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________________ 96 प्रा. एहो, अप. एह पछी एह अने ए. आ ए ने बदले वपराता एय ना छेवटना यव मां मूळमां सं. भारवाचक ही होय. एही > एई > एय। ओ पण दूरवर्ती दर्शक सर्वनामनो संबोधन तरीकेनो प्रयोग छे. सं. ओषः, अप., ओहु, पछी ओह, ओ (= हिंदी वह). तेने सं. उद्गार हो परथी थयेलो मानवानुं बराबर नथी लागतुं, केम के गुजराती शब्दरूपोमां आद्य हकारना लोपने बदले. अग्र स्वरनी पूर्वे हकारनो आगम करवानुं वलण छ । हेय ! हैय्या ! आनंदना, आश्चर्यना के सानंदाश्चर्यना उद्गार तरीके हेय ! वपरातो होवार्नु आपणे जाणीए छीए। वधु उत्कटता हैय्या! थी व्यक्त कराय छ। कोशोमां आ नोंधाया नथी। तेमना मूळनी अटकळ करतां लागे छे के संस्कृत नाटकोमां एवी लागणीओना उद्गार तरीके जे हीही वपराय छे (विदूषक वगेरेनी उक्तिओमां) तेमांथी ज आ ऊतरी आव्यो होय. हीहीनुं पछीथी हीहि अने हकारना आगळ-पाछळना स्वरो उपरना प्रभावथी हेइ अने अंते हेय. हेइया उपरथी हैय्या अने तेमां अंते जे या छे, तेना मूळमां आनंद अने आश्चर्यनो उद्गार हा होय । हांनो 'बस' (सं. अलम् ) एवा अर्थमां पण प्रयोग जाणीतो छ । ('हां ! बस', 'हां ! हां ! बस थयु, हवे वधु नहीं')। व्यवहारनी नीतिने लगती एक उक्तिमां पण तेनो उपयोग थयो छे : जे जमवा बेठं होय तेने वधु पीरसवा आवे त्यारे विवेक खातर ना पाडवानो रिवाज छे। पण खावानी इच्छा होय तो तेने शीखामण आपेली छे के जरा धीमेथी हां के हूं एम नकारवा माटे कहेवं, पण जोरथी ते न बोलवू, नहीं तो पीरसनार ताण करीने पीरसवाने बदले पीरस्या वगर चाल्यो जशे : “ 'हां हां' दद्यात् 'हूं हूं' दद्यात् , न दद्यात् सिहंगर्जनां ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520511
Book TitleAnusandhan 1998 00 SrNo 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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