Book Title: Anusandhan 1997 00 SrNo 08
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान मोहरित एचवयण मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसत्त, ५२९) विधातक "मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'। प्राकृतभाषा अने जैन साहित्य विषयका संपादन, संशोधन, माहिती वगैरेनी पत्रिका प्राकत भाषा अनजन साहित्य संकलनकार : विजयशीलचन्द्रसूरि. हरिवल्लभ भायाणी Pulism ० . શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृतिसंस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद १९९७ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' संधान प्राकृतभाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका संपादको : विजयशीलचन्द्रसूरि हरिवल्लभ भायाणी कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद १९९७ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपर्क : प्रकाशक : किंमत : प्राप्तिस्थान : मुद्रकः अनुसंधान ८ हरिवल्लभ भायाणी २५ / २, विमानगर, सेटेलाईट रोड, अहमदाबाद ३८० ०१५ - कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद, १९९७ रू. ३५-०० सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद ३८०००१ क्रिष्ना ग्राफिक्स किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अहमदाबाद ३८० ०१३ (फोन : ७४८४३९३) - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय अनुसन्धाननी या mनो आ आठमो मुकाम छे. संशोधन अंगेनी माहिती पत्रिकाना रूपमा उद्भवेल अनुसन्धान, लागे छे के, साव अनायासे ज एक शोधसामयिक तरीके विकसी-विस्तरी रह्यं छे. जैन ग्रंथ भंडारोमां संगृहीत साहित्य एटलुं बधुं विपुल छे के आ एक नहि आवां अनेक सामयिको पण तेना अध्ययन तथा प्रकाशन माटे ओछां पडे. आ अंकमां प्रकट थती 'ललितांगचरित' एक विशिष्ट कृति छे, जे मध्यकालीन साहित्यना अभ्यासीओ माटे खुब रसप्रद बनी रहे तेवी छे. आ कुतिनो संक्षिप्त परिचय अनुसन्धान-७मां अपायो हतो. अहीं तेनी, पाटणना श्रीहेमचन्द्राचार्य भंडारमाथी प्राप्त, एकमात्र हस्तपोथीने आधारे ऊतारेली वाचना आपेल छे. तेनी भूमिका तथा परिशिष्ट वगेरे उमेरीने, भविष्यमां, स्वतंत्र पुस्तक करवानी ख्वाएश पण छे ज. शनैः शनैः चालती आ अनुसन्धान-यात्रा विद्यारसिकोने रसदायक बनती रहेशे तो ते आनंददायक हशे. -संपादको Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. ललितांग - चरित्र अपर - नाम रासक-चूडामणि २. त्रंबावती - तीर्थमाळ ५. ३. श्रीस्तंभतीर्थना देरासरोनी सूचि - १ ४. ट्रंक नोंध - एक नोंधपात्र पुस्तकनी प्रशस्ति, हेमचन्द्राचार्ये प्रतिष्ठित प्रतिमा स्तुत्यात्मक सात लघु कृतिओ लघु-कर्मविपाक सस्तबकार्थ ७. श्रीहरिभद्रसूरिविरचितं समसंस्कृतप्राकृत जिन साधारण-स्तवन ८. श्रीहीरविजयसूरीश्वर - शिष्य ६. नारायण म. कंसारा श्रीशुभविजयकृत स्याद्वाद - भाषा शब्दप्रयोगोनी पगदंडी पर ह. भायाणी १. सं. दीप 'दीवो' ना पर्याय, २. प्रा. कसरक्क, ३. सं. केकाण, ४. खेह, ५. अप. वाहुडि, ६. वाणजु 'वेपारी', ७. गूंगळावुं, गूंगणुं, ८. चपटुं, चांप, चीपवुं, चीवडो वगेरे, ९. चंचोळवु, १०. झपट, झापट, ११. झूमवुं, झूमखो, झूमणुं, १२ ठोंसो, ठोंसवुं, ठांसवुं, ठसवुं ठेस, १३. थपथपी, थापडी, थपाट वगेरे, १४. नकलंक, १५. पोपट, पोपचुं वगेरे, १६. मळी, तलवट, १७. रांझण, १८. ववठावु, वावठवुं, १९. वावलवु, प्रकीर्ण : ९. अनुक्रम सं. हरिवल्लभ भायाणी सं. मुनि भुवनचन्द्र सं. मुनि भुवनचन्द्र सं. विजयशीलचन्द्रसूरि सं. विजयशीलचन्द्रसूरि सं. मुनिश्री धुरंधरविजयजी सं. मुनिधर्मकीर्तिविजय सं. विजयशीलचन्द्रसूरि १०. परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ए पुस्तकनो परिचय ११. श्री जिनस्तुतिः १२. जैन विश्वभारतीनी आगम-ग्रंथमालानां चार अद्यतन प्रकाशन १३. केटलीक नोंधपात्र हस्तप्रत ह. भायाणी १४. A Note on उल्लण, कुसुण/कुसण, तीमण १५. अवसान नोंध ह. भायाणी १ ६२ ७० ८० ८१ ८३ ८९ १०० १०२ १०८ के. आर. चन्द्र सं. मुनिजगतच्चन्द्रविजयगणि१२५ ११९ १२२ १२७ १३० १२२ १३५ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईसरसूरि-विरचित ललितांग-चरित्र · अपर-नाम रासक-चूडामणि __ -सं. हरिवल्लभ भायाणी श्री वर्धमानाय नमः ॥ "विमल-कर-कमले"ति सागरदत्त-श्रेष्ठि-रासकादौ गाथा यथा, तथात्रापि प्रथम-गाथा । पढमं पढम-जिणिदं, पढम-निवं पढम-धम्म-धुर-धरणे । वसहं वसह-जिणेसं, नमामि सुर-नमिय-पय-देसं ॥१ सिरि-आससेण-नरवर-विसाल-कुल-[कमल]-भमर-भोगिंदो । भोगिंद-सहिय-पासो, दिसउ सिरिं तुम्ह पहु-पासो ॥२ सिरि-सालसूरि-पाया, निच्चं मे होज्ज गुरुअ-सुपसाया । अन्नाण-तम-तमो-भर-हरणेऽरुण-सारहि-व्व समा ॥३ सालंकार-समत्थं, सच्छंदं सरस-सुगुण-संजुत्तं । ललिअंगकुमर-चरियं ललणा-ललियं व निसुणेह ॥४ दढ-दुग्ग-मूल-कोसीस-पत्त-नर-रयण-भमर-पक्खिलियं । रेहइ कय-सिरि-वासं सिरिवासं नयर-तामरसं ॥५ दूहउ . तिणि पुरि पुर-जण-रंजवण, राणी-कमला-कंत । नरवाहण-निव नय-निउण, अहिणव-कमला-कंत ॥६ गाथा तप्पुत्तो सव्वुत्तो, सव्व-कला-कोसलेण संपुण्णो । ललियंग-नाम-कुमरो ललियंगि-विलास-वर-भमरो ॥७ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [2] षट्पद सकल-सुयण-गुण-वट्टि-पत्त बहु-नेहहँ पूरिय दुह-दूरिय-रिउ-वग्ग-मग्ग-तम-भर-संचूरिय । भासुर-तेय-सुदित्त जित्त जिणि रवि-ससि-मंडल पयड-पयाव-पयंड सुहवि किरि लहु आखंडल अच्छरिय एह जसु देह नवि, पाव-पंक-कज्जल किरइ जसु कित्ति झत्ति निय-कुल-भवणि कुल-पईव जिम विप्फुरइ ॥८ साटक भत्ती देव-गुरुम्मि जम्मपभिई पीई परा पाणिणो, . सम्माणं मय-णाण-ताणममलं अत्ताण सत्ताण य । सच्चं सीलमणिदियं सुविउलं भिच्चेसु वच्छल्लयं, एवं तस्स गुणोदओ-वि लहुणो कप्पूर-गंधस्स वा ॥९ , शार्दूलविक्रीडितं द्वितीय नाम । गाथा एवं भूरि गुणस्स वि, तस्सासी वसणमुत्तमं दाणे । कस्स मणो कत्थ वि पुण, रई कुणइ जह सुयं लोए ॥१० दहा. कुणही-नई काँई रुचइँ, कुणही-नईं काँइँ सुहाइ । भमरु कमलिणि रइ करइ, दद्दुरु कद्दमि जाइ ॥११॥ इत्यादि । गाथा जो जस्स जाणइ गुणा० ॥१२ जि बहुफलेहि फलीउ० ॥१३ हंसा रच्चंति सरे० ॥१४ जिणि नवि पुज्जिउ तित्थयरु, पत्ति न दिद्धउँ दाणु । तिणि करि करि सिउँ बप्पडउ, करिस्यइ नरु अहिमाणु ॥१५ धम्मि राग सुअ-चिंतवण, दाण-वसण जसु होइ । माणुस-भव-सुरतरु-तणउँ, ए निश्चल फल होइ ॥