टविनयादुभौ शुभौ जातौ । प्रथमः सीधरनामा सोभाक: शोभते ह्यपरः ॥ ५ ॥ निर्मलदृष्टिनिरीक्षणविशुध्धनाणकपरीक्षणपराभ्याम् । याभ्यामणहिल्लपुरे परीक्षकत्वाभिधा दधे ॥ ६ ॥ सीधरवधूः कपूरी गुणैकपूरैः प्रपूरितदिगंता । विनय विवेक विचार सागर सदाचारश्रृंगारा ॥ ७ ॥
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श्री सीधरः प्रतिष्टां कथं न लभते परीक्षकप्रवरः । श्री जिनपति प्रतिष्ठां विधापयामास विधिना यः ॥ ८ ॥ तत्तनय पासवीरो गुणगंभीरः परीक्षिकोटीरः । यत् कारित गृहचैत्यं कस्य न चित्तं चमत्कुरुते ॥ ९॥ नवनवदंतभ्रमरी गजाऽश्व नररथसुतोरणादियुतम् । संप्रत्यपि चैत्यमिदं नृणां प्रीणाति चित्तानि ॥ १० ॥ पूतलि नाम्नी तस्य च भार्या शुभकार्यकरणनिष्णाता । देव गुरु निबिड भक्तिव्यक्तिप्रतिवासितस्वांता ॥ ११॥ जिनशासन प्रभावक पितृपक्ष स्वसुर पक्ष संपूर्णा । शोभा सौभाग्यवती पतिव्रता पूतलि जयति ॥ १२ ॥ पुत्रास्तयोस्त्रयोमी रामा देवाख्य वर्धमानाख्याः । विश्वोपकारकरणप्रगुणाः सगुणा विराजन्ते ॥ १३ ॥ कीकी-मानी नाम्ना भार्या युगलं विभाति रामस्य । देवाकस्य रमाई हांसीरिह वर्धमानस्य ॥ १४ ॥ देवस्य वर्धमानस्य पुत्रौ जातौ क्रमादिमौ । पुण्यपालः सूरचंदो सूरचंद्रसमप्रभौ ॥ १५ ॥ ततश्च ॥ श्री सूरीश्वर सोमसुंदर गुरु प्रष्टाः प्रतिष्टास्पंद | तत्पट्टे मुनिसुंदराख्य गुरवः सौभाग्यभाग्यालयाः । श्रीमंतो जयचंद्रसूरि गुरवः प्रज्ञाप्रकर्षाद्भुताः । सूरींद्रा गुरु रत्नशेखर इतिख्यातावदातास्ततः ॥ १६ ॥ लक्ष्मीसागरगुरवस्तत्पट्टे सुमतिसाधुसूरिवराः । तत्पट्टे विजयंते संप्रति गुरुहेमविमलसूरीन्द्राः ॥ १७ ॥ तेषां च विजयराज्ये श्रीजिनमाणिक्यगुरुविनेयानां । श्रीगुरु अनंतहंसप्रवरगुरूणां सदुपदेशात् ॥ १८ ॥
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नग शर तिथि मित वर्षे हर्षेण परीक्षिपासवीरेण । चित्को लेखनस्य प्रारंभः कारयामास ॥ १९ ॥ साधर्मिकवात्सल्यश्रीकल्पमहाद्यगण्यपुण्यानि । कुर्वन् बंधुसमेतस्तदंऽगजो राम नामायं ॥ २० ॥ बहुमूल्यपट्टिकाढ्यं स्फारफरंगी कतीफकसुपृष्टं । सज्जातरूपरूपं वराक्षरं चतुरचित्तहरम् ॥ २१ ॥ षट्लक्षा षट्त्रिंशत्सहस्रमानसमग्रसिध्धांतं । निजजनकप्रारब्धं संपूर्णमलीलिखद्भक्त्या ।। २२ ।। कुलकं ।। संशोधितः स्वशक्त्या शुभभूषणनामपंडितप्रवरैः । विबुधजनवाच्यमानः चित्कोशोऽयं चिरं जीयात् ॥ २३ ॥ चातुविद्य मोढ ज्ञातीयत्रवाडी वासा सुत श्रीनाथ लिखितं श्रीः म चातुर्विद्य मोढ ज्ञातीय त्रवाडी वासा सुत गोव्यंद लख्यतं ॥
श्रीः ॥
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पंडित कवि तत्त्वविजयजी रचित चोवीस जिन गीतो
- सं. मुनि जिनसेनविजय
महोपाध्याय श्री यशोविजयजी गणिवरना शिष्य तरीके जाणीता एवा कविवर श्रीतत्त्वविजयजीए रचेलां, चोवीश जिनेश्वरोनां २४ गीतो अत्रे प्रस्तुत करवामां आवे छे. १६ -१७-१८मा शतकोनी स्तवन- चोवीशीनी परंपरामां सुयोग्य रीते गोठवाय तेवी प्रौढता आ स्तवनोमां जोवा मळे छे. उपाध्यायजीना शिष्य होवुं ए स्वयं ज एक आशीर्वादरूप बीना गणाय तेवी छे; अने एमना शिष्यमां विद्वत्ता तथा काव्यशक्ति न आवे तो ज नवाई लागे.
कृतिमा क्यांय रचना वर्षनो उल्लेख नथी मळतो. छतां अढारमा शतकनी आ रचना होवानुं अन्य ऐतिहासिक तथ्योना संदर्भमां नक्की थई शके तेम छे, एवं पूज्य वडीलोना मुखे जाणी शकायुं छे.
आ गीतोनी एक हस्तप्रति ला. द. विद्यामन्दिर, अमदावाद मां छे, तेनी झेरोक्सना आधारे आ प्रतिलिपि करी छे. ७ पानांनी ते प्रतिमां जो के बीजुं पत्र नथी, छतां तेनी ओळख "चोवीसजिनगीत " (ला. द. क्रमांक ७६४३) एम अपाई छे, तथा घणां स्तवनोने छेडे 'गीतं' शब्द प्रयोजायो छे, तेथी अहीं पण ते ज नामे ओळखावी छे.
पत्र २ नी न्यूनताने लीधे खूटतां अंशो चोथा गीतनी २ कडी, ५-६-७मा गीतो, पू. आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजीनी पासेथी प्राप्त थएली आ कृतिनी अपूर्ण प्रतिना आधारे अहीँ उमेरेल छे. ते प्रतिनां प्राप्त पत्रो ५ छे, तेमां १ थी २१ गीतो छे, २२मुं अपूर्ण छे, अने तेमां दरेक गीतने 'स्तवन' तरीके ओळखावेल छे ; ए प्रतिना प्रारंभे “सकलवाचकचक्रचक्रवर्त्ति महोपाध्याय श्री १९ श्रीजसविजयगणिशिष्य पंडित प्रवर प्रधान पंडित श्री ७ श्री तत्त्वविजयगणिचरणकमलेभ्यो नमो नमः " निर्देश छे, तेथी ते प्रति तत्त्वविजयजीना शिष्य नी होवानुं अनुमान करीए तो अनुचित नथी जणातुं. आ प्रतिना पाठो अत्रे पाठां तरीके नोंधेल छे.
एम
आधारभूत आदर्श - प्रति १८मा शतकनी होवानुं अनुमान थाय छे, अने तेना अंतभागे "मुनि भाव विजयनी परति छे" एवो उल्लेख छे.
प्रतिनी नकल आपवा बदलला. द. विद्यामन्दिरनो आभार मानुं छं.
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पं श्री तत्त्वविजयजीकृत चोवीस जिन स्तवनानि ॥
श्री गुरुभ्यो नमः।
( ईडर आंबा आंबिली रे ...... ए देशी ) ऋषभ जिणंद मया करी रे दरिसन दाखो देव । अलजो छई मनमां घणो रे करवा ताहरी सेव ॥ १ ॥
जिणेसर तुम्हसुं अधिक सनेह । प्राणेसर घj सांभरइ रे खिण मांही सो वार। नाम तुम्हारुं सोहामणुं रे एहज मुझ आधार ॥ २॥ जिणे० । तुं जिनजी मुझ वालहो रे जेहवो माहरो आतमराम । मन मधुकर मोही रह्यो रे तुझ चरणे अभिराम ॥ ३ ।। जिणे० । नेह पल्यो ते नवि टलइ रे जिम चोल मजीठ नो रंग । एहवू जाणी साहिबा रे पालयो प्रीति अभंग ॥ ४ ॥ जिणे० । करुणानिधि कृपा करुं रे परउपगारी कहवाय । श्री जसविजय वाचक तणो रे सीस तत्त्वविजय गुण गाय ।। ५ ।। जिणे० ।
। इति श्री आदि जिन भासः।१।
( शासनदेवत आवो नई अम्हारइ घरि पाहुणा रे लाल .... ए देशी।) अजित जिणेसर प्राहुणारे मुझ मन मंदिर आवि मेरे साहिबा।। भगति करुं भली भांति स्युं रे लाल दिन दिन चढतइ भावि मे० ॥ १ ।।
अजित... ।
१. जेहवो आतमराम पाठां. । २. लागी पाठां. ३. स्तवनं पाठां. एवं सर्वत्र ज्ञेयम् । ४. आषाढ भूति अणगार में रे कहें गुरु अमृतवाणि रे योगीसर चेला, ए देशी पाठां ।
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तेहज घडी लेखई गणुं रे तेह दिवस मुझ धन्न मे० । तेह समय स्वकीयारथो रे लाल जमवारो वली धन्न मे० ॥ २ ॥ अजित... । अह निशि मुझ मनमां वसइ रे अवर नहीं कोई ध्यान मे० । तुम्हसुं लागी मोहिनी रे लाल तूंहि ज जीवन प्राण मे० ॥ ३ ॥ अजित... । अवधारो अरिहंतजी रे निश्चय मननी वात मे० । निरवह्यो निज दासनिं रे लाल त्रिभुवन पति विख्यात मे० ॥ ४ ॥ अजित... ।
ओलगडी सफली करो रे पूरो सेवक आस मे० । तत्त्व विजय प्रभु ध्यानथी रे लाल नित नित लील विलास मे० ॥ ५ ॥
अजित... । । इति अजित जिन भासः ।२।
( सुणि मेरी सजनी ... ए देशी ) । संभव जिननी सेवा कीजइ रे मानव भवनो लाहो लीजइ रे । पूरव पुण्य पसाइं पायो रे मइं तो दिल मई तूंहिज ध्यायो रे ॥ १ ॥ सं.. । निगुणा दीसइ देव अनेरा रे नाम धरावइं जगमइं भलेरा रे। तेहथी काम न सीझइ मेरा रे ते माटइ निहुरा करूं छु तेरा रे ॥ २ ॥ सं.. । साहिब ते जे चाकरी जाणइ रे सेवक नई संभारइ टाणइं रे।। गुण अवगुण दिल मांहि नाणइ रे ते सज्जन नई सहु वखाणइ रे ॥ ३ ॥ सं.. । कूड कपट हुइ जेहनां मन मई रे मुख मीठा जे धीठा तन मइं रे । कहो किम चित्तडं तेहशुं बाझइ रे तेहसुं प्रीति करी किम छाजइ रे ।।४॥ सं.. । साची प्रीति ते संभवजिनकी रे तुं सवि जाणइ वात ज मनकी रे । साहिब चित्तसुं जोयो विचारी रे तत्त्व विजय प्रभु सेवाकारी रे ॥ ५ ॥ सं.. ।
। इति श्री संभव जिन गीतं ।। ५. सजनी रजनी न जावें रे। ६. करुं तेरा रे पाठां. ।
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( देशी सूडला नी) अभिनंदन जिन आगलि वीनती रे निशि दिन करूं कर जोडि रे । देव दयाकर तुं हवइ पामिओ रे कर्म तणा मद मोडि रे ॥ १ ॥ अभि० । वार अनंती भवमांहि भम्यो रे दीठां दुख अनंत रे । पार न पामुं ते कहतां थकां रे ते जाणो छो गुणवंत रे ॥ २ ॥ अभि० । भवसायरमांहि पडतां थकां रे एकज तुझ आधार रे। चरण ग्रह्यां छइ मई ताहरां सही रे आवागमा निवार रे ।। ३ ॥ अभि० । संवर पिता माता सिद्धारथा रे नंदन गुणमणिखाणि रे। दुख भंजन देवह दोलती रे देज्यो कोडि कल्याण रे ।। ४ ॥ अभि० । चाकर याचें ठाकुर आगलि रे तिहां किसी करवी लाज रे । श्री जसविजय वाचक सीस कहई रे तुं जिन गरीब निवाज रे ॥ ५ ॥ अभि०।
। इति श्री अभिनंदनजिन स्तवनम् ।।।
(देशी हमीरीयानी ) सुमति सदा सुहंकरु सुमति तणो दातार , साजन जी प्रभु सेवा तो पामीइं जो होइं पुन्य अपार सा० ॥ १॥ सुम० ॥ तुम दीदार की आसकी लागी तुम्हस्युं जोर सा० मुख देखी नें हरखीइं जिम विधु देखी चकोर सा० ॥ २ ॥ सुम० ।। ज्ञान खजानो ताहरो भरिओ अखय भंडार सा० । काढंतां खूटे नही दिओ ज्ञानादिक सार सा० ॥ ३ ॥ सुम० ॥ प्रभु चरणइं लागी रह्यो मुझ मनि भमर सुरंग सा० । जेहस्युं जेहनुं मन बांध्यु तेहनो न मेलइ संग सा० ॥ ४ ॥ सुम० ।। ७. सवि जाणें छे भगवंत रे पाठां. ।
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तुम्ह हम यो अंतर होई तो किसी उत्तम रीति सा० ।
तत्त्व विजय प्रभुस्युं खरी मांडी मोंटी प्रीति सा० ॥ ५ ॥ सुम० ॥ । इति श्री सुमति जिनस्तवनं ॥ ५ ॥
६
( शेत्रुंजें जईई लालन शत्रुजई जईई... ए देशी )
प्रह उठी पद्मप्रभ भवियण वंदो जेहनई रे
दरिसनई लालन अतिहिं आनंद लालन अ० । पद्म लंछन प्रभुनइं पाय विराजें दिन दिन महिमा
लालन अधिक दिवाजे, लालन अ० ॥ १ ॥ विद्रुम वरणों तुम्ह अंग सुहावई
अनुपम मूरति देखी मुझ सुख थावें, लालन मु० । तुम्हस्युं हो लालन माहरें पूरन नेहा
जिम जग जाणो लालन मोर नें मेहा, लालन मो० ॥ २ ॥
हुं तुझ रागी लालन तुं ही नीरागी
कहो किम चालें लालन प्रीति एकांगी. लालन प्री० । नेह करीजें लालन तो नीरवहीइं
फिरी फिरी तुम्हनें लालन अधिक स्युं कहीइं, लालन अ० ॥३॥ खाओ छं लालन हुं तुम्ह खिजमतिगारी
चित्त मांहि धरयो लालन वात ज सारी, लालन वा० । नें
बांहि ग्रह्यानी लालन लाज छे तुम्ह
दोइ चरणनी सेवा लालन देज्यो ते ग्रम्ह नें, लालन दे० ||४|| श्रीधरराजा कुलें तूंहिज दीवो मात सुसीमा लालन सुत चिरंजीवो, लालन सु०। वाचक श्रीजस विजयनो सीस
तत्त्वनी पूरो लालन परम जगीस, लालन प० ॥ ५ ॥ । इति श्री पद्मप्रभ जिन स्तवनं । ६ ।
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(देशी रसीयानी )
नेह भरिनिं जरिं रे निरखो नाहला अलवेसर एक वार वाल्हेसर ।
श्री सुपासजी चतुर शिरोमणी दिओ दरिसन धरी प्यार प्राणेसर || १ || नेह० ||
७
इक तारी प्यारी तुझ मूरति सूरति वरणी न जाय जोगीसर ।
मोहई चित्तमां रे सुरनरनारिनां वली निरमोही कहेवाय कृपानिधि ||२|| नेह० ॥ जे जेहना चित्त मांहिं जे वस्या तेहनें ते जीवन प्राण परमेसर |
वेध वेलाई रे जे रहइं वेगला ते कहि किम जाणि जीवनजी ||३|| नेह० || गरीब निवाज कहवाओ छो तुम्हो तो करयो सेवक सार सोभागी । दुख दोहग दालिद्र दूरिं करो निर्मल ज्ञान दातार दयाकर ||४|| नेह० ॥ ठाकुर एकज मई तूंहि आदरयो में धरयो तुम्ह ही स्युं रंग रंगीला । तत्त्व विजय प्रभुजीना ध्यान थी लहीइं ऋद्धि अभंग अमायी ॥५॥ नेह० ॥ । इति श्री सुपास जिन स्तवनं ॥७॥
८
( छोडी हो प्रभु छोडी चल्यो वनवास... ए देशी )
चंद्रप्रभ हो प्रभु चंद्रप्रभ सुणि स्वामी,
वनती हो प्रभु वीनती माहरा मानतणी जी । जाणइ हो प्रभु जाणइ सयल तुं भाव,
ज्ञानी हो प्रभु ज्ञानी तुं त्रिजग धणीजी ॥ १ ॥ प्रभुबिन हो प्रभु बिन कछु न सुहाइ,
मीठी हो प्रभु मीठी वात ज ताहरी जी । अवर न हो प्रभु अवर न आवइ दाय,
८. शीता हो प्रभु शीता पाठां ।
मोहिनी हो प्रभु मोहिनी छइ तुम्हसुं खरीजी ॥ २ ॥
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मानयो हो प्रभु मानयो साचुं एह ,
मनसुं हो प्रभु मनसुं मिलन ज मई कर्यु जी । कपटइं हो प्रभु कपटई मिलइ जेह ,
तेहसुं हो प्रभु तेहसुं कीजइ आंतरं जी ॥ ३ ।। दिल भरि हो प्रभु दिलभरि हुइ नेह ,
उत्तम हो प्रभु उत्तम रीति ते सहु कहइ जी । मत दियो हो प्रभु मत दियो तुम्ह छेह ,
अवगुण हो प्रभु अवगुण मोटा सांसहइ जी ॥ ४ ।। जिनजी हो प्रभु जिनजी तुं दीनदयाल ,
सेवा हो प्रभु सेवा अब सफली करोजी । कीजइ हो प्रभु कीजइ सुख सुगाल ,
संपति हो प्रभु संपति तत्त्व विजय करोजी ॥ ५ ॥
। इति श्री चंद्रप्रभ जिन गीतं ।।।
( ए अजुआली रातडी रे आसो आसिक मास मनना मान्या... ए देशी ) सुविधि जिणंद स्युं गोठडी रे मुझ मनि खरिय सुहाय मनना व्हाला । अंतर चितनी वारता रे मन मिल्या विण न कहवाय म० ॥ १ ॥ वाल्हो वाल्हो जी जिणंद मुझ वाल्हो तूं तो मोहइ भविजन वृंद, म० आं०॥ जेहसुं मन मान्युं हुइ रे तेहसुं कइसी लाज म० । तेहसुं सरम जो कीजइ रे तो लाजइ विणसइ काज म० ॥ २ ॥ तुं साहिब मुझ सिर थकइ रे कर्म करइ किम जोर म० । भांजओ मद हवई तेहनो रे जेहनो जगमा सोर म० ॥ ३ ॥
९. तेह पाठां.।
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अहनिशि कर जोडी करी रे चाकर रहइ हजूर म० । ठाकुर मुजरो मानयो रे करयो मया महमूर म० ॥ ४ ॥ थोडइ कहइ घणुं जाणयो रे तुम्हे छो चतुर सुजाण म० । तत्त्व विजय कहइ माहरो रे साचो तुं सुलतान म० ॥ ५ ॥ ॥ वाल्हो० ॥
। इति श्री सुविधि जिन गीतं ।९।
१०
( बहिनि बन्यो रे विद्याजी नो कल्पडो ... ए देशी ) सयण शीतल जिन पूजा करो ए तो ऊलट आणी अंग हो स० । तूठओ आपइ तूं सही ए तो वांछीत सुरक अभंग हो स० ॥ १ ॥
शीतल जिन पूजा करो ए तो ऊलट आणी अंग हो ए आंकणी। शीतल नयणे निरखतां ए तो शीतल थाइ चित हो स० । शीतल प्रकृति सोहामणी ए तो साची ताहरी प्रतीत हो स० ॥२॥ शी०।। मोहइ मन अलगां थकां तूं तो बोलइ नहिं लगार हो स० । तोहि पणि तुझ उपरि ए तो मोह्यो सयल संसार हो स० ॥३॥ शी०। लीनो हुं गुण ताहरइ जिम अलि लीनो मकरंद हो स० । तूंहिज सुरमणि सारिखो ए तो तुं मुझ सुरतरु कंद हो स० ॥४॥ शी०। "श्री नयविजय कविरायनो श्री जस विजय उवज्झाय हो स० । सीस तत्त्व विजय इणि परि भणइ हारे ए जिननी सुखदाय हो
। स० ।। ५ ॥ शी० । । इतिश्री शीतल जिन गीतं ।१०।
१०. हां जी लीनो पाठां०। ११. होजी श्री. पाठां० ।
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( माहरी सही रे समाणी ... ए देशी) श्री श्रेयांस साहिब हइ मेरा को नहीं तुम्हशुं भलेरा रे ।
महारा त्रिभुवन स्वामी । तो माटइ तुम्हसुं दिल लाया धरयो नेह सवाया रे... मा० ॥१॥ अंतरयामी नई कहुं शिरनामी खिजमतमां नहिं स्वामी रे मा० । जो हितवच्छल तूं छई साचो तो हृदय न करस्यो काचो रे मा०॥२॥ कूडी लालचि जेह लगावइ तेहथी सुख किम थावइ रे मा० । मोटानि जे चरणे वलगा ते किम थाइ अलगा रे मा० ॥३।। विष्णु नृपति तुझ तात सुहावइ माता विष्णु कहावइ रे मा० । सींह पुरी नगरी नो स्वामी तूं हि ज शिवगति गामी रे मा० ॥४॥ इक तारी तुझ ऊपरि मेरी न लखाइ गति तेरी रे मा० । श्री जसविजय सुगुरु सुपसाइं तत्त्व विजय सुख थाइ रे मा० ॥५॥ । इति श्री श्रेयांस जिन गीतं ॥११॥
१२
( अहो मतवाले साजनां... ए देशी ) श्री वासुपूज्य जिणेसरू प्रेमइ प्रणमो परभाति रे । लच्छि घणी घरि संपजइ पुहचाडइ मननी खांति रे ॥ १ ॥
श्री वासुपूज्य जिणेसरू आंकणी । तुं जगजीवन जंतुनि ताहरो छइ एक आधार रे । आलालूंबओ माहरइ तुं मुझ मनमोहन गार रे ॥२॥ श्री०। तुझनि ऊभा ओलगइ सेवक लख कोडाकोडि रे। समीहित पूरइ तेहनां कुण करइ तुम्हारी होडि रे ॥३|| श्री०।
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ज्ञाता दाता तुं खरो भवियणनि दुखी त्राता रे ।
दरिसन थी शाता हुइ जिनजी जगमाहि विख्याता रे || ४ || श्री० । प्रारथना पहिडइ नहीं दायक नहीं तुज्झ समान रे 1 तत्त्व विजय कहइ पामीरं प्रभु नामई नवह निधान रे ||५|| श्री० | । इति श्री वासुपूज्य जिन गीतं । १२ ।
१३
( धण री बिंदली मन लागो ए देशी )
साहिबजी हो विमल जिणेसर पूजिइ,
घसी घणुं केसर घोल मेरे लाल । दिन दिन दोलत पामीइ वली वली हुइ रंगरोल मे० ||१|| वि० | सा० विमल वदन सोहामणुं जगजन मोहन वेलि मे० ।
नयन कमल मानुं ताहरइ मुझ मन अलि करइ कोलि मे० ||२|| वि०।
सा० मणि माणिक्य हीरे जड्यो मस्तक मुगट सोहंत मे० । भाल तिलक दीपइ भलो सुर नर मन मोहंत मे० ||३|| वि० | सेवा मे० ।
||४|| वि० ।
सा० कुंडलकी शोभा बनी जाणुं ससि सूरय करइ रत्नजडित अंगियां भली मोहइ चित नितमेव मे० सा० चंपक दमणो मोगरो मालती मुचकुंद फूल तत्त्व विजय प्रभु पूजतां दिइ शिव सुख अमूल मे० ||५|| वि० |
मे० ।
। इति श्री विमल जिन गीतं । १३ ।
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( पूज्य पधारो पाटीइ ए देशी )
अनंतनाथ अरिहंतजी अवधारो एक अरदास ।
भव बंधन थी छोडवा मुझ दीजइ चरणे वास जिनजी ॥१॥ अ० |
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अनंत गुणे करी तूं भरिओ वली ज्ञान क्रिया अनंत जि० । चउत्रीस अतिशय अलंकरिओ तुंतो वरिओ सुक्ख अनंत जि० ॥२॥ अ०। तुं तारक छइ साचलो तारण तरण जिहाज जि० । तारो भवसायर थकी दिओ मुगति पुरी नुं राज जि० ॥३।। अ० । अनंत अनंत भवें करी मई तो कीधा पाप अनंत जि० । कहतां पार न पामीइं सवि जाणइ तूं भगवंत जि० ॥४॥ अ० । जो गुनहगार सेवक हुइ तो साहिब हुइ कृपाल जि० । तत्त्व विजय सेवक प्रति एतो होज्यो मंगलमाल जि० ॥५॥ अ० । । इति श्री अनंत जिन गीतं ।१४।
१५
( मन रंजना लाल ए देशी) धर्मजिणेसर ध्याईइ रे मन मोहना लाल,
पवित्र करी शुभ भाव रे म..। नवनिधि ऋद्धि आवी मिलइ रे म...०,
धर्मतणइ परभावि रे म...० ॥ १ ॥ एक खरो रंग धर्मनो रे म... बीजो रंग पतंग रे म... । सेव्यो आपइ जे सहीरे म... अविचल सुख अभंग रे म..० ॥ २ ॥ तेहनी कुण सेवा करइ रे म... जेहथी न सीझइ काम रे म... । फोकटीया जगमां घणा रे म... खोटा धरावइ नाम रे म... ॥ ३ ॥ तन धन योवन कारिमो रे म... साचो श्री जिन धर्म रे म... । सेवा करतां धर्मनी रे म... क्षय पामइ अष्ट कर्म रे म... ॥ ४ ॥ भानुनृपति कुलि केसरि रे म... माता सुव्रता नंद रे म... । तत्त्व विजय कहइ धर्मथी रे म... लहीइ परम आणंद रे म..० ।। ५ ।।
। इति श्री धर्म जिन गीतं ।१५।
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( कोइलो परबत धुंधलो रे ए देशी ) सुगुण सनेहा शांतिजी रे लाल निर्मल गुण भंडार रे चतुर नर । नेक निजरि करि जोईइ रे लाल सेवक दिलमां धार रे च० ॥ १ ॥ सु...० जो पोतानो त्रेवडो रे लाल तो न करस्यो भेद लगार रे च० । जे गिरुआ गुणे आगला रे लाल ते समजइ चित्र मझार रे च० ॥ २ ॥ सु...।। बिरुद निवाहन साहिबो रे लाल तूं हि ज दीनदयाल रे च० । शरणे राखिओ पारेवडो रे लाल तूं मोटो कृपाल रे च० ॥ ३॥ सु...०। जब जनम्या श्री शांतिजी रे लाल तब हुई जगमां शांति रे च० । ईति रुजादि क्षय गयां रे लाल नाम खरुं श्री शांति रे च० ॥ ४ ॥ सु...। विश्वसेन कुलि चंदलो रे लाल अचिरा मात मल्हार रे च० । श्री जसविजय सुहंकरु रे लाल तत्त्व विजय जयकार रे च० ॥५॥ सु...।
। इति श्री शांतिजिन गीतं ।१६।
( बिंदली नी देशी) श्री कुंथनाथ मनि ध्याउं मनवंछित सबसुख पाउं हो जिनवर जयकारी ब्रह्मरूप अनोपम सोहइ देखी सुरनर मन मोहइ हो जि० ॥१॥ मोह्यो हुं तुझ मुख मटकइ अणीआले लोचन लटकइ हो जि० । नाशिका अति अणियाली तुम्ह अधर लाल प्रवाली हो जि० ॥२॥ तीन छत्र शिर राजइ ठकुराइ त्रिभुवन की छाजइ हो जि० । देव दुंदुभि गगनिं बोलइ कोई नहीं माहरा स्वामीनइं तोलइ हो जि०॥३॥ अणहूंतइ एक कोडि सुर सेवकरइ करजोडि हो जि० । सिंहासन बइठा सोहइ प्रभुजी त्रिभुवन पडिबोहइ हो जि० ॥४॥ १२. नहीं स्वामीने पाठां० ।
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श्री नयविजय कविराय सीस श्रीजसविजय उवज्झाय हो जि० । तत्त्व विजय तस सीस प्रभु पूरयो सयल जगीस हो जि० ॥५॥
। इति श्री कुंथु जिन गीतं ।१७।
( ऊभा रहो जी ऊभा रहो ए देशी ) मुजरो ल्योजी मुजरो ल्यो अरनाथ जिणेसर मु.मु. लीला अलवसर । मु.मु. अरदास वीनवीइ मु.मु. तुम्ह गुण कुण मवीइ मु.मु. ॥ १ ॥ मु.मु. तुम्ह राज राजेसर मु.मु. प्राणनाथ परमेसर । मु.मु. लायक थी लायक मु.मु. दुरगति दुख घायक मु. ॥ २ ॥ मु.मु. चितडाना रे ठारक मु.मु. जगजन हित कारक । मु.मु. साहिब रंगीला मु.मु. तुम्हे छयल छबीला मु. ॥ ३ ।। मु.मु. तुम्ह नाथ निरंजन मु.मु. भव भय दुख भंजन । मु.मु. दरिसन सुखदाई मु.मु. तुम्हारी छइ वडाई मु. ॥ ४ ॥ मु.मु. समरथ सोभागी मु.मु. वल्लभ वडभागी। मु.मु. जाउं बलिहारी मु.मु. तत्त्व विजय सुखकारी मु. ॥ ५ ॥
। इति श्री अरनाथ जिन गीतं ।१८।
( ढाल-अलबेला नी देशी ) मल्लिनाथ मन मोहिउं रे लाल निरखत होत आणंद मन मान्यो रे । अजब मूरति बनी ताहरी रे लाल मुख मोहनवल्ली कंद रे म० ॥१॥ म० । तुझ करुणारस सागरिं रे लाल झीलइ मुझ मन हंस रे म० । ' पवित्र थाइ परमातमा रे लाल न रहइ पापनो अंस म० ॥२॥ म० ।
१३. सूरति पाठां०।
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मोह मल्ल जेणई जीतिओ रे लाल क्रोध नई कर्यो झकझेर म० । माया सापिणि पापिणी रे लाल जोरई लोधी त घेरि म० || ३ || म० । तुझ महिमा महिमंडलि रे लाल दिन दिन अधिक प्रताप म० । संपद पूरन साहिबो रे लाल चूरन सयल संताप म० ||४|| म० । लंछन कलस विराजतो रे लाल नीलुप्पल दल काय म० । सेवक तत्त्व विजय ऊपरिं रे लाल महिर करो महाराय म० || ५ || म० । । इति श्री मल्लिनाथ गीतं । १९ ।
२०
( मरकलडा नी देशी )
श्री मुनिसुव्रत स्वामीजी साहिब सांभलो मई तो पुण्य सेवा
पामीजी सा.. ० ।
मुझ भाग्य प्रगट हूउं आजजी सा० भलइ भेट्या श्री जिनराजजी सा० ॥१॥
१४
१५
घर आंगणि सुरतरु फलिओजी मन मान्यो सज्जन मलिओजी सा० । आज भावठि सवि भागीजी सा० आज शुभदशा मुझ जागीजी सा० ॥२॥ आज अमिय वूठा मेहजी सा० मुझ निर्मल हुई देहजी सा० । आज मनना मनोरथ फलियाजी सा० आज अंतराय सवि
टलियाजी सा० ||३||
तुम्ह गुणसुं लागो वेधजी सा० ते तो कुम जाणइ तस भेदजी सा० । निशिदिन रहुं ल (प्र) भुसुं लीनजी सा० जिम जलमां रहइ मीनजी सा० ||४|| श्री नयविजय विबुध राजइजी सा० वाचक श्री जस विजय गाजइजी सा०| सीस तत्त्व विजय कवि भासइजी सा० जिनना गुण गाया
उल्लास जी सा० ॥ ५॥
। इति श्री मुनिसुव्रत जिन गीतं ॥२०॥
१४. आगलि पाठां० । १५. ते सवि पाठां० !
