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________________ 75 वर्णवेली वातोनुं अक्षरशः विवरण करवानुं ज छे. ए काम पूरुं थाय एटले समाप्तिसूचक पद्य/पद्यो के पंक्तिओ लखीने टीकाकार विरमी जता होय छे ; पण ए पछी ए-विवरणकार पोताना तरफथी कांई पण उमेरो करवानुं साहस कदी करता नथी. खुद आ.हरिभद्रसूरिजीए पोताना ज 'योगदृष्टिसमुच्चय' अने ‘पञ्चवस्तुक' जेवा ग्रंथोनी स्वोपज्ञ विवृतिओमां पण आवी छूट लीधी नथी, के 'अष्टकप्रकरण' के 'षोडशकप्रकरण' नी टीकामां तेना समर्थ टीकाकारोए पण आवी छूट लीधी नथी. आथी उपर सूचवेली परंपरानो ख्याल आपणने मळी शके छे. __आ परंपराथी तद्दन ऊलटुं, पंचसूत्र नी टीका पूरी थया पछी श्रीहरिभद्राचार्ये, भले संस्कृतमा ज पण, मूळ सूत्रनी हरोळमां मूकी शकाय तेवी शैलीए आ छ जेटलां वाक्यो मूक्यां छे. आ वाक्यो ‘पञ्चसूत्र' ना प्रथम 'पापप्रतिघातसूत्र' ना अंतिम-पंदरमा गद्यखंड 'नमो नमियनमियाणं । १४ साथे सरखावीए तो, बन्नेनी शैलीमां अने रजूआतमां, भाषाभेदने बाद करतां, कोई ज तफावत जडे तेम नथी. तेमांय टीकागत गद्यखंडमांगें सर्वनमस्कारार्हेभ्यो नम:'१५ ए वाक्य तथा 'सर्वे सत्त्वाः सुखिनः सन्तु (३ वार) '१६. ए वाक्य तो अनुक्रमे, सूत्रगत गद्यखंडनां 'नमो सेस (अहीं नमोऽसेस होय तो बहु रोचक अने सुसंगत लागे) नमोक्कारारिहाणं'१७ ए वाक्यनी तथा 'सुहिणो भवंतु जीवा'१८ आ वाक्यनी छायारूप ज लागे छे. आ बाबत स्पष्टपणे एम मानवा प्रेरे छे के श्रीहरिभद्रसूरि महाराज ज मूळ सूत्रना पण कर्ता छे अने तेथी ज तेमणे, भावविभोर क्षणोनी अनुभूति करतां करतां, टीकामां पण आ गद्यखंड उमेर्यो छे. जो पोते सूत्रकार न होत पण फक्त टीकाकार ज होत तो तेमणे आवी छूट न लीधी होत, एम कहेवू वधु पडतुं नथी लागतुं. ___३. सत्तरमा-अढारमा सैकामां थयेला, समर्थ तार्किक अने ‘लघु हरिभद्र' एवं बिरुद मेळवनार महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी गणिए, तेमना 'धर्मपरीक्षा' नामे ग्रंथमां, ज्यारे पञ्चसूत्र नी साक्षी लेवानो अवसर उपस्थित थयो त्यारे, तेने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520511
Book TitleAnusandhan 1998 00 SrNo 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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