१६ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [3] गाथा इय चिंतंत कुमारो, दाण-वसण-विहिय-सहल-संसारो । . मन्नतो सुन्नं तो, तेण विणा तारिसं नयरं ॥१७ भुजंग प्रयात छंद जिहाँ सत्त भू-पीढ-आवास-साला, जिहाँ गयण-संलग्ग-दुग्गा विसाला । सराराम वर कूव वावी रसाला, विणा दाणमेगं पि संसार-जाला ॥१८ जिहाँ गयह गज्जंति रज्जंति राया, हया हेलि हिंडंति जव-जित्त-वाया। धरा-मंडले धीर धसमसइँ धाया, विणा दाणमेगंपि संसार-माया ॥१९ जिहाँ कव्व कोऊहलाणंद-कंदा, महा-गीय-नाएण रंजिय नरिंदा । महा-पंडिया जत्थ पाढंति छंदा, विणा दाणमेगं पि संसार-निंदा ॥२० महा-रूव-लावण्ण-लीला-विलासा, महा-भोग-संयोग-संसार-आसा। पिया-माय-भायंगणा पेमपासा, विणा दाणमेगं पि सव्वे निरासा ॥२१ कलशे षट्पद ते मंदिर गिरि-विवर नयर नव रणह लिक्खइ, दाण-धम्म-विण धम्म सहु तिम सुण्णउँ पिक्खइ । 1 xx xx xx xx ते लक्खण समुहुत्त दिवस निसि गिणइं, जे ण जण-सिउं हसि मिलई (?) ॥२२ गाथा अह बहु-दाण-समागय-सज्जण-रोलंब-डुंब-झंकरिणो । तस्सेव कुमर-करिणो आसि सहा सज्जणो नाम ॥२३ सो सव्वत्थ निरन्जल कुमर-नरिंदस्स पहाण-पुरुसोव्व । सुह-असुह-कज्ज करणे, निवारिओ धारिओ (?) लोए ॥२४ सज्जण-नामेण पुणों; पगईए दुज्जणो-वि कुमरेण । बहु-दाण-माण-पुट्ठो, जलही जलणं व पडिकूलो ॥२५ सकल-सरूव-सुवित्तो, दूमिज्जंतो जणेहिं तं कुमरो । नवि छंडइ जह चंदो कलंकमसुहेण कम्मेण ॥२६ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4] षट्पद कम्मि कीउ दासत्त सत्त हरिचंदि नीच-घरि कम्मि हणिउ हय कंस केसि चाणूर हरण हरि । कम्मि राम गय धाम सीय लक्खण वणि वासिय, कम्मि सीस दस वीस भुअह लंकेंस विणासीय । किया-कम्मि चंद सूरिज नडिय, भिडिय कम्मि भारथि सुहड, इम भणइ ईस दीसह दिसां, कोइ समथ वि ण कम्म भड ॥२७ गाथा जं विज्ज अपत्थासी, जमुत्तमो नीय-संगओ होइ । तं पुव्वकम्मजणियं, दुचिट्ठियं सयल जीवाणं ॥२८ अह अन्न-दिणे राया, जायाणंदो कुमार-गुण-तुट्ठो । दिसइ बहु-मुल्ल-हारं, कुमरस्स गले सुसिंगारं ॥२९ दाणं अत्थु पहाणं, कि कित्तिम-भूसणाण भारेण । इअ चिंतितो कुमरो, हार-च्चायं कुणइ सिग्धं ॥३० इय जाणिऊण तुरियं तुरियगईए स सज्जणो विजणं । गंतूण राय-पुरओ, सविसेसं विण्णवइ एवं ॥३१ पद्धडी छंद महाराय निसुणि विन्नतिय एग, ललियंग-कुमरवर-गय-विवेग । अइ-दाण-वसणि रत्तउ रसाल, विण-दाण गणइ सह आलमाल ॥३२ नवि जाणइ पत्तापत्त-भेउ,जं इच्छाँ आवइ दिइ तेउ । विण-धण किम चल्लइ रज्जु-कज्ज, संसारिसु वल्लह अप्प कज्ज ॥३३ जं जीवह वल्लह होइ दव्व, किम किज्जइ वियरण तासु सव्व । अज्जिज्जिइ अणुदिणु महादुक्खि, ते मूढ न जाणइ जतनि रक्खि ॥३४॥ कुल विज्जा वाणि विवेग रूव, जीह विण नवि सलहइ कोइ भूव । सब-सरिस पुरिसजीह विण कहंति, जिणि अत्थि अणत्थ सुविलय जंति ॥३५ अइ-दाणिहिँ बलि घल्लिउ पयालि, अइ-माणिहिँ कौरव-खय अगालि । अइ-लोभिहिँ लंकापति-विणास, सुर-दाणव-पति पय नमइँ जास ॥३६ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [5] अइ वज्जिय देवहिँ गीय-नट्ट, ए पयड पहुवि गि नीइ-वट्ट । जं लहइ लहु-वि पर अप्प-भाउ, ते राय-हंस नर गुरु-सहाउ ॥३७ जं अवसरि दिज्जइ अप्प-दाण, तं लब्भइ पर-भवि फल अमाण । अवसर-विण दिन्नउँ कोडि-मानि, तं जाण विरुन्नउँ सुन्नरानि ॥३८ अवसर-विण वुट्टउ घण अणि?, अवसर-विण मिल्लिउ न भलउँ इट्ठ । अवसर-विण जे जगि करइँ काम, ते लहइँ पुरिस-वर मूढ नाम ॥३९ दूहा जे अवसर नवि ओलखइं, लखइँ न छेग-छइल्ल । ते नर-रूव निसिंग जिम, अहिणव जाणि बइल्ल ॥४० इम तसु वयण वयण सुणवि, कुप्पिउ नरवइ एम । भाल भिउडि भीसण नयण, फुक्किय हुअवह जेम ॥४१ कुंडलीउ चित्ति चमक्किय चिंतवइ, नीइ-निउण-नरनाह जोव्वणए तसु पुत्त पिण, मित्त-सरिस गुण-गाह मित्त-सरिस गुण-गाह वाह जिम मिल्हिय वग्गिहिँ मग्म कुमग्ग नवि गणइ नवि नेह सवग्गिहिँ धण-जुव्वण-मय-मत्त रत्त विस-वसण निसंकिय इम चिंतंत नरिंद नोइ निय-चित्ति चमक्किय ॥४२ गाथा जाओ हरइ कलत्तं, वढेतो वज्जियं हरइ दव्वं । x x x x x x पुत्त-समो वेरिओ नत्थि ॥४३ हक्कारिऊण कुमरं, निय-पिय-पयकमल-भत्ति-भर-भमरं । पच्छन्नं पुहवीसो, पभणइ महुराएँ वाणीए ॥४४ चालि सुणि सिक्ख कुमर नरेस तुं अच्छइ सुगुण सुवेस । वडचित्त वसुहाँ वीर, गुरुअपणि गुण-गंभीर ॥४५ तह किम विहिइ उवएस, तुझ दिअउँ वच्छ असेस । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6] जाणइ न तुं सिउँ पुत्त, निव-धम्म-मम्मह सुत्त ॥४६ अइमलिन भणीइ रज्ज, सहु करइ निय निय कज्ज । जिहँ गिणइँ पुण्ण न पप्प, मन्नइ ति अप्पइ अप्प ॥४७ धणि धन्नह चिंतइ दुचित्त, पर भमइँ पुहविइ दुचित्त । हिंडइ ति हिसिमिसि हेलि, पिय-मायगुरु अवहेलि ॥४८ हठि हणइँ हसि निय बप्प, कोणीसु जेम सबप्प । जि बप्प होइ कुबप्प, जाणि ति करंडह सप्प ॥४९ बहु-विसय-पर धणिहिँ अंध, पिय-माय-भाय गिणइ न अंध । जुगबाहु मणिरह जेम, सिद्धति सुणिआ तेम ॥५० पिय-माय गिणइ न पुत्त, जिम चुलणि चुलणीपुत्र । नवि भज्ज सूरियकंत, जिम हणिउ निय पिय-कंत ॥५१ सहु-सयण-परियण-गुत्त, चाणक्क जिम ससिगुत्त । इम रज्ज-कज्जहिँ लुद्ध, कुण कुण भयउ न-वि मुद्ध ॥५२ गय-कन्न-चंचल-लच्छि, स-विसेस रज्जु कुलच्छि । नरकंत-रज्ज-पसिद्धि, सुणि सत्थि एह पसिद्धि ॥५३ तउ वच्छ एह अवत्थ, जाणइ न एम विवत्थ । जं रहइ रयणिहि दीस, निश्चिंत जिम जगदीस ॥५४ चालइ न चतुरिम चाइ, ते तुरिय पडई अपाइ । इम विसम रज्जह धम्म, चाहीइ पंडिय मम्म ॥५५ बहु फलिय फलिय सुखित्त, रक्खीइ जिम निव खित्त । सींचीइं जिम आराम, नवि हुइं तेम हराम ॥५६।। रसाउलउ कोस-मूलहँ कलिय, पुहवि-पइ खंध-लिय, सुअ-सुसाखिहि मिलिय, सुयण-वित्थर-वलिय, रयण-वसु-कुंपलिय, जस-कुसुम सुं भिलिय । नर-भसल-भिंभलिय, भोग-फल-सउं फलिय, Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [7] एरिसउ रज्ज-पायव कलिय, वसण-नदी-जलि खलभलिय, नरवाहण-सुअ इम संभलिय, भंति सयल हरिहिं टलिय ।।५७ गाथा पुत्त पहाणो वि सया, जइ एसो महियलम्मि दाण-गुणो । तह वि-हु अत्ता-सत्ती, तत्थ त्तुमं सोहणो नवरं ।।५८ सव्वेसु सुकज्जेसु, वि मज्झत्थ-गुणो सुहावहो [हो]इ । अइकप्पूराहारो, महवइ किं दसण-पडणस्स ॥५९ दूहा अतिहि नमंता जाइँ गुण, थड्डिम नेह न होइ । मज्झिम गुण सेवंतयाँ, कुंभ भरंतउ जोइ ॥६० अइसीइहिँ तरुवर दहइँ, अइ-घण-वुट्ठि दुकाल । अइदानिहिँ अणुचितपणउं, अइ सहु आल-झमाल ॥६१ अतिहि न भल्ला वरसणा, अतिहि न भल्ला धुप्प । अतिहि न भल्ला बुल्लणा, अतिहि न भल्ली चुप्प ॥६२ गाथा इणमेव सुपंडिच्चं जं आयाओ वउ वि विसेसेण । जह पुत्त पुत्त-पुव्वं, पभणंति विसारया एवं ॥