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( देशी मोतीयडा नी) मिथिला नयरी प्रभुजी सोहइ विजय नरिंद नंदन मन मोहइ
मोहना नमिनाथ जिणंदा लालनां नमिनाथ जिणंदा । वप्रा माता मंगलकारी नीलुप्पल लंछन पदधारी मो.ला. ॥१॥ आसकारी सेवक छु तेरा नीरासी प्रभु तुम्ह हओ मेरा मो.ला. । तुम्ह हम किम ए वात ज बनस्यइ बिरुद अंगीकृत तुम्ह किम
रहस्यइ मो. ला. ॥ २ ॥ अवर पासि जई जब याचीस्यइ तब ताहरुं भलुं नहीं दीसइ मो.ला. । देई लालचि दूरिजे रहवं ते खिण खिण मनमां दुख सहवं मो.ला. ||३|| गुणवंतस्युं जे गोठि करी जइ तेह वेला लेखामां लीजइ मो.लो. । इम चित जाणी करुणा आणी देयो परमाणंद गुणखाणी मो.ला. ॥४॥ साहिब साचा ते कहवाइ निगुणा सेवकनि निरवाहइ मो.ला. । तत्त्व विजय प्रभु ध्यानि रहइ मंगल माला नित नित लहिइ मो.ला. ॥५॥
। इति श्री नमिनाथ जिन गीतं ।२१।
२२
( ढाल फागनी) ब्रह्मचारी शिर सेहरो हो वंदो नेमि जिणंद समुद्र विजय नृप लाडिलो हो मात शिवादेवी नंद ।।१।। नेमीसर जिनवर भेटीइ हो मेटीइ पाप पडूर ने... तोरन आए तुरत फिरे हो पशुआं सुणी रे पोकार
जीव दया मनि आदरी हो परिहरी राजुल नारी ॥२।। ने०। वरसीदान देइ करी हो सहसावनि अभिराम । लिइ संयम एक सहसस्युं हो पछई लहिउं केवल स्वामी ॥३।। ने०।
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तब राजुल रैवत चढी हो पुहती पिउके संग
दीख ग्रही केवल लही हो पाल्यो ते प्रेम अभंग ||४|| ने० |
रैवत मंडण नेमि गुंसाई जग जन नयनानंद |
श्री यादव कुलि दिनमणी हो तत्त्वविजय सुखकंद ॥५॥ ने०| । इति श्री नेमिनाथ जिन गीतं |२२|
२३
I
( दंड न देउं तुनइ माहरो ए देशी ) जिनवर तई मेरो मन मोहीओ पुरुषादानीया पास हो जि. प्रगट प्रताप ते ताहरो पूरन पूरक आस हो जि. ॥१॥ त० | हुं रंजिओ गुण ताहरइ जिम चोल रंगिउं चीर हो जि. । रंग करारी नवि टलइ जो नित नित धोवाइ नीर हो जि. ॥२॥ त० । वाणारसी नगरी धणी अश्वसेन कुलि चंद हो ।
मात वामा के नंदनां राणी प्रभावती कंत हो जि. ॥३॥ त० ।
कलियुगमांहि पामीओ देव तुम्हारो दीदार हो ।
एह कृतारथ लेखवुं भव सायर पार उतारि हो जि. ॥४॥ त० | उपगारी सहजइं अछइ अहि कीधो धरणराय हो । तत्त्व विजय सेवक सदा प्रेम प्रणमइ पाय हो जि. ॥५॥ त० ।
। इति श्री पार्श्वजिन गीतं | २३ |
२४
( थुणिओ रे मई तुं सुरपति जिउं थुणिओ ए देशी )
गायो गायो रे मइं वीर जिणंद मई गायो, सकल सुरासुर
शुभमति करी मइ बंधायो रे, प्रभु वीर जिणंद मई गायो ॥ १ ॥
सेवित पदयुग ।
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चउसठि इंद्र मली लेई सुरगिरि निर्मल जल न्हवरायो ।
जब शचीपति मनि संशय पइठो तब चरणे मेरु कंपायो रे ॥ २॥ प्र० । त्रीस वरस गृहवास वसी प्रभु संयम शुद्ध सुहायो ।
दुःकर तप जप कष्ट क्रिया करी केवल ज्ञान उपायो रे ||३|| प्र० । चरम जिणेसर शासन नायक तुं जिनजी मनि भायो । वरस बहुत्तर आयु प्रतिपाली परमाणंद पायो रे ॥४॥ प्र० ।
श्री नयविजय कविराज विराजइ श्री जस विजय वाचक छाजइ । सेवक तत्त्व विजय इम जंपइ नित नित नवल दिवाजइरे ||५|| प्र० । । इति श्री वीरजिन गीतं |२४|
मुनि भावविजयनी परति छै ।
सही १०८ । छ । शुभं भवतुः । श्रीः ।
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श्री हरिभद्रसूरिविरचित समसंस्कृतप्राकृत 'जिनसाधारणस्तवन'नो आस्वाद
पारुल मांकड 'भवविरहांक' याकिनीसूनु श्रीहरिभद्राचार्यनी उपर्युक्त रचना मुनि श्री विजयशीलचन्द्रसूरिजीए ('अनुसंधान'-अंक-८, १९९७)मां संपादित करी छे. अत्रे एनुं रसदर्शन प्रस्तुत छे.
प्रस्तुत अष्टकमां तीर्थंकरसाधारणनी समग्रभावे स्तुति करवामां आवी छे एटले भगवद् विषयक रतिभाव प्रधान छे अने रूपकादि अलंकारो तेनो पुरस्कार करे छे. अंतिम पद्यमां भव-संसारथी विरह एटले के मोक्षनी याचना करी होवाथी शमरूपी भावनो उदय सिद्ध थयो छे. तीर्थंकर भगवंतोना गुणानुवाद संस्कृत अने प्राकृत बन्ने भाषामां परंतु 'भाषासम'१ अलंकारनी सहायथी करवामां आव्या छे. 'भाषासम' अलंकारमा भाषा विविध होय अने शब्द एक सरखा होय. अहीं जेम के, संस्कृत अने प्राकृत बन्ने भाषामां स्तवननी रचना थइ छे, परंतु शब्दो बन्ने भाषाने समान रीते स्पर्शे तेवा ज = एक ज सरखा छे. अनेक भाषामा एक ज प्रकारना शब्दो द्वारा अभिव्यक्ति करवी ते जहोमत मागी ले तेवं कार्य छे. आचार्य हरिभद्रसूरि तेमां सफळ रह्या छे. प्रस्तुत पद्यरचनानो हेतु जिनेश्वरनी प्रसन्नता अने तेओ सुखहेतु बनो ए ज छे. (जुओ अंतिमपद्य) १. विश्वनाथने आ अलंकारना उद्भावक आचार्य कही शकाय. रुद्रट जो के भाषाश्रेष्ठ
नामे आवा स्वरूपनो निर्देश करे छे खरा. (काव्यालंकार ४/१०) विश्वनाथे भाषाश्लेष तो स्वीकार्यो छे छतां 'भाषासम'ना नवा स्वरूपनो पण तेमणे आविष्कार को छे. भोजे सीधी रीते 'भाषासम' अलंकारनो निर्देश कर्यो नथी, परंतु जाति नामना शब्दालंकारना पेटाभेदनी अंदर 'साधारणी' जातिमां संस्कृत, प्राकृत बन्नेनां साधारण प्रयोगना निर्देशवाळु उदाहरण आप्युं छे. (स.कं. पृ. ३८८) उपरांत पृ. २२६/२७ पर भाषाश्लेष- उदा. पण आप्युं छे. परंतु भाषासममां श्लेष अनिवार्य नथी. उपर्युक्त स्तोत्रमां तो 'भाषासम' अलंकार ज रहेलो छे. शब्दैरेकविधैरेव भाषासु विविधास्वपि । वाक्यं यत्र भवेत्सोऽयं भाषासम इतीष्यते ॥
(साहित्यदर्पण १०/१०)
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अङ्गुलिदलाभिरामं० - - - - - वगेरे प्रथम पद्यमां सांग रूपक छे. भगवानना चरणरूपी कमळ अंगुलिरूपी पांखडीओथी सुंदर छे अने सुरनरना समूहरूपी भ्रमरोथी युक्त छे. (शब्दार्थ - देवताओ (रूपी भ्रमरो) चरणवंदना करे छे) संसारना भय, हरण करनार छे. आवां श्रीचरणोने कवि नमन करे छे. अहीं प्रथम त्रण चरणमां 'चरणकमळ' ए रूपकने अंगरूप अंगुलिरूपी पांखडीओ एम कही पूर्ण रूपक रच्युं छे. वळी सामान्य कमळ संसारना भय, हरण करी शकतुं नथी, ज्यारे भगवाननां चरणकमळ विशिष्ट छे कारण के एनो आश्रय लेवाथी घोर संसारनो भय टळे छे. अहीं व्यतिरेकने व्यंजित थयेलो अनुभवी शकाय छे.
द्वितीय पद्यमां पण रूपक छे अने जिनेश्वरने संबोधनो छे. जेम के, कामनाओरूपी हाथीना कुंभस्थळनुं विदारण करनार, भवरूपी दवाग्निने माटे मेघ, विमलगुणना धामरूप वगेरे. कामनाओरूपी हाथीना कुंभस्थळनुं विदारण करनार एमां 'सिंह' रूप उपमान गम्य छे. अंते अशोकनां पांदडा जेवा (रक्त) वर्णना हाथ अने चरणवाळा – एमां उपमा छे. आम उपमा अने रूपकनी मनोहर संसृष्टि रचाइ छे.
तृतीय पद्यमां पुनः संबोधनो छे अने तेमां मनोरम रूपक अलंकारनी रचना कविए करी छे, जे निर्वेद अने शम, दम वगेरे भावोने पुरस्कृत करे छे. मायारूपी धूळने माटे पवनरूप, भव-संसाररूपी वृक्षने माटे हाथीरूप, मरण तथा जरारूपी रोगर्नु निवारण करनार तथा मोहरूपी महामल्लना बळy हरण करनारा – एमां मरण अने जरारूपी रोगर्नु हरण करनार वैद्य - एम वैद्य उपमान गम्य छे. वळी अहीं एक जिनेश्वरनुं अनेकरूपे ग्रहण थयुं छे (अलबत्त रूपकनी सहायथी) एटले उल्लेखालंकार पण गम्य छे.
भावोरूपी शत्रुना रूपमा रहेला हरणने माटे श्रेष्ठ सिंहरूप, संसाररूपी महान समुद्रने तरवा माटे नौकारूप, दोषोथी भरेला अंधकारने त्रास पमाडनार सूर्यमंडल जेवा, गुणोना समूहरूप (गुणरूपी) मणिना करंडिया - आ रीते
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चतुर्थपद्यमां संबोधनो रची रूपकालंकारनी चमत्कृति कविए सहज रीते साधी छे. 'भावारिहरिण' एमां परंपरित रूपक छे. अहीं पण उल्लेख गम्य छे. तरण्ड अने करण्डनो अंत्यानुप्रास ध्यानार्ह छे. आ पद्यमां पण संकीर्तननो ज भाव छे.
पंचम पद्यमां स्वर्गना देवो, इन्द्र, किन्नर अने श्रेष्ठ नररूपी भ्रमरोना समूह माटे श्रेष्ठ कमळ, करुणारूपी रसना कुलमंदिर तथा सिद्धिरूपी महानगरीमां निवास करनार एम रूपकाश्रित संबोधनो छे.
छट्ठा पद्यमां पण संबोधनो छे अने रूपक द्वारा जिनेश्वरना गुणानुवाद करवामां आव्या छे. सुसिद्धांतरूपी कमळ जेमां खिल्युं छे तेवा सरोवरवाळा मेरुपर्वतरूप एमां अने रागरूपी सर्पने माटे गरुडरूप एमां रूपक छे. चिंतामणि रूपी फळमां पण रूपक छे.
सातमा पद्यमां 'शिवजीना हास्य, हार, चन्द्र, हिम, कुन्दपुष्प अने हाथी (ऐरावत) जेवा श्वेत' एमां भगवानने मालोपमा द्वारा वर्णव्या छे. अने अंतिम पंक्तिमां भवविरहनी कामना करी छे अने कविना 'भवविरहांक'ने वणी लीधो
सप्तममां शमनो भाव चरमकक्षाए पहोंच्यो छे. भगवद्विषयक रतिभावथी पद्यनो आरंभ थयो छे अने अंतमां भावनो प्रशम छे. अंते जिनेश्वर सुख एटले के आत्यंतिक सुख, आत्मिक सुखना हेतुरूप बनो एवी भावना सेववामां आवी छे. वच्चे वच्चे दैन्य, निर्वेद, तथा शमना भावोनी शबलता पण जोवा मळे छे. मुख्यत्वे रूपकालंकार छे. कविए खूब ज कुशलतापूर्वक भावध्वनिने अनुरूप अलंकारोनुं निरूपण कर्यु छे. रूपकनो अंत सुधी निर्वाह करवानुं पण क्यारेक यळ्युं छे. अने रसभावने सानुकूल अलंकार प्रयोग कर्यो छे.
तुलसीदासजीना "श्रीरामचन्द्र कृपाळु भज मन हरणभवभयदारुणम्" ए स्तोत्रना मनोहर पद्योने आनी समांतरे मूकी शकाय, अलबत्त एमां अनुप्रासनुं प्राधान्य होइ रचना गेय बनी छे. हरिभद्रसूरिजीना पद्यो पण जिनभगवंतना स्वरूप सौन्दर्यने वर्णवे छे छतां एमां चिंतनसभर विशेषणो विशेष प्रमाणमां छे.
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हरिभद्रसूरिनी ज एक अन्य कृति 'संसारदावानलस्तुति' पण समसंस्कृतप्राकृत छे अने तेना पद्य १- संसारदावानलदाहनीरं साथे प्रस्तुत अष्टकनुं पद्य२ भवदवजलवाह वगेरे. पद्य-१-संमोहधूलीहरणे समीरण अने पद्य-३ मायारेणूसमीरण, पद्य-४ परिमलालीढलोलालिमाला अने पद्य-१- सुरनरनिवाहालिकुलसमालीढम् - समांतरे आस्वादी शकाय.
ढूंकमां विजयशीलचंद्रसूरिजी संशोधित, संपादित आ कृति काव्यतत्त्वनी दृष्टिए पण उत्तम कक्षानी बनी रही छे.
. संदर्भग्रंथ १. अनुसंधान , अंक-८, १९९७. २. अलंकारकोश , सं. ब्रह्ममित्र अवस्थी , इन्दु प्रकाशन , दिल्ही,
ई.स. १९८६. ३. काव्यालंकार - सं. रामदेव शुक्ल, चौखम्बा, विद्याभवन, वाराणसी,
ई.स. १९६६. ४. सरस्वतीकंठाभरण - सं. केदारनाथ अने वासुदेव शास्त्री, निर्णयसागर,
मुंबइ, ई.स. १९२४. ५. संसारदावानलस्तुति , श्री दयाविमल जैन ग्रंथमाला, अमदावाद.
ई. स. १९१७. ६. साहित्यदर्पण - सं. पं. दुर्गाप्रसाद द्विवेदी, निर्णयसागर, मुंबइ,
ई. स. १९०२.
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॥१॥
॥३||
॥४॥
श्री जिनपतिसूरि पंचाशिका
- श्री भंवरलाल नाहटा रागिमिहुणं व रत्तं सुकुमारं चंदव्वड भवणं व । दोसरहिं च सलक्खण विंद वच्छं च ससिरीयं माणिमणं वसु मुन्नयम मायि वयणं च सरलमभिवंदे । जिणवइणो नियगुरुणो चरणजुगं सूरिरायस्स
॥२॥ सुगुरु गुरुपुन्नलब्भं दंसणमवि तुम्ह पायपउमाणं । छायं पि अकयसुकया पावंति न कप्पसाहीणं पहुचरिय संकहविहु विहुणिय संता संतइ तुम्ह । गिण्ह वंदण वच्चत्थ निव्वुइं कस्स न जणेइ समयम्मि जम्मि जम्मे जाओ तुम्हारिसाण अकलीण । सो कह कलित्ति भन्नइ नहि जलणे जं जलुप्पत्ती खारोदहिम्मि अमयं मुत्तिय भवि फरुससिप्प पुडयंमि । जल ममलं मलिण घणे दट्टणं अहव तक्केमि ॥६॥ एयारिसेवि समये संभवइ भवारिसाण इह भूई। आइवराहुव्व धरुद्धरणाय कयावयाराणं हसइ व अणूवदेसे मरू विधलसेयसिहरदंतेहिं । नव कप्पदुमे सिव सुह फलयंमि तुमंमि जायंमि ||८|| असुराणवि नमणिज्जे करियावाइम्म अंगिरस जणए । जयइ दिव्वं विक्कमपुर मप्पुव्व गुरुंमि तइं जाए तं पिहुणो पढम चिय नामं जसवद्धणुत्ति विक्खियं । मन्ने भावि भवारिम पुरिस जणिगत जसवत्ता ॥१०॥ जणणीवि सूहवा जसमई कहिं सामहिव्व मा हवउ। जीसे गब्भंमि गुरू तं वुच्छो कणयकंतिधरो
॥११॥ अइसुंदेरि पत्तं लोए चित्तेण सयल मासाणं । नूणं तुह जम्मेणं तुल्लविय कालओ इहरा
।।१२।।
||७||
॥९॥
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||१७||
पहुजम्मे मिउ पवण्णासी कुसुम तरुणो दि... विमलो । आसितमा बरिसमिहं भत्तुव्वए वत्तइ वसंतो
॥१३॥ हालते विहुसंपुन्न लक्खणं कंतर्मिदुबिंबं व । रागेण व लच्छीए तुह गायं गाढमवगूढ
॥१४॥ तुय धुवमब्भु... चं सव्वेविसुरा निरुविउं हित्था ।। हिट्ठोवरिं च नट्टा दंसंति न सप्पयं अप्पं
॥१५॥ कुमरत्तेवि निसग्गा भववेरग्गं तसुग्गयं किंपि। जोगीण सुजोगाणवि पइं जेण धुणावियं सीसं ॥१६॥ तं सुद्धप्पा न हु धण रमणी सयणेसु कासि पडिबंधं । कलहंसो किं पल्लवकलुसजलेसु समल्लियइ जं सेसवेसयं विय वए मणं आसि तुह न तं चुज्जं । जेणन्नवोहिणिज्जा हवंति न कयावि जिणवइणो ॥१८॥ विक्कमपुरं पवित्तिय भमर तई जउण संयमेणेव । तुम्ह जिणचंद मुणिवइ जोगीणं दिक्ख गहणखणे ॥१९॥ तित्थाहिवत्त जुग्गय भवबुज्झिय जिणवइति तुह नामं । नूण कयं पढमं चिय अइसयनाणीहि सुगुरूहिं ॥२०॥ पंच महव्वय सुर सेल संगयं इयर दुव्वहंपि खमं । सेसातिसाइ वारिओ तुमं तहं तान पहु संतो
॥२१॥ रत्तावि अहं चत्ता दीणाइ समप्पणो ण परिभूया । तह चरणग्गि लग्गा सेवे सययं कुलीणत्ता
॥२२॥ अहुणाउ गुत्तिवालो जाओ समिइ सुगाढमासत्तो । सत्थधरो किं वि वयं गहिऊण ताय मह वइज्जो निदइ मंजण पुरओ एयं भणिउं वदुत्थ संदेसं । लच्छीए तुह जईसर दुयं समुदं गया कित्ती
॥२४|| त्रिभिः कुलकम् ॥
॥२३॥
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॥२५॥
॥२६।।
॥२७॥
॥२८।।
॥२९।।
॥३०॥
दसचक्कवाल आयारि दिसिजुयं समणधम्मवरवीढं । पइदिणमणलसवित्ती तुममुज्जोएसि सूरुव्व अट्ठारस कुरुवइ खोहिणीउ जह पावठाणसेणीओ । तुममज्जुणकित्तिधरो मुणिंद विक्खिवसि लीलाए तुह असरिसमिसिचरियं दटुं विलियं च दूरमोसरिउं ।. सासंकचित्तसिहंडिमंडलं मंडइ महागं गाढतवासासियं पि हु पुन्नं चिय कंतिसलिललहरीहिं । मुणिवइ तुह देहसरं लीलमउहवंसमुव्वहइ संजमसिरि कलयंती विलसइ सुत्था तुमंमि सहयारे । सीलंगसहसपत्ते महुरफले उन्नए सरले अल्लीणाओ वि तुमं गुरुं समुदं ससत्तगंभीरं । लक्खिज्जति न कत्थवि विज्जाओ महानईउव्व चउहाणुओग चउचरण ठवणचउरं सुदंतमुत्तुंगं । चारित्त चारु वण गहण चारिणं कोमलकरग्गं सव्वंगसुपइटुं सु सुहम दिढेि च दाण दुल्ललियं । सरलंत्त लंब पुच्छं समुव्व विज्जा तिव्वय कुंभं चरण करणोरु भवणं कुम्मय महविडवि गूडणो सूरं । सुवसत्थ लक्खणं दूर पिक्खणं तं पहु गइंदो अणुओगगणाणुरन्ना रत्ता करिणिव्व सियमिवल्लीणो । बग्गड़ देसे गुरु गिरि काणण विहरंत सिहि संघे बब्बेरपुरं सिय सव्वं मंगलं तं सिचुव्व सुवि मूई । आसिस गणंच तुमए सूरि पयमलंकियं जत्थ तुह गहिर महुर तारस्सराभिदेएसु भयइ सामत्तं । मोणट्ठिएसु नूणं जलहर परहुय सिहंडीसु
॥३१॥
॥३२॥
॥३३॥
॥३४॥
॥३५॥
॥३६।।
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॥३७॥
॥३८॥
॥४०॥
॥४१॥
कलहंस ख वयणाणुकारए तुम्ह लोयसवणेसु । दिसि वयंभ माणे सरयंते रम्मसमयंमि अपिबंसु पढम देसण रसायणं तुम्ह जे उ ते धन्ना । फुटुंतजाइमउलं छेयच्चिय नणु लिहंति छिणो सुयपारगेण तुमए पत्तं सयमेव जुगपहाणत्तं । कंठीरवमभिसिंच का वा मयनाहगत्तंमि
॥३९॥ विबुहजणजणियतोसं अदिट्ठदोसोदयं सुरसकंतिं । को तुम्ह नाभिनंदइ कव्वमउव्वं जए सुयणो इयरा सेकेलक्खिव्व कव्वबंधे समे व विसमे वा । न खलइ कहिं पि वाणी तुम्हज्जुणबाणसेणिव्व अंतुज्जलपज्जलिरनाणदीवए सपर समय विउसंमि । कर कलिय पुन्ययंमि च रयणीइ महंधयारे वि ॥४२।। नेयाइयणे सत्थं वक्खाणं ते तदक्खरं चेव । छत्तीससहसमाणं लीलाइ तुमे सुसीसाणं मइ कोउय कंपियमत्थयस्स विउसस्स कस्स न हु जाया । सुरगुरुणो मइविहवो दूरं नं(म)दायरा बुद्धी
॥४४॥ वाईण दप्पदलणं रायसमक्खं बहुं कुणंतेण । असेद मेण च तुमए जयपडगो जए पत्ता सायंभरीनरिंदो वाइसरिएण हरिसिओ वाए । वयणं सहस्सेण तुमं थुयमाणो नाइ झणिनाहो ॥४६॥ समय सहस्स दंसिय सपंक्ख परपक्ख सहसपच्चक्खं । मेरु व्व थिरं काउं चित्तं भव्वाण विहिधम्मे आसावल्लीए तए विहिउ संघस्स कोवि आणंदो । जो सयल तित्थजत्ता फल पयविमगूढमारुढे
॥४३॥
॥४५॥
॥४७॥
॥४८॥
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॥४९॥
॥५०॥
जय सयल लद्धिगोयम दढ व्वयत्तेण थूलभद्द चिरं । तित्थ पभावण महु खीर सावि वाणीए वइरपहो अप्पडिबद्धविहारं धीरं गंभीरमवि तुमं काउं । पवण सुमेरु समुद्दे निरत्थए निम्मवितेण असरणसीलेण धुवं कयगोणणा पयावइणा । चेयब्भासजडत्तं तहा थेरत्तं च सव्वचियं
॥५१॥ विक्कमनरेस राउ दसहिय गएसु वासाणं । चित्त कसिणट्ठमीए तुह जम्मो मूलरिक्खंमि
॥५२।। गब्भा अट्ठमवासे दिक्खा फग्गुण वलक्ख दसमीए । चउदसमे सूरिपयं कत्तिय सिय तेरसी दिवसे ॥५३॥ चंद कुल कुवलइंदो संखा मच्छरि गुणंबुनिहिणो ते । कं गुणबिंदुं गिन्हउ मह वाणी चडयचंचुव्व अइनिविड़ जडत्ते वि हु वीडं मुत्तूण भत्तिनडिएण । इय किंपि थुओ जिणवइमुणिंद तं होसु मह सुहओ ॥५५।।
॥ इति श्रीमज्जिनपतिसूरि सुगुरूणां पंचासिका समाप्ता ।
॥५४॥
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अज्ञात - जैन मुनि कर्तृकं हाल्लार- देश - चरित्रम्
सं. मुनि धर्मकीर्तिविजय
आ एक नवतर अने कौतुकरागी रचना छे. हाल्लार (हालार) देश अने नवानगर (जामनगर) नुं तेमज त्यांना लोकोनुं अने तेमना रीत-रिवाजोनुं आमां उपहासभर्युं वर्णन छे. आना कर्तानुं क्यांय नाम नथी, छतां देखीती रीते ज आ कोई जैन मुनिनी रचना होवानुं परखाई आवे तेम छे. (श्लोक ४६, ४९ )
जैन श्रमणसंघनी परंपरा अनुसार, श्रमणोनी जुदी जुदी टुकडीओए, पोताना गच्छनायक के गुरुनी आज्ञानुसार, प्रत्येक वर्षे नवा नवा गाम/नगरमां चातुर्मास पसार करवानुं होय छे. आनो मुख्य आशय जे ते क्षेत्रना स्थानिक जैन समूहने धर्माभिमुख बनाव्ये राखवानो होय छे.
आमां बने एवं के साधुओ जुदा जुदा प्रदेशना जन्मेला अने रहेवासी होय; तेमनी भाषा, उछेर, रहेणी - करणी, रीत-रिवाज इत्यादि जुदी ज तरेहनुं होय. परंतु दीक्षा लीधा पछी तो तेमने माटे 'सब भूमि गोपालकी' बनी जाय; एटले साव अजाण्या अने अणदीठ प्रदेशोमां पण विचरवानुं अने रहेवानुं आवे. एमां कोइवार कोई मनस्वी साधुने क्षेत्रनी भाषा (बोली), खाणी पीणी, रिवाजो वगेरे जोईने नवं नवुं लागे अने पल्ले न पण पडे; तो तेनुं त्यां रहेवुं कदीक ऊभडक पण थई जाय.
पण
प्रस्तुत रचना आवा कोई मनस्वी पण टीखळी मुनिए रची छे एम मानी शकाय. तेमने तेमना गुरुजनोनी आज्ञाना अन्वये नवानगरमा रहेवानुं बन्युं हशे, त्यांनी परिस्थिति, पोते अनेक देशोना अनुभवी (श्लोक २) होवा छतां, तेमना मनने माफक नहि आवी होय, तेथी चित्तमां जागेला अचरजने आ रचनारूपे तेमणे वाचा आपी हशे, तेम लागे छे.
पण आ उपहासात्मक वर्णन द्वारा पण, आपणने हालार - जामनगरना तत्कालीन पहेरवेश, खानपान, बोली इत्यादिनी जाणकारी मळे छे, ते तो खूब महत्त्वपूर्ण के उपयोगी बनी रहे तेवी छे, एम कहेवुं जोईए.
आ रचनानी बे पानांनी एक प्रति, छाणीना प्र. श्री कांतिविजयजी ग्रंथ भंडारमां छे. तेनी झेरोक्स नकलना आधारे यथामति संपादन करीने अत्रे रजू करवामां आवे छे. प्रति संभवत: अढारमा सैकामां लखाई हशे तेम जाणवा मल्युं छे. प्रति - प्रारंभ अधूरो नमस्कार छे, अने प्रांते " इति चरित्रं संपूर्ण" एम मात्र छे.
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सकल प्रामाणिक ग्रामणी चूडामणि पण्डित श्री...॥ नमस्कृत्य सरस्वत्याश्चरणं शरणं धियाम् । प्रवृत्तिः श्रूयतां तावत् कौतुकाय विनिर्मिता ॥१॥ अनेकदेशा अस्माभि श्चक्षुषोर्गोचरीकृताः । स कोप्यालोकितो नैव याति यस्योपमानताम् ॥२॥ यत्र च क्षत्रियाः शस्त्रे कुन्तनिस्त्रिंशनामनी । वहन्ति हन्त जल्पन्त-श्चित्तोन्नत्यावहं वचः ॥३॥ हस्ताधिकं च प्रपदा-न्मार्जयन्तमिवाऽवनिम् । आरक्तं धातुरागेण वराशि पर्यधुर्जनाः ॥४॥ स्नेहालापरसेनापि संसिक्ताः सिकता इव । यत्र च स्नेहरहिता जनताः सन्ति सर्वदा ॥५॥ शालिन शालिनी यत्र गोधूमो धूमसन्निभः । मुद्गाश्च मुद्गरप्राया स्तुवरी न वरीयसी ॥६॥ चपलाश्च पलायन्ते नूनं निःस्नेहभोजनात् । युगन्धरी तु यत्राभू-दबलात्वेन निश्चला ॥७॥ युगन्धरी धान्यधुरा-धौरेयत्वं च बिभ्रती ।। यत्र वर्यान्यधान्येषु मान्या धनवतामपि ॥८॥ दृष्ट्वा किमुज्झितं लोकै-विवेकसहजं निजं ।। यस्मादसूयया दान-मतिर्देशान्तरं गता ॥९॥ सहस्रवेधिदुर्गन्ध-मलिनाम्बरधारिणाम् ।। विवर्णानां कृतघ्नानां व्यभिचारविचारिणाम् ॥१०॥ क्षिप्तस्थूलोपलप्रायं विकत्थनविसंस्थुलम् । वाक्यं व्याहरतां शश्वत् कदन्नाभ्यवहारिणाम् ॥११॥
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यस्मिन्निव दिवाकीर्ति मतिभ्रमवती सती । चकार भूस्पृशां स्पर्श चातुरी न कदाचन ॥१२॥
"त्रिभिर्विशेषकम्" ।। विलोक्यं सकलं लोकं यत्र निस्त्रिंशतान्वितम् । पावित्र्यं किमिव त्रस्तं विजहें न च कर्हिचित् ॥१३॥ सुरभिद्रव्यताम्बूली-दलानां यज्जनावली । जानाति जातुचिदपि स्वप्नेऽपि न जनश्रुतिम् ॥१४॥ पुष्पावलोकनं लोक-लोचनेषु च कुत्रचित् । श्रूयन्ते श्रोतृभिर्यत्र पुष्पवत्यः स्त्रियस्तथा ॥१५॥ धान्यानां देववन्मान्या यल्लोकानां युगन्धरी । तदेव देवधान्यं किं जगुस्तन्नाम शाब्दिकाः ॥१६॥ क्वथितक्वाथसङ्काश-योन्नाला स्थूलपौलयः । जायन्ते यत्र सर्वत्र कूपिकायाः पिधानवत् ॥१७॥ यस्मिन्नभ्यूषभोक्तारः प्रायः सर्वे दिवानिशम् । ये च केचिदपि क्वापि दक्षा वयमिति स्थिताः ॥१८॥ दिनावसानसमये निष्पक्वं शाकवर्जितम् । कटुक्षिप्रचटह्वानं भोज्यं भुञ्जन्ति तेऽपि च ॥१८॥
"युग्मम्"। दैन्यं यस्मिन्नादधाना नीरसाहारकारिणः । भिक्षुभ्यो नातिरिच्यन्ते धनिनोऽपि च केचन ॥२०॥ यस्मिन् भूमिस्पृशामन्यत् स्वरूपं ब्रूमहे किमु । पशवोऽपि हि नाश्रन्ति तामश्नन्ति युगन्धरी ॥२१॥ सौवीरवारिणा पक्व-धौतधान्याशना जनाः । यत्र निस्तेजसो रेजु-भूभुजा तर्जिता इव ॥२२॥
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धिग् धिग् जीवितमेतेषां यत्र देशे च केचन । धनिनोऽपि न भुञ्जाना धान्यं निष्पक्वमन्तरा ॥२३।। दुर्लभत्वेन भिक्षाया नैव काक्षन्ति भिक्षवः । स्थातुं यत्र च दृश्यन्ते ते पराधीनवृत्तयः ॥२४।। महानटजटाजूट-स्पष्टशोभामबिभ्रतः । यत्रस्थानां वयस्थानामाननेऽपि च दाढिकाः ॥२५।। सद्धर्मकर्मनिर्माणा-लङ्कर्मीणमनस्विनाम् । पृष्टमांसादनाभ्यास-प्रसितानां क्षितिस्पृशाम् ॥२६।। यस्मिन्मिथो मिलत्श्मश्रु-दाढिकाव्यपदेशतः । वदनेषु पिधानानि वेधाः क्रोधादिव व्यधात् ॥२७॥
"युग्मम्"। स्वजनेऽस्वजने चापि परलोकं गते सति । अस्तोकशोका यल्लोका विलोक्यन्ते दिवानिशम्॥२८॥ हल्लीसकं वितन्वाना मण्डलीभूय निर्भयम् । सन्तप्तरजसः किञ्चि-दुच्छलन्त्यः क्षितेरिव ॥२९॥ चढूंषि मुकुलीकृत्य जल्पन्त्यश्छन्दसा सह । विकिरन्त्यः केशहस्ता-निर्वस्त्रीकृत्य मस्तकान्॥३०॥ मायाभयङ्कराकार-स्वरूपमकराकराः । दृश्यमाना जनैः साक्षाद् राक्षस्य इव सङ्गताः ॥३१।। भिन्नजातेर्जनस्यापि सति मृत्यावुप[त]स्थुषि । ब्राह्मणक्षत्रवैश्यानां शूद्राणां जातिजा अपि ॥३२॥ चतुष्पथे मिथो भूत्वा निस्त्रपा यत्र च स्त्रियः । उरांसि स्तनसम्बाधं सर्वा अवधिषुः समम् ॥३३॥
"पञ्चभिः कुलकम्"।
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यस्मिन्नुत्तमजातीनां द्विजातिवणिजामपि । निका(रा ?)सक्ताः स्त्रियस्तत्र प्राकृतस्त्रीकथा वृथा ॥३४॥ यस्मिन् वणिजविश्वस्ता हस्तेकृत्य वणिग्जनाः । आनयन्ति तथाप्येते ज्ञातिसम्बन्धवृत्तयः ॥३५।। वणिजा यत्र भुञ्जन्ति द्रव्यलिङ्गिसुखासिकाम् । कुप्रवृत्तिरियं तेति वक्ति कोऽपि नरः परम् ॥३६|| यस्मिन्नेते च मातङ्गा इति व्यक्तिर्न लभ्यते । यतस्तत्स्पर्शसञ्जाता-नैवास्ति वचनीयता ॥३७॥ गोस्तनीपूगपुन्नाग-नागरङ्गाप्रियङ्गवः । प्रियालसालहन्ताल-तमालनवमालिकाः ॥३८|| जम्बू हीबेर जम्बीर-निम्ब शिम्बाकदम्बकम् । नागवल्ली सल्लकी च मल्लिका गिरिमल्लिका ॥३९॥ कदलीफल्गुबकुल नालिकेरी हलिप्रियाः । चम्पकाशोकवासन्ती मालती चूत केतकाः ॥४०॥ इत्यादितरवो यत्र नावतेरुः क्षिताविति । मन्ये मान्या वयं नास्मिन् यस्माल्लोका न भोगिनः ॥४१॥
"चतुर्भिः कलापकम्"। . यदन्वये निषादेन तिलकं तन्यते यदि । तदैव मेदिनीनाथ-स्थापना नान्यथा परम् ॥४२॥ स यत्र गोत्रासुत्रामा यामनामा निशाम्यते । कुत्सिताचार हल्लार देशोऽयं पश्चिमादिशि ॥४३॥
“युग्मं कुलकम्" । अपरेषु पुरेष्वेत-नवीननगरं पुरम् । तत्र किञ्चिदिवाभासी-दंधमध्ये यथैकदृग् ॥४४॥
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तस्मिन्नेकस्वरूपाणि सर्वाणि नगराणि च । सहजानीव दृश्यन्ते वर्ण्यन्ते कानि कानि तत् ॥४५॥ तत् पुरेषु चतुर्मासीमासीना मुनयश्च ये । उद्विग्ना बहु नाध्येतुं कुर्वन्ति कियदेतिकाम् ॥४६॥ गृहे गृहे बम्भ्रमित्वा समादाय निरादरम् । नीरसां भिक्षुवद्भिक्षा-मनन्ति यतयो यतः ॥४७॥ तस्मिन् जनपदे साधो-विबाधा जायते यदि । धौतधान्यं विना नैव लभ्यते लघुभोजनम् ॥४८॥ गुर्वादेशवशादेव देशे तस्मिँस्तपस्विनाम् । जायन्ते तिष्ठतां कष्टा-दब्दानीव दिनान्यपि ॥४९॥ अलब्धे तपसो वृद्धि-लब्धे देहस्य धारणा । इयं वृत्तिद्वयी तत्र-वर्तिनां व्रतिनामभूत् ॥५०॥ यतयस्तत्पुरं त्यक्त्वा चतुर्मासादनन्तरम् । पुनः स्वप्नेऽपि नेच्छन्ति निर्मोकमिव भोगिनः ॥५१॥ इत्यादि चरितं यस्य दृश्यते नैकशस्तव । तस्मै हे देश ! हल्लार ! दूरादथ नमोऽस्तु ते ॥५२॥
॥ इति चरित्रं सम्पूर्णम् ॥
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अज्ञात कर्तृक गणधर - होरा ॥
- सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
अमेविहारचर्या दरमियान छाणी गया, त्यारे त्यांना ग्रंथभंडारनी एक प्रतिसंभवतः १५मा शतकनी अने ताडपत्रनुमा प्रति-मां प्रस्तुत कृति नजरे पडतां, प्राकृत निबद्ध होई रस पडवाथी, त्यारे ज तेनी नकल करी लीधी हती. आना छेडे तेने 'गणधरहोरा' नामे उल्लेखेली होई अत्रे पण ते ज नामे आपी छे; परंतु आनी प्रथम गाथामां तो आ रचनाने 'होरा चान्द्रायण' तरीके निर्देशी छे, ते नोंधपात्र छे.
