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तुम्ह हम यो अंतर होई तो किसी उत्तम रीति सा० ।
तत्त्व विजय प्रभुस्युं खरी मांडी मोंटी प्रीति सा० ॥ ५ ॥ सुम० ॥ । इति श्री सुमति जिनस्तवनं ॥ ५ ॥
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( शेत्रुंजें जईई लालन शत्रुजई जईई... ए देशी )
प्रह उठी पद्मप्रभ भवियण वंदो जेहनई रे
दरिसनई लालन अतिहिं आनंद लालन अ० । पद्म लंछन प्रभुनइं पाय विराजें दिन दिन महिमा
लालन अधिक दिवाजे, लालन अ० ॥ १ ॥ विद्रुम वरणों तुम्ह अंग सुहावई
अनुपम मूरति देखी मुझ सुख थावें, लालन मु० । तुम्हस्युं हो लालन माहरें पूरन नेहा
जिम जग जाणो लालन मोर नें मेहा, लालन मो० ॥ २ ॥
हुं तुझ रागी लालन तुं ही नीरागी
कहो किम चालें लालन प्रीति एकांगी. लालन प्री० । नेह करीजें लालन तो नीरवहीइं
फिरी फिरी तुम्हनें लालन अधिक स्युं कहीइं, लालन अ० ॥३॥ खाओ छं लालन हुं तुम्ह खिजमतिगारी
चित्त मांहि धरयो लालन वात ज सारी, लालन वा० । नें
बांहि ग्रह्यानी लालन लाज छे तुम्ह
दोइ चरणनी सेवा लालन देज्यो ते ग्रम्ह नें, लालन दे० ||४|| श्रीधरराजा कुलें तूंहिज दीवो मात सुसीमा लालन सुत चिरंजीवो, लालन सु०। वाचक श्रीजस विजयनो सीस
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तत्त्वनी पूरो लालन परम जगीस, लालन प० ॥ ५ ॥ । इति श्री पद्मप्रभ जिन स्तवनं । ६ ।
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