६३ कंडलीउविण-अज्जण जे वय करइँ, विण-सामिय बहु रोस । अतुरपणि अवसर विसरि, जं वियर निय कोस, जं वियरइँ निय कोस सोस बहु करइँ इकल्लउ, ते इत्तर अणुचित्त मूरिख धुरि जाण पहिल्लउ, खज्जंतां खय जंति मेर महियर सम बहु-धण, पइदिणि दंड-समाण जेउ वियरण विण-अज्जण ॥६४ गाथा पिय माय भाय जाया, जायाइँ जणाण ताव सम्मा । जा विप्फुरइ सुवित्तं, विउलं विउलालए नियए ॥६५ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 8 ] वित्तं पितम्मि काले, विहि- वसओ वसणढुक्किए पुरिसो । गय-तेयं पिव पुरिसो, पडिभासइ जह य इंगालो || ६६ ता पुत्त नियय कुल - रज्ज - सार - निव्वाह - खम - गुणं । (सुगुणं) साहारणं समाणं, समायरसु सव्व सुकरणं ॥ ६७ अह सुणिय राय - सिक्खं, कुमरो चिंतइ हियय - मज्झमि । धण्णोहं पुण्णोहं, जेणमिमं सिक्खए ताउ ||६८ गुरु-पियर - सिक्खणाओ, नत्थि परं अमियमिह जए पवरं तस्सोपेक्खा सममवि नत्थि परं कालकूड - विसं ॥६९ दूहा एक नियजणय अनि वली, सिक्ख दीइ गुरु जेम । संख अनिइ खीरइ भरिउ, इक सुरहउ नि हेम ॥७० अमिय-र - रसायण - अग्गली० ॥७१ वस्तु इम पसंसिय, इम पसंसिय, पुज्ज पिय-पाय, यहँ घरि रमलि - रसि, रायहंस - समवडि कुमर हरि, तिगि चच्चरि चहुटइ रमइ, भमइ खिल्लइ सुपरि परियरि तणु वियरण - वसि वित्थरिउ, पुणु झुणि तसु अववाउ मुहि तिन्हा बुंठा परइ, मग्गण एह सहाउ ॥७२ अडिल - दूहा मग्गण जण जंपंति कुमरवर, तुअ सम कोवि नहीँ जगि नरवर । दाणि दलिद-डारण दाणेसर, अढलिक अकल अंगि अलवेसर ||७३ हाटक छंद अलवेअर अणुपम अवनि अनग्गल अचल - दाण गुणवीर, जसु कर किरि अंब सदा - फल कलरव मग्गण कोइल कीर, कप्पतरु - जमलि हुई जग मज्झिहि हुअउ सु केम करीर, ललियंग - कुमर वर सुणि विष्णत्तिय समरथ साहस - धीर ॥७४ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [9] चिंतामणि पत्थर किम तुल्लइ कहु, किम हंसकाय भम भुल्लइ, सायर होइ केम छिल्लर छलि, रंक सु केम तुलइ भूवइ बलि ॥७५ छंद भूवई बल तुलइ केम बल रंकह पंक हुइ किम वारि, सहसकर-करि किम उप्पम दिज्जइ भद्दव निसि अंधारि, गद्दह किम नाग माग किम ऊवट कायर किम नरवीर, ललियंग-कुमरवर सुणि विण्णत्तिय समरथ साहस-धीर ॥७६ ससहर-करि किम घम्मह उप्पम, अमियकुंड किम हाला-सम जिणवर-जाख बिहुं बहुअंतर, पित्तल हेम जेम घण अंतर ॥७७ अंतर घण सुयण अनइ दुजण-जण अंतर सरसव मेर, अंतर जिम मुगति महासुखसंपति बहुभव संभव फेर, अंतर जिम बहु लवण कप्पूरह अंतर जिम पय खीर, ललियंग-कुमरवर सुणि विण्णत्तिय समरथ साहस-धीर ॥७८ अड्डिल अंतर जिम पंडिय-जण मुक्खह, अंतर जिम नारयगइ मुक्खह, अंतर जेम दासि कुल-वहुअह, अंतर इक्क अनि बहु-बहुअह ॥६९ बहु अंतर बहुइअ इक्क जिम अंतर बंभण जिम सोवाग, अंतर आयास धरणि जिम अंतर अंतर सल्लरि साग, अंतर जिम साधु अनि सावयजण अंतर सायरतीर, ललियंग-कुमरवर सुणि विण्णत्तिय समरथ साहस-धीर ॥८० कलशषट्पदः सायर सवि झलहलइँ चलइँ जव अट्ठ कुलाचल, धरणि धरइ आकंप कप्पि कंपइँ विसुराचल । चंद नविअ अंगार सूर सिरजइ तमभर (?) धाराधर नवि झरई धरइ नवि सेस सयल धर, सुपुरिस ससत्ति तोइ नवि चलइँ, निय-अंगीकिय-गुणवगुणि ललियंग-कुमरवर वीनती एह अम्ह वलि वलि निसुणि ॥८२ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [10] गाथा . परिपालिउण सुचिरं, दाणगुणं गुण-दुमस्स मूलं च । किविण - कुढारेणं, किं छंदसि छेय छल भत्थे । ८३ धीर सूरतं सुयर - कोलाइएसु जीवेसु सलहिज्जइ किं न पुणो, दाणं दोघट्ट - एसु ॥ ८४ यतः सूरोसि परदल - भंजणो सि गुरुओसि भद्दजाउसि । दाणेण विणा सुंदरि, न सोहए दंत निक्करडी ॥ ८५ (क) (भद्दकुले उप्पन्नो, उत्तुंगो राय - बार - सोहणओ । दाणेण विणा सुंदरि, न सोहए दंत निक्करडी ॥८५) (ख) उड्डाह - तिरिय-भुवणे, कित्तिं परिपेसिऊण दाणेण । संपइ संपइ-लुद्धस्स, कोवि तुम पगइ पलट्ठो ॥८६ संगह-परो समुद्दो, रसायलं पाविऊण संतुट्ठो । दायारो पुण उवरिं, गज्जइ भुवणस्स जलहरो ॥८७ एवं निसम्म कुमरो, दूमिय-हियओ हओव्व बाणेण । मग्गण-मुह- कोदंडय - निग्गय- अववाय-रूवेण ॥८८ चितइ हा कीस अहं, पडीओ खलु वग्घ- - दुत्तडी -नाए । अहवा किरि सप्पेणं गहिया छुच्छंदरी व्व जहा ॥ ८९ ॥ युग्मं अह गिलइ गिलइ ऊअरं० ॥९० इक्कत्तो रुअइ पिया, अन्नत्तो समरतूरनिग्घोसो | पिम्मेण रण - रसेण य, भडस्स दोलाइअं हिययं ॥ ९१ दूहउ भरउँ त भारी होइ, आधउँ करउँ त झलहलइ । बिहुँ परि विसमउँ जोइ, नवि लेती नवि मेल्हती ॥९२ पद्धडी छंद चितवs कुमर निय चित्ति एम बिहुँ गमि गुरु- संकडि करउँ केम, इक्कइ दिसि नरवइ - आणभंग, अन्नि-वि दिसि विणसइ कित्ति चंग ॥९३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [11] भंजइ जे भुजवलि भूव-आण, खंडइ खल खित्ति जे गुरुअ-माण ।। छंडइ छलि छोत्तिए कुलह नारी, विण-सत्थि कहिज्जइ तिन्नि मारि ॥९४ आज्ञाभङ्गो नरेन्द्राणां० ॥ पिण किज्जइ कारणि उच्च कज्ज, जिह करताँ नावइ लोय लज्ज । सक्कर खंताँ नइ पडइँ दंत, तिहँ जडिय न मूलीय मंत तंत ॥९५ जिणि पसरई चिहुँ दिसि चाय-कित्ति, तिणि वंछइ मूढ सु कुण अकित्ति । जं दाण भणिज्जइ जग-पहाण, तिहि करइ किसउँ नरराय आण ॥९६ जं दिताँ होइ सुहु अउ(इ?) अम्ह, रूसउ जण दुज्जण करउ नम्म । खज्जंत दियंताँ जाइ लच्छि, सा जाउ सुजिनी वलि न पुच्छि ।।९७ इम चिंतवि चालिउ चतुर कुमार, दिइ पुणरवि दुत्थिय दाण-सार । धण कंचण कप्पड अइ अपुव्व, जं चडइ हत्थि तं दियइ सव्व ॥९८ जं जीवह जारिस सहज भाउ, नवि मिल्हइँ ते तिम निय-सहाउ उक्कालिय जल जिम सीय होइ, जगि नहीं सहज पडियार कोइ ॥९९ जइ वास सयं गोवालीया, कुसमाणिय बंधइ मालिया। ता किं सहाव-धिय-गंधिया, कुसमेहिँ होइ सुगंधिया ॥१०० पद्धडी छंट इम जाणि वलि कुपिउ नरेस, दिद्धउ डसिआहरि तसु विदेस । रक्खिय रोसग्गलि राय-बार, जिहँ हुंतउ अणुदिण नवि निवार ॥१०१ वस्तुः कुमर पिक्खिय कुमर पिक्खिय राय कुपसाय, चिंतइ इम नियह मनि, करउँ केम अह माण-कज्जिहिं, जउ आइय मुझ वसण, नवि कावि नहीं मुझ ईह रज्जिहिं, अविणय अनयत्तण रहिय, जइ एमुसुण दोस (एम्वइँ पुण ?) लउ मइँ इह रहिवउँ नहीं, आइ न होइ न जोस? ॥१०२ गाथा वाहि-दलिद्द-मलिन्ना, वि माण-वसणागमे मणस्सीणं नन्नत्थ सुहं सयलं, देसंतरं-गमण-विमणाणं ॥१०३ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [12] यतः दीसइ विविहच्चरियं ॥१०४ पद्धडी चल्लिउ कुमर निसि एम चिंति, कमलुज्जल-कोमलकाय-कंति । पक्खरिउ पवण-जव वर-पवंग, तसु उप्परि आसण-ठाण-रंग ॥