प्रथम पद्यमां ज 'इन्द्रभूति' ने प्रणाम थया छे; बीजा (संस्कृत) पद्यमां सर्वज्ञ उपरांत 'गौतम' ने पण संभार्या छे, तेथी निःशंक छे के आ लघु रचना कोई जैन कर्तानी ज छे.
रचना देखीती रीते ज ज्योतिः शास्त्र - संबंधित छे. कया ग्रह/ग्रहोनी केवी स्थिति आवे, त्यारे केवुं फल समजवुं - ते समजाववानो आमां उपक्रम जणाय छे. आरंभे एक मंत्र आपेल छे, जे द्वारा त्रण गोमूत्राकार रेखाना आलेखननो निर्देश छे, जे कुंडली दोरवानी के पछी रमल - शकुननां खानां दोवानी प्रक्रियानी नजीक नी वात जणाय छे. विशेष तो आ विषयना मर्मज्ञो समजी तथा प्रकाश पाडी शके. अत्रे तो एक प्राकृत पुराणी रचनाने नाश पामे ते पूर्वे आ स्वरूपे जीवंत बनाववानो ज मात्र आशय छे.
गणधरोरा
जीवाजीवाइ पए (य) त्थ- वत्थुवित्थारमुणियपर[म]त्थं । नमिऊण इंदभूए (इं) होरा चंदायणं वुच्छं ॥१॥ प्रणिपत्य देवदेवं सर्वज्ञं सर्वदर्शिनम् । होराज्ञानं प्रचक्षामि स्फुटं गौतमभाषितम् ॥२॥
रिषिणा च यदादिष्टं सत्यं तं नास्ति संशयः । श्रद्धेयं संशयातीतं सद्भिः सर्वार्थसिद्धये ॥३॥
ॐ चिरि २ परि २ निस्सर २ दिव २ सिरि २ भूपतए (ये) स्वाहा || अनया विद्यया खटिका सप्ताभिमन्त्रितं कृत्वा त्रिगोमूत्रिका आलिखेत् ।
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चंदंगारयसूरा आया होरा पहासिया मुणिणा । सम विसम विसरिसेहिं सुहासुहं होइ एएहिं ॥३॥ (४) इक्को होइ मयंको धरासुओ दोसु दिणयरो तीसो । एसा गहणसन्नं (णे सन्ना?) निद्दिट्ठा गणहरेंदेण ॥४॥ (५) तिन्नि वि जत्थ मयंका पाए दीसंति तम्मि जाणेहु ।। दुब्भिक्खं मर(क्खडमर ?)रहियं कालं गयसोगसंतावं ॥५॥ (६) १११ दुण्हं ससीण पुरओ दिव(वा)यरो जम्मि दीसए उइओ । सुक्खं मणनिव्वाणं विजयं पि य तम्मि जाणेहु ॥६।। (७) ११३ पुरउ मयंकजुयलस्स जम्मि आरोयपट्ठिओ होइ । लाभो तत्थ वियाणसु विजयं पियसंगमं तत्थ ॥७॥ (८) ११२ धरणीधरस्स पुरओ दिवाइरा जम्मि दुन्नि दीसंति । जाणसु पअत्थलाभो विजयं चिय ठवण पूया य ॥८॥ (९) २३३ आरो(रा?) रवी मयंको कमेण दीसंति जम्मि पायम्मि । कज्जं चिंतियमित्तं अइरा किर सिज्झए तम्मि ॥९॥ (१०) २३१ दुहं धरासुयाणं चंदो मज्झम्मि दीसए जम्मि । तम्मि किर कज्जसिद्धी महिलालाभो विसेसेण ॥१०॥ (११) २१२ । वसुहासुओ मयंको दिवायरो हुंति तिन्नि वि कमेण । पीलेउं सयलदुहं कल्लाणं पावए इत्थ ॥११॥ (१२) २१३ अंगारयस्स पुरओ चंदं जुयलम्मि दीसइ जलंतं । चिंतिय अत्थविणासो कज्जं च निरत्थयं तस्स ॥१२॥ (१३) २११ दोसुम्मूलणदक्खा दिवायरा तिन्नि वि हवंति । लच्छी मण देवाणं नारीसुह संगमं तत्थ ॥१३।। (१४) ३३३ तरणिजुयलस्स पुरओ दीसइ चंदो पयट्ठिउ जम्मि । आगोरं तम्मि फुडं लच्छी तह सुंदरा महिला ॥१४॥ (१५) ३३१
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दुण्हं तरणीण मुज्झे धरासुओ जम्मि दीसइ निविट्ठो । जाणिजइ कज्जसिद्धी लच्छी पियसंगमो तत्थ ॥१५।। (१६) ३२३ मज्झम्मि दिणयराणं दीसइ चंदो पइट्ठिउ जम्मि ।
-- नारी मणुज्जं पावइ सुहसंगमं तत्थ ।।१६।। (१७) ३१३ सूरंगी(गा)रयससिणो कमेण दीसंति संठिया जम्मि । ठाणलाभो य धणागमो य सुहसंगमो तत्थ ॥१७॥ (१८) ३२१ दीसइ चंदाण जुयं पुरउ मि तस्स संठियं जम्मि । विजयं तत्थ मुणिज्जसु लाभो सविसेसउ होइ ॥१८॥ (१९) ३११ मज्झम्मि ससि(स)हराणं भूमिसुउ जम्मि दीसइ पवनो । पयपियह सुयलाहो भणिओ पियसंगमो तत्थ ॥१९।। (२०) १२१ जइ मंगलाण जुयलं पुरउ चंदस्स दीसइ वलंतं । रायाण गुरुकिलेसं महाभयं दारुणं होइ ॥२०॥ (२१) १२२ चंदंगारयसूरा कमेण दीसंति संठिया जम्मि । वी(वो ?)लीणं गुरुदुक्खं कल्लाणं पावए पच्छा ॥२१॥ (२२) १२३ जइ ससि(स)हराण मज्झे दीसइ सूरस्स मंडलं विउलं । ता जाण विउललाहं हत्थी पियसंगमं तत्थ ॥२२।। (२३) १३१ ससि भाण आरु सहिया तिन्नि वि दीसंति जत्थ वणिविट्ठ (विणिविट्ठा)। ता कल्लाणं कित्ती जीयइ रिउमंडलं सहसा ॥२३।। (२४) १३२ अंगारयाण तियं पइ पयट्ठियं जम्मि दीसइ फुरंतं । तम्मि किलेसं कलहं महाभयं होइ मरणं च ॥२४॥ (२५) २२२ भउमजुयलस्स पुरओ जइ वि ससी होइ कह वि पायम्मि । ता उव्वेयं हाणी ठाणच्चाउ तहा होइ ॥२६॥ २३२ चंदो दिणयरजुयलं दीसइ पायम्मि संठियं तम्मि । जायइ तंपि सुभिक्खं सुक्खं तह संपया विउला ॥२७॥ १३३
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सूरमयंकंगारय कंमेण दीसंति संठिया जम्मि । कम्मकिलेसो हाणी दुपयाण चउप्पयाणं च ॥२८॥ ३१२ भाणुजुयलस्स पुरओ जइ दीसइ कहवि कासवीतणओ । ता बोलाणी पि तहुं ठाणं माणं पुणो लहइ ॥२९॥ ३३२ पुरउ मंगलजुयलस्स जइ रवी होइ तत्थ निच्छयओ । निबुद्धीनिव्वाणं चिय सुहिसयण समागमो होइ ॥३०॥ २२३ अंगारयाण जुयलं पुरउ भाणुस्स दीसए जम्मि । तत्थ किर सुक्खहाणी रायभयं होड गुरुदुक्खं ॥३१॥ ३२२
॥ इति गणधरहोरा समाप्ता ॥
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तपगच्छपति-श्रीमुनिसुन्दरसूरिकृता पञ्चसूत्रावचूरिः ॥
- सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 'पंचसूत्र' ए श्रीमान् हरिभद्राचार्यनो रचेलो एक मान्य तथा महत्त्वपूर्ण लघु ग्रंथ छे. एना पर कर्ता-कृत स्वोपज्ञ वृत्ति उपलब्ध छ ज. ते वृत्तिना ज आधारे, १५मा शतकमां थयेला तपागच्छीय आचार्य श्रीमुनिसुन्दरसूरिजीए अवचूरि रची छे, जेनी एक मात्र प्रति छाणी स्थित प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी शास्त्रसंग्रह मां (क्र.८७२) प्राप्त छे, तेना आधारे ते अत्रे प्रस्तुत छे. जो के महदंशे मूळ वृत्तिना शब्दो ज पकडीने रचाएलुं आ सारदोहन छे.
आदर्श प्रति ७ पत्रनी छे, अने संवत् १९६२मां ज लखाएली छे. परंतु, तेनो आधार होय एवी प्रति, क्यांक-कोई भंडारमां, होवी ज जोईए, अने ते प्राचीन होवी जोईए. प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी महाराजनी एक विशिष्ट प्रवृत्ति ए हती के तेओनी नजरमां ज्यां पण प्राचीन अने विशिष्ट ग्रन्थ रचनाओ तथा तेनी दुर्लभ प्रति आवे, तेनी शुद्धप्राय प्रतिलिपि तेओ करावी लेता, अने पछी ते जाते वांचीने शुद्धीकरण पण करता. एथीज एम लागे छे के पंचसूत्रावचूरि नी प्रति पण तेमणे कोईक प्राचीन आदर्श उपरथी लखावी होवी जोईए.
___ अवचूरिना प्रांते आपेली पुष्पिकाना आधारे एम लागे छे के श्रीमुनिसुन्दरसूरिजी आचार्य अथवा तो गच्छपति थया ते पूर्वे तेमणे रचेली आ अवचूरि छे. ए सिवाय "श्रीमुनिसुन्दरसूरि महोपाध्याय पादैः" एवो शब्दप्रयोग न संभवे.
पञ्चसूत्रावचूरिः ॥ इह पापप्रतिघात-गुणबीजाधानादिपञ्चसूत्र्याः क्रमोऽयम्- नहि पापप्रतिघात-गुणबीजाधानं विना तत्त्वतस्तच्छ्रद्धा । न तां विना साधुधर्मपरिभावना । न चापरिभावितसाधुधर्म(स्य)प्रवज्या । न च तां विना तत्पालनयत्नः। न चाऽपालने तत्फलमिति ॥१॥
अनादिजीवस्य भव(:) संसारः । अनादिभवस्यैवानादिकर्मसंयोगनिवर्तितत्वं हेतुः । तस्यैव दुःखरूपत्वादीनि विशेषणानि - (१) जन्मजरामरणरोगशोकादिरूपत्वात् , (२) गत्यन्तरेऽपि जन्मादिभावात् , (३) अनेकभववेदनीयकर्मावहत्वात् ॥२॥
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ज्ञानादिरूपात् ॥ (सुद्धधम्माओ) ।। मिथ्यात्वमोहनीयादि ॥ (पावकम्म०)॥
भव्यत्वं नाम सिद्धिगमनयोग्यत्वमनादिपारिणामिको भावः । तथाभव्यत्वमिति विशिष्टमेतत् । आदिशब्दात् काल-नियति-कर्मादिग्रहः ।।
अनुभ(भा)वकारणानि ॥ (विवाग०) ॥ - एभिर्हि तथास्वाभाव्यात् साध्यव्याधिवत् तथाभव्यत्वं परिपच्यते ॥३॥ मोक्षार्थिना ॥ (होउकामेणं) ॥ तीव्ररो(रा)गाद्युत्पत्तौ ।। (संकिलेसे) ॥
दुःकृतगर्हामेवाह - सम्यग्दर्शनादिमार्गयुक्तेषु ॥ (मग्गट्ठिएसु) ॥९।। मार्गसाधनेषु पुस्तकादिषु । अमार्गसाधनेषु खड्गादिषु । अविधिपरिभोगादि । (वितह०) ॥ क्रियया (अणायरि०) | मनसा-पापानुबन्धितया विपाकेन ॥११॥ एवमेतदिति रोचितं श्रद्धया तथाविधकर्मक्षयोपशमजया ॥१३||
अत्र व्यतिकरे मिच्छामिदुक्कडं ति ३ वारं पाठः ।
अनन्तरोदिता (एसा) ॥ ग्रन्थिभेदवत्तदबन्धरूपः (अकरण०) ।। अर्हदादीनां अनुशास्ति उदितप्रपञ्चबीजभूताम् ॥१२॥
अर्हदादिषु सेवाह:-अर्हदादीनां सेवाज्ञाद्यर्हः स्याम् । एतेषां प्रतिपत्तियुक्तः स्याम् । निरतिचारपारगः स्यां एतदाज्ञायाः ।।
धर्मकथादि (अणुट्ठाणं) ॥ अव्याबाधादिरूपम् (सिद्धभावं) ॥ सामान्येन कुशलव्यापारान् (मग्गसाहण०) । सूत्रानुसारेण (विहि०)॥ क्रियारूपेण (पडिवत्ति०) ॥ प्राय आचार्यादीनामप्येतद्वीतरागत्वमस्तीत्येवमभिधानम् ।। (वीतरागा०)॥
भूब्वास्मि ।। अभिज्ञः स्याम्-एतत्सामर्थ्येन । उचितप्रतिपत्त्या सर्वसत्त्वानां स्वहितम् । वारत्रयं पाठः ।।
सूत्रपाठे फलमाह - एतत् सूत्रम् ॥ अर्थानुस्मरणद्वारेणाऽनुप्रेक्षमाण मा० (मानस्य) । सि० मन्दविपाकतया ॥ परि० पुद्गलापसारणेन ॥ खि० निर्मूलतया ॥
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अशुभकर्मानुबन्धाः ।। निरनुबन्धं चाशुभं यच्छेषं कर्म, मन्त्रसामर्थ्येन कटकबद्धविषमिव विपाकं प्रवाहं वाऽङ्गीकृत्य भग्नसामर्थ्यमल्पफलं च स्यात् ।। सुखापनेयं तथाऽबन्धकत्वेनाऽपुनर्भावं च स्यात् ।।
आसकलीक्रियन्ते-आक्षिप्यन्त इत्यार्थः । परिपोष्यन्ते भावोपचयेन । निर्माप्यन्ते-परिसमाप्ति नीयन्ते ॥
नियमेन फलदं, सुप्रयुक्त इव महागदः, अनुबन्धेन ॥ एतत् सूत्रम् ।।
शास्त्रपरिसमाप्तौ मङ्गलमाह - नतनतेभ्यो देव-ऋषिवन्दितेभ्यः । .. शेषनमस्कारार्हा आचार्यादयः ।।
वारत्रयं पाठः ॥ छ । १
एतेषां धर्मगुणानां स्वरूपं भावतस्तथाविधक्षयोपशमेन भावयेत् ॥ (भावेज्जा एएसिं सरूवं)॥
पीडादिनिवृत्त्या (परोवयारित्तं) । भङ्गे भगवदाज्ञाखण्डनतः (भंगदा०) । धर्मदूषकत्वेन (महामोह०) ॥११॥ भूयः ॥ शास्त्रोक्तविधिना (उचिय०) ॥ क्रियाविशेषणं (अच्चंत०) । प्रतिपद्यते धर्मगुणान्, तद्यथा-स्थूलेत्यादि ।
सदाज्ञाग्राहक: स्यात् (सयाऽऽणा०) । आज्ञागम उच्यते, तदध्ययनश्रवणाभ्यां ग्राहकः॥
अनुप्रेक्षाद्वारेण (आणाभावगे०)। परतन्त्रः (परतंते०) ॥
स्थूलप्राणातिपातविरत्यादीन् (गुणे) । सदैवाऽविरतत्वादीन् (अगुणे०)। उदग्रसहकारित्वमधर्ममित्राणामगुणान् प्रति । तत्पापानुमत्यादिना (गरहियत्तं)।। अशुभयोगपरम्परां चाऽकुशलानुबन्धात् अधर्ममित्राणां च ॥
अबोधिफलात् (एत्तो०)॥ हिताहितदर्शनाभावेन (अंधत्त०) ।। जनकमनिष्टापातानाम् (जणग०) ।
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संक्लेशप्रधानत्वात् (अइदा०) । परम्परोपघातभावेन (असुहा०) । अनुकर्षकान् पातादिरक्षकान् (अंधो विय०) ॥ इतो-धर्ममित्रसेवनात् (न इओ०) ॥ . अदत्तायां तेषामाज्ञायां (आणाकंखी) ॥ दत्तायां (आणापडि०) ॥ प्रतिपन्नधर्मगुणानुकूलं (पडिवन्न०) । प्रवृत्तौ (बहुकिलेसं) ॥ अङ्गारकर्मादि (समारंभं) ॥ कस्याऽप्यसंप्रयोगे (न भावेज्ज दीणयं) ॥ अतत्त्वाध्यवसायम् (वितहा०) ॥ अनिबद्धं विकथादि ॥ दुर्ध्यानाचारादि चतुष्प्रकारमपि (अणत्थदंड) ॥ उक्तं च लौकिकेष्वपि - "पादमायान्निधिं कुर्यात् पादं वित्ताय वर्धयेत् । धर्मोपभोगयोः पादं पादं भर्त्तव्यपोषणे ॥१॥" निर्द्धनानां वाऽयम् ।। अन्यैरप्युक्तम् - "आयादर्धं नियुञ्जीत धर्मे यद्वाऽधिकं ततः । शेषेण शेषं कुर्वीत यत्नतस्तुच्छमैहिकम् ॥२॥" अयं सा(स)धनानां वा व्ययविभागः ॥ भवस्थितिकथनशीलत्वेन (जहासत्ति) ॥ प्रतिफलनिरपेक्षतया (अणुकंपापरे) ॥ निर्ममो भावेन भवस्थित्यालोचनात् ।। (निम्ममे०)॥ एवं यस्मात् तत्पालनेऽपि धर्मो जीवोपकारात् (एवं खु०) ।
यतो(5)विशेषेण सर्वे जीवाः पृथक् पृथग् वर्तन्ते, ममत्वं तु बन्ध कारणम् ॥
गृहिसमुचितेषु स्मृतिसमन्वागत आभोगः स्यात् । तद् यथा-अमुगेत्यादि (अमुगे अहं०) ॥
अणुव्रतादिधर्मानुष्ठानविराधना (तव्विराहणा) ॥ विराधनारम्भः
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(तदारंभो ॥
आत्मानुगामुकत्वेनात्मभूतं धर्मानुष्ठानम् (एयं आयभूयं) || एतत् सम्यग् विधिना वर्त्तनम् || (भावमंगलमेयं) || अधिकृतसमाचारनिष्पत्तेः (तन्निप्फत्ती ) || अनेकयोनिभावी (पुणो पुणो ऽणुबंधी) || परमानन्दो मोक्षः (परमाणंदहेऊ ) ॥ प्रकाशका अर्हदादयः (एयधम्मपयासयाणं) |
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पालकाः प्ररूपकाश्च यत्यादयः (एयधम्मपालयाणं, ०परूवयाणं ) ।। प्रतिपत्तारः श्राद्धादयः ( ० पवज्जगाणं ) ॥
भवतु ममैतत् कल्याणं ( होउ ममेयं) अधिकृतधर्मप्रतिपत्तिरूपम् ॥ यतीनामवपातकारी आज्ञाकारी (अववायकारी ) ॥
एतत्तदाज्ञाकारित्वम् (० च्छेयणमेयं) ||
एतस्य धर्मस्य (एतस्स जोग्गयं)
ग्रन्थ्यादिभेदेन (विसुद्धे) ॥ शुभकण्डकवृद्ध्या (विसुज्झमाण० ) ॥२॥ यथोदितगुणः संसारविरक्तः संविग्न इत्यादिना (जहोदियगुणे ) ॥ एतं यतिधर्मम् (एयं ॥
क्रियाविशेषणम् (अपरोवतावं ) || अनुपाय एष परोपतापः ॥ स्वधर्मप्रतिपत्तावपि परोपतापरूपात् (अकुसलारंभओ ) ||
मातापितृप्रकारानाह - उभयलोगसफलेत्यादि । एवं से वि बोहिज्जेत्येतदन्तम् ॥ उभयलोकसफलं जीवितं, प्रशस्यत इति शेषः ॥
समुदायकृतानि कर्माणि समुदायफलानि, प्रक्रमादत्र शुभानि ; इत्यनेन भूयोऽपि योगाक्षेपस्तथा चाह एवं सुदीर्घोऽवियोगो भवपरम्परया सर्वेषामस्माकम् (एवं सुदीहो० ) || अन्यथा - एवमकरणे एकवृक्षनिवासिशकुनतुल्यमेतच्चेष्टितमिति शेषः ॥
योग्यं चैतन्मनुजत्वम् (जोग्गं च एयं०) ||
स्वकार्ये धर्मलक्षणे संवरस्थगितप्राणातिपातादिच्छिद्रम् ॥ ( जुत्तं
सज्जे) ॥
—
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हेतुना ॥
क्षण: प्रस्तावो दुर्लभः सर्वकार्योपमातीतः सिद्धिसाधकधर्मसाधकत्वेन
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शक्तितोऽपि क्रोधाद्यभावात् (संतं) | निष्क्रियत्वादव्याबाधम् || ( अव्वाबाहं)
एतं संसारव्युच्छेदं (साहेमि एयं ) |
समृध्यति च मम समीहितं संसारव्यवच्छेदनं, गुरुप्रभावात् ॥ ( समिज्झइ य०) ||
भार्यादीनि (सेसे वि) ॥
अबुध्यमानेषु च मातापित्रादिषु कर्मपरिणत्या हेतुभूतया विदध्याद् यथाशक्ति तदुपकरणं - अर्थजातादि आयोपायशुद्धस्वमत्या (अबुज्झमाणेसु) । ततोऽन्यसम्भूतिरायः । कलान्तरादिरूप उपायः ॥
।
शासनोन्नतिहेतुत्वात् (धम्मप्पहाणजणणी०) |
अन्यथाऽनुपध एव भावत उपधायुक्तः स्यात् (अण्णा अणु० ) ॥
उक्तं च
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“निर्माय एव भावेन, मायावांस्तु भवेत् क्वचित् ।
पश्येत् स्वपरयोर्यत्र सानुबंधं हितोदयम् ||१|| "
तथा तथा एतद् दुःस्वप्नादिकथनेन सम्पादयेद् धर्माराधनम् (तहा
तहेयं ० ) ।।
मातापित्रादीनित्यर्थः (चएज्ज) || अस्थानग्लानौषधार्थत्यागज्ञातेन ॥ एतदेवाह – से जहेत्यादि । भार्याद्युपलक्षणम् (अम्मापिति०) ।। अनेक: (आतङ्कः) सद्योघाती रोगः ॥
कदाचिद् भवतोऽपीत्येवंरूप औषधभावे संशयः ॥
तथा - तेन वृत्त्याच्छादनादिप्रकारेण संस्थाप्य ( तहा संठविय) ॥ स्ववृत्तिनिमित्तं च । त्यागोऽत्यागः - संयोगफलत्वात् । अत्यागस्त्यागो
वियोगफलत्वात् ॥
फलदर्शिनः (एयदंसिणो ) ॥ स- पुमान् ॥ मात्रादीन् ॥
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सम्भवत्येतत् तत: पुरुषोचितमेतत् (पुरिसोचियमेयं) ॥ दान्तिकमाह - परीत्तसंसारः (सुक्कपक्खिगे० ) ॥
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अप्राप्तबीजादिपुरुषः (अपत्तबीजाइ० ) |
'कदाचिदोषधं सम्पादयितुं शक्यते कदाचिन्न' इत्येवंरूपा (विभासा ) | कालसहत्वं च व्यवहारतः, तथा जीवनसम्भवात् निश्चयतस्तु न | सौविहित्यापादनप्रकारेण (तहा) | विशिष्टगुर्वादिभावेन धर्मकथादित्वात्
"
(विसिगुरु० ) ॥
साधुः - धर्मशीलः । सिद्धौ विषये (सिद्धीए ) |
,
स- शुक्लपाक्षिकः तान् - मात्रादीन्, जीवयेत् आत्यन्तिकं अमरणावन्ध्यकारणसम्यक्त्वादियोगेनेत्यर्थः ( स ते ओसहाइ० ) |
एतं यत्तत्त्यागः (पुरिसोचियमेयं) |
भगवान् महावीरो गर्भेऽभिग्रहप्रतिपत्ता ( भगवं एत्थ नायं ) ॥ एष धर्मः सताम् (एस धम्मो सयाणं) | शोकं प्रव्रज्याग्रहणोद्भवम् ( अम्मापिइसोगं ) | समधिवासितो गुरुणा गुरुमन्त्रेण (समहिवासिए) ॥३॥
सुविधिभावत: करणात् क्रियाफलेन युज्यते (किरियाफलेण जुज्जइ) | क्रियात्वात् सम्यक् ॥
मिथ्याज्ञानं (न विवज्जयमेइ) ॥ विपर्ययाभावेऽभिप्रेतसिद्धिः स्यात्, उपायप्रवृत्तेः (एयाभावे० ) | नाऽविपर्यस्तोऽनुपाये प्रवर्त्तयेत् । उपायप्रवृत्तिरेव हि अविपर्यस्तस्याऽविपर्यस्तता (नाविवज्जत्थो०) || तत्सतत्त्वत्याग उपायसतत्त्वत्याग एव अन्यथा स्वयमुपेयमसाधयतः ( तस्सतत्तच्चाओ अण्णहा ) || तदसाधकत्वाविशेषादनुपायस्याप्युपायप्रसङ्गात् (अइप्पसंगाओ ) । न चैवं व्यवहारोच्छेदः, निश्चयनयमतमेतत् ॥
स-एवं प्रव्रजितः (से) ॥ ग्रहणासेवनरूपां आदत्ते (सिक्खमाइयइ) || तत्त्वार्थदर्शी (भूयत्थदरिसी) |
नेतो गुरुकुलवासादन्यत् हितं तत्त्वमिति मन्यते (न इओ हियतरं०) । अनुष्ठेयं प्रति बद्धलक्ष: ( बद्धलक्खे) ॥
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इहलोकाद्यपेक्षया (आसंसा०), मोक्षार्थी (आययट्ठी) ।। स एवंभूतस्तत्सूत्रमुपैति (स तमुवेइ०) ।। सर्वथा-याथातथ्येन ।। यदुतैवमधीतं सम्यग् नियुक्तं (एयं धीराण०) ।। अन्यथाऽविध्यध्ययनेऽनियोगो विपर्यासो भवति (अण्णहा०)॥
विधिनाऽनाराधनायां न किञ्चिदिष्टमोक्षांदिफलं, तत्त्वतस्तदनारम्भादेव । (अणाराहणाए न किंचि, तदणा०) ॥ इहैव लिङ्गमाह - अत्राऽनाराधनायां, मार्गदेशनायां तात्त्विकायां शृण्वतो दुःखं भवति (एत्थ मग्ग०) ॥ उक्तं च - "शुद्धदेशना हि क्षुद्रसत्त्वमृगयूथसंत्रासनसिंहनादः" ॥
तदवधीरणा मनाग् लघुतरकर्मणो न दुःखम् ।। तथाऽत (तत्-) प्रतिपत्ति:ततोऽपि लघुतरकर्मणो नावधीरणा ।। ततः किम् ? इत्याह-नैवमनाराधनायाऽधीतमधीतं सूत्रम् । अवगमस्य सम्यग्बोधस्य विरहात् । (नेवमहीयमहीयं०)।।
मैषा मार्गगामिन एकान्तमनाराधना भवति, सम्यक्त्वादियोगे सर्वथाऽसक्रियाऽयोगात् (न एसा मग्गगामिणो) ।
___ अनर्थमुखा, उन्मादादिभावेन (विराहणा अणत्थमुहा) । इयं गुरुतरदोषापेक्षयाऽर्थहेतुः पारम्पर्येण मोक्षाङ्गमेवेत्यर्थः । तस्य-मोक्षगमनस्यैवारम्भात् , कण्टकज्वरमोहोपेतमार्गगन्तृवत् । (अत्थहेऊ, तस्सारंभओ धुवं) । उक्तं च
"मुनेर्मार्गप्रवृत्तिर्या सदोषाऽपि गुणावहा । कण्टकज्वरसंमोह - युक्तस्येव सदध्वनि ॥१॥"
एतद्भावे लिङ्गमाह - अत्र विराधनायां सत्यां मार्गदेशनायां तात्त्विकायां अनभिनिवेशः शृण्वतो भवति, हेयोपादेयतामधिकृत्य (एत्थ मग्गदेसणाए अणभिनिवेसो) ॥ तथा प्रतिपत्तिमात्रं मनाग् विराधकस्य, नाऽनभिनिवेशः ॥ तथा क्रियारम्भोऽल्पतरविराधकस्य, न प्रतिपत्तिमात्रम् ॥
__एवमपि विराधनयाऽधीतं सूत्रमधीतं, अवगमलेशयोगहेतोः (एवं पि०)। अयं-विराधकः सबीजो नियमेन, सम्यक्त्वादिबीजा(ज)युक्तत्वात् (अयं सबीओ०) ॥ यतो मार्गगामिन एवैषा प्राप्तबीजस्येति भावः, न सामान्येन, किं तर्हि ? अपायबहुलस्य – निरुपक्रमक्लिष्टकर्मवतः (मग्गगामिणो खु०) । ___ निरू(र)पायो यथोदितो मार्गगामीति प्रक्रमः (निरवाए जहोदिए) ।। एतदेवाह सूत्रोक्तकारी भवति सबीजो निरू(र)पाय: (सुत्तुत्तकारी) ।
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सामान्येन (पवयणमाइ० ) || विशेषेण (पंचसमिए०) ||
अनर्थपर एतत्त्यागः प्रवचनमातृत्यागः । अव्यक्तस्य- भावबालस्य । (अणत्थपरे०) || सम्यगेतद् विजानातीति योगः || शिशुर्हि जननीत्यागाद् विनश्यति (सिसुजणणि० ) ॥
अत्र-भावचिन्तायां (वियत्ते एत्थ० ) । एतत्प्रवचनमातृफलभूतो भावपरिणत्या || (एयफलभूते) ॥
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सम्यगेतदनन्तरोदितं विजानाति ( सम्ममेयं ० ) ॥ एतदेवाह - द्विधा परिज्ञा, बोध- तद्गर्भक्रियारूपा, ज्ञ-प्रत्याख्यानभेदात् (दुविहाए ) ॥
आश्वासप्रकाशरूपं द्वीपं दीपं च 'विजानातीति वर्त्तते । इह भवाब्धौ आश्वासदीपः, मोहान्धकारे प्रकाशदीपश्च । आद्यः स्पन्दनं प्लवनं तद्वान्, इतरश्च द्वितीयोऽपि स्थिराऽस्थिरभेदः । ( तहा आसासपयासदीवं) ||
असन्दीन- स्थिरौ तो क्रमात् क्षायिकज्ञान- चारित्ररूपौ तदर्थमुद्यच्छति (असंदीणथिरत्थमुज्जमइ ) ॥
