________________
105
अनुषंगे बाकीनां सात व्रतो प्रयोजायां छे, जेमांनां दिग्व्रत, भोगोपभोग विरमण व्रत अने अनर्थदंड विरमण व्रत, ए त्रण गुणवतो कहेवाय छे, केमके पांच अणुव्रतोने ते सहायरूप नीवडे छे, ज्यारे छेल्लां चार अर्थात् सामायिकव्रत, देशावगासिकव्रत, पौषधव्रत अने अतिथिसंविभागवत, शिक्षाव्रतो कहेवाय छे, केमके ते रोजबरोज अभ्यास करवा योग्य छे."
जे गृहस्थ श्रावक आ बार व्रतोने स्वीकारे छे ते श्रावक कहेवाय छे, अने पछी उत्तरोत्तर एना पालनमा स्थूळताथी वधुने वधी सूक्ष्मता आणे छे त्यारे अंते ते साधु कक्षाए पहोंचे छे. आ मार्गे प्रयाण करी, सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान अने सम्यक् चारित्रना बळे कर्मोना क्षय करी कर्मबंधनोमांथी छूटकारा रूप निर्जरा प्राप्त करी, क्रमशः शुद्धतम आत्मभावने प्राप्त करी, अंते जीव निर्वाण प्राप्त करे छे. जीवविचारणा- अंतिम लक्ष निर्वाण छे, जे मनुष्य मात्रनुं आ संसारमा चरम ध्येय छे.
जैनधर्ममां आ चरम ध्येयना अनुषंगे सर्वसामान्य जैन गृहस्थ माटे जे बार व्रतो प्रबोधवामां आव्यां छे तेमानुं प्रथम स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत आहारने क्षेत्र साथे सीधुं संकळायेलुं छे, कारणके तेना पायामां अहिंसा ए प्रथम महाव्रत रहेलुं छे. आ महाव्रतनो विस्तार घणो मोटो छे, पण आहारना क्षेत्रे निरपराधी जीवोनी हिंसानो त्याग एमां समाविष्ट थयो छे ए दृष्टिए प्रस्तुत विषय साथे एनो संबंध रहेलो छे.
अहिंसाना अनुषंगे जैनधर्ममां दयाने प्राधान्य आपवामां आव्युं छे. दान, शील, तप, भाव, परोपकार वगेरे जेटली पण शुभ क्रियाओ छे ते बधार्नु मूळ दया ज छे, तेथी ते धर्मनी जननी के मूळ गणाई छे. अहिंसा अने दया वच्चे घणो फरक छे. कोइ जीवने हेरानगति न पहोंचाडवी, मारवो नहिं, सताववो नहि, तेना हैयाने दुःख न पहोंचाडवू ए 'अहिंसा' छे. परंतु दया ए अंत:करणनो भाव छे. एवो भाव जेना हृदयमां होय ए ज अहिंसा, सेवन करी शके. दुःखीने देखीने आपणा हृदयमां दर्द थाय अथवा मारी क्रियाथी बीजाने दुःख
७.
एजन, पृ. ४१.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org