१०५ चडि चल्लिउ चंचलि तुरय-वेग, मण पवण सुयण बल हूअ अणेग । दिइ देविय देवी वाम सद्द, ललियंगकुमर तुम्ह होइ भद्द ।।१०६ भइरव भय वारइ दहिणंगि, चिव्वरिय चतुर पणि चवइ अंगि। राया रायत्तण कहइ वाम, लालिय सवि टालइ वेरि ठाम ॥१०७ दाहिणि दिसि हुइ हणुमंत हक्क जाणि कि जय कुमर पयाण-ढक्क । सारंग नाम बहु अत्थ होइं, ते सयल सबल दाहिणइ जोइ ।।१०८ हणमंत हरिण चातक चकोर, बग सारस सारय हंस मोर ।। सावड सुणय-वि भला एअ, जिम-बुल्लिय आगम-ग्रंथि जेअ॥१०९ करि करिय कुमर करवाल मित्त, जे सबल सया उज्जोय-चित्त । भय-भीडइं सारइ बहु अ काम, जिणि करि सूरत्तण लहइ नाम ॥११० ते समरथ सुदढ सहाय एक तसु वल-दलि चल्लिउ कुमर छेक। तसु गमण मणिंगिय बुद्ध जाम, सज्जण पुण पुट्ठिहि थियउ ताम ।।१११ अप्पा गुण दोस मुणइ स अप्प, जिम बुज्झइ सप्प हत्थि सिण सप्प । तिम सज्जण दुज्जण निय-सुहाई, सुपुरिस सच्छह छिण-कच्छ छाइ ॥११२ उत्तम नवि करइ वियार एम, पर-अप्प-विगति नवि रोस पेम।। सम-सत्तु-मित्त उत्तम चरित्त, सम-विसम-समय पर-कज्जि चित्त ।।११३ दूहा सज्जण अतिहि पराभविउ, मनिहिँ न-आणइ डंस । छेदिउ भेदिउ दूहविउ, मधुरउ वाजइ वंस ॥११४ उवयारह उवयारडउ, सव्वह लोय करेइ० ॥११५ षट्पदः नवि जंपइ परदोस अप्प पर-जणु-गुण वच्चइँ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [13] धण- जुव्वण-गुरु-माण- दाण-माणिहिँ नवि मच्चाइँ अप्प रहूँ संतोस तोस मन्नइँ पर - रिद्धिहिँ परपीडइ परजलइँ टलइँ पर - कूड कुबुद्धिहिँ उवयार करइँ उवयार विण, अप्प पसंस न निंद पर, इम भइ सुत्तमुत्तावली, एरिस, सुपुरि[ स ] -चरिय वर ॥ ११६ गाथा सुपुरिस - चरिय- पवित्तो, कवडुज्झिय-सत्तु - मित्त-सम-चित्तो । अणुगय- वच्छल्लाओ, न निवारइ तं तहा कुमरो ॥११७ जं जेण कियं कम्मं, अन्न - भवे इह भवे सुहं असुहं । तं तेण भोइअव्वं, निमित्त - मित्तं परो होइ ॥ ११८ अह तेण कारणेणं, कुमरो पुच्छेइ तमणुगय- भिच्चं । साहसु सुह-पंथ-कइ, कमवि कहं सवण सुह- हेउं ॥ ११९ ता झत्ति सुयण - नामो, निय सहज - गुणाउ वियरिय - विराडो । जंप कहु देव तुमं, किं पि वरं पुण्ण पावाओ || १२० ता सहसा ललियंगो, विम्हिय - हियओ सुवज्जरइ एवं | रे मुद्ध मूढ तुमए किं भणियं भुवण पयडमिमं । १२१ अबला - बाल - गुआलय - हालिय-पमुहाण जं फुडं लोए । धम्माण, खउ तहा णव पावाओ ॥१२२ दूहा सुयण पयंपइ सच्च पुण, जे मूरिख देव ( ? ) । पिण धम्माधम्मह तणां, कहि किम जाणइ भेव ॥ १२३ कुमर भणइ सुणि रे सुयण, वयण अभिय मि मुज्झ । जं तुझ आगलि फुड कहउँ, धम्मह एह जि गुज्झ ॥ १२४ जीव-दया जिण-धम्म पुण, उत्तम कुलि अवयार । सुह-गुरु- चरणकमल वली, दुल्लह रयण चियारि ॥ १२५ पुण्य - हीण जे जगि पुरिस, पुण नवि पामई एह । रज्जु रिद्धि सहु सुअणजण, रूव-रमणि गुण--गेह ।। १२६ - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [14] सच्च-वयण गुरु-भत्ति पुण, नइ दुत्थिय-जण-दाण।। धम्म एह जिणवर तणउ, बहु-फल फलइ अमाण ॥१२७ यतः धम्मेण धणं व ० ॥१२८१ .................अत्थमण मत्थ दिवस बलो। रयणबल वसग्ग सुद्दा, अवि तारा विफुरंति जए ॥ १५१ समय-वलाओ काले, अहम्म-करणं सुहावहं होइ । तस्स बलाभावेणं, धम्मोऽरम्मो हुइ असुकओ ॥१५२ अडिल्लमडिल्ला धम्मवंत तुअ एह अवच्छह छंडि कुमर तिणि धम्म विवत्थह । समय एह तुअ करण अहम्मह, अज्जि बहुल धण करण अहम्मह ॥१५३ कुमर भणइ सुणि सुयण सुपावह, वयण सुणउँ नवि एह सुपावह । वलि वलि बुल्लि म अलिय सुपावह, जं धम्मिहिं खय जय पुण पावह ॥१५४ धम्म करताँ जित्त न होइ, जि तिहँ अंतराय फल कोइ । किं न होइ खज्जंताँ सक्कर, दसण-पीड विचि आविइ कक्कर ।।१५५ नाय-सरिस अज्जिज्जइ लच्छी, तं नियाणि जिम होइ कुलच्छिय । परतिय-पेम जेम जसु अज्जण, कुल-कलंक अवजस जण लज्जण ।। १५६ सुन्नरानि-रूनउँ कुण कज्जिहिँ, कज्ज कि कलियलि किज्जिहि । गाम-बुड्ढ नर पुच्छउ कोइ, भंजइं वाय नाय गुण केइ ॥१५७ जउ इम कहइ पुण जगि रूडउँ, तउ तइ लवीउँ सहू जं कूडउँ। तासु पाव छुट्टण छल दक्खउँ करिसि किसुउँ पणि झुणि तुअ अक्खउं॥१५८ सुयण भणई सुणि नरवर-वंदण, अम्ह वयण सीयल जिम चंदण । भल्लउँ भणिउँ मुझ पण इम जाणउँ, हुं सेवक इणि भवि तुं राणउ ॥१५९ जइ विवरीय वयण इह सामिय, तउ तुं निच्च भिच्च हुं सामिय। १. १२९थी १५१नी गाथाना पूर्वार्ध सुधीनो खंड नथी । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [15] इम विवदंत पत्त इक गामिहिँ, भुंछ लोय फल हणिय कुठामिहिं ॥१६० अथ कांयाई बोलीतउ ते तिणि स्थानकि बेउ आव्या, ते भुंछ लोकाँ मनि न सुहाव्या कहउ उदेशन पूछाँ कांई एक अपूर्व वात भलउँ सिउँ पुण्य किं पाप ॥१६१ अडिलाई मिश्र बोली तउ ते बोलइँ भुंछ मुछाला, माणस रूपि जाणि करि छाला । कहउ बाप किसिउँ मागु जाप अह सिउँ जाणउँ पुण्य कइ पाप । १६२ अथ सूड म्हइ करसण कराँ, खेत्र पाणी-सुँ भराँ. कास बालाँ, डुंगरि दव परजालाँ, वालराँ वावाँ, घणा दिन कुँ लूणी तवावाँ, भइसि चूषाँ, बोलाँ गाढाँ, जिम्मा कद्दन ताढाँ, मोटा द्रह तलाव सोसाँ, बिलाइ ककर पोसाँ, ढोर चारों, साप माराँ, वड-पीपला भखाँ, लूणां नीलाँ, कराँ सूडा बोलाँ, कूड गांडा वाहणि खडाँ, अनड संडादिक नडाँ, आपा पणी क्षेत्र पालाँ काजि झंबि झंबि पडाँ, मधुमीण संचाँ, वाछडा पाडाँ दूधि वंचाँ, सांड गाइ-तणा कर्णकम्बल छेदाँ, ते बयलि हलि गाडइँ वाहणि भार-सुँ गाढाँ खेदाँ, कुसि कुद्दाल हल हथीयार वहाँ, राति दीह खेत खले माले रहाँ, पीयाँ पर धल छासि, वसाँ आपणइ सासि, धरमउ कुँ न जाणाँ नाम, कराँ सदा काम, खाउँ खीच, टलइ घाँच, इम सुखइ भराँ पेट, म्हाँकि सुँ पूछउ रे भोलाँ, पाप-पुण्य-की नेट ॥१६३|| Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [16] गाथा इअ निसुणिऊण कुमरो, पामर-वयणाइँ अरुड-बरडाइँ । चिंतइ अहो किमेवं, पुरओ एआण जं नाओ ॥१६४ जं पुण्ण-पाव-लक्खण-लखण रहियाण नायपडिवत्ती। तं कणय-भल्ल-भल्ली, जंबाले जोइया विहिणा ॥ १६५ जइ बहु अरंसु तिल्लं ता किं लिप्पेइ गिरिवरे मूढो । जइ बहुवीयं सगिहे, ता किं को ऊसरे वचइ ॥१६६ जइ चंदणं घणं, ता किं कोइ दहइ कदन्न-वागस्स। जइ खीरं बहुअअरं, पाइज्जइ किं भुअंगस्स ।।१६७ (जइ) कणय-रयण-माला, ता को बंधेइ कायकंठम्मि । जइ बहु-दुग्गल पयरो, किं किज्जइ वाडि-परिहाणं ॥१६८ किं बहु-बुहजण-नाओ, जइ किज्जइ मुक्ख-पामर-जणेहिँ। ता वुच्चत्तपरत्तं, जायं उवहाणयं सच्चं ॥१६९ जिहिँ कप्पिय कप्पूर-तरु, किज्जई कयरह वाडि। सहिय ति निग्गुण-देसडइँ, किं न पडइ नितु धाडि ॥१७० जिहाँ लीला काएण-सुँ, कोइल कलिरव मोर। सहिय ति निग्गुण-देसडइँ किं न पडइ नितु चोर ।।