फलं प्रति (अणूसगे) ॥ निःसपत्नश्रामण्यव्यापारः (असंसत्त०) | निर्वाणसाधिकां (भावकिरियं) |
व्याधितसुक्रियाज्ञातेन ( वाहियसुकिरियानाएण) || यद् तथा न कण्डूलकण्डूयनकारिवद् विपर्यस्तः (विण्णाया सरूवेण) || वेदनाया इति प्रक्रमः (निव्विण्णे०) ||
तं व्याधिं (तमवगच्छिय) । देवतापूजादिप्रकारत : (जहाविहाणओ) | आरोग्यप्रतिबन्धाद्धेतोः (तप्पडिबंधाओ ) ॥ शिरावेध - क्षारपात भावेऽपि व्याधिशमाद् यदारोग्यं तदवबोधेन इष्टस्यारोग्यस्य निष्पत्तेर्हेतोरनाकुलः ॥ (सिराखाराइजोगेण० इट्ठनिप्फत्तीओ) |
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तं सुगुरुं कर्मव्याधिं चाऽवगम्य पूर्वं तृतीयसूत्रोक्तविधानेन प्रतिपन्नः सुक्रियां - प्रव्रज्याम् (तमवगच्छिय पुव्वुत्त० ) ।।
चरणारोग्यप्रतिबन्धविशेषात् (तप्पडिबंधविसेसओ) |
कुशलाशयस्य क्षायोपशमिकभावस्य वृद्धया स्थिरः - चित्तस्थैर्येण सदास्तिमितो भावद्वन्द्वविरहात् प्रशान्तः (कुसलसिद्धीए थिरासयत्तेण ) ||
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__ गुरुं भाववैद्यकल्पम् । (गुरुंच बहु०)। कथम्? इत्याह-यथोचितम(?)स्नेहरहिततद्भावप्रतिपत्त्या (असंगपडिवत्तीए) । किमस्या उपन्यासः? इत्याहयतो निसर्गप्रवृत्तिभावेन हेतुना एषा असङ्गप्रतिपत्तिगुर्वी व्याख्याता (निसग्गपवित्तिभावेण०) ।। तथा भावसारा – औदयिकभावविरहेण विशेषतोऽसङ्गप्रतिपत्तिणुर्वीति । युक्त्यन्तरमाह - भगवंतेत्यादि । (भावसारा०) ॥
तदाज्ञा भगवदाज्ञा (तयाणा) । अन्यथा- गुरुबहुमानव्यतिरेकेण क्रियाउपधिप्रत्युपेक्षणादिरूपा, कुलटाउपवासादिका (अन्नहा किरिया०) । फलादन्यदफलं, मोक्षात् सांसारिकमित्यर्थः, तद्योगात् (अफलफलजोगओ) । यत आवतः संसार एव तत्त्वतस्त (त्फलं विरा)धनाविषजन्यम् । आवर्तो विशेष्यते -अशुभेति । (आवट्टे खु तप्फलं असुहाणुबंधे)॥
आयतो गुरुबहुमानः साद्यपर्यवसितत्वेन दीर्घत्वादायतो मोक्ष एव स गुरुबहुमानोऽवन्ध्यकारणत्वेन मोक्षं प्रति हेतुना (आयओ गुरु०) । यतश्चैवमत एष गुरुबहुमानोऽत्र शुभोदयः, प्रकृष्टतद० - शुभोदयानुबन्धः ॥ (एसेह सुहोदए पगिट्ठ०) ॥
अत्र - गुरुबहुमानसुन्दरत्वे (एत्थ) ॥
स तावदधिकृतप्रव्रजित एवंप्रज्ञो- विमलविवेकात् , एवंभावः - प्रकृत्या, एवंपरिणामः - सामान्येन गुर्वभावेऽपि क्षयोपशमान्माषतुषवत् (से एवंपण्णे०)। द्वादशमासप्रव्रज्ययाऽतिक्रामति सर्वदेवतेजोलेश्यां सामान्येन शुभभावरूपाम् (दुवालसमासिएणं०) ॥ एवमाह महामुनिः श्रीवीरः । तथा चागमः - "जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा एए णं कस्स तेउल्लेसं वीईवयंति ? । गो०, मासपरियाए समणे निग्गं[थे] वाणमंतराणं तेउल्लेसं वीइवयइ । एवं दुमासपरियाए · असुरिंदवज्जिआणं भवणवासीणं । तिमासपरिया० असुरकुमारिंदाणं, चउमा० चंदिमसूरवज्जिआ(अ)गहनक्खत्ततारारूवाणं जोइसिआणं, पंचमा० चंदिमसूरि०, छम्मा० सोहम्मीसाणाणं, सत्तमा० सणं० माहिदाणं ।" एवं कल्पद्विकवृद्धया - 'दस मा० आणय पाणय आरण अच्चुआणं, एक्कारसमा० गेविज्जाणं दे०, बारमा० अणुत्तरोववाइआणं" ।
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तेजोलेश्याऽत्र चित्तसुखलाभलक्षणा । ततः शुक्लः - अमत्सरी कृतज्ञः सदारम्भी हितानुबन्धः, शुक्लाभिजात्यश्चैतत्प्रधानो भवति । (सुक्को सुक्काभि०)। प्रायश्छिन्नकर्मानुबन्धः तद्वेदयन् नान्यद् बघ्नाति । प्रायोग्रहणादचिन्त्यत्वात् कर्मशक्तेः कदाचिद् बध्नात्यपि (पायं छिन्नकम्माणुबंधे) ॥
भगवद्वचःप्रतिकूल-संसाराभिनन्दिसत्त्वक्रियाप्रीतिरूपाम् (लोगसण्णं)।
लोकाचारप्रवाहनदीं प्रति (पडिसोयगामी) अनुस्रोतोनिवृत्तः, सदा शुभयोगः - श्रामण्यव्यापारसङ्गतः, एष योगी व्याख्यातो भगवद्भिः (एस जोगी०)।
यथागृहीतप्रतिज्ञ आदित आरभ्य सम्यक् प्रवृत्तेः । सर्वोप० निरतिचारत्वेन (सव्वोपहा०)॥
शुद्धभवस्याऽभवसाधकत्वे निदर्शनमाह - भोग० । न रूपादिविकलस्यैताः सम्यग् भवन्तीति । उक्तं च- "रूपं वयो वैचक्षण्य-सौभाग्य-माधुर्यैश्वर्याणि भोगसाधनम्" इति ।। ततस्ताः संपूर्णाः प्राप्नोति सुरूपादिकल्पाद् भवाद् भोगक्रिया इत्यर्थः ।। (तओ ता०) । अवि० कारणात् (अविगलहेउभावओ) ।। असंक्लि० (असंकिलिट्ठसुहरूवाओ) ।
न चान्या उक्तलक्षणभोगक्रियाभ्यः संपूर्णाः (न य अण्णा०) ॥ तत्त० संक्लेशादिभ्य अभयलोकापेक्षया भोगक्रियास्वरूपखण्डनेन (तत्तत्तखंडणेणं)।
एतत् ज्ञानमित्युच्यते (एयं नाणं ति वुच्चइ)। एतस्मिन् ज्ञाने सति शुभव्यापारनिष्पत्तिः उचितप्रतिपत्तिप्रधानाऽज्ञानालोचनेन (एयम्मि सुहजोगसिद्धी०)। अत्र भावः प्रवर्तकः, प्रस्तुतप्रवृत्तौ सदन्तःकरणलक्षणो न मोहः । अत एवाऽऽहअधिकृतप्रवृत्तौ प्रायो विघ्नो न विद्यते, सदुपाययोगाद् इत्यर्थः । एतद्बीजमेवाहनिरनुबन्धाशुभकर्मभावेन । सानुबन्धाऽशुभकर्मणः सम्यक् प्रव्रज्याऽयोगात् ।। आक्षिप्ताः -स्वीकृता एवैते योगा:-प्रव्रज्याव्यापाराः भावाराधनातः तथा जन्मान्तरे बहुमानादिप्रकारेण । तत आक्षेपात् सम्यक् प्रवर्त्तते, नियमनिष्पादकत्वेन । ततो निष्पादयत्यनाकुलः सन्निष्टम् ॥
निष्कलङ्गा-निरतिचारत्वेन ॥ निष्कलङ्कार्थो मोक्षः ॥ ततः शुभानुबन्धायाः सुक्रियायाः सकाशात् स प्रव्रजितः साधयति परं-प्रधानं परार्थ-सत्यार्थम् , परार्थसाधनकुशलः, तैस्तैर्बीज-बीजस्थापनादि प्रकारादिप्रकारैः सानुबन्धं परार्थम्।
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महोदयोऽसौ ॥ एतदेवाऽऽह - बीजबी० । बीजं सम्यक्त्वं, बीजबीजं तदाक्षेपकं शासनप्रशंसादि, एतन्न्यासेन ॥ कान्तिवीर्यादियुक्तः परं परार्थं प्रत्यवन्ध्यशुभचेष्टः, समन्तभद्रः सर्वाकारसम्पन्नतया ॥
तच्चिकित्सासामर्थ्यवत्त्वात् (रागामयवेज्जे ० ) ॥ संवेगसिद्धिकरस्तद्धेयोगेन ॥ सत्त्वसुखहेतुतया (अचिंत० ) ॥
प्रव्रजित एवं परंपरार्थसाधकः करुणादिभावतः (से एवं परंपरत्थ० ) || सर्वोत्तमं-तीर्थकरादिजन्म चरमभवहेतुं मोक्षहेतुमित्यर्थः (सव्वुत्तमं ) | अविकलपरपरार्थनिमित्तं - अनुत्तरपुण्यसम्भाराभावेन ॥
सिध्यति सामान्येनाऽणिमाद्यैश्वर्यं प्राप्नोति ॥ बुध्यते केवली भवति ॥ मुच्यते - भवोपग्राहिकर्मणा । परिनिर्वाति-सर्वतः कर्मविगमेन ॥ इति प्रव्रज्यापरिपालनाविधिवाच्यं सूत्रम् ॥४॥
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स(से) - प्रव्रज्याकारी एवं उक्तेन प्रकारेणाऽभिसिद्धः सन् परमब्रह्मरूपः सन्, मंग० गुणोत्कर्षयोगेन, जम्मज० निमित्ताभावेन । अनुबन्धशक्तिवर्जितोऽशुभमङ्गीकृत्य । स्वभावसंस्थितः - सांसिद्धिकधर्मवान् । ज्ञेयानन्तत्वाद् ज्ञानदर्शनयोरनन्तत्वम् ॥
अनित्थंस्थं संस्थानं यस्या अरूपिण्या: सत्तायाः सा तथा (अणित्थंत्थसंठाणा) । सर्वेच्छाव्यपगमेन (निरवेक्खा) । यतोऽसंयोगिक एष आनन्दः सुखरूपः अत एव निरपेक्षत्वादेव परो मतः (असंजोगिए एसाणंदे०) ||
अपेक्षाऽनानन्दः, औत्सुक्यदुःखत्वात् (अवेक्खा० ) || अपेक्ष्यमाणाप्त्या तन्निवृत्तौ दोषमाह - संजो० || अफलं फलमेतस्मात् संयोगात् (अफलं०) || तत्- सांयोगिकफलं (खु तं) । यतो मोहाद् विपर्ययोऽत एवाऽफले फलबुद्धिः (जमेत्तो ० ) । ततो- विपर्ययात् (तओ०) । एष मोहः (एस भाव० ) । तथाहि - "अन्नाणाओ रिवू अन्नो पाणिणं नेव विज्जइ ।
इत्तोऽसक्किरिआ तीए अणत्था विस्सओमुहा || १ || इत्यादि ॥ यदि संयोगो दुष्टः कथं सिद्धस्याऽऽकाशेन स न दुष्टः ?, इत्याशङ्क्याऽऽह - नाकाशेन संयोगोऽस्य सिद्धस्य । यतः स सिद्धः स्वरूपसंस्थित: (नागासेण
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जोगो एयस्स०)। कथमाधारमन्तरेण स्थितिः?, इत्याह-नाकाशमन्यत्राधारे । अत्रैव युक्तिमाह-न सत्ता सदन्तरमुपैति ।। निश्चयनयमेतत् । व्यवहारमतं त्वन्यथा । अभ्युच्चयमाह-वियोगवांश्च योग इति कृत्वा नैष योगः सिद्धाकाशयोरिति। भिन्नं लक्षणमेतस्याऽधिकृतयोगस्य ॥ न चात्राऽपेक्षा ।। सिद्धस्य लोकान्ताकाशगमनमित्याह-स्वभाव एवैष तस्य अनन्तसुखस्वभावकल्पः ।। अत्र-सिद्धसुखे (उवमा एत्थ०)। सिद्धसुखभावे सिद्धस्यैवाऽनुभव इति तत्त्वम् (तब्भावे०)॥ कथं तर्हि ज्ञायते ?, इत्याह-आणेत्यादि । रागाद्यभावात् (न वितहत्ते०)। न चाऽनिमित्तं कार्यम् । एवं स्वसंवेद्यं सिद्धसुखमित्याप्तवादः ॥
सिद्धसुखस्य निदर्शनमात्र नवरं प्राह-सव्वसत्तुक्खयेत्यादि । यादृशमेतत् सुखं तस्मादनन्तगुणं तत् सिद्धसुखम् ।। दार्श्यन्तिकयोजनामाह-रागादेत्यादि । परमलब्धयस्त्वर्थाः परार्थहेतुत्वेन । अनिच्छेच्छा इच्छा सर्वथा तन्निवृत्त्या । एवं सूक्ष्ममेतत्सुखम् । इतरेणाऽसिद्धेन ।।
न केवलं सिद्धसुखं साद्यादिभेदं किन्तु तेऽपि भगवन्तः-सिद्धा अपि एवं-एकसिद्धापेक्षया साद्यपर्यवसिताः ॥ समाने भव्यत्वादौ कथमेतदेवं ?, इत्याह-तथाभव्य० । तथाफलपरिपाकि इह तथाभव्यत्वम् । तथाफलभेदेनकालादिभेदभाविफलभेदेन ।। ननु (न तु)सहकारिभेदमात्रात् फलभेद:? | यतो नाऽविचित्रे तथाभव्यत्वादौ सहकारिभेदः । यतस्तदपेक्षस्तकः, अन्यथा तदुपनिपाताभावात् ; स खल्वनेकान्तवाद० एवं-तथाभव्यत्वादिभावे। इतरथा एकान्तः -सर्वथा भव्यत्वादेस्तुल्यतायाम् ।। मिथ्यात्वं एष-एकान्तः । नाऽतो व्यवस्थाएकान्तात् । भावाच्चाऽभेदे सहकारिभेदाऽयोगात् । अत एवाऽनार्हमेतद् - एकान्ता श्रयणम् ।।
प्रस्तुतप्रसाधकमेव न्यायान्तरमाह - संसारिण एव सिद्धत्वमित्यादि । अबद्धबन्धने चाऽमुक्तिर्मुक्क्यभावः, अबद्धत्वेन हेतुना । पुनर्बन्धप्रसङ्गात् , प्रागबद्धबन्धवत् ।। अनादिमति बन्धे मोक्षाभावस्तथा (स्तत्स्वा) भाविकत्वादित्याशङ्कानिरासायाऽऽह-अनादियोगेत्यादि ।
आदावबद्धस्य दिदृक्षा, बद्धमुक्तस्य तु न सेति दोषाभावाना(दा)दिमानेव बन्धोऽस्त्वित्याशङ्कापोहमाह- न दिदृक्षाऽकरणस्येन्द्रियरहितस्य । न चाऽदृष्टे
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एषा-दिक्षा ।। सहजैवैषेत्यारेकां निरस्यति - न सहजाया दिदृक्षाया निवृत्तिश्चैतन्यवत् । न च निवृत्तौ दिदृक्षाया आत्मावस्थानं, तदव्यतिरेकात् । नान्यथा तस्यैषा । तदव्यतिरेकेऽपि भव्यत्वस्येव तन्निवृत्तौ न दोष इत्याशङ्कां निरस्यति । न भव्यत्वतुल्या न्यायेन, दिदृक्षा। यतो न केवलजीवरूपमेतद्भव्यत्वम्। दिदृक्षा तु केवलजीवरूपेत्यर्थः ।। न भावियोगापेक्षया महदादिभावे तदाऽके-वलत्वेन तुल्यत्वं दिदृक्षाया भव्यत्वेन । अत्र युक्तिमाह-तदा केवलत्वेन भावि- योगाभावे सदाऽविशेषात् । तथा सांसिद्धिकत्वेन तदूर्ध्वमपि दिदृक्षापत्तिरिति भावः।। एवंस्वभावैवेयं दिदृक्षा, या महदादिभावाद् विकारदर्शने केवलावस्थायां निवर्तत इत्येतदाशंक्याऽऽह – तथास्वभावकल्पनं कैवल्याविशेषे प्रक्रमाद् दिदृक्षाया भावाभावस्वभावकल्पनमप्रमाणमेव । आत्मनस्तद्भेदापत्तेः । प्रकृतेः पुरुषाधिकत्वेन तद्भावापत्त्या । अत एवाह - एष एव दोषः प्रमाणाभावलक्षण: परिकल्पितायां दिदृक्षायामभ्युपगम्यमानायाम्।। तदेवं व्यवस्थिते सति परिणामभेदादात्मन इति प्रक्रमः, बन्धमोक्षादिभेद इत्येतत् साधु-प्रामाणिकम् । अत एवाह-सर्वनयविशुद्ध्या । उक्तसाधुफलं दर्शयति-निरुपचरितोभयभावेनप्रक्रमाद् बन्धमोक्षभावेन ॥
एवं द्रव्यास्तिकमाश्रित्य कृता निरूपणा । पर्यायास्तिकमाश्रित्याऽऽह - नात्मभूतं कर्म - न बोधस्वलक्षणमेवेत्यर्थः । न परिकल्पितं-असदेवैतत् । यतो नैव(वं)भ० । आत्मभूते परिकल्पिते वा कर्मणि बोधमात्राविशेषेण क्षणभेदेऽपि मुक्तक्षणभेदवन्न भवापवर्गविशेषः ।। ___न भवाभाव एव सिद्धिः-सन्तानोच्छेद-प्रध्यातप्रदीपोपमा । अत्र युक्तिमाह-तदु० अनु(त्पा)दः, तस्यैव, किं तर्हि ?, उत्पाद एव । यथाऽसौ सन्नुत्पद्यते तथाऽसन्नप्युत्पद्यतामिति को विरोधः?। यद्येवं, ततः किम् ?,इत्याह-नैवं समंजसत्वम् । कथम्?, इत्याह – एवं नाऽनादिमान् भवः, कदाचिदेव संतानोत्पत्तेः। तथा न हेतुफलभावः, चरमाऽऽद्यक्षणयोरकार्यकारणत्वात् । पक्षान्तरं निरस्यतितस्य तथा स्वभावकल्पनमयुक्तं, यतो निराधारान्वयत्वतो नियोगेन । अयमत्र भावार्थ:-स्वो भाव इत्यात्मीया सत्ता स्वभाव (व:) निवृत्तिस्वभाव इति (नि(रा)धारान्वयः । यद्वाऽन्वयाभाव(व:?)नियोगग्रहणं, अवश्यमिदमित्थं, अन्यथा
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शब्दार्थाऽयोगात् । एवमाद्यक्षणेऽपि भावनीयम् । अत एवाह-तस्सेव तहाभा०। तस्यैव तथाभावे युक्तमेतत् तथास्वभावकल्पनम् । सूक्ष्ममर्थपदमेतद् भावगम्यत्वाद् विचिन्तितव्यं महाप्रज्ञया, अन्यथाऽज्ञेयत्वात् ।।
आनुषङ्गिकमुक्त्वा प्रकृतमाह-अपज्ज०। अपर्यवसितमेव यु(मु ?)क्तेन प्रकारेण सिद्धसुखम् । अत एव चोत्तममिदम् । सर्वथाऽनुत्सुकत्वे सति अनन्तभावात् कारणात् । एषां वासः । हतो गंतेत्यादि (?)। .
अष्टमृल्लेपलिप्तजलक्षिप्ताऽधोनिमग्न-तदपा(प)गमोर्द्धवगमनस्वभावाऽलाबुवत् । आदेरेरण्डफलादिग्रहः ॥ तत्रैवाऽसकृद्गमनागमनेत्याह-नियमोऽत एवाऽलाबुप्रभृतिज्ञाततः ।।
अस्पृशद्गत्या गुणमहं (? गमन) सिद्धस्य सिद्धक्षेत्रं प्रति । उत्कर्षविशेषत इयं, गत्युत्कर्षविशेषदर्शनाद् , एवमस्पृशदन्तिः सम्भवति ।
अव्यवच्छेदो भव्यानामनन्तभावेन । एतदनन्तकं भव्यानन्तकं अनन्तानन्तकं न युक्तानन्तकादि । समया अत्र ज्ञातम् । तेषां प्रतिक्षणमतिक्रमेऽनुच्छेदः । (अव्वोच्छेदो०) ॥
एवं च सति भव्यत्वं योग्यतामात्रम् ।।
मोष(?)(मोक्ष?) सिद्धितः, तन्नीत्या तथा निश्चयाङ्गभावेन एव प्रवृत्त्याऽपूर्वकरणादिप्राप्तेः ॥
परिशुद्धस्तु केवलम् ॥ आज्ञायेषी (आज्ञापेक्षी) पुष्टालम्बनः ।
एषाऽऽज्ञा इह भगवत उभयनयगर्भा सर्वैव पञ्चसूत्रोक्ता वा । समं० सर्वतो निर्दोषा ॥ तिको० कष-च्छेद-तापपरिशुद्धया अपुनर्बन्धकादिगम्या ।। आदिशब्दान्मार्गाभिमुख-मार्गपतितादिग्रहः ।।
एअप्पि० आज्ञाप्रियत्वमुपलक्षणात् श्रवणाभ्यासादि खल्वत्राऽपुनर्बन्धकादिलिङ्गम् । एतदपि(प्यौ)चित्यप्रवृत्तिविज्ञेयं, तदाराधनेन तद्बहुमानात् । संवेगसाधकम् । यस्य भगवदाज्ञा प्रिया तस्य नियमतः संवेगः ।।
नैषाऽन्येभ्योऽपुनर्बन्धकादिव्यतिरिक्तेभ्यो देया । लिङ्गविपर्ययात् तत्परिज्ञा-संसाराभिनन्दिपरिज्ञा । किमिति न तेभ्यो देया?, इत्याह - तदनुग्रहार्थम्।
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आमकुम्भोदकन्यासज्ञातेन । एषाऽयोग्येभ्योऽप्रदानरूपा करुणोच्यते। एगंत० तदपायपरिहारेण । अत एवेयमविराधनाफला, सम्यगालोचनेन । न पुनर्लानाऽपथ्यदानकरुणावत् तदाभासा ।।
इयं च त्रिलो०(कनाथबहुमानेन) न तेन (?) हेतुना। निःश्रेयससाधिका सानुबन्धप्रवृत्तिभावेन ॥
प्रव्रज्याफलसूत्रम् ।।५।।
इति पञ्चसूत्रकावचूरिर्हारिभद्रीयसंक्षिप्तव्यारव्योपरिस्थिता श्रीमुनिसुन्दरसूरि महोपाध्यायपादैः ।।
सं. १९६२ कार्तिक शुक्ल १३ त्रयोदश्यां गुरुवासरे ॥
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त्रण जिनस्तोत्रो
-सं. विजयशीलचन्द्रसूरि फुटकळ ह.लि. पत्रोमांथी जडी आवेलां त्रण स्तोत्रकाव्यो अहीं प्रस्तुत छे. ते पैकी प्रथम बे तो गेय काव्यो छे. ते बन्नेना कर्ता मुनि रूपचन्द्र होवानुं तेमां गंथायेला नामाचरण द्वारा जाणी शकाय छे. तेमना समय के काव्योनो रचना समय जाणी शकातो नथी.
पहेलुं गीत पद्धडी छंदमां छे, अने बीजूं, तेना मथाळे मूकेल 'जय शिवॐकारा' ए ढाळमां छे, जे ढाळ / देशीना अभ्यासीओ माटे महत्त्वपूर्ण बनी शके तेम छे. बन्ने रचनाओ सरल छतां प्रासादिक अने प्रांजल संस्कृत पदावलीमां गुंफित छे, जे उपरथी कविनी क्षमतानो सहज अंदाज मळी आवे छे.
त्रीजुं स्तोत्र छंदोबद्ध छे. तेना कर्ता देवरत्न नामक जैन मुनि छे, अने आरंभमां करेला नमस्कार परथी ते श्रीविवेकरत्नसूरिना शिष्य हशे तेम मानी शकाय तेम छे. आ स्तोत्रमा चांपानेरपुरमण्डन अने पावागढ (पावकाद्रि) उपर बिराजता तीर्थंकर श्रीसंभवनाथनी स्तवना थई छे. पावागढ उपर हाले दिगम्बर समाजना कबजामा रहेलां जैन मंदिरो थोडाक दायकाओ पहेलां श्वेताम्बर संघना कबजामां हतां, अने वास्तवमां ते मंदिरो तथा तेमांनां बिंबो श्वेताम्बर परंपरानां ज छे, जे एक ऐतिहासिक अने धार्मिक तथ्य छे. ते मंदिरो पैकी कोई मंदिरमा मूळनायक तरीके संभवनाथनी प्रतिमा हशे, तेमनी आमां स्तवना थई छे.
जे पत्रमा आ स्तोत्र हतुं, ते संभवत: सोळमां शतकनुं हतुं ; तेथी आ स्तोत्ररचना सोळमा शतकनी के कदाच ते पूर्वेनी होवानुं अनुमान छे.
(१)
छंद पद्धडी ॥ जय वीतमोह ! जय वीतदोष ! जय वीतलोभ ! जय वीतरोष ! ॥ जय वीतराग ! देवाधिदेव ! मम भवतु नाथ ! तव शरणमेव ॥१॥ आंकणी ॥
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जय वीतमान ! जय वीतमाय ! जय शान्तिकान्त ! विगेतान्तराय ! ॥२॥ जय० ॥ जय निर्विकार ! भवनिःप्रचार ! जय कर्मकन्द कल्पनकुठार ! ॥३॥ जय० ॥ जय निर्विकल्प ! विमलावलोक ! जय वीतकाम ! जय वीतशोक ! ॥४॥ जय० ॥ जय विश्वनाथ ! विशदात्मरूप! जय सिद्ध रूपचन्द्राभिरूप! ॥५॥ जय० ।।
इति समस्तजिनस्तुतिः ॥
(२)
ढाल जय शिवॐकारा । एहनी ॥ जय जनतारक हे ! जगदाधारक हे २ ! जय जय कमठतपोमदभंजक ! भुजगोद्धारक हे ! जय जय जय जय जय जिनदेव ! ॥१॥ आंकणी ।। जय जय सकलसुरासुरसेवित ! जय जगदीश्वर हे ! २ । जय जय भवनिर्विण्णजनाश्रितचरणेन्दीवर हे !
जय ४ जय जिनदेव ! ॥२॥ जय जय जन्मजरामरणोत्कटसंकटवारण हे ! २ ।। जय जय दुरितनिदाघविघातनघनसाधारण हे ! जय० ॥३॥ जय जय लोकालोकविलोकनकेवललोचन हे ! २ । जय जय भव्यसमूहसरोरुहबोधविरोचन हे ! जय० ॥४|| जय जय चारुविहारपवित्री-कृतभुवनोदर हे ! २ । जय जय मधुररणत्सुरदुन्दुभिभणितयशोभर हे ! जय० ॥५॥
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जय जय कनकरजतमणिवरणत्रयमध्यासित हे । २। जय जय मरकतनिचितहरितकरनिकरोद्भासित हे ! जय० ॥६॥ जय जय वसुधामण्डलमण्डन ! वामानन्दन हे ! २। जय जय दुर्मतवननि:कन्दन ! नयनानन्दन हे ! जय० ॥७॥ जय जय वीतराग ! रागाद्यरिवारविदारण हे ! २ । जय जय बोधिरूपचन्द्रोदयनिरुपमकारण हे ! जय० ॥८॥
इति श्रीपार्श्वजिनलघुस्तवनम् ।।
(३)
श्रीविवेकरत्नसूरिगुरुभ्यो नमः ॥ महाप्रातिहार्यश्रिया शोभमानं सुवर्णादिरत्नत्रयीदीप्यमानं । स्फुरत्केवलज्ञानवल्लीवसन्तं स्तुवे पावके भूधरे शंभवं तम्
॥१॥ कलाकेलिकेलीविनाशैकदक्षं समस्ताङ्गिनां प्रार्थिते कल्पवृक्षम् । त्रिलोकीतले पापपूरं हरन्तं स्तुवे पावके भूधरे शंभवं तम् महाभाग्यसौभाग्यभङ्गीधरं तं स्तुवे० ॥ २ ॥ महामोहसर्पप्रणाशे सुपर्णं प्रभामण्डलोल्लासिगाङ्गेयवर्णम् । सुधासोदरोल्लासिवाणीविलासं प्रमादादिविद्वेषिदत्तप्रवासम् । त्रिलोकीस्थितान् सर्वभावान् विदन्तं स्तुवे पावके भूधरे शंभवं तम्
।। ४ ।। (? ३॥)
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स्थितं पुण्डरीकाचलस्यावतारे - ऽखिलक्ष्माधरश्रेणिशृङ्गारहारे । तृतीयं जिनं कुन्ददन्तं भदन्तं स्तुवे पावके भूधरे शंभवं तम् ॥ ५ (? ४) । प्रभो ! मज्जता भीमसंसारकूपे मया देव ! लब्धोऽसि दु:खैकरूपे । दृढालम्बनं यस्त्वमेवोल्लसन्तं स्तुवे पावके भूधरे शंभवं तम् ॥६ (५) ॥ ददास्यङ्गिनां देव ! सर्वार्थसिद्धिं हरस्युग्रमिथ्यात्वमोहादिबुद्धिम् । अतोऽभीष्टदो यस्त्वमेवोल्लसन्तं स्तुवे पावके भूधरे शंभवं तम् ॥७ (६)॥ प्रभो ! देवरत्नं मया लब्धमद्य समासादितः कल्पवृक्षोऽपि सद्यः । यतः प्रापि भाग्योदयैर्यो भवन्तं स्तुवे पावके भूधरे शंभवं तम् ॥८ (७)॥ चांपानेरपुरावतंसविशदश्रीपावकाद्रौ स्थितं सार्वं शंभवनायकं त्रिभुवनालङ्कारहारोपमम् । इत्थं यो गुरुभक्तिभावकलितः संस्तौति तं वृण्वते ताः सर्वा अपि मङ्गलोत्सवरमा भोगान्विताः सम्पदः ॥९ (८)॥
इति श्रीपावकपर्वतमण्डन शंभवजिनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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श्रीहीरविजयसूरिकृता चतुरर्थी वीरस्तुतिः अज्ञातकर्तृकावचूरियुता
- सं. मुनि धुरन्धरविजय
नोंध : जगद्गुरु श्रीहीरविजयसूरिए रचेल एक - पद्यात्मक वीरस्तुति नी अज्ञातकर्तृक अवचूरि एक प्रकीर्ण पत्रमां प्राप्त छे. तेना आधारे आ मूळ पद्यनुं संकलन करेल छे. एक ज पद्यना चार अर्थ थाय ते विशिष्ट काव्यकौशल्य
गणाय.
