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वात अने ३. मध्यकाळमां एने लगती श्रेष्ठ कृतिओ अने तेमांनी त्रणेक कृतिओनुं परंपरागत रीते गान - ए त्रण स्तरे आ संगोष्ठीने उघाडी आपवा माटेनो आ आखो उपक्रम छे तेम श्री शिरीष पंचाले स्पष्ट कर्यु हतुं.
श्री जयंत कोठारीए संगोष्ठीना उपप्रवेशमा जणाव्युं हतुं के मध्यकालीन साहित्य अने परंपरामांनो जे वारसो छे, ते आपणे वीसरवा जेवो नथी. वळी भूतकाळने आत्मसात् करी घणुं बधुं पामी शकाय छे. मध्यकालीन साहित्य आपणा वर्तमान जीवनमां पण भाग भजवे छे. मध्यकालीन साहित्य अने धार्मिक संप्रदायो तपासवाना विषयो छे. श्री कोठारीए मध्यकालीन साहित्यने प्रत्यक्ष रजूआतना साहित्य तरीके ओळखाव्युं अने कह्यु के आख्यानो, लोकवार्ताओ, भजनो, पदो समूहमां – समूह वच्चे गवातां हतां. मध्यकाळy आपणुं साहित्य समूहभोग्य छे. नरसिंहनां पदो वांचीने नहीं, पण पूरेपूरां गाईने ज माणी शकाय. आ साहित्य एनी धार्मिक ने पद्यपरंपरामां ज पामी शकाय. संगोष्ठीनी भूमिका समजावता वक्तव्यमां संचालकश्री लाभशंकर पुरोहिते मध्यकाळना पांचसो-सातसो वर्षनी ऊर्जा लयबद्ध वाणीमां श्रोताओ ज पकडी शके एम कही श्रोताओना प्रथम पदनो स्वीकार कर्यो. वळी श्रोतागारमां बेठेला व्यासपीठाधिकारी श्रोताओनी विद्वत्तानो नम्रताथी स्वीकार कर्यो. आचार्यश्री विजयशीलचंद्रसूरिजीए मंगलारंभनी बेठकना प्रावेशिक वक्तव्यमां पोताने आजन्म धर्मना माणस तरीके ओळखावी भक्तिना महिमानो सर्वथा स्वीकार कर्यो. एटलुं ज नहीं, मध्यकालीन लोकचेतनाने एक तांतणे बांधनारा मेरुसूत्र तरीके भक्तिरसने गणाव्यो. आचार्यश्रीए ‘वाक्यम् रसात्मकम् काव्यम्' विश्वनाथ भट्टनी आ ख्यात उक्तिनो महिमा कर्यो. रसानुभूति ज चेतनाचेतननुं प्रमाण छे, एम कही भक्तिनी प्रतीति विशे कडं. 'हुं एमनो छु', 'हुं तारो छु', "हुं' अने 'तु' जुदा नथी' एवा त्रिविध तबक्काओ द्वारा नवधा भक्तिने आचार्यश्रीए समजावी. स्तवनाना १. याचना, २. गुणकीर्तन, ३. आत्मनिंदा अने ४. आत्मतत्त्वचिंतन एवा चार प्रकारो विशे तेओए विस्तारथी समजाव्युं अने कडं के आध्यात्मिक भावनी प्रतीति करावती आ पद्यपरंपरा मध्यकाळनी देणगी छे. वळी आपणे भूतकाळमां जीववा- नथी, पण भूतकाळने सजीव
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