१७१ जिहँ मयगल-मय-मत्त-सम, कारिज्जइ खर-कज्ज । सहिय ति निग्गुण-देसडइँ, किं न पडइ घण-विज्ज ॥ १७२ जिहँ समसरि तोलइ तुलइँ, कणय कपासकपूर। सहिय ति निग्गुण-देसडइँ, किम उग्गइ नितु सूर ।। १७३ जिहँ कोइल-कुलकलियलह, करइ ति काय परिक्ख । ते वण वणदव कवलिसुं, कवलिय किं न सरिक्ख ॥१७४ गाथा इय चिंतिउण कुमरो, जावलिउं तुरियतुरयमारूढो । तप्पिट्ठि-संठिओ पुण, सगव्वमेयं भणइ सुयणो ॥१७५ वस्तु : Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [17] तव पयंपि तव पयंपि सुयण सुवहास, कासु जल कित्ति वर, कुमर सच्च धण धम्म कामिय, धम्मपभाविहिँ सहु वली, रज्ज-रिद्धि तइँ तुरीय पामिय, मिल्हि तुरय मुझ हु तुरिय, सेवक जि आजम्म, कुमर भइ सिउँरे वली हुअइँ उवरिआ कम्म ॥१७६ दूहउ रज्ज रमा रामा सुधण पाणह - सुं जइ जाइँ । तउ पणि वाचा आपणी, सुपुरिस ऊरण थाइँ ॥ १७७ षट्पद वचनि छलिउ बलिराउ वचनि कुरव कुल खोयु. ॥१७८ दूहउ गय घोडा थोडा नहीं, रह पायक बहु संख । घणीवार इणि जीवि सहु पाम्या वारि असंख ॥ १७९ गाथा श्री उपदेशमालायां पत्ता य कामभोगा० । १८० जाणीय जहा भोगिंद संपया० । १८१ पद्धडी छंद घोडानुं कहि सुं गजउं मूढ, संभलइ वत्त जइ बहु-अ गूढ । इणि जीव अणंतीवार एह, पत्तां धण जुव्वण सयण गेह | नह दंत मंस केसट्ठिरत्तं गिरिमेरु सरिस इणि जीवि चत्त । हिमवंत - मलय-मंदर - समाण, दीवोदहि- धरणि - सरिस - पमाण ॥ १८३ आहारि न पुट्टुउ जीव एहि, भवि भवि बहु परि नव-नवइ देहि । थण - खीर- नीर पिद्धां जकेवि, सायर सरि सरिय न पार ते वि ॥ १८४ बहु कामभोग सुर नरविलास, केवली न जाणइ पार तास । किणि कारण तर दुख धरइ जीव, बहु पडिय अवस्था होइ कीव ॥ १८५ गाथा जं चिय वइणा लहियं ० ||१८६ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [18] पद्धडी संपइ जसु हरिस न होइ चित्ति, विहलिय-वेलाँ नवि सोगदित्ति । रण संकडि लिइ नवि पुट्टि घाउ, जणणी जणि परिस परिस-राउ ।। दूहउ जिणुणा जिणा म गव्व करि० ॥१८८ सीहिणि एक जि सीह जिण छ० ॥१८९ लिउ सुयण तुरंगम एह तुज्झ दिउ देव सेव-आएस मुज्झ मुझ जाउ मल जिम सहु असार, रहु रस जिम सम-दम-सत्त-सार ॥१९० इम कहिय सु अप्पिउ तुरय तासु, पुट्ठिहिँ थिउ कुमर सु जेम दास । चलंतउ चंचलि चडिउ सोइ, हठि हसइति पच्छलि जोइ जोइ ।। १९१ मिल्हंतउ जे नवि पुहवि पाउ, बिसतु बहुअ-विचि-जमलि राउ । पहिरतउ पटंबर पवर चीर, सुहसयण सेज वामंग वीर ।। १९२ माणसु अडागर बहुअ पान, गावताँ सुगायण गीयंगान । करताँ बहु-मग्गण जय-सुसद्द, वज्जता बेल्ल-नीसाण-नद्द ।। १९३ चडतउ वरचंचलतर-तुरंगि, नच्चंताँ निउण नव पत्त रंगि। चालता चतुरतर पत्ति-घट्ट, हीसंताँ हिसिमिसि हयह थट्ट ॥१९४ तिग-चच्चरि-चउ वट-जूअ-ठामि, इम रमतु जे लइ कुमरनामि । ते पिसुण-पुट्ठि पुलतउ पलाइ, जं करइ दैव सु जि होइ जोइ ॥ १९५ षट्पर यतः-किणिहि कालि वर तुरय मिल्हि चडीइं सुखासणि० ॥१९६ गाथा अणुधावमाण-कुमरं, मग्ग-समावेस-सेय-मल-विगलं । पच्चारतो पइ पइ, पभणइ सुयणो पुणो एवं ॥ १९७ किं कुमर तए दिटुं पच्चक्खं धम्म-पक्खवाय-फलं । तो अज्ज-वि चय चाहिय, धम्मस्स कयग्गहं विहलं ॥१९८ वंचसु लोगे वहबंधणेसु मा कुणसु किवं किवालुव्व । नो अत्थि कत्थवि तुमं, को अन्नो जीवणोवाओ ।। १९९ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [19] ता झत्ति कुमर - राओ जंपइ रे दुट्टु धिटु पाविट्ठ | तुह सज्जणाभिहाणं, अभियक्खा जह विसस्सेव ॥२०० किंचेवं दुच्छुद्धि, चितो वह बंधणाईएस पुणो । वाहाओ - विय अहिओ, पावेणं जह सुयं लोए ॥२०१ पावस्स कारगाओ, सुनिंदणिज्जो कुबुद्धि - दायारो । इत्थ कमि कहं सो, सुणइ सुइमं सव्वहा सुहियं ॥ २०२ जह कोवि वणे वाहो, कण्णंताकिट्ठ - दिड्ढ - कोदंडो । घायग्ग-गयाए पुण, हरिणीए पत्थियो एवं ॥ २०३ खणमेत्त मेव चिट्ठसु, वाह वयामत्ति ताव निय ठाणे । लहु-लहुअ- अपच्चाई छुहाए बाहिज्जमाणाइँ ॥। २०४ तेसिं थण - पाणमहं, कारित्ता जाव तुअ समीवम्मि । नो एमि तओ पट्टा, पुणरवि तेणेव वाहेणं ॥ २०५ जइ नो जइ एसि तओ, किं ता बंभ-त्थीय - पमुह - वह - जणियं । पावं पवणमाणा, नो मन्नइ तं तहा वाहो || २०६ I ता पुणरवि सा हरिणी, जंपइ नो एमि जइ तर सुणसु । वीसत्थस्सुवएस, जो देइ, नरो अहिय - कारं ॥ २०७ पावेण तस्स तुरियं लिप्पामि पुत्ति सा गया तुरियं । निय - वयण लुद्धा, समागया पुण भणइ एवं ॥२०८ छुट्टामि कहं सुपुरिस, तुह - बाण - पहार - मार- - वाराओ तो लुद्धउ विचितइ, किं एयाए पुरा भणियं ॥ २०९ वीसत्थाए इमाए, पसु निहणि जं च देमि कुवएसं । ता पावाओ पावो छुट्टेमि कहं....।।२१० इअ चिंतिऊण वाहो, विम्हिय-हियओ पयंपए एवं । भद्दे मं दाहिणओ, गच्छसि ता गच्छ... ॥२११ एवं तहत्ति भणिया, गया गिहं सो- विवाह - अवयंसो । ता तुज्झ कमि इमं किं देसि कुपाव पावमई ॥ २१२ ... चतुर्भिः कलापकम् । इति हरिणी - दृष्टान्तः ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [20] इक-नीकारणि एक, अइ-करइँ पाव अनेक। हिंसंति जीव अणाह, ते हुसइँ केम अणाह ।।२१३ जंपंति इक बहु कूड, ते हुइ दुह-गिरि-कूड। हठि हर पर-धण लोभि, लज्जवि अप्प-कुलोभि ।।२१४ लोपइँ ति लंपट शील, तिहँ किसिय निय-गुरुशील । अइ-करइँ बहु आरंभ, तिहँ धरइँ धुरि संरंभ ॥२१५ मनि धरइँ बहुअ कसाय, तसु छेहि कडुअ कसाय । वंचइ ति पियगुरुमाय, जसु माय किहँ नवि माइ ॥२१६ इम अछइँ बहुअर पाप, जीहँ तणउ कलि बहु व्याप। न करइँ ति कारणि धर्म, जोदिइ सवि शिव-शर्म ॥११७ अछइ निग्गुण देह, तसु तणउ लाहुसु एह । किज्जइ जि पर-उवयार, संसारि इतुं सार ।।११८ विहलिय विविहि वसि साहु, नवि करइ कम्म असाहु । छुहपीड-पीडिय-हंस, नवि करइ कीडिय हिंस ॥२१९ कापुरिस कुवसण कूडि, लिज्जइ सु लहु पर-कूडि। छलि छलइ कोइ न छेक, सुजिलहइ धम्म-विवेक ।।२२० सुणि सुयण सच्चह सार जगि धम्म इक्क जि सार । नवि मुणइं गाम गमार, तउ धम्म सिउँ ति असार ।।२२१ महु महुर दाडिम दाख, बहु-फलिय सुम सय-साख । तिहँ करह गय मुह मोडि, तउ लग्गसिउँ तिणि खोडि ॥२२२ यथा यथा बहिरइँ गीय नवि सुणिउ भमर चंपकि न बइठ्ठउ, सोल कला-संपन्न चंद अंधलइँ न दिट्ठउ। कर-हीणइँ पंगुलइँ कढिण कोदंड न ताणिउ, तरुणी-कंठ विलग्गि तुंड-रसभेय न माणिउ। किव हणि कुजाण-कुविलक्खणह, कवियण जाणइँ जं न मण । इम कहि गद्द गुणवंतयह, जग-उप्परि किम जाणइ गुण ।।२२३ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [21] इक्क धम्म अविहड मित्त, जसु सुहिय निम्मल चित्त । जिहँ थकु हुइ सुभद्द, निदीइ ते किम भद्द ।।