वीरस्तुतिः
विज्ञानपारगत बालकवीरमानमातङ्गमुक्तममतागमदानतारि ! ॥ कामं तमोहरतरो परसत्पयोजे !
सूरीशहीरविजयस्य भव प्रसन्नः ॥ १ ॥
अवचूरिः
श्रीभगवत्यै नमः
विज्ञान ० व्याख्या | विज्ञाः - निपुणाः, ना:- प्राणिनः, तान् पालयसिरक्षसीति विज्ञानपालः (पार: ) । र-लयोरैक्यत्वात् । तत्संबोधने ॥
तथा गता बाला-ब-वयो र-लयोरैक्यत्वात्- केशा विद्यन्ते यस्य स गतबालो, व्रते गृहीते कचोत्पत्त्यभावत्वात् । स्वार्थे क प्रत्यये गतबालकः, तत्संबो० ॥ तथा मानं - गर्व:, तदेव मातङ्गो - हस्ती, अत्युत्कटत्वात् । तेन मुक्तो वर्जितः। तथा ममता-ममत्वं, तां गमयसि - निवारयसीति ममतागमः, तत्सं० ॥ तथा दं- वैराग्यं विद्यते यस्य स दस्तत्सं० ॥ तथाऽऽनता-प्रणता अरयो - वैरिणो विद्यन्ते यस्य स आनतारिः, तत्सं० ॥ तथा तमोऽज्ञानं अतिशयेन हरसीति तमोहरतरः तत्सं० ॥ न विद्यन्ते परे - वैरिणो यस्य सोऽपरः, तत्सं० ॥
तथा सत्-1 - विद्यमानं पयोजं - कमलं विद्यते यत्र स सत्पयोजः, हस्तपादादिषु कमलाद्याकारत्वात् ।
तथा ई:- लक्ष्मीः, तां सूते इति ईसूः, तत्सं० ॥
तत्सं०॥
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तथा हे ईश - स्वामिन् ! ॥ [हि-निश्चितं,] तथा ईं लक्ष्मी, रासीति ईरः, तत्सं० ।। तथा नास्ति भवः-संसारो यस्य स अभवः, तत्सं० ।।
एवंविध हे वीर! हे वर्द्धमान ! त्वं हि-निश्चितं, काम-अभिलाषः तत् । . जयसि-विजयसे इति क्रियाकारकसम्बन्धः । कथंभूतं कामं ?। वः कलहो विद्यते यत्र तद्विकलहकर्तृत्वात् (?)। कथंभूतस्त्वं !, प्रसन्नः शुभ इति वीरस्तुतिः ॥ १ ॥ प्रथमोऽर्थः ।।
वि० व्याख्या ।। विशिष्टं ज्ञानं विद्यते यस्य स विज्ञानः, तत्सं०॥ तथा कं सुखं विद्यते यस्य स कः, तत्सं०॥
तथा हे वीर ! शूर !, तथा मानो गर्वस्तद्रूपो यो मतङ्गः-नीचस्वभावात् चाण्ड(ण्डा)लः तेन मुक्तो वर्जितः, तत्सं० ॥
तथा ता-लक्ष्मी: - रलयोरैक्यत्वात् - तस्य आगमो-आगमनं विद्यते यस्य स तागमः, तत्सं० ॥
तथा दानं-उत्सर्गः, तस्य ता - लक्ष्मी:, तस्या आलि:-श्रेणिविद्यते यस्य स दानतालिः, तत्सं० ॥ .
तथा विजयो-जयः, तस्य तरुः (वृक्ष), तत्सं० ॥ तथा हे पर!-हे सर्वोत्कृष्ट ! ॥ .. तथा सतामुत्तमानां पासि-रक्षसीति सत्पः, तत्सं० ।। • तथा आः - ब्रह्मा-विष्णु-महेशाः, तेषां जिर्जेता अजिः, तत्सं०।।
तथा सूरयः -पण्डिताः, तेषां ईशा: -स्वामिनः, तेषु मध्ये हीर इव हीरः . सूरीशहीरः, तत्सं० ॥
तथा भवं-श्रेयः प्रासि-पूरयसीति भवप्रः, तत्सं० ।।
तथा हे सन् ! –उत्तम !, एवंविध हे पारगतवार ! - तीर्थंकरसमूह !, त्वं काममत्यर्थं मम-मे, तमोऽज्ञानं, हर-निवारय, इति क्रियाकारकसम्बन्धः ।
कथंभूतः सः या-लक्ष्मीविद्यते यस्य स यः, तत्सं०।। पुनर्नः ज्ञानं विद्यते यस्य स नः, तत्सं० ॥
इति सर्वतीर्थंकरसाधारणस्तुतिः ॥ २ ॥ द्वितीयोऽर्थः ।
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विज्ञान० व्याख्या | विज्ञानं-कला, तस्य पारो विद्यते यस्मात् स विज्ञानपार: तत्सं० ॥
तथा गतः वः - कलहो विद्यते यस्य स गतवः, तत्सं० ॥
तथा नास्ति र: - कामो येषां ते अराः, एवंविधा ये कवयः - कवितार:, तेषां ई-लक्ष्मी रासि-ददासीति अरकवीरः, तत्सं० ॥
तथा मां-लक्ष्मी नयसि -प्रापयसीति मानः, तत्सं० ॥
दानं-क्षयः तद्रूपो यो(य:) तालो वृक्षविशेषः-रलयोरैक्यत्वात्-तस्मि[न्] मतङ्गो-हस्ती । यथा हस्ती वृक्षमुन्मूलयति तथा त्वमपि क्षयं निवारयसि, तत्सं० ॥
तथा मुक्ता मा-लक्ष्मी: यैस्ते मुक्तमाः - साधवः, तेषां मत-इष्टः मुक्तममतः, तत्सं० ॥
तथा त:-युद्धं, मोहो-मोढ्यं, रतं-मैथुनं, तेषां लोपो नाश:-रलयोरैक्यत्वात्-, तं रासि-ददासीति तमोहरतलोपरः, तत्सं० ।।
तथा सन्-विद्वान् , तद्रूपं यत् पयोज-कमलं तत्र सूरिस्तरणिः, एवंविधः सन् ईशः-स्वामी सत्पयोजे सूरीशः, तत्सं० ।।
तथा इ:-कामः, तं ईरयन्ति-प्रेरयन्तीति ईराः, तेषां विजयो विद्यते यस्मात् स ईरविजयः, तत्सं० ॥
तथा भवं श्रेयो विद्यते यस्य स भवः, तत्सं० ।।। तथा प्र-प्रकर्षेण सन्-विद्यमानः प्रसन्, तत्सं० ।।
एवंविध हे आगम ! हे सिद्धान्त ! त्वं नोऽस्माकं काम-कन्दर्पं हि निश्चितं स्य-छेदय, इति क्रियाकारकसम्बन्धः ।
इति सिद्धान्तस्तुतिः ॥ ३ ॥ तृतीयोऽर्थः ।।
विज्ञान० व्याख्या ।। विज्ञानं-कला तस्य पार:-प्रान्तः, तं गच्छसि इति विज्ञानपारगः, तत्सं० ॥ ... तः-युद्धं, तं वारयसि-निवारयसीति तवारः, के तवारकः, तत्सं० ॥
तथा वीरा:-शूराः, तेषु मानः-पूजा विद्यते यस्य स वीरमानः, तत्सं०॥
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तथा मुक्ता-त्यक्ता ममता-ममत्वं येन स मुक्तममतः, तत्सं० ।।
तथा[आ-] समन्तात् गमस्य-ज्ञानस्य दानं-उत्सर्गो विद्यते यस्य स आगमदानः, तत्सं० ।।
तथा ता-लक्ष्मीः, तस्याः आलि: -रलयोरैक्यत्वात्-श्रेणिः विद्यते यस्य स तालिः, तत्सं० रलयोरैक्यत्वात् ।।
तथा तमः हन्तीति तमोह: अर्थात् धर्मः, तत्र रता-आसक्ताः तेषां लोपोऽर्थात् कष्टं, स एव रोऽग्निः, तत्र सत्-शोभनं पयो-नीरं तमोहरतलोपरसत्पयाः, तत्सं० ॥
तथा जिर्जेता, तत्सं० ॥
एवंविध हे मातङ्गयक्ष! त्वं काममत्यर्थं सूरीशहीरविजयस्य श्रीहीरविजयसूरेः प्रसन्नो भव, इति क्रियाकारकसम्बन्धः ।। इति यक्षस्तुतिः ॥ ४ ॥ चतुर्थोऽर्थः ।।
इति अवचूरिः ॥
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पञ्चसूत्रना कर्ता कोण, चिरन्तनाचार्य के आ. हरिभद्र ? - विजयशीलचन्द्रसूरि
पञ्चसूत्र ए जैन साधुओमां सैकाओथी अत्यंत आदर प्राप्त करनारो ग्रंथ छे. आत्माना ऊर्ध्वकरणनी अने चित्तशुद्धिनी, एमां रजू थयेली तात्त्विक / आध्यात्मिक, अनुभूत अने व्यवस्थित प्रक्रियाने कारणे, प्राकृत भाषामां ट्रंकां वाक्यो द्वारा निखरती रमणीयता धरावतो आ ग्रंथ, कदमां नानो होवा छतां तेनी लोकप्रियता बहु मोटी छे.
आ लघु ग्रंथ उपर श्रीहरिभद्रसूरि महाराजे नानी पण सरस अने सरळ वृत्ति रची छे. जेनां विविध संस्करणो प्रसिद्ध थयां छे, अने तेनुं संशोधित संस्करण, ' दिल्हीथी प्रगट थयुं छे.
चित्तशोधन अने आत्मसाधनाना मार्गना साधको माटे कायम आकर्षणनुं केन्द्र बनी रहेनार आ पंचसूत्र परत्वे विचित्र बाबत ए छे के तेना कर्ता कोण ए अद्यावधि अज्ञात ज रह्युं छे. तेना कर्ता अंगे कोइए विशेष लक्ष्य आपीने संशोधनना दृष्टिबिंदुथी विचारणा पण करी नथी; बल्के परंपराथी चाली आवती 'आ कृति चिरंतनाचार्ये रची छे' तेवी वातने ज प्रामाणभूत हकीकत सौए मानी लीधी छे. जो के 'चिरन्तनाचार्य' शब्दना अर्थमां बे अभिप्रायो पड्या छे : १. चिरन्तन एटले प्राचीन आचार्यनी रचना अने २. 'चिरन्तन'' नामना कोइ आचार्यविशेषनी रचना. परंतु आ बेमां प्रथम अर्थघटनने ज सार्वत्रिक स्वीकृति मळी छे.
आ ग्रंथना कर्तृत्व विशे बहु थोडो ऊहापोह थयो छे खरो, पण तेमां दरेक ऊहापोह करनार, छेवटे, 'आ अज्ञातकर्तृक छे' तेवा निष्कर्ष पर आवीने अटकी गया छे. आपणे ते दरेक अभिप्रायो, शरूआतमां ज, जोवा जोईए.
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(१) प्रो. वी. एम. शाह, तेमणे करेला पञ्चसूत्र ना संपादननी भूमिकामां वातो / कल्पनाओ आ प्रमाणे निर्देशे छे :
1. It is composed according to him by चिरन्तनाचार्य - meaning ancient preceptors or preceptor with the name fa. The first meaning is more likely. It is difficult to assign individual authorship to books like this.
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2. The term FELTER: does not help us much in deciding the authorship. The plural form can be used out of respect for the author. At the same time it is very likely that ancient authors might have composed sūtrās and Haribhadrasūri might have put them together.
(?) w. gs. al. 379iah od ;
The Pañcasūtra which is a small elegant treatise written by some old writer whose name has still remained unknown.
(3) W. SŤ. T. TH. 34781 Titu;
It is not possible to talk of individual authorship with regard to works like Pañcasūtra. The basic contents of this book are as ald as Jainism. They are a literary heirloom preserved in the memory of jain monks."
(8) 377 . a. 74. godo ust PYET HTET me so
The language of post-canonical Jain works in partly Prakritthe so called-Jaina Mahāras Tri and partly Sanskrit. The language of the known Prakrit works of Haribhadra is Jaina MaharasTri whereas the present work is written in Ardhamāgadhi prose; and this prose shares quite a few pecularities of the diction and style of the canonical works. This fact suggests that Acāryā Haribhadra was possible not its author. It is not unlikely that the author of Pañcasūtra regarded the contents of the text as the property of the entire Jaina Samgha and preffered to remain anonymous. It is also suggestive of its early date of composition. How early it is diffcult to say. Since Haribhadra does not know who its author was. We may not be far wrong in saying that it was composed about a century or so before Acāryā Haribhadra flourished.
उपरना चार अभिप्रायोनो सार ए छे के आ चारेय विद्वानो, पञ्चसूत्रना कर्ता आ.हरिभद्रसूरिजी नथी ए बाबतमां स्पष्ट छे अने एक मत धरावे छे. तो मुनि श्रीजंबूविजयजी पञ्चसूत्र ना कर्ता तरीके आ.हरिभद्रसूरिजी संभवित
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होय तो ना नहि एवं वलण धरावता होवा छतां, स्पष्ट प्रमाणोना अभावमां ते अंगे स्पष्ट विधान न करतां, 'चिरन्तनाचार्यरचित' एवी परंपराने ज यथावत् स्वीकारे छे.
विद्वानोनां आ मंतव्यो तथा आरूढ परंपरानी सामे मारुं स्पष्ट विधान छे के पञ्चसूत्रना कर्ता स्वयं आ.हरिभद्रसूरिजी ज छे, अने बीजु कोइ ज नहि ज. मारा आ विधानना समर्थनमा हुं केटलांक, अंतरग-बहिरंग परीक्षणो रजू करीश.
१. पंचसूत्रनी टीकानी समाप्ति थाय छे त्यां, छेवटे, त्रण वाक्यो आवे छेः 'प्रव्रज्याफलसूत्रं समाप्तम् । एवं पञ्चमसूत्रव्याख्या समाप्ता ॥ समाप्तं पञ्चसूत्रकं व्याख्यानतोऽपि ॥८
आ त्रण वाक्योमा त्रीजुं वाक्य खास ध्यान आपवाजोग छे. आ त्रीजुं वाक्य टीकाकारनुं छे, अने तेथी ते खरेखर 'समाप्तं पञ्चसूत्रकं व्याख्यानतः' ए रीते; अने वस्तुतः जो टीकाकार अने सूत्रकार जुदा ज होय तो 'समाप्ता पञ्चसूत्रकटीका' आq ज होवू जोइतुं हतुं. ज्यारे अहीं तो 'समाप्तं पञ्चसूत्रकं व्याख्यानतोऽपि' एवं वाक्य छे, ए अने एमांनो छेवटे मूकायेलो 'अपि' शब्द सूचक महत्त्व धरावे छे. ए 'अपि' सूचवे छे के 'पञ्चसूत्रक व्याख्यारूपे पण पूर्ण थयुं ; अर्थात् , ते मूळसूत्ररूपे तेम ज व्याख्यारूपे – बन्ने रूपे समाप्त थडे.' आमांथी जो 'अपि' शब्द काढी लइए, तो एवो अर्थ थशे के ‘पञ्चसूत्र व्याख्यारूपे समाप्त थयु' एक 'अपि' शब्द वधे छे ने आखो अर्थ-संदर्भ बदलाई जाय छे. ए सूचवे छे के जो टीकाकार अने सूत्रकार बे अलग व्यक्ति होत तो आवो प्रयोग - आq वाक्य कदी थइ शके नहि; बन्ने-सूत्र अने टीकाना प्रणेता एक/अभिन्न व्यक्ति होय तो ज आq वाक्य ते प्रयोजी शके. हवे टीकाकार कोण छे ते तो नक्की ज़ छे. एथी एमने ज सूत्रकार पण मानीए तो ज आवो वाक्यप्रयोग सुसंगत बने.
कोइ एम कही शके के मूळ सूत्रनी समाप्ति थई त्यां सूत्रकारे जेम 'समत्तं पंचसुत्तं'' ए वाक्य सूत्रसमाप्ति सूचववा माटे प्रयोज्युं छे तेम अहीं, ते वाक्यना अनुसंधानमां, टीकाकारे, टीकासमाप्ति सूचववा माटे आ वाक्य प्रयोज्यु
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छे. तेथी तेने मूळ सूत्र अने तेना कर्ता साथे सांकळवानुं बराबर नथी.
आना जवाबमां एटलुं ज कही शकाय के आवुं होय तो टीकाकार, उपर कहेवायुं छे तेम, 'समाप्तं पञ्चसूत्रकं व्याख्यानतः ' के 'समाप्ता पञ्चसूत्रककटीका' एटलुं ज कही शक्या होत, ने ते ज उचित पण गणात. वळी, आगळ उपर 'पञ्चसूत्रकटीका समाप्ता १० एवं स्वतंत्र वाक्य - टीकाकारे जलखेलुं- आवे तो छे. ए वाक्यने लीधे पेला वाक्य (समाप्तं पञ्चसूत्रकं व्याख्यानतोऽपि) नो आखोय संदर्भ आपो आप बदलाइ जाय छे, अने टीकाकारे लखेलुं ए वाक्य, टीकाकार अने सूत्रकारनी अभिन्नतानुं स्पष्ट सूचन आपे छे. आम छतां, आगळ आवनारा मुद्दाओना परिप्रेक्ष्यमां आ वात विचारीशुं, तो आ शंका अस्थाने होवानुं समजी शकाशे.
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बीजी वात, मूळ सूत्रकारे तो 'समत्तं पञ्चसुत्तं' एवो शब्दप्रयोग कर्यो छे, एमां 'पञ्चसूत्र समाप्त थयानो निर्देश छे, 'पञ्चसूत्रक' नहि. हवे टीकाकार तो लखे छे के 'समाप्तं पञ्चसूत्रकं', अन्यत्र पण सर्वत्र १२ टीकाकार आ रचनाने पञ्चसूत्रक तरीके ज ओळखावे छे. तो शुं मूळकारे आपेल नाम साथे हरिभद्रसूरि जेवा समर्थ विवरणकार आ रीतनी छूट ले खरा ? एवी छूट लेवानुं उचित गाय खरुं ? बल्के तेमना जेवा प्राचीन विवरणकार तो मूळ सूत्रकारना अक्षरे-अक्षरने वळगीने ज चाले. अने तेथी ज अनुमान करी शकाय छे के जो टीकाकार स्वयं सूत्रा प्रणेता होय तो ज, पोतानी लखेली वातमां पोते यथेच्छ उमेरो करी शके ए न्याये, मूळ सूत्रने 'पंचसुत्त' एवं नाम पोते ज आप्युं होय तो टीकामां अने टीकाना अंते 'पञ्चसूत्रक' एवं नाम आपी शके.
२. 'समाप्तं पञ्चसूत्रकं व्याख्यानतोऽपि' ए वाक्यनी पछी, टीकाकारे केलांक भावसभर वाक्यो मूक्यां छे: 'नमः श्रुतदेवतायै भगवत्यै । सर्वनमस्कारार्हेभ्यो नमः । सर्ववन्दनार्हान् वन्दे । सर्वोपकारिणामिच्छामो वैयावृत्त्यम् । सार्वानुभावादौचित्येन मे धर्मे प्रवृत्तिर्भवतु । सर्वे सत्त्वाः सुखिनः सन्तु सर्वे सत्त्वाः सुखिनः सन्तु सर्वे सत्त्वाः सुखिनः सन्तु ॥१३ विवरणकारोनी ए परंपरा रही छे के तेमनुं काम सूत्रकारे के ग्रंथकारे
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वर्णवेली वातोनुं अक्षरशः विवरण करवानुं ज छे. ए काम पूरुं थाय एटले समाप्तिसूचक पद्य/पद्यो के पंक्तिओ लखीने टीकाकार विरमी जता होय छे ; पण ए पछी ए-विवरणकार पोताना तरफथी कांई पण उमेरो करवानुं साहस कदी करता नथी. खुद आ.हरिभद्रसूरिजीए पोताना ज 'योगदृष्टिसमुच्चय' अने ‘पञ्चवस्तुक' जेवा ग्रंथोनी स्वोपज्ञ विवृतिओमां पण आवी छूट लीधी नथी, के 'अष्टकप्रकरण' के 'षोडशकप्रकरण' नी टीकामां तेना समर्थ टीकाकारोए पण आवी छूट लीधी नथी. आथी उपर सूचवेली परंपरानो ख्याल आपणने मळी शके छे. __आ परंपराथी तद्दन ऊलटुं, पंचसूत्र नी टीका पूरी थया पछी श्रीहरिभद्राचार्ये, भले संस्कृतमा ज पण, मूळ सूत्रनी हरोळमां मूकी शकाय तेवी शैलीए आ छ जेटलां वाक्यो मूक्यां छे. आ वाक्यो ‘पञ्चसूत्र' ना प्रथम 'पापप्रतिघातसूत्र' ना अंतिम-पंदरमा गद्यखंड 'नमो नमियनमियाणं । १४ साथे सरखावीए तो, बन्नेनी शैलीमां अने रजूआतमां, भाषाभेदने बाद करतां, कोई ज तफावत जडे तेम नथी. तेमांय टीकागत गद्यखंडमांगें सर्वनमस्कारार्हेभ्यो नम:'१५ ए वाक्य तथा 'सर्वे सत्त्वाः सुखिनः सन्तु (३ वार) '१६. ए वाक्य तो अनुक्रमे, सूत्रगत गद्यखंडनां 'नमो सेस (अहीं नमोऽसेस होय तो बहु रोचक अने सुसंगत लागे) नमोक्कारारिहाणं'१७ ए वाक्यनी तथा 'सुहिणो भवंतु जीवा'१८ आ वाक्यनी छायारूप ज लागे छे.
आ बाबत स्पष्टपणे एम मानवा प्रेरे छे के श्रीहरिभद्रसूरि महाराज ज मूळ सूत्रना पण कर्ता छे अने तेथी ज तेमणे, भावविभोर क्षणोनी अनुभूति करतां करतां, टीकामां पण आ गद्यखंड उमेर्यो छे. जो पोते सूत्रकार न होत पण फक्त टीकाकार ज होत तो तेमणे आवी छूट न लीधी होत, एम कहेवू वधु पडतुं नथी लागतुं.
___३. सत्तरमा-अढारमा सैकामां थयेला, समर्थ तार्किक अने ‘लघु हरिभद्र' एवं बिरुद मेळवनार महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी गणिए, तेमना 'धर्मपरीक्षा' नामे ग्रंथमां, ज्यारे पञ्चसूत्र नी साक्षी लेवानो अवसर उपस्थित थयो त्यारे, तेने
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माटे आ रीते वाक्य मूक्युं छे : पापप्रतिघातगुणबीजाधानसूत्रे हरिभद्रसूरिभिरप्येतद्भवसम्बन्धि भवान्तरसम्बन्धि वा पापं यत्-तत्पदाभ्यां परामृश्य मिथ्यादु-ष्कृतप्रायश्चित्तेन विशोधनीयमित्युक्तम् । तथा हि- 'सरणमुवगओ अ एएसि.... इत्थ मिच्छामि दुक्कडं ३॥१९ .
(अर्थात् , हरिभद्रसूरिए पण, आ भव संबंधी अने भवांतर संबंधी पापनो 'यत् तत्' पदो वडे परामर्श करीने तेने मिथ्यादुष्कृतरूपी प्रायश्चित्त द्वारा शोधवानुं छे एम कर्तुं छे. ते आ रीते-'आम कहीने आ पछी पंचसूत्रना प्रथम सूत्रनो एक गद्यखंड मूक्यो छ अने ते पछी तेनुं अर्थघटन उपाध्याय श्रीयशोविजयजीए पोतानी रीते कर्यु छे ते छे.) . उपर जणावेला पाठमां श्रीयशोविजयजीए ‘पापप्रतिघातगुणबीजाधानसूत्रवृतौ श्रीहरिभद्रसूरिभिरप्युक्तम्' एम स्पष्ट लख्युं छे, पण 'पापप्रतिघातगुणबीजाधानसूत्रवृत्तौ' के 'पञ्चसूत्रवृत्तौ' एवं नथी लख्युं ते नोंधपात्र मुद्दो छे. आ सूचवे छे के यशोविजयजी पासे कोइ एवी खातरीभरेली परंपरा विद्यमान हशे के जेमां पञ्चसूत्र हरिभद्रसूरिनी रचना होवानुं स्पष्टतया प्राप्त होय. ए सिवाय तेओ सहेलाइथी, वगरविचार्ये आq मानी ले अने आवो वाक्यप्रयोग करे ते संभवित नथी लागतुं.
४. पञ्चवस्तुक, पञ्चसूत्रक, अष्टक, षोडशक, विंशिका, पञ्चाशक - आ प्रकारनां नामो ए जैन साहित्यजगतमा मात्र हरिभद्राचार्यना ज फाळे जती विशेषतारूप छे. बीजा कोई पण कर्ताए आ प्रकरण ने 'पञ्चसूत्र' के 'पञ्चसूत्री' नामे ज ओळखाव्युं होत. पञ्चसूत्रक नाम हरिभद्रसूरिजीने ज सूझे. पञ्चसूत्रक नी व्युत्पत्ति अंगे मार्गदर्शन आपतां मुनि श्रीजंबूविजयजी लखे छे के -
'आ.हरिभद्रसूरिजी महाराजे रचेला एक ग्रंथ, नाम व्यवहारमा ‘पञ्चवस्तु' ए रीते प्रचलित छे, छतां तेमणे तो तेनुं ‘पञ्चवस्तुक' नाम राखेखें छे, अने तेनी व्युत्पत्ति पण ए रीते ज तेमणे दर्शावेली छे. जुओ आ पंचसूत्रक ग्रंथमां पृ. ८० टि. ५. 'पञ्चसूत्रक' शब्दनी व्युत्पत्ति तथा अर्थ पण ए रीते ज समजी लेवाना छे.२०
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आ मार्गदर्शन, उपर नोंधेली मारी कल्पना के 'आवां नामो तो हरिभद्राचार्यनीज विशेषतारूप छे.' तेने ज प्रोत्साहन आपनारुं छे.
५. सौथी महत्त्वनी बाबत ए छे के आपणे 'पञ्चसूत्र' नां तथा हरिभद्रसूरिजीए रचेला अन्य ग्रंथोमां आवतां वाक्यो, वाक्यखंडो अने शब्दोनुं शाब्दिक अने आर्थिक साम्य तपासवुं जोईए. आ प्रकारनुं अंतरंग परीक्षण आ ग्रंथना कर्तृत्व अंगे निर्णय लेवामां सबळ सहायक साधन साधन बनी शके. आथी आपणे 'पञ्चसूत्र' ना केटलाक अंशोनी शक्य एटली तुलना हरिभद्रसूरिरचित 'विंशतिविंशिका', 'धर्मबिन्दु', 'योगदृष्टिसमुच्चय', 'षोडशक' इत्यादि ग्रंथोना अंशो साथे करीए :
१. 'पञ्चसूत्रक' ना चतुर्थ सूत्रमां 'व्याधितसुक्रियाज्ञात' आवे छे, ते आ प्रमाणे छे : 'वाहियसुकिरियानाएणं, से जहा केइ महावाहिगहिए, अणुभूयतव्वेयणे, विण्णाया सख्त्रेण, निव्विण्णे तत्तओ, सुवेज्जवयणेण सम्मं तमवगच्छिय जहाविहाणओ पवन्ने सुकिरियं निरुद्धजहिच्छाचरे, तुच्छपत्थभोई मुच्चमाणे वाहिणा नियत्तमाणवेयणे समुवलब्भारोग्गं पवड्डूमाणतब्भावे, तल्लाभनिव्वुईए तप्पडिबंधाओ सिरारवाराइजोगे वि वाहिसमारोग्गविण्णाणेण इट्ठनिप्फत्तीओ अणाकुलभावयाए किरियोवओगेण, अपीडिए, अव्वहिए, सुहलेस्साए वड्डइ, वेज्जं च बहु मन्नइ २१ इत्यादि.
आज व्याधितसुक्रियाज्ञात जराक जुदा शब्द अने संदर्भमां 'विंशतिविंशिका' नी १९२मी विंशिकानी गाथा / पंक्तिओमां जोवा मळे छे : 'नो आउरस्स रोगो नासइ तह ओसहसुईए ॥१२॥ न य विवरीएणेसो किरियाजोगेण अवि य वड्डेइ । इय परिणामाओ खलु सव्वं खु जहुत्तमायरइ ॥ १३ ॥ थेवोऽवित्थमजोगो नियमेण विवागदारुणो होइ । पागकिरियागओ जह नायमिणं सुप्पसिद्धं तु ॥१४॥ जह आउरस्स रोगक्खयत्थिणो दुक्करा वि सुहहेऊ । इत्थ चिगिच्छाकिरिया तह चेव जइस्स सिक्खति ॥ १५ ॥ २
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अने आ ज वात १२मा षोडशकनी सोळमी आर्यामां वधु स्पष्ट रीते मळे छे:
'व्याध्यभिभूतो यद्वन्निविण्णस्तेन तक्रियां यत्नात् ।
सम्यक्करोति तद्वद् दीक्षित इह साधुसच्चेष्टाम् ॥ २३ २. 'पञ्चसूत्र' ना चोथा सूत्रमा आवतो एक वाक्यसमूह आवो छ :
'से समलेट्टकंचणे समसत्तुमिते नियत्तग्गहदुक्खे पसमसुहसमेए सम्मं सिक्खमाइयइ, गुरुकुलवासी, गुस्मडिबद्धे, विणीए, भूयत्थदरिसी, न इओ हियतरंति मन्नइ, सुस्सूसाइगुणजुत्ते तत्ताभिनिवेसा विहिपरे परममंते त्ति अहिज्जइ सुत्तं'।।२४
आ वाक्योनो ज भावार्थ धरावती अने अंशतः शाब्दिक साम्यवाळी, बारमी विंशिकानी गाथाओ आ प्रमाणे छे :
'इत्थ वि होदइगसुहं तत्तो एवोपसमसुहं ॥४॥ सिक्खादुगंमि पीई जह जायइ हंदि समणसीहस्स । तह चक्कवट्टिणो वि हु नियमेण न जाउ नियकिच्चे ॥५॥ गिण्हइ विहिणा सुत्तं भावेण परममंतस्त्र त्ति ॥२५
३. चोथा सूत्रमा ज 'आयओ गुरुबहुमाणो अवंझकारणत्तेण । अओ परमगुरुसंजोगो । तओ सिद्धी असंसयं ।२६ एवो पाठ छे, तेनी साथे संपूर्ण साम्य धरावती बीजा षोडशकनी आ कारिका जुओ :
गुरुपारतन्त्र्यमेव च तद्बहुमानात् सदाशयानुगतम् ।
परमगुरुप्राप्तेरिह बीजं तस्माच्च मोक्ष इति ॥१०॥२७ खूबी तो अहीं ए छे के 'पञ्चसूत्र' ना पाठमां आवता 'अवंझकारणत्तेण' पदनो अर्थ, तेनी टीकामां 'मोक्षं प्रत्यप्रतिबद्धसामर्थ्यहेतुत्वेन' एवो को छे, अने षोडशक ना पद्यमां रहेला 'सदाशयानुगतं' पदनो अर्थ पण, तेना टीकाकारोए ‘सदाशयः संसारक्षयहेतुर्गुरुश्यं ममेत्येवंभूतः कुशलपरिणामस्तेनानुगतं गुस्यारतन्त्र्यं'२९ एवो ज को छे. आथी आ बन्ने अलग ग्रंथोना पाठोनुं शाब्दिक ज नहि, आर्थिक साम्य पण छतुं थाय छे.
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४. 'पञ्चसूत्र' ना पांचमा सूत्रमां आवता
'निदंसणमेत्तं तु नवरं, सव्वसत्तुक्खए सव्ववाहिविगमे सव्वत्थसंजोगेण सव्विच्छासंपत्तीए जारिसमेयं एत्तोऽणंतगुणं खुतं, भावसत्तुक्खयादितो । रागादयो भावसत्तू, कम्मोदया वाहिणो, परमलद्धीओ उ अत्था, अणिच्छेच्छा इच्छा । एवं सुहुममेयं, न तत्तओ इयरेण गम्मइ, जइसुहमिवाजइणा, आस्रगसुहं व रोगिण त्ति विभासा ॥ ३०
आ पाठनुं, वीशमी 'सिद्धसुखविंशिका' नी निम्नोक्त गाथाओ :
'जं सव्वसत्तु तह सव्ववाहि सव्वत्थ सव्वमिच्छाणं । खय-विगम-जोग - पत्तीहिं होइ तत्तो अणंतमिणं ॥३॥ रागाईया सत्तू कम्मदुया वाहिणो इहं नेया । लद्धीओ परमत्था इच्छाऽणिच्छेच्छओ य तहा ॥४॥ अणुहवसिद्धं एयं नास्रगसुहं व रोगिणो नवरं । गम्मइ इयरेण तहा सम्ममिणं चिंतियव्वं तु ॥५॥ साधेनुं साम्य केटलुं विस्मयप्रेरक छे ते स्वयंस्पष्ट छे.
