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नोंधेली ने परंपरागत रीते प्रवर्तती मान्यता अने तेने पोषनारी युक्तिओ आपोआप निर्बळ तथा निर्मूळ ठरे छे. चिरन्तनो एटले प्राचीन कोई एक के अनेक आचार्यो द्वारा आ सूत्रो रचायां हशे एवी, अने ए चिरन्तनोए पोते अज्ञात रहेवार्नु पसंद करीने आ सूत्रोने समस्त संघनी मिल्कत थवा दीधी हशे एवी तमाम कल्पनाओ पण, आथी, व्यर्थ बने छे.
प्रश्न ए थाय छे के आ कृति हरिभद्रसूरिकर्तृक होवा छतां तेना कर्ता विशे भ्रांति / गरबड क्याथी / क्यारे जन्मी ?
आ अंगे विचार अने तपास करतां जणाय छे के विक्रमना पंदरमा सैकामां के ते आसपास आ गरबड शरु थई होवी जोइए. 'पञ्चसूत्र' नी उपलब्ध त्रण प्राचीन ताडपत्रीय प्रतिओमां, जे १२माथी १४मा सैकाना गाळानी होवानो पूरो संभव छे तेमां, मुनि श्रीजंबूविजयजीए नोंध्यु छे तेम, क्यांय तेना कर्ता विशे नोंध छे नहि. तेमां तो फक्त 'समत्तं पंचसुत्तं'६५ ए प्रकारनो ज निर्देश छे. आ उपरथी अनुमान थई शके के ते गाळामां आना कर्तृत्व विशे कोई गरबड नहि होय.
१५मा शतकमां कोई विद्वान साधुए तैयार करेली मनाती 'बृहट्टिपनिका' नामनी जैन ग्रंथोनी सूचिमां सौ प्रथम आवी नोंध जोवा मळे छे.
पाञ्चसूत्रं प्राकृतमूलम् , सूत्राणि २१०.
वृत्तिश्च हारिभद्री ८८०.६५ आ नोंधमां ‘पञ्चसूत्र' ना कर्ता विशे कोई उल्लेख नथी, अने तेनी टीका 'हारिभद्री' छे तेवी नोंध छे. ते उपरथी भ्रांति पेदा थई होय तो ना न कहेवाय. जोके जराक सूक्ष्म रीते आ नोंधने विचारीए तो 'पाञ्चसूत्रं प्राकृतमूलम् , सूत्राणि २१० वृत्तिश्च हारिभद्री ८८०' आम सळंग गोठवीने तेनो अर्थ एवो करीए के 'पंचसूत्र-प्राकृतभाषामां मूळ, सूत्र २१० ; अने (तेनी) वृत्ति (श्लोकमान ८८०) - हारिभद्रीय', तो आम 'च' शब्दनी सहायथी सूत्र ने वृत्ति - बन्ने माटे 'हारिभद्री' शब्द प्रयोजायो होवानुं (अने 'वृत्ति' शब्दनी साथे आवी जवाने कारणे स्त्रीलिंगे ते प्रयोजायो होवानु) नकारी न शकाय. अलबत्त, आ जराक
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