२२४ इम सुणिय नित्र सुअ-वयण, तव सुयण विहसियवयण । बुल्लइ ति बोल कुबोल, जाणि किं पडइ गिरि-टोल ।।२२५ दीसंति तुअ बहु भद्द, संपइ न मिल्हसि वद्द । जइ मूढ तुं नवि होइ, पहाण सच्चउँ सोइ ।।२२६ जह केवि गाम-गमार, जणणी-भणिउ इकवार । गहियत्थ कहमवि पुत्त, मिल्हविउ नवि कुल-पुत्त ।।२२७ अभया जणणिअ पुच्छि, विलगउँ ति संडह पुच्छि। करि धरिय निय-बल-माणि, तिहँ लोय मिलिय अमाणि ।।२२८ तसु मत्त-लत्त-पहारि, पडिया सु दंत विचारि। . मिल्हि न पुच्छ सहूढ तिम तुम-वि होइसि मूढ ॥२२९ कुलपुत्रकथा पुच्छइ सुयण कहि देव, सिउँ करिसि पणि पुणि हेव । विण नयण-कमल न अत्थि, तुअ किंपि सत्थि सुअस्थि ।।२३० अमरिस-भरियह ती वयणि, हिं कुमरवर तीणि । तसु वयण अंगियकार, किय जेम करवत-धार ॥ २३१ पडिवन्न वाचावीर, ललियंग साहस-धीर। सुह सुयण इक्किहिं गामि, पन्नउ ति साखा-नामि ॥२३२ भवियव्व-कम्म-नियोगि, पुच्छइ ति गाम नियोगि । पुण कहिउ तिम तिणि वार जिम पुव्व-गाम-गमार ॥२३३ अह चलिय पुण दुइ मग्गि, जंपिइ सुयण तसु अग्गि । सुणि सच्च कुमर नरिंद, तुं पुहवि जाण कि इंद ॥२३४ बहु सच्च सील निहाण, तुअ समउ जगि कोइ न जाण । निय-अप्पि अप्प निहालि, पडिवन्न वाचा पालि ॥२३५ उल्लंठ वयणिहिँ तास झलहलिय तेय-पयास । जिण साण घसिय कवाण, दिपउ सुकुमर पहाण ।।२३६ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [22] तसु रम्म रण्णह कूलि, लहु जाइ वड-तरु-मूलि । भुअ-दंड उब्भवि बेवि, विनवइ कर जोडेवि ॥२३७ वस्तु कुमर जंपइ कुमर जंपइ, सुणउ ससि सूर, वणदेवति सवि सुणउ, सुणउ तार गह-गण विणायग, धम्म एक जयवंत जगि, दीण-दुहिय-जय-जंतु-नायग, तासु कज्जिहिउं निय नयण, वयण विराम विसेस, बिज्जउँ भय-तम-पमुह नवि, कारण किंपि असेस ॥२३८ चालि इम कहिय रहिय कुरोस, गिणतउ न सज्जण दोस । रोमंच-अंचिय गत्त, जाणि कि पमोयह पत्त ।।२३९ कड्डियसु करि करवाल, अहिणव कि विज्ज झमाल । उप्पाडि तिणि नीय नयण, दिद्धं, सहत्थिहिं सुयण ॥२४० सिरि नास फुल्लवियास, तुअ धम्म दुम्मह यास । अंधत्त कल बहुमाणि, किय कम्म तणइँ पमाणि ॥२४१ पच्चारि इम ते दुठ्ठ, ललियंगकुमर विसिट्ठ। गिउ तुरिय तुरयारूढ, किणि दिसिहि दिसि वा मूढ ॥२४२ दूहा अह चिंतइ निय-मणि कुमरु नयण बाह-बहु-रुद्ध । फिट रे दैव किसुँ कि अउँ जं एवड दुह दिद्ध ॥२४३ रज्ज-भंस रण्णिहिँ वसण, निचलय(?) चक्खु-विणास । एवड दुह किम सहिसिरे, हियडा फुट्टि हयास ॥२४४ छोटडा दूहा इम जाणीइ पिण कीजइ किसुउँ। जइ जोईइ तु आपणउँ कर्म इसउँ॥२४५ तउ इम जाणी-नइ रहीइ संतोसइँ। जे सुह संतोसइँ ते नहीं बहु सोसइँ ।।२४६ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [23] चालि इम चिंति चित्ति कुमार, रूपिहिँ कि अहिणव मार। नवि करइ एह विवत्थ, मुं पडिय इसिय अवत्थ ।।२४७ पहिरतु जे पटकूल, ते वसइ वणतरु कूल । माणतु जस वरपान, करि धरइ ते वड-पान ।।२४८ जसु वेणु वीणसुराव, ते सुणइ पक्खिय राव । करतु कुतूहल-केलि, सु जि फिरइ विचि वन केलि ॥२४९ देखतु नाटक-रंग, देखइ न ते निय अंग। चडतु जि चंचलिवाहि, तसु अंगि आहि कि वाहि ॥२५० करतु जि कर करवालि, ते करइ करि करवालि। सूतउ जि सेज-पलंक, सु जि रडइ जिम जगि रंक ।। २५१ रमतउ जि हय वाहियालि x x x x x बिसतु चाउरि चंगु, बिसइ सु तरु-सट्टंग ।।२५२ वज्जंता ढुल्ल मृदंग, सु जि पंडु पंडु मृदंग । सुणतउ जि जय जय बुल्ल, सु जि सुणइ वायस-हुल्ल ॥२५३ जसु माण दितु भूप, सु जि चक्खु हुअ मरु-कूव। इम दुक्खि दुहिलउ होइ, ललिअंग नयण-विजोइ ।।२५४ इति श्री विद्या-कल्प-वल्ली-महानन्द-कन्द २, प्रणतानेकराय-वजीर-नरनायक-मुकुट-कोटि-घृष्ट-पादारविन्द (१) । __ श्रीश्रीभालीवंशावतंस, अनेक-सुविवेक-छेक-छत्राधिपति-महानरेन्द्र-कृतप्रशंस(२) कूर्चाल सरस्वती बिरदधर, पुरष-रत्न-वर(३) षट्दर्शनीगुर्वाशाकल्पितानल्पदान-कल्प-द्रुम, अगण्य-दान-पुण्य-प्रसारनिर्जिताशेष बलि-कर्ण-विक्रमार्क-भोजप्रमुख भूपाल, श्रीमदर्हद्देवगुरुचरण-तामरस परिचर्या-मराल, मलिकराजश्रीपुञ्जराजकारिते संडेसरागच्छे श्रीईस्वरसूरि विरचिते पुण्यप्रसंसाप्रबंधे प्राकृतबंधे श्रीललितांग-- चरित्रे रासकचूडामणौ श्रीललितांग-सज्जन पाप-पुण्य-प्रसंसाभि वाद ललितांगदुःखावस्था-वर्णन-प्रकारो नाम द्वितीयोऽधिकारः ॥२॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [24] गाथा इह दुह-दुत्थावत्था-नइपूरि निछुट्टमाणसो कुमरो । चिंतइ अहो किमेवं, मम धम्मरयस्स संजायं ॥२५५ तं चेव सुयणवयणं, कह सुपमाणं वडं जुगं मे वि । न उणो नायं सिद्धी, कई तरिया हवइ धम्मे ॥२५६ जह अंगमल विसुद्धी, खलि-तिल्लया-पमुह-वत्थु-सत्थेहिं । किज्जइ पुव्वमपुव्वं, तउ तस धम्मस्स धुवसिद्धी ।। २५७ धिद्धी मे मोहमई, जेणेरसि चिंतणं विलोमस्स । धम्मो धुवं जगत्तिय-जय-हेऊ तनही होइ ॥ २५८ दूहउ रूसउ सज्जण हसउ जण, निंद करउ सहु लोइ। जिणवर-आण वहंतडाँ, जिम भावइ तिम होइ ॥२५९ गाथा इअ निअमणो सु वेरग्ग-संकलियाए निजंतिऊण पुणो । चलमघुडु-व्व कुमरो अइ-वहइ वाह बहुल-दिणं ॥२६० पद्धडी छंद संझ-समय सु पहुत्तउ, तिहिँ इत्थंतरिहिँ। तसु दुह-दुहिय कि गिउ रवि, पच्छिम-अंतरिहिँ। निय-निय-नीड-निलीण के पुण महासरिहिँ पक्खिय सवि कंदंति सुजंत महासरहिँ ।।२६१ दहदिसि हुई कि तिणि दुहि कज्जल-काल-मुह तारय-गण दुज्जण जण दक्खइ अप्प-सुह । पउमिणि-संड विसंडियमाण कि पिय विरहिं महुअरु-मिस-विस गिलई कि सुहमरण-विरहि ॥२६२ चंदनंद चिरकालसुरयणिहिं रायतु अ कुमइणि दिइं आसीस ति विह सीय जलहि सुअ । सस संबर सीयाल सुसद्दिहिं गयणधण Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 25 ] गज्जइ निसि अंधार कि आविय घोरघण ॥ २६३ लहु लहु धंतसुदंत कि ससहरकरपसर दीस दीसह जाणि कि भंजई करपसर सुइ विमलणि अंगविरंगिहि नियसुवणि बहु फल फलिय सुबहुअर तरुअर वीणवणि ।। २६४ भाषण तिणि प्रस्तावि ते ललितांग कुमर, अभिनवउ तीणि वनि जाणि कि भोगि भ्रमर ॥ जिम लवणरहित रसवती, छंदो-रहित सरस्वती ॥ गंठ-रहित गान, अर्थ - रहित अभिमान ॥ गुरु - विहीन ज्ञान, योग-रहित ध्यान ॥ लावण्य- रहित रूप, जल-रहित कूप ॥ देव - रहित प्रासाद, रस - रहित नाद ॥ नाशिका -रहित मुख, पुण्य - रहित सुख ॥ उच्छव-रहित घर, गुण-रहित नर ॥ दया - रहित धर्म, कारण - रहित नर्म ॥ दान - रहित धन, तिम दृष्टि-रहित कुमर जाणइ ते ते हवउं अपूर्व उपवन ॥ २६५ ते वन केहुं अपूर्व छ ? षट्पद अंबु जंबु जंबीर कीर कंथार करीरह कालुंबरि कृतमाल कउठि केवड कणवीरह ॥ कदली किंसुअ कमल किंब कल्हार कि भणीइं खीरणि खीर खजूर खीरतरु खारिक सुणीइं ॥ गुल्ल गिरिणी गुरुअ, जाहि जूहि जाई - फलइँ जासूअण झींझ बहु झाडि तिहँ भयह भीय रक्किर टलइँ ॥ २६६ टिंबरु ताल तमाल तार तालीस तगर पुण दाडिम दमणउ देवदारु दक्खह मंडव घण ॥ धामिणि धव धाहुडी धनेड बहुनामिहिँ तरुवरु नाग साग पुन्नाग चंग नारिंग सु-फल-भर ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [26] पडलय पारिजातक पवर, पिष्फलि पिंपलि साखि सहु फोफलि सुफांगि-कूड फणस, बल बीलि बोरि बाउलिय बहु ।। २६७ बीजउरी बहुफली भंग भल्लातक भंगिय मिरिच मयणहल मरुअ मुंज महु मुरुडा सिंगिय ।। राइणि रोहिणि रयणिसार रत्तंजणि रासमि चंपक चारु लवंग हिंगु हरडई समि सीसमि ।। वड वरुण वउल वउल सिरिय, किरि वसंत संपइँ वरिय नवनवइ भारि वणसइ तिहाँ, बहुअ सु-फल-फुल्लिहिँ भरिय ॥२६८ चालि इम भमइ ते वणसंड, मय-मत्त गय वण-संड। बहु वाघ वि रुहुअ सीह, तिहँ फिरइ अकल अबीह ॥२६९ तिहाँ घूअ घू घू सद्द, सुणीइ ति किन्नर-नद्द । वासंति महु-रवि मोर, कल कीर चतुर चकोर ।।२७० कोइल सु-कलरवि राग, आलवि पंचमराग । अहिणव कि वरसइ मेह, संभरइ पंथिय गेह ॥२७१ महमहइ मलयसु-वाइ, बहु-गंध चंपय जाइ । गिरि झरई निर्झर वारि, जाणीइ सर तरवारि ॥२७२ इम थुणि वणि ललिअंगि, बहु रयणि वड-तीड-संगि । सुत्तइ सुणिउ नर-सद्द, भारंड-पक्खि-विवद्द ।।२७३ पद्धडी इत्थंतरि तसु निग्गोह-ठामि, बहु मिलिय पक्खि भारंड-नामि । अन्नोन्न चवइ ते मणुअ-भाखि। निय-निय-मालइ ठिय वङ-सु-साखि ॥२७४ कछु दिठउँ जं जिणि अइ-अपुव्व । कोऊहल किंपि सुणिउ ति सव्व ।। तसु मज्झिहिँ बुल्लिउ इक्क पक्खि । सवि सुणउ ति कलियल सद्द रक्खि ॥२७५ जं कहउँ वत्त अपुव्व एअ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [27] मइँ दिट्ठी जण मुहि सुणिय जेअ । इम सुणिय ते वि निष्कंद - नयण हुअ सुइँ सव्वतसु पक्खि-वयण ॥२७६ अह अच्छइ अमरावइ- समाण दिसि पुव्वि अपुव्व सु-नयरि-ठाण । गय-कंप - चंपनयरि हिँ पसिद्ध बारसम सु-जिणवर जिहँ सु - सिद्ध ॥२७७ तिहँ धम्म-नाइ - निउणेगरज्ज साहसिय सूरसुंदर सकज्जु । विहि-दिद्ध सिद्ध सच्चत्थ- नामि रेहइ नि - राय जियसत्तु - नामि ॥२७८ गुणधारणि धारणि नाम तास बहुरूव - कल त्तु - कला - निवास । तसु पुत्तिय पुप्फावर सु-नाम पिय- माय सु- परियर पेम-धाम ॥ २७९ रूपिहिँ करि जाणि कि रंभ एह नव-वेस कलागम-गुण- सुगेह | बहु-भरह - भाव- संगीय-सारि सारय किं मनावी तीणि हारि ॥ २८० इक जीहि सु-कवियण तासु रूव aras विबुह बहु- सम-सरूव । तं तह - वि तासु सिंगार वेस वणवि सुविसेसि हि गुण असे ॥ २८१ अडिल्ल जसु कम - कसल विमल-कमलुप्पम उरु ऊरत्थल रंभ- थंभ - सम । तणुतरु- साह बाहु किमि दिप्पइ मिउ मिणाल मच्छर - भरि जिप्पइ ॥ २८२ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [28] गगनगतिछंद जिप्पंति कणय कि कंभ थणहर हार निम्मगि सोहए कडि-लंक किरि हरि कणय-किंकिणि-नादि तिहुअण मोहए । मज्झंग खीणि कि पीण उरवर भमर भोगि कि भंगिया । बहु हावि भावि कि रमइ नव-रसि नवल परि नव-रंगिया ॥२८३ दूहउ रिमिझिमि रिमिझिमि नेउर-सद्दहिँ किरि अणंग निस्साण विनद्दहिँ । चलंती चतुरंग चमू-बलि मंडइ मयण महा-रसि रइ-कलि ॥ २८४ छंद कलियलइ कोइल जेम कलरव हंस-गइ मय-लोअणी कलकीर नासा-वंस निरुपम कुसुमसर-भर-भोइणी । दिप्पंति अहर पवाल-कुंपल दसण दाडिम-पंतिया मुह-कमल विमल कि पुण ससहर कमल-कोमल-कंतिया ॥२८५ कर असोग-नव-पल्लव-समसरि कुंकुम-करल-लोल अंगुल वरि । कररुह कंति तत्वतर तंबह सम सरीरि करवीर कि कंबह ।। २८६ करवीर-कंब कि कंबु-कंठिय सवण सर हिंडोलया । चलवलंति कुंडल चंद-रवि-जिम पहिरि पवर सु-चोलया । कडि कसण कंचुअ कवच काम कि भमुह गुण-कोदंडीया तिणि वेधि सरसरि समरि सुरनर कवण किवण न खंडिया ॥ २८७ दूहउ वेणि-दंड विसहर किरि वासुकि हरि-वाहण-भय किय-नव-वास कि । भरणि-भूअ-भय-भीय कि ससहरि सामी-सरण लिद्ध जिम ससहरि ॥२८८ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [29] छंद हर - हास कुंद कपूर वि हसिय हसिय लहु नव- - जुव्वणा तिअ तिक्क तिक्ख कडक्ख चंचल चडिय चावासव्वणा । सिंगार - सार सुवेस - सज्जिय जाणि सुरवइ- सुंदरी लहु समरसीह-किसोर कामुय वसइ जाणि कि कंदरी ॥२८९ षट्पद ॥ नागिणि नवि पायालि इसिय सुर- लोगि न सुंदरि रमणि - रयण निम्माण जणि विहि घडिय सयल -- धुरि ॥ इकजीहि हुं पक्खि दक्खगुण वज्जिय मुद्धहं तासु लडह-लावण्ण-वण्ण किम मुणउँ सुमुंधह ॥ एरिसी नारि नरराय घरि, विहि- दोसइँ दूसिय निउण जच्चंध- नयणि जुव्वण - समइ, दिट्ठ सभंति ति - विसउणि ॥ २९० गाथा तं भव-रूव-सुजुव्वण- उब्भड - वेसं निवो य ब्भु - विसेसं । दट्ठूण नयण-वज्जिय-वयणं वयणं भइ एवं ॥ २९१ अहो परिसय- पुरिसा, पासह विवरीय विलिसियं विहिणो । जमिणं रूवं निम्मिय, विडंबियं अंबएहिँ विणा ॥ २९२ षट्पद विहु विहि-वसि सकलंक कमल - नालिहिँ कंटय पुण सायर- नीर अपेय पवर पंडिअ जण निद्धण ॥ - अहं दिद्ध विओग रूव दोहरिगहिँ दिद्धउ धणव किय किवणत्तु रुद्द भिक्खत्तण किद्धउ ॥ ब्रह्मा कुलाल-कम्मिहिँ विणदिगल दह - रूव हुओ इक्किक्करयण विहि-दोस - वसिइँ इक्क - इक्क - दोसेण जुअ ॥ २९३ चंद कीउ सकलंक काय न न दिद्धी मयणह सुयह दद्ध दरिद्द लच्छिले दिद्धी किवणह || लोयण दिद्ध कुरंग लोणहीणच्छी नारी नागवल्लि फलहीण अवर फल रक्ख असारी ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 30 ] सोरंभहीण कनकह कीउ तियसलोय विब्भम भुयउ हा हा जि दैव करता पुरिस, ठामि ठामि भुल्लवि गयउ ॥ २९४ गाथा इह ताव निसग्गेणं, चिंताए पुत्तिया हवइ पुणो । सविसेस - कुविहिणी दूसिय- देहा इमा जयह ॥ २९५ जामं (जम्मं) तीए सोगो वढतीए वढ्ढए चिंता० ॥ २९६ वस्तु इम विमासि इम विमासिय वसुह - वर- बुद्धि । जसु संवर कारणिहिँ, नयर - मज्झि पडहु वज्जाविय । नयर - लोय निस्सोय सवि, सुणउ वयण निय-मणि सुहाविय ॥ जेउ करइ कुमरी - तणां, नयण - कमल लहु सज्ज वरइ तेउ तीह कण्णसिउं लच्छिसमिद्धह रज्ज ॥ २९७ दूहउ कोइ नच्चाविउ नवि गयउ, छविउ न पडहउ कीणि । विहाणइ हउं जाइसु तिहाँ, पक्खिय-कारणि तीणि ॥ २९८ पद्ध हम कहिय पक्खि जव रहिउ मूनि पुच्छिउ तव पक्खिर इक्क जूनि । कहु ताय तीइ जच्चंध - दिट्ठि, किम होस्यइ अहव न नयण-सिद्धि ॥ २९९ तव बुल्लिउ वड - भारंड - राउ, तउँ किं पि न जाणइ लहुअ जाउ । मणि - मंत- महोसहि बहु- पभाव, जगि अछइँ नव-नव-गुण-सह व ॥