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ए
५. आ ज रीते, पांचमा सूत्रना ' जत्थ एगो तत्थ णियमा अनंता' वाक्यने २० मी विंशिका नी १८मी गाथाना ' जत्थ य ओगो सिद्धो तत्थ अनंता'३३ ए अंश साथै सरखावी शकाय तेम छे.
वळी, पांचमा सूत्रमां एक वाक्य आवे छे : 'न सत्ता सदंतरमुवेइ ३४ आ वाक्य एक सबळ अने दार्शनिक युक्तिस्वरूप छे, जे जुदा जुदा संदर्भोमां पण, बंधबेसतुं आवी शके तेवुं होवाथी, त्यां प्रयोजी शकाय छे. अने आथी जवीशमी विंशिका मां १९मी गाथामां आ ज युक्ति वाक्यने श्रीहरिभद्रसूरि महाराजे प्रयोजी बताव्युं छे :
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'एमेव भवो इहरा ण जाउ सत्ता तयंतरमुवेइ ।'
अहीं प्रो. के. वी. अभ्यंकरे 'विंशतिविंशिका' ना पोताना संपादनमां स्वीकारेलो अने परंपरागत रीते सर्वत्र प्रचलित पाठ आम छे :
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'एमेव भवो इहरा ण जाउ सन्ना तयंतरमुवेइ'३६ आ पाठ हवे, ‘पञ्चसूत्र' गत आ 'न सत्ता सदंतरमुवेइ' ए वाक्य अने तेना प्रयोगनी पद्धति जोया पछी अशुद्ध प्रतीत थाय छे. लेखकदोषथी 'सत्ता', 'सन्ना' थयुं हशे, अथवा वांचनारे तेने खोटं वांच्यु होय एq ए बने. अने कोइ कोइ हस्तप्रतिमां ‘एमेव भवो' पाठ मळे छे ज. आथी, 'सत्ता न तयंतरमुवेइ' एवं वाक्य ज आ स्थळे अर्थसंगत अने बंधबेसतुं पण आवे छे. अने आ जोतां 'विंशिका' ना अने ‘पञ्चसूत्रक' ना प्रणेता एक ज आचार्य होवानी धारणा बिलकुल नि:संदेह बने छे.
७. 'पञ्चसूत्रक' मां पांचमा सूत्रमा :
'ण दिदिक्खा अकरणस्स । ण यादिम्मि एसा । ण सहजाए णिवित्ती । ण निवित्तीए आयट्ठाणं । ण यण्णहा तस्सेसा । ण भव्वत्ततुल्ला णाएणं । ण केवलजीवस्त्रमेयं ।'३७
इत्यादि वाक्योमा आवती चर्चा ज, बीजी 'लोकाऽनादित्वविंशिका'नी : 'जह भव्वत्तमकयगं न य निच्चं एव किं न बंधोऽवि ? । किरियाफलजोगो जं एसो ता न खलु एवं ति ॥१४॥ भव्वत्तं पुणमकयगमणिच्चमो चेव तहसहावाओ। जह कयगोऽवि हु मुक्खो निच्चोऽवि य भाववइचित्तं ॥१५॥ एवं चेव यऽदिक्खा( दिदिक्खा) भवबीजं वासणा अविज्जा य।
सहजमलसद्दवच्चं वन्निज्जइ मुक्खवाईहिं ॥१६॥३८ - आ गाथाओमां जराक प्रकारांतरे वर्णवाई छे.
८. ए ज रीते, प्रथम सूत्रगत 'अणाइजीवे, अणादिजीवस्स भवे, अणादिकम्मसंजोगणिव्वत्तीए'३९ ए वाक्यनो तथा पंचमसूत्रगत 'अणाइमं बंधो पवाहेणं'४० ए वाक्यनो ज युक्तिप्रधान अर्थविस्तार, बीजी विंशिका नी प्रारंभनी बारेक ४१ गाथाओमां जोवा मळे छे.
९. प्रथम सूत्रना ‘सुद्धधम्मसंपत्ती पावकम्मविगमाओ, पावकम्मविगमो तहाभव्वत्तादिभावाओ"४२ ए वाक्यनो भावानुवाद, चोथी विशिका नी प्रथम गाथा :
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'निच्छयओ पुण एसो जायइ नियमेण चरमपरियट्टे ।
तहभव्वत्तमलक्खयभावा अच्चंतसुद्ध त्ति ॥१॥४३ आमां, तेम ज ते ज विंशिका नी आठमी गाथाना पूर्वार्ध:
'एयंमि सहजमलभावविगमओ सुद्धधम्मसंपत्ती ॥४४ एमां स्पष्टरूपे प्राप्त थाय छे. १०. तृतीय सूत्रमा आ प्रमाणे पाठ छे :
'तओ अणुण्णाए पडिवज्जेज्ज धम्मं । अण्णहा अणुवहे चेवोवहाजुत्ते सिया।धम्माराहणं खुहियं सव्वसत्ताणं । तहा तहेयं संपाडेज्जा । सव्वहा अपडिवज्जमाणे चएज्ज ते अट्ठाणगिलाणोसहत्थचागनाएणं ।'४५
__ आ पाठनी साथे श्रीहरिभद्राचार्ये ज रचेला 'धर्मबिन्दु' ग्रथनां केटलांक सूत्रो सरखावी शकाय तेम छे. आ रह्यां ते सूत्रो :
'तथा-गुरुजनाद्यनुज्ञेति ॥२३॥ तथा तथोपधायोग इति ॥२४॥ दुःस्वप्नादि-कथनमिति ।२५॥तथा विपर्ययलिङ्गसेवेति ।२६॥ दैवज्ञैस्तथा निवेदनमिति ।२७॥ न धर्मे मायेति ।२८॥ उभयहितमेतदिति ।२९॥ यथाशक्ति सौविहित्यापादन-मिति ॥३०॥ ग्लानौषधादिज्ञातात् त्याग इति ।३१॥४६
अहीं खूबी ए छे के 'धर्मबिन्दु' नां उपर लखेलां सूत्रो पैकी २३,२४,२५ एवां अमुक सूत्रोनो अनुवाद, उपर नोंघेल पंचसूत्र-पाठमां साक्षात् प्राप्त थाय छे.४७ पंचसूत्र अने तेनी टीका - बन्ने एक ज कर्ता-हरिभद्रसूरिनी ज रचना छे तें वातने आ बाबत प्रबळ समर्थन पूरुं पाडे छे.
११. पांचमा सूत्रमा आवतां 'ण दिदिक्खा अकरणस्स' ए तथा 'ण सहजाए णिवित्ती'४८ ए, आ बे वाक्योना संदर्भ, ‘योगदृष्टिसमुच्चय' ना :
दिदृक्षाद्यात्मभूतं तन्मुख्यमस्या निवर्तते । प्रधानादिनतेर्हेतुस्तदभावान्न तन्नतिः ॥२००॥ अन्यथा स्यादियं नित्यमेषा च भव उच्यते ॥२०१॥४९
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आ बे श्लोको साथे, अनुक्रमे मळी रहे छे.
१२. 'दिदृक्षा' शब्दनो जैन साहित्यमा विनियोग सौ प्रथम श्रीहरिभद्रसूरिना ग्रंथोमां मळे छे, एम मारी धारणा छे. तेमना ग्रंथो पैकी :
(१) 'योगदृष्टिसमुच्चय' ना उपर नोंधेला २००ना श्लोकमां दिदृक्षा शब्द प्रयोजायो छे. _ 'योगबिन्दु' ना ४८९मां श्लोकमां 'दिक्षादिनिवृत्त्यादिपूर्वसूर्युदितं तथा' एम पूर्वसूरिओ (टीका अनुसार पतञ्जलि वगेरे पूर्वसूरिओ)ना हवाला साथे 'दिदृक्षा' शब्द प्रयोजायो छे.५०
(२) 'विंशतिविशिका' मां बीजी विंशिका नी १६मी गाथामां 'एयं चेव दिदिक्खा' एवो 'दिदृक्षा' शब्दनो प्रयोग मळे छे. जो के प्रो. अभ्यंकरे स्वीकारेलो अने परंपराथी प्रसिद्ध पाठ तो ‘एवं चेव यऽदिक्खा' छे, जे अशुद्ध अने असंगत ज छे. त्यां दिदिक्खा' होवानुं स्वीकारीए तो ज शुद्धि अने अर्थसंगति थइ शके छे.५१ .
(३) 'षोडशकप्रकरण' मां १५मा षोडशक ना आठमा पद्यमां 'सामर्थ्ययोगतो या तत्र दिदृक्षेत्यसङ्गशक्त्याढ्या । सानालम्बनयोग:५२ - एवो प्रयोग छे. जो के अहीं 'दिदृक्षा' नो अर्थ अन्य ग्रंथोमां थाय छे तेवो नथी थतो. अहीं तो ते 'अनालम्बनयोग' ना अर्थमां 'द्रष्टुमिच्छा दिदृक्षा' एवी व्युत्पत्तिपूर्वक वपरायो छे. छतां आपणे तो अहीं 'दिदृक्षा' शब्द साथे प्रयोजन छे, अने ते, ए शब्दनो अर्थसंदर्भ बदलाया छतां पण कांई निरर्थक जतुं नथी.
संभव छे के आ.हरिभद्रसूरिजी महाराजे पोताना अन्य ग्रंथोमां पण आ शब्द प्रयोज्यो होय. हवे आपणे ए जोवानु छे के एक 'षोडशक' ने बाद करतां, उपरोक्त त्रण ग्रंथोमां, जे अर्थसंदर्भमां आचार्ये 'दिदृक्षा' शब्द प्रयोज्यो छे, ते ज संदर्भमां ते शब्द 'पञ्चसूत्र' मां पण 'ण दिदिक्खा अकरणस्स'५३ ए वाक्यमा प्रयोजायेलो जोवा मळे छे.
१३. पञ्चसूत्र ना चोथा सूत्रमा एक शब्द आवे छे 'समंतभद्दा'.५४ आ. श्रीहरिभद्राचार्यनो मनगमतो शब्द लागे छे. केम के 'विंशतिविंशिका' मां पण,
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भले जुदा संदर्भमां, आ शब्द ५५ जोवा मळे छे. त्यां तेनो अर्थ ते नामनी 'सर्वमंगलकारिणी पूजा' एवी थाय छे. ९मा षोडशक ना १० मा श्लोकमां आ पूजाने 'विघ्नोपशमनी' नामे वर्णवी छे, पण तेना टीकाकार श्रीयशोविजयजीए ए पूजा 'समन्तभद्रा' ५६ तरीके प्रसिद्ध होवानुं सूचव्युं छे ज.
१४. अने पञ्चसूत्र ना अंतिम सूत्रमां लख्युं छे के :
'न एसा अन्नेसिं देया । लिंगविवज्जियाओ तप्परिण्णा । तयणुग्गहट्टाए आमकुंभोदगनाएणं । एसा करुण त्ति वुच्चइ । इत्यादि. आ वाक्योमां छे तेवो ज भाव दर्शावतो 'योगदृष्टिसमुच्चय' नो अंतभाग जुओ :
'हरिभद्र इदं प्राह नैतेभ्यो देय आदरात् ॥ २२६॥ अवज्ञेह कृताऽल्पाऽपि यदनर्थाय जायते । अतस्तत्परिहारार्थं न पुनर्भावदोषतः ॥ २२७॥५८ शाब्दिक तफावत छतां बन्ने संदर्भोनुं आर्थिक साम्य अहीं ध्यानपात्र छे.
उपर नोंधेला तमाम संदर्भों स्पष्टपणे दर्शावे छे के 'पञ्चसूत्र' - मूळना पण प्रणेता भगवान हरिभद्रसूरि स्वयं ज छे. ए सिवाय तेमना अन्य अनेक ग्रंथोना अनेक संदर्भ साथे, 'पञ्चसूत्र' ना संदर्भोनुं आटली हदे साम्य संभवे नहि.
आम छतां, जो 'पञ्चसूत्र' ने आ. हरिभद्रसूरिनी पूर्वे थयेला कोइ अज्ञात चिरंतन आचार्यनी ज रचना लेखवानो आग्रह राखवामां आवे तो उपरना, 'पञ्चसूत्र' ना संदर्भो साथे सरखाववामां आवेला, हरिभद्राचार्यना अन्यान्य ग्रंथोना संदर्भों तेम ज तेमां निरूपित पदार्थोने, हरिभद्राचार्ये 'पञ्चसूत्र' मांथी शाब्दिक तेमज आर्थिक रीते उछीना लीधा होवानुं आपणे मानवुं पडशे, अने ए साथे ज आ ग्रंथोनी / विचारोनी / रजूआतनी हारिभद्रीय मौलिकता समाप्त थई जशे, जे कोई रीते स्वीकार्य न गणाय..
६. पं. बेचरदास दोशीए नोंध्युं छे के, 'वैयाकरणोए शब्दशास्त्रनी दृष्टि प्राकृतना ऋण प्रकार जणावेल छे: १. संस्कृतजन्य प्राकृत ; २. समसंस्कृत
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प्राकृत अने ३. देश्य प्राकृत प्रस्तुत (हेमचन्द्रीय प्राकृत) व्याकरण पहेला प्रकारने लगतुं छे. '५९
आ विधानने सामे राखीने तपासीए तो पञ्चसूत्र (मूळ) नी भाषा पण हेमचन्द्रीय व्याकरणनी मर्यादाओमां समाह शके तेवी संस्कृतजन्य प्राकृत भाषा होवानुं प्रतीत थाय छे. श्रीहरिभद्रसूरिना 'विशंतिविंशिका' आदि ग्रंथोनी भाषा आव ज छे एवं, ए ग्रंथोमां डगले ने पगले तेमणे प्रयोजेला संस्कृतसम अने संस्कृतभव शब्दो जोतां असंदिग्धपणे समजाय छे. अने आवुं ज आ 'पञ्चसूत्र' नुं पण छे, तेथी पण आ कृति श्रीहरिभद्र - प्रणीत होवानुं मानी शकाय तेम छे.
जो के केटलाक विद्वानोए पञ्चसूत्र नी भाषा प्राकृत ( जैन महाराष्ट्री ) नहि, पण आगमोमां प्रयोजाई छे तेवी - अर्धमागधी भाषा होवानुं मानवुं छे. परंतु तेमणे आम मानवा पाछळनां कोई कारणो के प्रमाणो दर्शाव्यां नथी. संभव छे के 'अणाइ जीवे भवे, कम्मसंजोगनिव्वत्तिए, दुक्खख्त्रे, दुक्खफले ६० इत्यादि प्रयोगोमां प्रथमा विभक्तिना एकवचनमां 'ए' कारनो प्रयोग जोइने ए विद्वानो आनी भाषाने अर्धमागधी कहेवा प्रेराया होय. पण एनी सामे, आकृतिमां ज अन्यत्र अनेक स्थळोए, 'रागद्दोसविसपरममंतो, केवलिपण्णत्तो धम्मो, सरणमुवगओ, विवरीओ य संसारो, अणवट्ठियसहावो' ६९ वगेरे प्रयोगोमां प्रथमा - एकवचनमां, प्राकृत भाषामां जे प्रयोजाता 'ओ' कारनो थयेलो उपयोग जो तेमणे ख्यालमां लीधो होत, तो तेमणे आवुं विधान करवानी उतावळ न करी होत. डॉ. कुलकर्णी तो विन्टरनिट्झने टांकीने 'आगमोत्तरकालीन जैन रचनाओ जैन महाराष्ट्री भाषामां छे, हरिभद्रनी अन्य रचनाओनी भाषा पण जैन महाराष्ट्री ज छे, ज्यारे 'पञ्चसूत्र' नी भाषा अर्धमागधी-गद्यात्मक छे, तेथी आ हरिभद्राचार्यनी नहि, पण तेमनाथी पूर्वनी रचायेली कृति छे,' एवं तारण आपे छे. ६२ परंतु हरिभद्राचार्यना अन्य ग्रंथोनी अने पञ्चसूत्रनी भाषामां जणातुं विलक्षण साम्य अने उपर कह्युं तेम संस्कृतसमसंस्कृतभव भाषाप्रयोगोनुं पण साम्य, स्वयं प्रमाणित करे छे के आ कृति अर्धमागधीमां नथी, पण प्राकृतमां ज छे.
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वळी, डॉ. कुलकर्णीनी ए दलील के, 'आ कृति अर्धमागधीमां-गद्यमां छे तेथी ते हरिभद्रप्रणीत मानी शकाय नहि, केम के तेमनी बीजी कृतिओ तो प्राकृतमां छे', ए पण न मानी शकाय तेवी छे. शुं एक ज कर्ता जुदी जुदी भाषाओ अने शैलीओ न प्रयोजी शके ? शुं एक कर्ता पद्यमां तेम ज गद्यमां पण लखी न शके ? वस्तुतः आ बाबत तो एक ज कर्ताना विपुल भाषाज्ञाननी अने व्यापक प्रतिभानी द्योतक बनी रहे तेवी छे.
७. बीजी एक महत्त्वनी बाबत ए छे के 'पञ्चसूत्र' चिरन्तनाचार्य नी रचना होवानुं मनाय छे, अने ए 'चिरन्तन आचार्य' नुं नाम अज्ञात छे एम मानीने ज आपणे आजपर्यंत चाल्या छीए. प्रश्न ए थाय छे के आ चिरन्तनाचार्य आजे आपणा माटे अवश्य चिरन्तन गणाय अने तेथी ते कदाच अज्ञात पण होवानुं स्वीकारी लईए. परंतु आ. हरिभद्रसूरि माटे आ चिरन्तनाचार्य अने तेमनुं नाम अज्ञात होय ए केवी रीते मानी शकाय ? डॉ. कुलकर्णीए अनुमान्युं छे के आ चिरन्तनाचार्य ते हरिभद्रसूरिथी आशरे १०० वर्ष के तेथी थोडा वधु वखत पहेला थया होवा जोइए. ६३ अने आपणे पञ्चसूत्र ने Post-canonical रचना मानीने चालवानुं होय तो डॉ. कुलकर्णीनुं आ अनुमान स्वीकारवुं ज जोइए. हवे विचारीए के पोतानाथी सो बसो वर्ष पूर्वे ज थयेला चिरन्तनाचार्यना नामथी श्रीहरिभद्रसूरिजी अजाण अने अपरिचित होय एवं बनवुं संभवित अने बुद्धिगम्य गणाय खरुं ?
वास्तवमां हरिभद्रसूरिथी, आ कृतिनी जेम ज तेना कर्ता पण जो होय तो - अजाण्या न ज होइ शके. अने जो ते पोते आ सूत्रकारने जाणता होय तो तेमनो नामोल्लेख कर्या विना न ज रहे. छतां तेमणे तेम नथी कर्यु, ते मुद्दो आपणने तेमने ज सूत्रकार तरीके मानवा तरफ दोरी जाय छे.
उपरनी विस्तृत विचारणानुं फलित ए छे के 'पञ्चसुत्त' नी टीकानी जेम ज, तेना मूळ सूचना प्रणेता पण श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराज ज छे; अने ए सिद्ध थवानी साथे ज, आ लेखना आरंभमां आपेला, प्रो. वी. एम. शाह, प्रो. के. वी. अभ्यंकर, प्रो. ए. एन. उपाध्ये तथा डॉ. वी. एम. कुलकर्णी - ए चार विद्वानोए
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नोंधेली ने परंपरागत रीते प्रवर्तती मान्यता अने तेने पोषनारी युक्तिओ आपोआप निर्बळ तथा निर्मूळ ठरे छे. चिरन्तनो एटले प्राचीन कोई एक के अनेक आचार्यो द्वारा आ सूत्रो रचायां हशे एवी, अने ए चिरन्तनोए पोते अज्ञात रहेवार्नु पसंद करीने आ सूत्रोने समस्त संघनी मिल्कत थवा दीधी हशे एवी तमाम कल्पनाओ पण, आथी, व्यर्थ बने छे.
प्रश्न ए थाय छे के आ कृति हरिभद्रसूरिकर्तृक होवा छतां तेना कर्ता विशे भ्रांति / गरबड क्याथी / क्यारे जन्मी ?
आ अंगे विचार अने तपास करतां जणाय छे के विक्रमना पंदरमा सैकामां के ते आसपास आ गरबड शरु थई होवी जोइए. 'पञ्चसूत्र' नी उपलब्ध त्रण प्राचीन ताडपत्रीय प्रतिओमां, जे १२माथी १४मा सैकाना गाळानी होवानो पूरो संभव छे तेमां, मुनि श्रीजंबूविजयजीए नोंध्यु छे तेम, क्यांय तेना कर्ता विशे नोंध छे नहि. तेमां तो फक्त 'समत्तं पंचसुत्तं'६५ ए प्रकारनो ज निर्देश छे. आ उपरथी अनुमान थई शके के ते गाळामां आना कर्तृत्व विशे कोई गरबड नहि होय.
१५मा शतकमां कोई विद्वान साधुए तैयार करेली मनाती 'बृहट्टिपनिका' नामनी जैन ग्रंथोनी सूचिमां सौ प्रथम आवी नोंध जोवा मळे छे.
पाञ्चसूत्रं प्राकृतमूलम् , सूत्राणि २१०.
वृत्तिश्च हारिभद्री ८८०.६५ आ नोंधमां ‘पञ्चसूत्र' ना कर्ता विशे कोई उल्लेख नथी, अने तेनी टीका 'हारिभद्री' छे तेवी नोंध छे. ते उपरथी भ्रांति पेदा थई होय तो ना न कहेवाय. जोके जराक सूक्ष्म रीते आ नोंधने विचारीए तो 'पाञ्चसूत्रं प्राकृतमूलम् , सूत्राणि २१० वृत्तिश्च हारिभद्री ८८०' आम सळंग गोठवीने तेनो अर्थ एवो करीए के 'पंचसूत्र-प्राकृतभाषामां मूळ, सूत्र २१० ; अने (तेनी) वृत्ति (श्लोकमान ८८०) - हारिभद्रीय', तो आम 'च' शब्दनी सहायथी सूत्र ने वृत्ति - बन्ने माटे 'हारिभद्री' शब्द प्रयोजायो होवानुं (अने 'वृत्ति' शब्दनी साथे आवी जवाने कारणे स्त्रीलिंगे ते प्रयोजायो होवानु) नकारी न शकाय. अलबत्त, आ जराक
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क्लिष्ट कल्पना छे ; अने सामान्यतः तो सौ, सूत्रकारर्नु आमां नाम नथी, फक्त वृत्तिपरक ज 'हारिभद्री' एवो उल्लेख छे, तेवो सहेलो अर्थ ज मानवा प्रेराय. पण आ नोंधमां सूत्रकारना नाम परत्वे 'चिरन्तनाचार्यकृतं' के 'अज्ञातकर्तृकं' एवं कशुं ज छे नहि, ए नोंधपात्र बाबत छे, अने ते उपरना क्लिष्ट लागतां अर्थघटनने पुष्टि आपनारी बाबत बने छे. पण आq कांईक विचारवाने बदले कोईके आ सूत्रने, आवी नोंध जोईने, अज्ञातकर्तृक कल्पी लीधुं होवू जोइए. अने तेथी / त्यांथी ज गरबडनो आरंभ थयो हशे.
आ पछी, सत्तरमा शतकमां लखायेली 'पंचसूत्र'नी बे हस्तप्रतोनी पुष्पिकाओ जोतां स्पष्ट समजाय छे के ए समयमां के एथी थोडा पहेलाना समयथी, सूत्रकार अने टीकाकार जुदा जुदा होवानी अने सूत्रकारनुं नाम अज्ञातप्राय होवाथी भ्रांति स्थिर थई गई हशे. आ पुष्पिकाओ आ प्रकारनी छे : 'समत्तं पञ्चसूत्रकं ॥ छ ॥ कृतं चिरन्तनाचार्यैर्विवृतं च याकिनीमहत्तरासूनुश्रीहरिभद्राचार्यैः॥६६
कदाच आ अरसामां लखायेली कोई बीजी हस्तप्रतोमां पण आवी पुष्पिका होय तो ते संभवित छे. अने आवा ज उल्लेखोने लीधे 'पञ्चसूत्र' ना कर्ता विशे भ्रांत धारणा अने परंपरा पेदा थई होय ए समजवू हवे अघळं नथी. आवी गरबड पेदा करनारी पुष्पिकाओनुं सीधुं परिणाम ए आव्युं के 'पञ्चसूत्रटीका' ने अंते टीकाकारे एटले के ग्रंथकारे 'पञ्चसूत्रकटीका समाप्ता' एवा वाक्यनी पछी मूकेल 'कृतिः सिताम्बराचार्यहरिभद्रस्य,धर्मतो याकिनीमहत्तरांसूनोः' ए वाक्यने 'पञ्चसूत्र'-मूळ सूत्र तथा टीका- ए बन्नेना संदर्भमां लेवाने बदले, आ वाक्य फक्त टीकापरक छे एवं मानी लेवामां आव्युं.
अने, आ मान्यताने पोषण आपे तेवी बीजी बाबत ए छे के श्रीहरिभद्राचार्यनी कोईपण कृतिना अंतभागमा 'भवविरह' शब्द होय ज छे, ते आ सूत्रना अंतमां क्यांय जोवा मळतो नथी. आथी आ सूत्र भवविरहाङ्क आचार्यनुं नथी ए मान्यता वधु दृढ थई पडी.
हवे ज्यारे आपणने जाण थाय छे के आ रचना 'चिरन्तनाचार्य' नी
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होवानी मान्यता तो सत्तरमा शतक करतां बहु वधू जूनी नथी त्यारे, अने उपर विस्तारथी चर्चेला, आ सूत्र हरिभद्रसूरि-प्रणीत होवा अंगेना प्रमाणो प्राप्त थयां छे त्यारे, पंचसूत्रना अंते मूकेलुं कृतिः सिताम्बरा०' ए वाक्य श्रीहरिभद्रसूरिजीनुं पोतानु ज छे अने ते, सूत्र तथा टीका-बन्नेना संदर्भमां प्रयोजायेलुं छे, ए नक्की थाय छे. वळी, 'भवविरह' शब्दनो साक्षात् प्रयोग भले नथी थयो, पण भंग्यंतरथी ए शब्दनो भाव तो कर्ताए मूक्यो छे. 'भवविरह' एटले 'मोक्ष'. तेनी याचना के आशंसा तेमणे दरेक कृतिने अंते करी होय छे. सामान्यतः आ आशंसा 'भवविरह' शब्द द्वारा निषेधात्मक के नकारात्मक रूपे-भवनो विरह (मोक्ष) हो !-ए रीते तेओ रजू करे छे. 'पञ्चसूत्र' ना छेल्ला वाक्यमां पण कर्ताए मोक्षनी आशंसा तो व्यक्त करी ज छे, पण ते विरह शब्दथी नहि, किंतु 'निःश्रेयस' शब्द द्वारा. विधेयात्मक के हकारात्मक रूपे करी छे. जुओ पंचसूत्रनुं अंतिम वाक्यः _ 'एसा करुण त्ति वुच्चइ एगंतपरिसुद्धा अविराहणाफला तिलोगनाहबहुमाणेणं निस्सेयससाहिग त्ति पव्वज्जाफलसुत्तं ॥६७
जो विरह शब्द माटे ज आग्रह सेववामां आवे, तो ते आ ‘पंचसूत्र'नी हरिभद्रसूरि-प्रणीत मनाती टीकाना अंतभागमां पण क्यांय 'विरह' शब्द जोवा मळतो नथी, तेथी टीकाने पण हरिभद्रसूरि-प्रणीत मानवामां वांधो आवशे. आथी 'निःश्रेयस' शब्दने ज भवविरहनो पर्याय समजीने आ कृतिने श्रीहरिभद्रसूरि महाराज साथे सांकळवामां पूरतुं औचित्य छे.
__श्रीहरिभद्रसूरिकृत ग्रंथ विशे प्राचीन ग्रंथकारो के वृत्तिकारो कोई नोंध के निर्देश आपे छे के केम? ते दिशामां खोज करतां नीचे नोंधेला बे उल्लेखो मळी आवे छे.
हरिभद्रसूरिए कया कया ग्रंथो रच्या छे एनी नोंध प्राचीन तेम ज अर्वाचीन लेखकोए आपी छे. तेमां आपणे अहीं प्राचीन नोंधो विशे विचारीशुं.
(१) 'गणहरसद्धसयग' उपर सुमतिगणिए वि.सं.१२९५मां संस्कृतमां बृहद्वृत्ति रची छे. गा. ५५नी वृत्तिमा एमणे हरिभद्रसूरिनी कृतिओ गणावी छे.
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पञ्चवस्तुक-उपदेशपद - पञ्चाशक- अष्टक - षोडशक-विंशिकालोकतत्त्वनिर्णय-धर्मबिन्दु - योगबिन्दु-योगदृष्टिसमुच्चय-दर्शनसप्ततिकानानाचित्रक - बृहन्मिथ्यात्वमथन- पञ्चसूत्रक-संस्कृतात्मानुशासनकोशादि - शास्त्राणां गावः ॥
'चतुर्विंशति प्रबंध' (पृ. ५२) मां नीचे जणाव्या प्रमाणे १११ ग्रंथोनो उल्लेख छे : (प्रबंधकोश, पृ. २५)
१. अनेकांतजयपताका, २. अष्टक, ३. नाणायत्तक, ४. न्यायावतारवृत्ति, ५. पंचलिंगी, ६. पंचवस्तुक, ७. पंचसूत्रक, ८. पंचाशत्, ९-१०८. सो शतक, १०९. श्रावकप्रज्ञप्ति, ११०. षोडशक, १११. समरादित्यचरित्र. ६८
आ उल्लेख द्वारा स्पष्ट छे के 'पञ्चसूत्रक' ए श्री हरिभद्रचार्यनी ज कृती हती, अने ते विशे, चौदमा सैका सुधी तो कोई विसंवाद न ज हतो.
श्री ही. र. कापडिया निर्देशे छे तेम तो गणधरसार्धशतकनी पद्ममंदिरगणि (सं. १६७६) कृत वृत्ति पण उपरोक्त यादीने ज दोहरावे छे; तेथी सत्तरमा शतकमां पण 'पंचसूत्र' अन्य कर्तानुं होवानी धारणा झाझी प्रचलित न हती ते सिद्ध थई शके छे. आम, अंतरंग अने बहिरंग परीक्षणोना परिपाकथी प्राप्त थतां प्रमाणोना आधारे पञ्चसूत्र मूळ श्रीहरिभद्रसूरिकर्तृक ज होवानुं सिद्ध थाय छे.
