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________________ 17 मानयो हो प्रभु मानयो साचुं एह , मनसुं हो प्रभु मनसुं मिलन ज मई कर्यु जी । कपटइं हो प्रभु कपटई मिलइ जेह , तेहसुं हो प्रभु तेहसुं कीजइ आंतरं जी ॥ ३ ।। दिल भरि हो प्रभु दिलभरि हुइ नेह , उत्तम हो प्रभु उत्तम रीति ते सहु कहइ जी । मत दियो हो प्रभु मत दियो तुम्ह छेह , अवगुण हो प्रभु अवगुण मोटा सांसहइ जी ॥ ४ ।। जिनजी हो प्रभु जिनजी तुं दीनदयाल , सेवा हो प्रभु सेवा अब सफली करोजी । कीजइ हो प्रभु कीजइ सुख सुगाल , संपति हो प्रभु संपति तत्त्व विजय करोजी ॥ ५ ॥ । इति श्री चंद्रप्रभ जिन गीतं ।।। ( ए अजुआली रातडी रे आसो आसिक मास मनना मान्या... ए देशी ) सुविधि जिणंद स्युं गोठडी रे मुझ मनि खरिय सुहाय मनना व्हाला । अंतर चितनी वारता रे मन मिल्या विण न कहवाय म० ॥ १ ॥ वाल्हो वाल्हो जी जिणंद मुझ वाल्हो तूं तो मोहइ भविजन वृंद, म० आं०॥ जेहसुं मन मान्युं हुइ रे तेहसुं कइसी लाज म० । तेहसुं सरम जो कीजइ रे तो लाजइ विणसइ काज म० ॥ २ ॥ तुं साहिब मुझ सिर थकइ रे कर्म करइ किम जोर म० । भांजओ मद हवई तेहनो रे जेहनो जगमा सोर म० ॥ ३ ॥ ९. तेह पाठां.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520511
Book TitleAnusandhan 1998 00 SrNo 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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