________________
श्री हरिभद्रसूरिविरचित समसंस्कृतप्राकृत 'जिनसाधारणस्तवन'नो आस्वाद
पारुल मांकड 'भवविरहांक' याकिनीसूनु श्रीहरिभद्राचार्यनी उपर्युक्त रचना मुनि श्री विजयशीलचन्द्रसूरिजीए ('अनुसंधान'-अंक-८, १९९७)मां संपादित करी छे. अत्रे एनुं रसदर्शन प्रस्तुत छे.
प्रस्तुत अष्टकमां तीर्थंकरसाधारणनी समग्रभावे स्तुति करवामां आवी छे एटले भगवद् विषयक रतिभाव प्रधान छे अने रूपकादि अलंकारो तेनो पुरस्कार करे छे. अंतिम पद्यमां भव-संसारथी विरह एटले के मोक्षनी याचना करी होवाथी शमरूपी भावनो उदय सिद्ध थयो छे. तीर्थंकर भगवंतोना गुणानुवाद संस्कृत अने प्राकृत बन्ने भाषामां परंतु 'भाषासम'१ अलंकारनी सहायथी करवामां आव्या छे. 'भाषासम' अलंकारमा भाषा विविध होय अने शब्द एक सरखा होय. अहीं जेम के, संस्कृत अने प्राकृत बन्ने भाषामां स्तवननी रचना थइ छे, परंतु शब्दो बन्ने भाषाने समान रीते स्पर्शे तेवा ज = एक ज सरखा छे. अनेक भाषामा एक ज प्रकारना शब्दो द्वारा अभिव्यक्ति करवी ते जहोमत मागी ले तेवं कार्य छे. आचार्य हरिभद्रसूरि तेमां सफळ रह्या छे. प्रस्तुत पद्यरचनानो हेतु जिनेश्वरनी प्रसन्नता अने तेओ सुखहेतु बनो ए ज छे. (जुओ अंतिमपद्य) १. विश्वनाथने आ अलंकारना उद्भावक आचार्य कही शकाय. रुद्रट जो के भाषाश्रेष्ठ
नामे आवा स्वरूपनो निर्देश करे छे खरा. (काव्यालंकार ४/१०) विश्वनाथे भाषाश्लेष तो स्वीकार्यो छे छतां 'भाषासम'ना नवा स्वरूपनो पण तेमणे आविष्कार को छे. भोजे सीधी रीते 'भाषासम' अलंकारनो निर्देश कर्यो नथी, परंतु जाति नामना शब्दालंकारना पेटाभेदनी अंदर 'साधारणी' जातिमां संस्कृत, प्राकृत बन्नेनां साधारण प्रयोगना निर्देशवाळु उदाहरण आप्युं छे. (स.कं. पृ. ३८८) उपरांत पृ. २२६/२७ पर भाषाश्लेष- उदा. पण आप्युं छे. परंतु भाषासममां श्लेष अनिवार्य नथी. उपर्युक्त स्तोत्रमां तो 'भाषासम' अलंकार ज रहेलो छे. शब्दैरेकविधैरेव भाषासु विविधास्वपि । वाक्यं यत्र भवेत्सोऽयं भाषासम इतीष्यते ॥
(साहित्यदर्पण १०/१०)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org