आ पञ्चसूत्र ए श्रीहरिभद्राचार्यना जीवननी परवर्ती एटले के जीवनना संध्याकाळे तेमणे रचेली, पोताना जीवनना तथा जीवनभर करेला शास्त्रसेवनना निचोडरूप रचना होवी जोईए. योगमार्गमां, योगनी उन्नत भूमिका पर स्वयं आरूढ थई गया पछीनी सहज आत्ममस्तीनी अनुभूतिनी सहज अभिव्यक्तिरूप आ कृति होय तो ना नहि. 'योगदृष्टिसमुच्चय' मां चर्चेली युक्ति - प्रयुक्तिओ आ सूत्रमां एकदम ट्रंकां वाक्योमां पण संभवतः त्यां करतां वधु सरस रीते रजू थई छे ते जोतां, तेमज 'पञ्चसूत्र - वृत्ति' मां एक स्थाने 'योगदृष्टिसमुच्चयं' नं उद्धरण पोते ज क्युं छे ते जोतां, आ कृति, 'योगदृष्टिसमुच्चय' वगेरे ग्रंथोनी रचना पछीथी ज रचाई हशे तेम मानी शकाय तेओए पहेलां अन्यान्य विषयोना
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अनेक ग्रंथो रच्या हशे, अने जीवनना उत्तरार्धमां, वार्धक्यने खोळे बेठा हशे तेवा काळमां, योगविषयक ग्रंथो रच्या हशे, अने तेमां पण 'पञ्चसूत्र' नुं स्थान सौथी छेल्लु के छेल्ली कृतिओ पैकी एक तरीके- हशे. प्रो. अभ्यंकर पण आ मुद्दा परत्वे पोतानो मत आवो ज नोंधे छे :
'एतै रचितानां तेषां तेषां ग्रन्थानां क्रमप्रतिपादने टीकाग्रन्थाः प्राय: प्रथम रचिता अनन्तरं धर्मकथा रचितास्तदनन्तरमनेकान्तजयपताका-लोकतत्त्वनिर्णयादयः प्राधान्येन जैनसिद्धान्तप्रतिपादनपरा ग्रन्था निर्मितास्तदनन्तरं षड्दर्शनसमुच्चय-शास्त्रवार्तासमुच्चय-पञ्चाशकादयो दर्शनग्रन्थास्तदनन्तरं च योगदर्शनप्रतिपादकौ योगबिन्दु-योगदृष्टिसमुच्चयौ रचिताविति भाति । सर्वेषामन्ते परिणतप्रज्ञैरेभिरागमसारभूतः स्वकीयग्रन्थप्रतिपादितानां विविधानां विषयाणां सङ्ग्रहस्थानभूतश्चासौ विंशतिर्विशिकानामा ग्रन्थो निरमायीति ।'७० आमां आपणे हवे उमेरी शकीए के 'तदन्तरं योगमार्गारूढैरेभिरन्तिमतमे निजे जीवनभागे पञ्चसूत्रकस्य सटीकस्य रचना सन्दृब्धा स्यादिति ।' ।
उपरनी चर्चाथी एवी कल्पना स्फुरे छे के आपणे त्यां कदाच बे प्रकारनी ग्रंथरचना-पद्धति हशे : १. उत्तरोत्तर ग्रंथोमां पूर्व पूर्व ग्रंथ-प्रतिपादित विषयविस्तरण करवानी पद्धति ; अने २. पूर्व पूर्व ग्रंथोमां निरूपित विषयोनो उत्तरोत्तर ग्रंथोमां संक्षेप करवानी पद्धति. भगवान हरिभद्रसूरि विशे एम कही शकाय के तेमणे आ बीजी पद्धति अपनावी होवी जोईए. स्पष्टताथी समजाववा माटे आम कही शकाय के तेमणे :
१. पञ्चाशक २. विशिका ३. षोडशक ४. अष्टक ५. पञ्चसूत्रक आ क्रमे पोतानी कृतिओ रची होय तो ते बनवाजोग छे. अंतमां उमेरदुं जोईए के श्रीहरिभद्राचार्यनी प्रसिद्धि १४४४ प्रकरणोना
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प्रणेता लेखे आपणे त्यां छे. तेमना रचेलां थोडांक प्रकरणो तथा थोडांक टीकाग्रंथो (जेना मूळ ग्रंथो अन्य महर्षि-रचित होय) उपलब्ध छे. एमां
आपणी पासे जे थोडांक प्रकरण ग्रंथो-खास करीने जे ग्रंथोनां नामोमां संख्यावाचक शब्दो प्रयोजाया छे ते ग्रंथो-उपलब्ध छे तेमां, ‘पञ्चसूत्र' पण हरिभद्रसूरिकर्तृक होवानो निर्णय थवाथी, एक उत्तमोत्तम कृतिनो-प्रकरणनो उमेरो थाय छे, जे घणा सद्भाग्यनी अने हर्षनी घटना छे.
टीप्पणो १. बी.एल.सिरिझ क्र.२ ; आचार्यश्रीहरिभद्रसूरिग्रन्थमाला क्र.१
प्रधानसंपादक: वा.म. कुलकर्णी, सं.मुनि जम्बूविजयजी, ई. १९८६. २. पंचसुत्तं, संपा. वी.एम.शाह, ई.१९३४. Introduction p.17. ३. एजन, पृ.२०. ४. एजन, Foreword p.69. ५-६. पञ्चसूत्रकम् , सं. मुनि जंबूविजय, ई.१९८६. Introduction p.33. ७. एजन, प्रस्तावना पृ. ४-५. ८. एजन, पृ. ८०. ९. एजन, पृ. ७९. १०. एजन, पृ. ८१. ११. एजन, पृ. ८०. १२. एजन, प्रस्तावना-पृ. ३. १३. एजन, पृ. ८०-८१. १४. एजन, पृ. २४. १५-१६. एजन, पृ. ८०-८१.. १७-१८. एजन, पृ. २४. १९. धर्मपरीक्षा, प्रकाशक: जैन ग्रंथ प्रकाशक सभा, अमदावाद, वि.सं.
१९९८, पृ. २३-२४. २०. पञ्चसूत्रकम् , सं. मुनि जंबूविजय, ई. १९८६, प्रस्तावना पृ. ४.
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२१. एजन, पृ. ५०-५३-५४. २२. विंशतिविंशिका, सं. के. वी. अभ्यंकर, ई. १९३२, पृ. ७०. २३. षोडशकप्रकरणम् , प्र. श्रीमहावीरस्वामी जैन संघ-मुंबई, ई. १९८४,
पृ. ७०. २४. पञ्चसूत्रकम् , सं. मुनि जंबूविजय, ई. १९८६. पृ. ४५-४६. २५. विंशतिविशिका, सं. के. वी. अभ्यंकर, ई. १९३२, पृ. ३७. २६. पञ्चसूत्रकम् , सं. मुनि जंबूविजय, ई. १९८६, पृ. ५७. २७. षोडशकप्रकरणम् , प्र. श्रीमहावीरस्वामी जैन संघ-मुंबई, ई. १९८४,
पृ. १०. पञ्चसूत्रकम् , सं. मुनि जंबूविजय, ई. १९८६, पृ. ५८. षोडशकप्रकरणम् , प्र. श्रीमहावीरस्वामी जैन संघ-मुंबई, ई. १९८४,
पृ. १०. ३०. पञ्चसूत्रकम् , सं. मुनि जंबूविजय, ई. १९८६, पृ. ७०. ३१. विंशतिविशिका, सं. के. वी. अभ्यंकर, ई. १९३२, पृ. ६१. ३२. पञ्चसूत्रकम् , सं. मुनि जंबूविजय, ई. १९८६, पृ. ७५. ३३. विंशतिर्विशिका, सं. के. वी. अभ्यंकर, ई. १९३२, पृ. ६३. ३४. पञ्चसूत्रकम् , सं. मुनि जंबूविजय, ई. १९८६, पृ. ६८. ३५-३६. विंशतिविंशिका, सं. के. वी. अभ्यंकर, ई. १९३२, पृ. ६३. ३७. पञ्चसूत्रकम् , सं. मुनि जंबूविजय, ई. १९८६, पृ. ७३. ३८. विंशतिविंशिका, सं. के. वी. अभ्यंकर, ई. १९३२, पृ. ६. ३९-४०. पञ्चसूत्रकम् , सं. मुनि जंबूविजय, ई. १९८६, पृ. ३. ४१. विंशतिविंशिका, सं. के. वी. अभ्यंकर, ई. १९३२, पृ. ४-५-६. ४२. पञ्चसूत्रकम् , सं. मुनि जंबूविजय, ई. १९८६, पृ. ७१. ४३-४४. विंशतिर्विशिका, सं. के. वी. अभ्यंकर, ई. १९३२, पृ. ११-१२. ४५-४६-४७. पञ्चसूत्रकम् , सं. मुनि जंबूविजय, ई. १९८६, पृ. ३७-४०. ४८. एजन , पृ. ७३. ४९. हारिभद्रयोगभारती, प्र. दिव्यदर्शन ट्रस्ट, मुंबई, सं. २०३६, पृ. १२३.
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५५.
५०. एजन, पृ. २८६. ५१. विंशतिविंशिका, सं. के. वी. अभ्यंकर, ई. १९३२, पृ. ६. ५२. षोडशकप्रकरणम् , प्र. श्रीमहावीरस्वामी जैन संघ-मुंबई, ई. १९८४,
पृ. ८५. ५३. पञ्चसूत्रकम् , सं. मुनि जंबूविजय, ई. १९८६, पृ. ७३. ५४. एजन, पृ. ७६.
विंशतिविंशिका, सं. के. वी. अभ्यंकर, ई. १९३२, पृ. २४. ५६. षोडशकप्रकरणम् , प्र. श्रीमहावीरस्वामी जैन संघ-मुंबई, ई. १९८४,
पृ. ८५. ५७. पञ्चसूत्रकम् , सं. मुनि जंबूविजय, ई. १९८६, पृ. ७८-७९. ५८. हारिभद्रयोगभारती, प्र. दिव्यदर्शन ट्रस्ट, मुंबई, सं. २०३६, पृ. १२९. ५९. प्राकृत व्याकरण, ले. पं. बेचरदास दोशी, प्र. गुजरात पुरातत्त्वमंदिर
अमदावाद, ई. १९२५, 'प्रवेश-पृ. १२. ६०. पञ्चसूत्रकम् , सं. मुनि जंबूविजय, ई. १९८६, पृ. ३. ६१. एजन, पृ. ११-१३-३६. ६२-६३. एजन, Introduction पृ. ३३. ६४. एजन, प्रस्तावना, पृ. ४. ६५. एजन, प्रस्तावना, पृ. ३. ६६. एजन, प्रस्तावना, पृ. ४. ६७. एजन, पृ. ८० । ६८. हरिभद्रसूरिः जीवन अने कवन, ले. हीरालाल र. कापडिया, पृ. ४८
४९ (उत्तरखंड), प्र. प्राच्य विद्यामंदिर, वडोदरा. ६९. पञ्चसूत्रकम् , सं. मुनि जंबूविजय, ई. १९८६, पृ. ६६. ७०. विंशतिविंशिका, सं. के. वी. अभ्यंकर, ई. १९३२, प्रास्ताविकं निवेदनं
पृ. ७.
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शब्द प्रयोगोनी पगदंडी पर ओलुं पेलुं, अली !, अल्या !
प्रा. आरओ (= सं. आरात्) 'पहेलां' । (जुओ टर्नर कं. डि. इं. लें. क्रमांक १२९५)
जू. गुज. अरहु, अरहुं, अहरूं, अहु, अरुं 'पासेनुं' अहरेरुं 'वधु पासेनुं ' । अरहुं-परहुँ, अहरूं-पहरुं, अरुं परं । 'पासेनुं - आघेनुं' ।
उरहउं, उरहुँ, उहरउं, उहुरउं, ओहरुठं 'ओरुं' । अरहां - परहां 'पासे - आघे' ।
हरिवल्लभ भायाणी
(जयंत कोठारी : 'मध्यकालीन गुजराती शब्दकोश') अरहु पहेलां क्रिया-विशेषण हतुं. पछी विशेषण तरीके तेनो प्रयोग थवा लाग्यो. 'र- ह'नो व्यत्यय, 'ह्- र्' जोडाई जवा, पछीथी हकारनो हुकार, अने हकारनो लोप—ए फेरफारो वडे जू.गु. नां विविध शब्दरूपोनो खुलासो मळी रहे छे ।
प्राकृत भूमिकामां स्थळ-काळ- वाचक केटलांक क्रिया-विशेषणो परथी -इल्ल- प्रत्यय वडे विशेषणो सधायां छे - अग्गिल्ल 'आगलुं', पहिल्ल 'पहेलुं', पच्छिल्ल 'पाछलुं' अने ते अनुसार आर उपरथी आरिल्ल (दे.ना. १,६३) 'निकटना समयनुं, हमणांनुं' अने पर उपरथी परिल्ल ।
समान-वर्ण-लोपना वलणने परिणामे अरिल्ल आइल्ल, पछी अइल, अने परिल्ल-पइल्ल. अर्वा. गुज. मां एलुं, पेलुं ।
पछीथी आर नुं स्थान अवर लेतां अरहु-परहु ने बदले ओरहु-परहु 'ओरुं-परुं' एवं जोडकुं प्रचलित थयुं । ते अनुसार ओरिल्ल-परिल्ल, ओइल्लपइल्ल अने अर्वा गुज. ओलुं, पेलुं ।
ए परिस्थितिमां एलुं विशिष्ट अर्थमां वपरातो थयो, कोई निकटमा रहेली व्यक्तिने बोलाववा के तेनुं ध्यान खेंचवा 'एला एला ए !' एवो प्रयोग सामान्य छे । ते ज प्रमाणे स्त्रीलिंग रूप 'एली', पासे रहेली स्त्रीने बोलाववा, अने पत्नीनुं नाम लेवाना निषेधने लीधे पत्नीने बोलाववा वगेरे माटे प्रचलित छे । क्वचित 'मारी एली' वगेरे जेवामां नाम तरीके पण वपराय छे ।
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उच्चारणना सरलीकरणथी एली ने बदले अली, अने ओलो, ओल्योनुं संबोधन अल्या, ल्या पण बोलीओमां प्रचलित छ ।
हांउं हाउं एटल 'हा', 'बस', 'पूरतुं छे' एवा अर्थोमां केटलीक बोलीओमां प्रचलित छ। बृह. गु. को. मां तेने रवानुकारी कह्यो छे। हकीकते तेना मूळमां सं. आम् + खलु 'हा, खरेखर (भारवाचक)' छ। पछी प्रा. आं + हु, गुज. हांउ, हाउं ए क्रमे शब्द सधायो छे । ।
हाय
'हाय !' ए दु:ख के शोकनो उद्गार छ । 'हाय रे !' के द्विरुक्त रूपे 'हाय ! हाय !' पण वपराय छ। पछीथी 'तेनी हाय लागी गई' , 'हायवोय', 'हाय-वराळ' वगेरेमां ते 'फिकर, चिन्ता', 'अंतरना ऊंडा दुःखनी बददुआ' वगेरे अर्थमां नाम तरीके वपरातो थयो छे। बृह. गु. को. मां तेने हा साथे जोड्यो छे।
हकीकते दुःखवाचक उद्गारो हा ! हे ! मळीने बोल ‘हा हे !' परथी हाए अने पछी हाय ए रीते तेनुं मूळ सहेजे समजावी शकाय। हिंदीमां पण हाय छ ।
ए ! एय! ओ भाई ! प्रयोग : 'ए!', 'ए रमा !'
'एय! आम आव तो ।'
'ओ भाई ! जरा आघा खसो।' वगेरे । मूळ :
दूरवर्ती दर्शक सर्वनाम अने विशेषण तरीके वपरातो ए अने बोलाववा-- ध्यान खेंचवा संबोधन तरीके वपरातो ए एक ज होवानु जणाय छे। सं. एषः,
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प्रा. एहो, अप. एह पछी एह अने ए.
आ ए ने बदले वपराता एय ना छेवटना यव मां मूळमां सं. भारवाचक ही होय. एही > एई > एय।
ओ पण दूरवर्ती दर्शक सर्वनामनो संबोधन तरीकेनो प्रयोग छे. सं. ओषः, अप., ओहु, पछी ओह, ओ (= हिंदी वह). तेने सं. उद्गार हो परथी थयेलो मानवानुं बराबर नथी लागतुं, केम के गुजराती शब्दरूपोमां आद्य हकारना लोपने बदले. अग्र स्वरनी पूर्वे हकारनो आगम करवानुं वलण छ ।
हेय ! हैय्या ! आनंदना, आश्चर्यना के सानंदाश्चर्यना उद्गार तरीके हेय ! वपरातो होवार्नु आपणे जाणीए छीए। वधु उत्कटता हैय्या! थी व्यक्त कराय छ। कोशोमां आ नोंधाया नथी।
तेमना मूळनी अटकळ करतां लागे छे के संस्कृत नाटकोमां एवी लागणीओना उद्गार तरीके जे हीही वपराय छे (विदूषक वगेरेनी उक्तिओमां) तेमांथी ज आ ऊतरी आव्यो होय. हीहीनुं पछीथी हीहि अने हकारना आगळ-पाछळना स्वरो उपरना प्रभावथी हेइ अने अंते हेय. हेइया उपरथी हैय्या अने तेमां अंते जे या छे, तेना मूळमां आनंद अने आश्चर्यनो उद्गार हा होय ।
हांनो 'बस' (सं. अलम् ) एवा अर्थमां पण प्रयोग जाणीतो छ । ('हां ! बस', 'हां ! हां ! बस थयु, हवे वधु नहीं')।
व्यवहारनी नीतिने लगती एक उक्तिमां पण तेनो उपयोग थयो छे : जे जमवा बेठं होय तेने वधु पीरसवा आवे त्यारे विवेक खातर ना पाडवानो रिवाज छे। पण खावानी इच्छा होय तो तेने शीखामण आपेली छे के जरा धीमेथी हां के हूं एम नकारवा माटे कहेवं, पण जोरथी ते न बोलवू, नहीं तो पीरसनार ताण करीने पीरसवाने बदले पीरस्या वगर चाल्यो जशे : “
'हां हां' दद्यात् 'हूं हूं' दद्यात् , न दद्यात् सिहंगर्जनां ।।
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कोई नाम दईने आसपास रहेली व्यक्तिने बोलावे त्यारे, (१) वात करनार श्रोता वक्ता कहेवू सांभळे छे के तेना कहेवामां संमत छे के केम, ते जाणवा, (२) कोई वार्ता कहे त्यारे तेमां वच्चे वच्चे तेना श्रोताना प्रतिसाद तरीके होंकारो करवा के भरवामां आवे छे। ए हं के हुं तरीके लेखनमा व्यक्त कराय छे। मोढुं खुल्लु राखीने होकारो आपे त्यारे घणुंखरूं ते हं रूपे संभळाय छे, पण बंध मोढे भणातो होकारो हुँ तरीके पण संभळाय छे अने लेखनमां व्यक्त कराय छे। . ___सं. आम् परथी हं (हिन्दी हां) ऊतरी आवेल छे, तेमां हकारनो अग्रागम थयेलो छ। मोर्चा बंध होय त्यारे जीभना पाछळना भागमांथी, गळामांथी ए उद्गार कढातो होवाथी अने अनुनासिक / अनुस्वारनो प्रभाव होवाथी खुल्ले मोंए उच्चाराता अ स्वर ने बदले पृष्ठस्वर उ बोलाय-संभळाय छे। एटले के हं- नुं उच्चारण हुं जेवू थाय छ ।
हुंकारोने बदले होकारो कहेवाय छे, ते हुंकार दर्पसूचक होवाथी, अर्थाचवण टाळवा माटे - एवी अटकळ करी शकाय।। ____ वार्ता सांभळतां बाळक होकारो पूरे छे, तेनो संस्कृतमा हुं अने हुंकार रूपे निर्देश थयो छे. आ सर्वसामान्य अनुभवनो बिल्वमंगले पोताना एक मुक्तकमां सरस उपयोग को छे। ए मुक्तक नीचे प्रमाणे छे – तेमां यशोदा बाल-कृष्णने राम-सीतानी वार्ता कहे छे अने कृष्ण होकारो दे छे :
'रामो नाम बभूव',
'तदबला सीतेति',
'हं',
'तौ पितुर्वाचा पंचवटी-तटे विहरतां तामाहरद् रावणः ।' 'निद्रार्थं जननी-कथामिति हरेहुँकारतः शृण्वतः ।' 'सौमित्रे क्व धनुर्धनुर्धनुरिति व्यग्रा गिरः पातु वः ।।
('कृष्णकर्णामृत', २.७२)
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f
[ 'प्रभाकचरित' मां (५३, क्रमांक ५७२), तथा 'प्रबंधकोश' मां (पृ. ३९) मां चोथा चरणनुं पाठांतर छे : 'पूर्व - स्मर्तुरवंतु कोप- कुटिला भ्रूभंगुरा दृष्टयः ॥ ' ]
सूरदासने नामे मळता नीचेना पदमां उपर्युक्त मुक्तकनो आधार लेवायो
छे :
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'नंदनंदन ! एक कहुं कहानी
;
रामचंद्र राजा दशरथ के, जनक- सुता जाके घर रानी तात- वचन सुन पंचवटी - वन, छांड चले ऐसी रजधानी तहां बसत सीता हर लीनी, रजनीचर अभिमानी - २ पहली कथा पुरातन सुन सुन, जननी के मुख - बानी 'लक्ष्मण ! धनुष धनुष' कहे टेरत - जसुमति सूर डरानी
---
१
३
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तीर्थंकर महावीरनुं देहवर्णन (जैन आगमग्रंथ 'औपपातिकसूत्र'ना महावीरवर्णक अने तेना परनी अभयदेवसूरिनी वृत्तिने आधारे)
हरिवल्लभ भायाणी तीर्थंकर महावीरनुं मुख कान्तिमान अने श्वास उत्पलना परिमल जेवो देहनो वान उत्कृष्ट हतो. देहनुं मांस नीरोगी, अति प्रशस्त, निरुपम हतुं. त्वचा, कशी पण मलिनता, रज, प्रस्वेद, कलंकथी मुक्त हती. अगोपांग तेजस्वी हतां. मस्तक, उन्नत, छत्राकार अने निबिड, पिंडीभूत केश वाळु हतुं. केश, विशद, मृदु, सूक्ष्म, श्लक्ष्ण, स्निग्ध, सुगंधी, प्रशस्य, सुंदर, भंग
अंगार काजळ नीलमणि जेवा श्याम, शीमळानां फळ जेवा सघन,
सुबद्ध हता. केशमूळ पासेनी त्वचा, दाडमना पुष्पनो, सुवर्णनो वान धरावती, निर्मळ,
सुस्निग्ध हती. भालप्रदेश, व्रण विनानो, परिमार्जित, मनोज्ञ, अर्धचंद्राकार हतो. वदन, पूर्णचंद्र समान, सौम्य हतुं. श्रवण, लगोलग, सप्रमाण हता. कपोलप्रदेश, पीन, मांसल हतो. भ्रमर, पातळी, अभ्रराजि जेवी श्याम, स्निग्ध, दीर्घ, सहेज नमावेल
- धनुष समी हती. श्वेत भोंय पर काळी कीकी अने लांबी पांपणो वाळां नेत्र, विकसित
पुंडरीक समां हतां. नाक गरुड जेवू आयत, सीधुं, उन्नत हतुं. अधरोष्ठ, भरेलो, प्रवाल अने बिंबफळ समो हतो.
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दंतश्रेणि, पूर्णचंद्र, शंख, दूधनां फीण, कुंदपुष्प, जलशीकर, मृणालना
जेवी धवल, निर्मल हती. दांत, फाटफूट विनाना, अखंड, लगोलग, सुजात, स्निग्ध, अनेक छतां
एक श्रेणि जेवा हता. ताळवू अने जीभ, अग्निमां तपायेल सुवर्ण समां लाल हतां. दाढी, अल्प, आछी अने शोभीती हती. हडपची, भरेली, मापसर, वाघना जेवी विपुल हती. ग्रीवा, चार आंगळनी, सप्रमाण, शंख जेवी हती. स्कंधप्रदेश, महिष, वराह, सिंह, वाघ, वृषभ, गजराजना जेवो विपुल
__ अने प्रमाणसर हतो. भुजा, यूप जेवी पुष्ट, सुसकर, भरेला कांडा वाळी, सुश्लिष्ट सघन
सुबद्ध स्नाओनी गूढ संधि वाळी, नगरद्वारना आगळिया जेवी
वर्तुल हती. बाहु, नागराजना देह जेवा हता. अग्रहस्त राती हथेळी वाळा, पुष्ट, मांसलु, मृदु, सुलक्षण हता. आंगळियो, सभर गोळाकार कोमळ हती. नख, सहेज राता पातळा स्वच्छ स्निग्ध रुचिर हता. हस्तरेखाओ, दक्षिणावर्त स्वस्तिक, सूर्य, चंद्र, शंख, चक्रनां चिह्नो
वाळी हती. वक्षःस्थळ, सुवर्णशिला जेवू उज्ज्वळ, समथळ, पुष्ट, विस्तीर्ण,
श्रीवत्सथी अंकित हतुं. देह, करोडरज्जु न कळाय तेवो, सुवर्णकान्ति, निर्मळ, रोगचिह्नोथी मुक्ते
हतो. पडखां, सहेज नमतां, सप्रमाण, सुंदर, भरेलां हतां.
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रोमावलि, ऋजु, सम, सूक्ष्म, संहत, श्याम, स्निग्ध, रमणीय रूंवाडा
वाळी हती. नाभि, गंगाना जमणी बाजु घूमता आवर्तना तरंगो जेवा भंगवाळी,
सूर्यकिरणथी विकसित पद्म जेवी गंभीर हती. मध्यभाग, संहत, मुशळ दर्पणनो हाथो सोनानी तरवारनी मूठ अने वज्र
जेवो कृश हतो. कटि, अश्व, सिंहना समी गोळाकार हती. गुह्यप्रदेश, जातवान अश्वना जेवो निरुपलेप, प्रशस्त हतो. गति, गजवर समी, पराक्रमी अने सविलास हती. जंघा, गजराजनी सूंढ समान हती. चूंटण, संपुट जेवा आने मांसल होवाथी गूढ हता. पीडी, हरणना जेवी, कुरुविंद तृण जेवी, सूतरनी आंटी जेवी वर्तुलाकार
उत्तरोत्तर पातळी थती हती. चरणांगुलि, अनुक्रमे उत्तरोत्तर लघु, वच्चे विरल अवकाश वाळी, पुष्ट
हती. चरणना नख, उन्नत, पातळा, राता, स्निग्ध हता. चरणतळ, रक्त कमळनां पत्र समां मृदु, सुकुमार, कोमळ हतां अने
पर्वत, नगर, मगर, सागर, चक्र जेवां मंगळ चिह्नोथी अंकित
हतां.
देहकान्ति, निर्धूम पावक, विद्युत् , तरुण रविकिरण समी हती. तीर्थंकर महावीर आठ हजार (एक हजार ने आठ ?) पुरुषलक्षण
धरावता हता.
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आजना विज्ञानयुगमां जैन जीवविचारणानी आहारक्षेत्रे प्रस्तुतता
डॉ. नारायण म. कंसारा (१) जैन जीवविचारणा
जैन धर्ममा स्वीकारवामां आवेला नव मूळभूत पदार्थोमां एक ते छे जीव. आ जीवनां नीचे मुजबना गुणधर्मो गणाववामां आव्या छे : चैतन्यलक्षण; परिणामी; ज्ञान, दर्शन चारित्र, सुख, दुःख, वीर्य, भव्यत्व, अभव्यत्व, द्रव्यत्व, प्रेमयत्व, प्राणधारित्व, क्रोध वगेरे परिणतत्व, संसारित्व, सिद्धत्व, परवस्तुव्यावृत्तत्व वगेरे स्वपर पर्यायो रूपी धर्मोथी भिन्न छतां अभिन्नपणुं ; कर्ता ; साक्षाद् भोक्ता, स्वदेहपरिमाणवाळो, दरेक शरीरमां भिन्न, पौद्गलिक अने अदृष्टवान्. आ जीव बे प्रकारनो होय छे : मुक्त अने संसारी. मुक्त जीवना सकल कर्मोनो क्षय थइ गयेलो होय छे. सांसारिक जीव चार प्रकारनो होय छे : सुर, नारक, मनुष्य अने तिर्यक् . एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय अने पंचेन्द्रिय. एमां पण एकेन्द्रिय जीवो पृथ्वी, जळ, तेज, वायु अने वनस्पति ए पांच प्रकारना होय छे.
एकेन्द्रिय जीवोने स्पर्शनेन्द्रिय, कायबळ, श्वासोश्वास अने आयुष्य आ चार प्राण होय छे. द्वीन्द्रिय जीवोने आ चार उपरांत रसनेन्द्रिय अने वचनबळ अधिक होवाथी छ प्राण होय छे. त्रीन्द्रिय जीवोने उपर जणावेल छ उपरांत घ्राणेन्द्रिय होवाथी सात प्राण होय छे. चतुरिन्द्रिय जीवोने उपर्युक्त सात उपरांत श्रोत्रेन्द्रिय होवाथी आठ प्राण होय छे. असंज्ञि-पंचेन्द्रिय जीवोने उपर मुजबना आठ उपरांत नेत्रेन्द्रिय वधु होवाथी नव प्राण होय छे ; अने संज्ञि-पंचेन्द्रिय जीवोने उपर निर्देशेल नव उपरांत मनोबळ अधिक होवाथी दस प्राण होय छे.२
शुभविजयकृता प्रमाणनयतत्त्वप्रकाशिका स्वाद्वादभाषा (संपा. नारायण म. कंसारा, Sambodhi, Vol. XVIII, 1992-93), pp. 101-122, परि. ८ सू. ३
(पृ. ११६-११७). २. मुनि श्री विद्याविजयजी - जैनधर्म, श्री विजयधर्मसूरि ग्रंथमाळा - ५१, उज्जैन,
वि.सं. १९९५, पृ. ७६.
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संसारी जीवोना बीजी दृष्टिए स्थावर अने त्रस एवा बे प्रकार पाडवामां आव्या छे. स्थावर जीवो ते छे जेमने केवळ शरीर ज होय छे अने तेओमां हलनचलननी क्रिया प्रत्यक्षरूपे जोवामां आवती नथी छतां आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा अने ग्रहण करवानी परिग्रहसंज्ञा जोवामां आवे छे. पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय अने वनस्पतिकाय ए पांच प्रकारो स्थावर जीवोना छे अने ते एकेन्द्रिय अथवा द्वीन्द्रिय होय छे. आ वैज्ञानिक जमानामां तो सूक्ष्मदर्शक वगेरे यंत्रो द्वारा पृथ्वी, जळ, तेज, वायु अने वनस्पतिमां चेतनलक्षण जीव होवानु प्रत्यक्ष करी बताववामां आव्युं छे.३ जेने एक ज इन्द्रिय होय छे. तेवा जीवोने फक्त शरीर ज होय छे. मुख वगेरे नथी होतुं, तो पण तेमनामां ग्रहणशक्ति होवाथी तेओ आहार वगेरे करी शके छे. जेम के, वनस्पति पोतानो आहार जमीनमांथी रस चूसीने मेळवी ले छे. अग्निनो आहार वायु छे, अने ते जेटलो जोइए तेटलो ग्रहण करी ले छे. द्वीन्द्रिय जीवोने शरीर अने मुख ; त्रीन्द्रिय जीवोने शरीर, मुख अने नाक ; चतुरिन्द्रिय जीवोने शरीर, मुख, नाक अने आंख ; अने पंचेन्द्रिय जीवोने आ चार उपरांत कान होय छे. कृमि, गंडोला, जळो, शंख, कोडा वगेरे जीवो द्वीन्द्रिय छे ; कीडी, जू, मंकोडा, मांकण, इयळ, घीमेल वगेरे जीवो त्रीन्द्रिय छे ; माखी, भमरो, वींछी, बगाई वगेरे जीवो चतुरिन्द्रिय छे ; अने मनुष्य, पशु, पक्षी, माछलां, देवता अने नारकी आ बधा जीवो पंचेन्द्रिय छे.५
स्थावर अने त्रस बन्ने प्रकारना जीवो अपर्याप्ता, अर्थात् अपूर्ण पर्याप्तिओवाळा अने पर्याप्ता अर्थात् पूर्ण पर्याप्तिओवाळा कहेवाय छे. पर्याप्ति ए एक विशिष्ट शक्ति, जेने लीधे अमुक वस्तु ग्रहण कराय छे. जे शक्तिथी आहार ग्रहण कराय ते आहार पर्याप्ति , जे शक्तिथी शरीरनी संरचना थाय ते शरीर पर्याप्ति, जे शक्तिथी इन्द्रियो कार्य करे छे ते इन्द्रिय पर्याप्ति , जे शक्तिथी
३. ४. ५.
एजन, पृ. ७७. एजन, पृ. ७८.. एजन.
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श्वारोच्छवासनी क्रिया थाय छे ते श्वासोच्छवास पर्याप्ति , जे शक्तिथी भाषा नो व्यवहार थाय छे ते भाषा पर्याप्ति , अने जे शक्तिथी मननो व्यापार थाय छे तेने मनः पर्याप्ति कहेवामां आवे छे. एकेन्द्रिय एवा स्थावर जीवोमां प्रारंभनी चार पर्याप्तिओ - अर्थात् आहार, शरीर, इन्द्रिय अने श्वासोच्छवास पर्याप्तिओ होय छे. द्वीन्द्रिय थी चतुरिन्द्रिय जीवोमां मनने बाद करतां बाकीनी पांच पर्याप्तिओ होय छे. पंचेन्द्रिय जीवोमां संज्ञी अने असंज्ञी एवा बे प्रकार छे.. जेमने मन नथी होतुं तेवा पंचेन्द्रिय जीवो असंज्ञी गणाय छे अने तेमने मन सिवायनी उपरनी पांच पर्याप्तिओ होय छे, ज्यारे संज्ञी जीवोने उपर जणावेली छ पर्याप्तिओ होय छे.६ (२) मोक्षमार्गी आचारव्यवस्था
आ जीवविचारणाने लक्षमा राखीने मनुष्यने कर्मोना बंधनमांथी छोडावी मोक्षमार्गे वाळवा तथा अंते निर्वाण प्राप्ति कराववा माटे जैन तीर्थंकरोए एक विशिष्ट आध्यात्मिक मार्ग प्रवर्ताव्यो जेने आपणे 'जैनधर्म' तरीके ओळखीए छीए. कर्मबंधनोने लीधे ज जीव जन्ममरणनी घटमाळमां फसायेलो रहे छे. अने कर्यबंधनमांथी छूटवा माटे जीवे कषायोमांथी मुक्त करवा घोर तपश्चर्या जरूरी छे. आ तपश्चर्याना मार्गे जीवने क्रमशः वधुने वधु तीव्रतानी कक्षाए प्रवृत्त करवा गृहस्थधर्मनां बारवतो अने साधुधर्मनां पांच महाव्रतो- पालन करवानी व्यवस्था गोठववामां आवी छे. गृहस्थ माटेनां बार व्रतोमांना प्रथम पांच 'अणुव्रत' अथवा सूक्ष्म कहेवाय छे, कारण के ते साधुओनां पांच महाव्रतोनी तुलनाए घणां अल्प अथवा स्थूळ छे. गृहस्थोनां आ अणुव्रतो छ :- स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत, स्थूल मृषावाद विरमण व्रत, स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत, स्थूल मैथुन विरमण व्रत अने स्थूल परिग्रह विरमण व्रत ; ज्यारे साधुओनां पांच महाव्रतो छ :- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अने अपरिग्रह.
आ पांच महाव्रतो अने गृहस्थ माटेनां थोडीक अनिवार्य छूटछाटवाळां आ ज महाव्रतोनां पांच अणुव्रतो जैन धर्मना प्राणरूप छे. आ पांच महाव्रतोना
६.
एजन, पृ. ७९-८०.
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अनुषंगे बाकीनां सात व्रतो प्रयोजायां छे, जेमांनां दिग्व्रत, भोगोपभोग विरमण व्रत अने अनर्थदंड विरमण व्रत, ए त्रण गुणवतो कहेवाय छे, केमके पांच अणुव्रतोने ते सहायरूप नीवडे छे, ज्यारे छेल्लां चार अर्थात् सामायिकव्रत, देशावगासिकव्रत, पौषधव्रत अने अतिथिसंविभागवत, शिक्षाव्रतो कहेवाय छे, केमके ते रोजबरोज अभ्यास करवा योग्य छे."
जे गृहस्थ श्रावक आ बार व्रतोने स्वीकारे छे ते श्रावक कहेवाय छे, अने पछी उत्तरोत्तर एना पालनमा स्थूळताथी वधुने वधी सूक्ष्मता आणे छे त्यारे अंते ते साधु कक्षाए पहोंचे छे. आ मार्गे प्रयाण करी, सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान अने सम्यक् चारित्रना बळे कर्मोना क्षय करी कर्मबंधनोमांथी छूटकारा रूप निर्जरा प्राप्त करी, क्रमशः शुद्धतम आत्मभावने प्राप्त करी, अंते जीव निर्वाण प्राप्त करे छे. जीवविचारणा- अंतिम लक्ष निर्वाण छे, जे मनुष्य मात्रनुं आ संसारमा चरम ध्येय छे.
जैनधर्ममां आ चरम ध्येयना अनुषंगे सर्वसामान्य जैन गृहस्थ माटे जे बार व्रतो प्रबोधवामां आव्यां छे तेमानुं प्रथम स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत आहारने क्षेत्र साथे सीधुं संकळायेलुं छे, कारणके तेना पायामां अहिंसा ए प्रथम महाव्रत रहेलुं छे. आ महाव्रतनो विस्तार घणो मोटो छे, पण आहारना क्षेत्रे निरपराधी जीवोनी हिंसानो त्याग एमां समाविष्ट थयो छे ए दृष्टिए प्रस्तुत विषय साथे एनो संबंध रहेलो छे.
अहिंसाना अनुषंगे जैनधर्ममां दयाने प्राधान्य आपवामां आव्युं छे. दान, शील, तप, भाव, परोपकार वगेरे जेटली पण शुभ क्रियाओ छे ते बधार्नु मूळ दया ज छे, तेथी ते धर्मनी जननी के मूळ गणाई छे. अहिंसा अने दया वच्चे घणो फरक छे. कोइ जीवने हेरानगति न पहोंचाडवी, मारवो नहिं, सताववो नहि, तेना हैयाने दुःख न पहोंचाडवू ए 'अहिंसा' छे. परंतु दया ए अंत:करणनो भाव छे. एवो भाव जेना हृदयमां होय ए ज अहिंसा, सेवन करी शके. दुःखीने देखीने आपणा हृदयमां दर्द थाय अथवा मारी क्रियाथी बीजाने दुःख
७.
एजन, पृ. ४१.
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थशे एवो विचार थवो तेने दया कहे छे. जैन शास्त्रोमां दयाना आठ प्रकार गणाव्या छे : द्रव्यदया, भावदया, स्वदया, परदया, स्वरूपदया, अनुबंधदया, व्यवहारदया अने निश्चयदया. आमांथी द्रव्यदया, स्वदया, ' परदया अने स्वरूपदयानो सीधी के आडकतरी रीते आहारक्षेत्र साथै संबंध आवे छे. (३) आहारनुं प्रयोजन, प्रकारो अने मानवशरीर माटेनी तेनी जरूरियात
आहारनं प्रयोजन केवळ पेट भरवा पूरतुं, तंदुरस्ती जाळववा पूरतुं के स्वाद संतोषवा पूरंतुं ज नथी, बल्के मन अने चारित्र्यनो विकास करवानुं पण छे. 'जेवो आहार तेवो ओडकार' अथवा 'जेवो आहार तेवो मनुष्य' ए कहेवतो आजना जमानामां पण मनुष्यने लागु पडे छे. माणसनो विविध प्रकारना खोराकनो शोख तेनी वर्तणुक अने चारित्र्यनो सूचक बनी रहे छे. तेथी आपणा खोराकनो उद्देश एवो होवो जोइए के जेथी आपणे जे खोराक खाइए ते आपणा शारीरिक, नैतिक, सामाजीक अने आध्यात्मिक उन्नतिने उपकारक बने अने स्नेह, वात्सल्य, दया, अहिंसा, शान्ति अने एवा बीजा सद्गुणोनो पोषक बनी रहे.
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आपणा आहारना प्रकारो एवा होवा जोइए जेमांथी ऊर्जा, स्वास्थ्य अने उष्मा उत्पन्न थाय. आ माटे आपणा खोराकमां प्रोटीनो, शर्करा, विटामिनो, खनिजो अने तैली पदार्थो पूरता प्रमाणमां होवा जोइए जेथी सारी गुणवत्तावाळा नवा कोशो अने लाल रक्तकणो सतत उत्पन्न थता रहे. आपणा शरीरमांना बधा ज कोशो तथा पेशीओ छ महीनामां साव ज बदलाइ जाय छे अने नवी उत्पन्न थइ जाय छे. १० आपणा शरीर अने एमांना फेरफारोनो आधार आपणा खोराक पर होय छे. वळी आपणो खोराक एवो होवो जोइए जेनाथी आपणा शरीरनी रोग-प्रतिकारक संरक्षण व्यवस्था सचवाइ रहे अने मजबूत बने, अने एमां रोगकारक तथा स्वास्थ्य विनाशक तत्त्वो सदंतर होवां जोइए. आ माटे कुदरते
८. एजन, पृ. ६१-६२.
९.
अग्रवाल गोपीनाथ - वेजीटेरियन और नॉन-वेजीटेरियन ; यूझ यॉर सेल्फ (अंग्रेजी), जैन बुक एजन्सी, न्यू दिल्ही, पांचमी आवृत्ति, १९९१, पृ. ५.
एजन.
१०.
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अनेक प्रकारनां अनाज, फळो, काष्ठफळो, करियाणां, शाक-पांदडां वगेरे सरज्यां छे, जेमां पूरता प्रमाणमां पोषक तत्त्वो रहेलां होय छे. सामान्यतः पुरुषने रोज २३५० थी २७०० केलरी, स्त्रीने १८०० थी २१०० केलरी, छोकराने २४०० केलरी अने छोकरीने २०५० केलरी खोराक जरूरी होय छे. आ माटे अनाजमांथी १३८४, द्विदलमांथी २०९, शाक-पांदडांमांथी ४८, कंदमूळमांथी ७२, फळोमांथी २४, दूधमांथी १६८, तेलिबींयामांथी २२५ अने साकरमाथी १२० एम कुल मळीने २२५० केलरी मळी रहे छे.१९ ।।
घणा माणसो भूखमाराने बदले वधु पडता खोराकथी ज मरता होय छे. वधु पडतुं खावा करतां थोडंक ओर्छ - पेट थोडुक खाली रहे तेवी रीते, ऊनोदर रहीने, खोराक लेवो जोइए. आपणे जीववा माटे खावू जोइए नहीं के खावा माटे जीवq. आ माटे जेटला खोराकनी भूख होय तेनाथी थोडंक ओर्छ खावू जोइए. जे लोको भूख करतां वधु पडतुं खाय छे तेओ स्थूळता, आळस, अपचो, कबजीयात अने बीजा रोगोना भोग बने छे. मोटा भागना रोगो, कारण वधु पडती खाणीपीणी ज होय छे.१२
भूख दरेक माणसने व्याकुळ करी मूके छे अने माणसने कुमार्गे वाळे छे. पण शरीरनी भूख सीमित होय छे, अने थोडाक खोराकथी तृप्त थइ शके छे. कदी न संतोषाय तेवी भूक तो मननी होय छे. एने जेटली संतोषो एटली वधु भडके छे अने ते कुटेवोमां परिणामी छेतरपीडी, बीक, तनाव, गुस्सो, धिक्कार वगेरेमां परिणामे छे.१३ ।
जैन धर्ममां अहिंसानी प्रधानताने लीधे जीवहिंसानो सदंतर निषेध होवाथी मांसाहारने कोइज अवकाश नथी. तेथी जो आजना वैज्ञानिक युगने लक्षमां राखी, मनुष्यना शरीरनी शाकाहारी.प्राणीओ जेवी ज संरचना छे.१४ मांसाहारी प्राणीओ जेवी नथी ज. ए वैज्ञानिक हकीकतने लक्षमा राखी जैनधर्मना एक
११. एजन, पृ. ६. १२. एजन, पृ. ६-७. १३. एजन, पृ. ७. १४. एजन, पृ. ८-९.
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मात्र स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रतनो ज स्वीकार आवती एकवीसमी सदीमां सर्वानुमते स्वीकार थाय तो जगतमांना घणा रोगोना मूळ नाबूद करी शकाय. आजनुं शरीरविज्ञान स्पष्ट जणावे छे के शाकाहारी प्राणीओना दांत सपाट जडबांमां बेसेला होय छे, अने तेना नख मात्र फळ फूल चूंटी शके तेवा ज होय छे, ज्यारे मांसाहारी प्राणीओना दांत अने नख अणीदार अने प्राणीओनां शरीरोने फाडी नाखे एवा मजबूत होय छे. शाकाहारी प्राणीओनुं नीचेनुं जडचं उपरनीचे अने डाबेजमणे हाली चाली शके छे ज्यारे मांसाहारी प्राणीओनुं नीचेनुं जडबुं मात्र उपरनीचे हाली शके छे. शाकाहारी प्राणीओनी जीभ नरम अने सुंवाळी होय छे, ज्यारे मांसाहारी प्राणीओनी जीभ लांबी अने खरबचडी होय छे अने पाणी बहार नीकळे छे. शाकाहारी प्राणीओनां आंतरडां तेना धड करतां बारगणां लांबा होय छे ज्यारे मासांहारी प्राणीओनां आंतरडा तेमना धड करतां छ गणा लांबा होय छे. आम मांसाहारी प्राणीओनां आंतरडा प्रमाणमां वधु ढूंका होय छे. शाकाहारी प्राणीओ करतां मांसाहारी प्राणीओनां यकृत अने मूत्रशय प्रमाणमां वधु मोटा होय छे. शाकाहारी प्राणीओ करतां मांसाहारी प्राणीओना जठरमां पडता पित्तरसमां हाइड्रोक्लोरिक तेजाबनुं प्रमाण दस गणुं वधारे होय छे. शाकाहारी प्राणीओना मुखमांनी लाळ आलकली तत्त्व धरावे छे, ज्यारे मांसाहारी प्राणीओना मुखनी लाळ तेजाब तत्त्व धरावे छे. शाकाहारी प्राणीओना लोहीमां ऊंचुं ब्लड बी.एच. होय छे अने आलकली तरफी वलण होय छे, ज्यारे मांसाहारी प्राणीओना लोहीमां नीचुं ब्लड बी.एच अने तेजाब तत्त्व तरफी वलण होय छे. शाकाहारी प्राणीओ करतां मांसाहारी प्राणीओनुं रक्तलिपो-प्रोटीन जुदा प्रकारचें होय छे. शाकाहारी प्राणीओ करतां मांसाहारी प्राणीओनी घ्राणेन्द्रिय खूब प्रबळ, अने आंखो रात्रे जोइ शकनारी तथा खूब चमकती होय छे. शाकाहारी प्राणीओनी तुलनाए मांसाहारी प्राणीओनो अवाज घणो रूक्ष अने भयप्रद होय छे. शाकाहारी प्राणीओने जन्मतां ज साधारण दृष्टि प्राप्त थाय छे, ज्यारे मांसाहारी प्राणीओनी दृष्टि जन्म पछी अठवाडीया सुधी लगभग शून्य होय छे. आ बधां वैज्ञानिक तथ्यो लक्षमां लेतां स्पष्ट जणाय छे के मनुष्य कुदरती रीते मूलतः शाकाहारी प्राणी छे. अने प्राचीन ऋषिमुनिओए
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आ कारणे जे संस्कारी मनुष्य माटे मांसाहारनो निषेध कर्यो छे. जैनधर्म तो आजना बधा धर्मोमां आहारना क्षेत्रे सौथी वधु वैज्ञानिक होवाथी आगामी एकवीसमी सदीमां तेणे प्रबोधेलुं मात्र एक स्थूलप्राणातिपात विरमण व्रत ज सर्वांशे सर्व देशोमां स्वीकार पामे तो पण जगतमा मंगलमयता व्यापी रहे, तो बीजां व्रतो स्वीकार पामे तो मंगलमयतामां केटली बधी वृद्धि पामे तेनी कल्पना ज आपणने आनंदविभोर करी मूके तेम छे. आ दृष्टिए 'सर्वे भवन्तु सुखिनः....' ए मांगलिक भावनाने प्रत्यक्ष जीवनमा साकार करवा माटे जैनधर्मनी जीवविचारणा खूब महत्त्वनो फाळो आगामी सदीमां आपी शके तेम छे.
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मध्यकालीन धर्म विषयक पद्यपरंपरा संगोष्ठी अहेवाल
श्री भद्रंकरोदय शिक्षण द्रस्ट, गोधराना उपक्रमे ता. ५/६ ओक्टोबर १९९७ना दिवसोमां, श्री यशोभद्र शुभंकर ज्ञानशाळा, महावीर जैन सोसायटी, गोधरामां पूज्य आचार्यश्री विजयशीलचंद्रसूरिजी महाराजनी निश्रामां 'मध्यकालीन धर्मविषय पद्यपरंपरा'ए विषय पर एक अपूर्व संगोष्ठी योजाई गई. यजमान श्रेष्ठी श्री जयंतिभाई कानजीभाई शेठनी साहित्यप्रीतिना बळे सर्वश्री जयंत कोठारी, लाभशंकर पुरोहित, शिरीष पंचाल, रमण सोनी वगेरे आयोजकोना श्रमनां सुफलो मुंबई, सौराष्ट्र अने गुजरातना विविध स्थळोएथी आवेल आमंत्रित श्रोताओए तथा नगरना साहित्य रसिको अने श्रावको चाख्यां.
संगोष्ठीनी अने पहेला दिवसनी प्रथम बेठक संगोष्ठीसंचालक श्री लाभशंकर पुरोहिते करेली श्रीशत्रुंजयवंदना, तीर्थंकरवंदना, शारदावंदनाथी शरू थई. गोधराना जैन बाळतपस्वी रुचिर मूकेशभाई चोकसीए मंगलदीप प्रगटावी संगोष्ठीनुं विधिवत् उद्घाटन कर्तुं हतुं. आचार्य श्री विजयशीलचंद्रसूरिजीना मंगलाचरण पछी संगोष्ठीमां पधारेला श्रोतावक्ताओनं हार्दिक स्वागत प्रा. विनोद गांधी कर्यं हतुं. प्रा. विनोद गांधीए उचित रीते गोधरामा जन्मेल पू. रंगअवधूत महाराज अने कविश्री पूजालाल दलवाडीने याद कर्या हता. 'भीनी क्षणोनो वैभव' अने 'अमारी घोषणानो दस्तावेज'ना सर्जक पूज्य आचार्य श्री विजयशीलचंद्रसूरिजीना चातुर्मासथी गोधरानी धरा धन्य बनी छे, एवं संवेदन व्यक्त करतां स्वागतकारे डॉ. सितांशु यशश्चन्द्र, डॉ. गुणवंत शाह, श्री गुलाबदास ब्रोकर आदि शुभेच्छकोना संदेशाओ बदल तेओ सहुनो आभार मान्यो हतो. प्रथम बेठकना प्रास्ताविक वक्तव्यमां संयोजक श्री शिरीष पंचाले संगोष्ठीनो हेतु स्पष्ट कर्यो हतो. श्रीपंचाले गये वर्षे वडोदरा मुकामे मध्यकालीन साहित्य विशे ज थयेल संगोष्ठीनी पूर्तिरूपे आ संगोष्ठी योजाई होवानुं जणाव्युं हतुं. वळी मध्यकालीन पद्य परंपरानो परिचय हवे पछीनी पेढीने थतो रहे ए माटे कशाये रागद्वेष विना अनेक संप्रदायोना समृद्ध सारतत्त्वने झीली लई, एने मुद्रित / ध्वनिमुद्रित स्वरूपे साचवी राखवा जणाव्यं हतुं. १. प्रत्येक संप्रदायनी दार्शनिक सैद्धांतिक वात, २. ते ते संप्रदायनी क्रियाओ विधिओ-अनुष्ठानोनी
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वात अने ३. मध्यकाळमां एने लगती श्रेष्ठ कृतिओ अने तेमांनी त्रणेक कृतिओनुं परंपरागत रीते गान - ए त्रण स्तरे आ संगोष्ठीने उघाडी आपवा माटेनो आ आखो उपक्रम छे तेम श्री शिरीष पंचाले स्पष्ट कर्यु हतुं.
श्री जयंत कोठारीए संगोष्ठीना उपप्रवेशमा जणाव्युं हतुं के मध्यकालीन साहित्य अने परंपरामांनो जे वारसो छे, ते आपणे वीसरवा जेवो नथी. वळी भूतकाळने आत्मसात् करी घणुं बधुं पामी शकाय छे. मध्यकालीन साहित्य आपणा वर्तमान जीवनमां पण भाग भजवे छे. मध्यकालीन साहित्य अने धार्मिक संप्रदायो तपासवाना विषयो छे. श्री कोठारीए मध्यकालीन साहित्यने प्रत्यक्ष रजूआतना साहित्य तरीके ओळखाव्युं अने कह्यु के आख्यानो, लोकवार्ताओ, भजनो, पदो समूहमां – समूह वच्चे गवातां हतां. मध्यकाळy आपणुं साहित्य समूहभोग्य छे. नरसिंहनां पदो वांचीने नहीं, पण पूरेपूरां गाईने ज माणी शकाय. आ साहित्य एनी धार्मिक ने पद्यपरंपरामां ज पामी शकाय. संगोष्ठीनी भूमिका समजावता वक्तव्यमां संचालकश्री लाभशंकर पुरोहिते मध्यकाळना पांचसो-सातसो वर्षनी ऊर्जा लयबद्ध वाणीमां श्रोताओ ज पकडी शके एम कही श्रोताओना प्रथम पदनो स्वीकार कर्यो. वळी श्रोतागारमां बेठेला व्यासपीठाधिकारी श्रोताओनी विद्वत्तानो नम्रताथी स्वीकार कर्यो. आचार्यश्री विजयशीलचंद्रसूरिजीए मंगलारंभनी बेठकना प्रावेशिक वक्तव्यमां पोताने आजन्म धर्मना माणस तरीके ओळखावी भक्तिना महिमानो सर्वथा स्वीकार कर्यो. एटलुं ज नहीं, मध्यकालीन लोकचेतनाने एक तांतणे बांधनारा मेरुसूत्र तरीके भक्तिरसने गणाव्यो. आचार्यश्रीए ‘वाक्यम् रसात्मकम् काव्यम्' विश्वनाथ भट्टनी आ ख्यात उक्तिनो महिमा कर्यो. रसानुभूति ज चेतनाचेतननुं प्रमाण छे, एम कही भक्तिनी प्रतीति विशे कडं. 'हुं एमनो छु', 'हुं तारो छु', "हुं' अने 'तु' जुदा नथी' एवा त्रिविध तबक्काओ द्वारा नवधा भक्तिने आचार्यश्रीए समजावी. स्तवनाना १. याचना, २. गुणकीर्तन, ३. आत्मनिंदा अने ४. आत्मतत्त्वचिंतन एवा चार प्रकारो विशे तेओए विस्तारथी समजाव्युं अने कडं के आध्यात्मिक भावनी प्रतीति करावती आ पद्यपरंपरा मध्यकाळनी देणगी छे. वळी आपणे भूतकाळमां जीववा- नथी, पण भूतकाळने सजीव
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राखवानो छे, एम कही चैतन्यतत्त्वनी आ द्वारा प्राप्ति थाय एवी अभिलाषा तेओए सेवी. 'म.का. धार्मिक प्रवाहो- ऐतिहासिक अने दार्शनिक पीठिकामां' ए मथाळा हेठळना संगोष्ठीना केन्द्रीय वक्तव्यमां डॉ. चिनुभाई नायके इतिहास अने साहित्यनी समज आपवानो प्रयत्न कर्यो. तेओए इतिहासने भूतकाळ अने वर्तमान वच्चेना वणथंभ्या संवाद तरीके ओळखाव्यो. ए संवादमां, मध्यकाळना सर्जकोए मधुर सूर पूर्यो छे एम तेओए कह्यु. तीव्र वेदना अनुभव्या वगर प्रभु आवे नहि, ए वात मीरांना पदगानथी स्पष्ट करी, संतोए मध्यकाळना समाजमांना अंधाराने दूर कयुं छे एवं कही, मध्यकाळना साहित्यमां माणसनो महिमा थयो छे एवं तेओए प्रतिपादित कर्यु. श्री नायके संतो-कविओनां भजनो, पदो ज 'पंचम वेद' छे एम का. पोतानी वातना समर्थनमा वच्चे वच्चे सांगीतिक रागोमां कबीर, मीरां आदिनां पदोने तेमणे रजू काँ. प्रथम बेठकनी परिपूर्ति डॉ. सुभाष दवे अने डॉ. नरोत्तम पलाणे करी हती. श्री पलाणे धर्मना उद्भव अने शरीरधर्म, प्राकृतिकधर्म विशे स्पष्टता करी हती. तेमणे संगोष्ठीना यजमानगाम गोधराना नामने संशोधनात्मक दृष्टिए समजाव्यु. ए रीते छठ्ठी सदीना ताम्रपत्रमांना 'गोध्रहक' नामनो उल्लेख करी श्री पलाणे आ गामने नागपूजा, केन्द्र गणाव्युं.
बीजी बेठकना प्रासंगिक वक्तव्यमां श्री रमण सोनीए जणाव्यु के आपणी जिज्ञासावृत्ति रसवृत्तिनो पर्याय थाय तो परिसंवाद सफळ बने. गोष्ठीनो उपक्रम समजावी, आपणी सांस्कृतिक चेतनाने संकोरवा हस्तप्रतोनुं परिशीलन थाय, आपणे प्रत्यक्ष संस्कृत वारसो आत्मसात् करवानी तक मळे एवी आशा व्यक्त करी.
'जैन परंपरा' ए विषय पर प्रा. रमणलाल ची. शाहे विशदताथी तेमनुं वकतव्य रजू कयें. तेमणे हस्तप्रतो, ज्ञानभंडारो, जैनकविओ, तेमनी कृतिओ, जैनदर्शनमा रहेल Social Unity, भक्तितत्त्व, ज्ञानतत्त्व वगेरेनी मार्मिक मीमांसा करी, तेनुं स्वरूपदर्शन कराव्यु. आ बेठकमां जैन संप्रदायनां पदोनुं गान श्री सुंदरलाल शाहे (डभोई) तथा श्री जयदेव भोजके कर्यु. श्री जयदेव भोजके कडं हतुं के आजे पण शास्त्रीय संगीत तो मध्ययुगर्नु ज छे; एनी जाळवणी जैन, पुष्टि संप्रदायोए करी छे. मध्यकाळना साहित्ये त्रणेक हजार गीतना ढाळ
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बेसाड्या छे, ए विशे तेमणे अहोभाव व्यक्त करी जैन कविओ आनंदघन, वीरविजयजी, यशोविजयजीना स्तवनोनी परंपरागत ढबे गानप्रस्तुति करी.
शैव-शाक्त संप्रदाय विशेना वक्ता श्री राजेन्द्र नाणावटीए तद्विषयक तलावगाही अभ्यास रजू कर्यो. सर्वश्री कनुभाई जानी, निरंजन राज्यगुरु, जयंत गाडित, नीतिन महेताए परिचर्चामां तेमनां मंतव्यो रजू कर्यां हतां. रविवारनी त्रीजी बेठकमा 'व्यापक लोकपरंपराओ अने संप्रदायमुक्त प्रवाहो' विशे सर्वश्री कनुभाई जानी, भगवानदास पटेले पोतानो अभ्यास रजू करी संगोष्ठीने रसप्रद बनावी हती. श्री दलपत पढियारे रजू करेल भजनो भाव अने कंठ, उभय रीते मनभावन रह्यां. खेडब्रह्मानी आदिवासी लोकवार्तिक मंडळीए वारतानी रजूआत बोलीमा गीत, संगीत अने नृत्यनी रीते करी. आ रजूआत दरमियाननी श्री भगवानदास पटेलनी लाघवयुक्त समजूती श्रोताओने रुचिकर नीवडी.
ता. ६ ओक्टोबरना बीजा दिवसनी सवारनी बेठकमां श्री बळवंत जानीए सर्वधर्म – सर्वजीव प्रत्ये प्रगटता जैनपरम्पराना समभाव विशे राजीपानी लागणी व्यक्त करी, आ परंपरा अन्य परंपराओ सुधी विस्तरे एवी भावना प्रगट करी. श्री जानीए संप्रदायमुक्त वलणोनां उदाहरणोनी विशद छणावट करी, विविध संप्रदायोनी निकटतानुं स्पष्ट चित्र रजू कर्तुं हतुं. श्री रश्मिबेन व्यासे स्वामी नारायण संप्रदायने ऐतिहासिक ने दार्शनिक संदर्भमां रजू करी, कृष्णभक्तिनां विविध स्वरूपनी समज आपी हती. तेमणे स्वामीनारायणी कविओए आदरेलां लोककल्याणनां कार्योनी स्पष्टता करी, तेमनो तत्त्वबोध स्पष्ट कर्यो हतो ने प्रेमसखी जेवा कविओनां गीतोनी प्रस्तुति द्वारा वातावरणने रसमय, मधुर बनाव्यं हतुं. श्री प्रवीणचंद्र सी. परीखे प्रणामी संप्रदाय विशे पोतानो अभ्यास रजू कर्यो हतो, तो श्री लवकुमार देसाईए पुष्टि संप्रदाय विशे विशद मीमांसा करी हती. 'निश्चेना महेलमां वसे मारा वालमो' पदनी श्री लाभशंकर पुरोहितनी प्रस्तुतिनो आस्वाद मनभावन रह्यो .
बीजा दिवसनी बोरनी बेठकना वक्ताओ हता सर्वश्री नरोत्तम पलाण, प्रा. नाथालाल गोहिल अने श्री निरंजन राज्यगुरु गुजरातमां रामोपासना विशे
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श्री पलाणे पोतानो अभ्यास रजू को. श्री नाथालाल गोहिले रविभाण परम्परा विशे दार्शनिक पीठिका रजू करी, 'साहेब'-सद्गुरुनो महिमा गायो हतो. श्री निरंजन राज्यगुरुए महापंथबीजमार्ग मध्यकाळना साहित्यमां कई रीते संकळायेल छे ते जणावी पुरुष-प्रकृति, मार्कंड ऋषितुं योगदान वगेरे विशे वात करी हती. प्रत्यक्ष संबोधन-कथनशैली ए महापंथ, अगत्यनुं लक्षण छे, एम कडं. श्री पढियारे कवि भाणनां भजनो गाईने श्रोताओने रसतरबोळ कर्या.
समग्र संगोष्ठीनुं सारसमापन करतां आचार्यश्री विजयशीलचंद्रसूरिए जणाव्युं के लोकचेतना सार्वत्रिक छे. आपणे परा-पश्यंती पामीने बुलंद थवानुं छे. संसारनी पेले पारनुं परम तत्त्व-ब्रह्मतत्त्व एक ज छे, ए अनुभूतिनुं गर्भतत्त्व ज्यां आवे त्यां हरियाळी. आ संगोष्ठीथी आपणे एक डगलुं आगळ वधीए छीए, छतां मध्यकाळy घणुं साहित्य, खास करीने जैनसाहित्य हजुये वणस्पयुं रडुं छे, ए हकीकत एमणे स्पष्ट करी. आ संगोष्ठीनी अनुगोष्ठी माटे अभ्यासुओने अडधा वरस जेटलो के तेथी वधु समय आपवामां आवे तो आ दिशामां करवानां कामो वधु तत्त्वो ने तथ्यो पारखवानी बाबतमां नक्कर साबित थाय एवी आशा व्यक्त करी. आ संगोष्ठीने ओच्छव गणावी, यत्किचित् जे कंई प्राप्त थयुं छे तेनो आनंद आचार्यश्रीए व्यक्त कर्यो. श्री हरिकृष्ण पाठक, श्री सनत् भट्ट, श्री नीतिन महेता, श्री जयेश भोगायताए पोताना प्रतिभावो रजू कर्या हता. केटलाक प्रतिभावकोए वक्ताओने तथा चर्चकोने वधु समय मळ्यो होत तो वधु लाभ थात एवं मंतव्य रजू कर्यु हतुं.
अंते श्री भद्रंकरोदय शिक्षण ट्रस्ट वती श्री विक्रमभाई शाहे तथा आयोजको वती श्री रमण सोनीए आभारविधि को हतो. बे दिवसनी समग्र संगोष्ठी दरम्यानना अल्पाहारो ने भोजन पण यजमानना स्वभाव जेवा मधुरतामय रह्यानो आनंद अने आतिथ्यनी अपूर्वता तरफनो अहोभाव पण संगोष्ठि, उपफल बनी
वृत्त संकलन : प्रा. रमणीकलाल के. शाह
प्रा. विनोद गांधी
गोधरा
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संशोधन - माहिती
आ. श्रीसोमचंद्रसूरि शिष्य मुनि श्रीचंद्रविजयजी, श्रीहेमचन्द्राचार्यनी 'अभिधान चिन्तामणि नाममाला'नी श्रीदेवसागर कृत टीकार्नु संपादन करी रह्या छे.
(२) आ. श्रीराजेन्द्रसूरि शिष्य मुनि राजपद्मविजयजी, चैत्यवन्दनभाष्य तथा तेना परनी संघाचारविधि-टीकार्नु भाषांतर करी रह्या छे.
(३) आ. श्रीस्थूलभद्रसूरि शिष्य मुनि अमितयशविजयजी, दर्शनरत्नरत्नाकर नामे ग्रंथनो अनुवाद करी रह्या छे.
(४)
"श्रीहंसरत्न कृत उपमितिकथा-सारोद्धार"नो प्रारंभिक अंश अत्रे प्रस्तुत कर्यो छे. आ ग्रंथनी एक ज प्रति प्राप्त थई शकी छे. तेना संपादन माटे तेनी बीजी प्रति मळे तेवी अपेक्षा छे, ते हेतुथी आ अंश अहीं छापवामां आवे छे. आ जोईने ते ग्रंथनी बीजी प्रति क्यांय होवा- कोईना ध्यानमां आवे, अगर कोईनी पासे ते होय तो ते प्रत्ये अमाझं ध्यान दोरवा विज्ञप्ति छे.
श्री हंसरत्नकृत उपमितिकथासारोद्धारः॥
श्री शखेश्वर-पार्श्वनाथाय नमः॥ स्वस्तिश्रीर्गुण रागिणीवचदनुध्यानाद् वृणीते स्वयं, प्रोद्भूताऽद्भुतसाध्वसा इव जवाद् दूरं व्रजन्त्यापदः । यस्य ज्ञानमनन्तवस्तुविषयं शक्रैश्च संस्तूयते ; श्रीमान् पार्श्वजिनः स वः प्रभवताद् भव्या भवार्त्तिच्छिदे ॥१॥ वागासारभरेण यस्य सततं मैत्र्यादि-सद्भावनावल्ल्य: पल्लविता भवन्ति भविनां स्वान्तालवालावनो ।
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दुर्ध्यानातप-तीव्रताप-पटली सङ्क्षीयते च क्षणात् ; श्री सिद्धर्षि-सुधा-घनः स जयतात् निःशेषदोषापहः ॥२॥ आकर्षं सुमतेवशीकृतिमथ स्वर्गाऽपवर्गश्रियां उच्चाटं मदनादिंदुष्ट-सुहृदां विद्वेषणं दुधियः । स्तम्भं दुर्गति-पाततोऽधिकतरं मोहस्य सम्मूढतां वाग्-मन्थाः प्रथयन्तु वः प्रतिदिनं सिद्धर्षि-वक्त्रोद्भवाः ॥३॥
___ अथाऽध्यात्म-पीयूषपारावार-श्री सिद्धर्षिमुख-प्रवृद्धाया नैकवैराग्य-संवेगादितरङ्ग-गहनायाः स्वल्प-शक्तिदुरवगाहायाः श्री उपमितिभवप्रपञ्चाभिधानवेलाया मद्-विधाऽल्पसत्त्वसत्त्वानुग्रहाय केवलवार्तास्वरूपतत्कथा-लेशं समुद्धर्तुमुपक्रमे ।
आ. विजयप्रद्युम्नसूरि.
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