३०० जउ पुण्ण - जोगि गुरु जोग होइ, तव लहइ न तसु गुण - पार कोइ । इम सुणिय सउणि वलि पुट्ठ एम, कहु कामिय-गामु असोजि केम ||३०१ वलि कहइ विहंगम - राउ मुद्ध, जउ पुच्छसि तउ वलि कहउँ सुद्ध || पिण रयणि इक्क वलि सुन्न रण्ण, बुल्लताँ वाडइ होइ कन्न ||३०२ दूहउ दियह दिसि जोइ करी, रयणि हिँ पुण नवि भेउ बुल्लइ बहु-जण - संचरइ, धुत्त - धुरंधर केउ ॥ ३०३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 31 ] पद्धड़ी तव वलतउँ बुल्लइ खयर - पाग सिउँ अछइ इह पिय- रज्ज- माग । पर पेमिहिँ पूछउँ ताय तुज्झ । विज अंग अवर कुण कहई मुज्झ ॥ ३०४ इम पुच्छिय तिणि तसु कम्म- जोगि विण पुनिहिं किम हुइ जोगि जोगि । ललियंग सुणंताँ तासु वयणि इम जंपइ तव भारंड सउणि ॥ ३०५ सिलोगा दिव्व-नाण - प्पहाजोसो, पक्खि - राउत्ति जंपए । वच्छ आमूलउ एसा, वड- वेढि पुज ठिया ॥ वल्ली जाचंध - दोसा पु ( ? ) - मूल - भल्ली वियाहिया । रस-सेगाउ एयाए, नव चक्खू नये भवे ॥ ३०७ ॥ युग्मम् नाय - पच्चूस - कालम्मि, कत्थ गंतासि जं पुणो । पुत्त तत्थेव जत्थत्थि, कोऊहलमिणं घणं ॥ ३०८ अन्नमन्नत्ति बिंताणं, ताणं निद्दा समागया । कुमारो - वि वड- हेत्थो, सोच्चा चिंतेइ किं इमं ॥३०९ सच्चं वा किमु वा भंती, कावि एसा ममं जओ । धम्मो जग्गेइ जंतूणं, सव्व - दुक्ख - निकंदणो ॥ ३१० ॥ युग्मम् नाणस्स पच्चओ सार - महो वा किं विचिंतणं । इअ निच्छित्तु तं वल्लिं, मुणित्ता हत्थ - फासओ ॥ ३११ छित्तूण छुरिघाएणं, वट्टित्ता पत्थरेण य । चक्खु - कूवे रसंतीए, निहित्ता सुत्तओ खणं ॥ ३१२ युग्मम् गाथा अह तक्खणं सुसज्जुय, नीलुप्पल - नयण - वयण पसिचंगो । कुमरो पासइ सव्वं, नाणी व विसेस - दिट्टि - जुओ ॥ ३१३ तत्तो विम्हि - चित्तो मुइअंगतो मणम्मि चिंतेइ । धम्म - तरु- संस- जणिअं फुल्लं खलु जायमिणमसमं ॥ ३१४ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [32] अह चंपाए जियसत्तु-राय-पुत्तीइ कर-गहेण फलं । भावि भवम्मि ईहेव-य तमुवक्कमकरण मह झत्ति । ३१५ दूहउ मुंन करंता नहु कलह० ॥ ३१६ पद्धडी . इम चिंतिय चित्तिहिँ कुमर-वीर, तसु पक्खि-पक्खि संलीण धीर । वाहिय तिहँ सुहि रयणि सेस, पच्चूसि पत्त चंपह पएस ॥ ३१७ पक्खालिय सरवरि हत्थ-पाउ, तसु उववणि लिय फल-फुल्ल-साउ । चल्लिय चंपापुरि पुव्व-बारि, पडु-पडह-घोस-वयणाणुसारि ॥३१८ तिह लहिय इक्क वाचइ सिलोग, जिह उब्भा बहुअर रज्ज-लोग । जे पुरिस सुपोरिस राय-कण्ण, जच्चंध नयण सज्जइ सु धन्न ॥३१९ तसु दिअइ राय अद्धंग-रज्ज, तसु होइ सावि अद्धंग-भज्ज । इम वच्चिय मच्चिय पुव्व-पेमि, पत्तउ पुर-भिंतरि कुमर खेमि ॥३२० तं जाणिय राय-निउत्त-पुंस, इम बुल्लइँ जय जय निव-वयंस । तुअ मणह मणोरह पुण्णदेव, मग्गइ ति पुरिस-वर इक्क सेव ॥ ३२१ इम सुणिय राय हरसिय अपार, तसु दिद्धउ बहुअ पसाउ फार । उकंठिय निव-दंसणिहिँ तासु, सहसक्ख जेम मन्नई नियास ॥३२२ तं पिक्खिय बह-गुण-रूव-रूव, मनि चमकिउ चिंतउ एम भूव । किं सुरवर किं विज्जाहरिंद, कइ ईस बंभ गोविंद चंद ॥ ३२३ आलिंगण-रंग-सुरंग-भूव, निय मुणइ सहस-भुअ जिम सरू त । इणि कारणि तेडइ निय-सुपासि, ललिअंग-कुमर-वर दीवियाल ॥३२४ किं नंदी किं पुणु नलनरेस, किं विक्कम विक्कम-गुण-असेस । कि मयण रूवधर दिठु एउ, जं दिज्जइ उप्पम लहइ तेउ ॥ ३२५ इम राय कुमर-अणुराय-गिद्ध, धाई धुरि तसु परिरंभ किद्ध । उच्छंगि लेई पुच्छइ नरिंद, तुम अच्छइ कुशल ति कुमर-इंद ॥ ३२६ इहु देस नयर वर गाम ठाम, बहु रुज्ज-रिद्धि-भर-भरिय धाम ।। मह सव्व एह निय-चलण-ठाण, दितइ ति किद्ध तइ सफल-माण ॥३२७ कहु कवण कुमर तुम्ह कवण देस, पिय माय भाय परिघर-निवेस । कुण नयरि वसउ तुम्ह सुह-निवास, Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [33] - सह अक्खउ अक्खय-गुण-निवास ॥३२८ इम सुणिय कुमर-वर राय--वाणि, बहु-विणय-नमण--पुव्वंग-दाणि । कह देव सुकय आएस हेव, पुच्छइ जं होस्यइ मुणिसि तेव ॥ ३२९ गाथा इय निसुणिऊण राया, जायातुल्लाणुराग-वच्छल्लो । चिंतइ संताणमहो, परोवयारिक्कचवलत्तं ॥ ३३० नाराच एम चिंति चित्ति भूव धूअभूरिभग्गसंगओ कुमारसार-पुत्त- पेम-पाणि-वाणि-संगओ । कुमारि-गेहि चित्त-रेहि रेहियम्मि वच्चए सतीइ पीइ दंसणिज्ज दंसणेण वच्चए ॥ ३३१ सुपुत्ति झत्ति तुज्झ सत्ति-पुण्ण-पुप्फ-ताणिओ कुमार एस गुण-निवेस तुम्ह कज्जि आणिओ । संभलिय एम वयण खेम निय सुबप्प-वयणओ सा दिअइ माण चत्त-ठाण आससेण जयणउ ॥ ३३२ तउ तुरंत तीइ नयण सज्ज-कज्ज-कारणे कुमार-राय राय-लोग-पच्चयावहारणे । सुगंध दव्व सव्व आणि मंडलग्ग मंडए सुनाणझाण... ... डंबरेण तंडए ॥ ३३३ सछन वल्लि चूरि पूरि तासु चक्खु-कूवया पलोयमाण रायराण रइस रूव भूवया । भणंत एम पत्तपेम पत्त देव सुंदरा नरा अणेग बहु विवेग जयसु देवि इंदिरा ॥ ३३४ कलश षट्पद जयसुदेवि मंदिर राय-कुल हर वर-दीविय । जय ललियंग-दिणेस-पाय-कमलिणि-संजीविय ।। जय धारणि-धर-कुच्छि-रयण बहु-गुण-गण-खाणिय । जय सुरसुंदर रूवि भूवि भोगिंद सुमाणिय ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [34] जय जय भणंत इम बहुअ जण, नयण-कमल विहसिय कुमरि । श्रीवास-नयर-वर-राय-सुअ वरिउ वीर वामंग-वरि ॥ ३३५ गाथा अह सयलो निवपुर जण-वग्गो लग्गो कुमार-पयमूले । कर-कमल-मउल-हत्थो, विण्णत्तिं कुणइ पुण एवं ॥ ३३६ सामिय निय-जण-कामिय-कप्पदुम कय कयत्थ-निय-रज्जो । पुप्फाई पुत्तीए पसीय पाणिग्गहेण समं ॥ ३३७ छंद इम पत्थिय ललियंग-कुमारं, हक्कारिय-बहु-जण-संभारं । मंडिय-मेह-महा-झड जंगं, पमुइअ-सजण-मण-बहुरंगं ॥ ३३८ त्रिभंगी छंद बहु-रंग-सुरंगं कारिय-चंगं चंपा-दंगं सयलंगं बहु धयवड-फारं तोरण-सारं नरवइ-बारं सिंगारं । दिज्जंत-सुदाणं घण-सम्माणं विहलिय-माणं किविण-जणं जियसत्त-नरिंदं धरिआणंदं कयसुच्छंदं सुयण-मणं ।। ३३९ कारिय-पुप्फावइ-सिंगारं, सिणगार(रि)य ललियंगकुमारं । चाडिय गइंवरि धरि सिरि छत्तं, बिहुं पखि चमरढलंत संजुत्तं ॥ ३४० चामर-संजुत्तं नव-नव-पत्तं नव-नवरस-भरि नच्चंतं । जय-मंगल-सदं बिंदिणिवदं हय-गयरुह-भड-संमदं । . पहिरिय-नव-वेसं सुगुण-निवेसं सयल-नरेसं सह पेसं रामा रसि रासं बहुअ-उल्हासं धवल-सुभासं दित-रसं ॥ ३४१ ओं ओं मंगल संख-सबई, धों धों धपमप-मद्दल-सदं । भां भां भेरि भरर-भांकारं द्रुमम द्रुमम दुडबडिय अपारं ।। ३४२ दुडबडिय अपारं दो दो कारं झागडदगि झल्लरि-कंकारं वर-वेणु-सुवीणं, नाद-पवीणं सुर-नर-पन्नग-संलीणं । तल-ताल-कंसालं झाक-झमालं कलरव-पूरिय-भुवणालं महमहत-कपूरं मृगमद-पूरं कुंकुम-चंदण-पंकालं ॥ ३४३ भोयण-भत्ति-जुगति-अनिवारं, कप्पड-कणय-दाण-सिंगारं । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [35] पोसिय-सयल-सुयण-जण-वग्गं समय-समय-वर-तंत-सुलग्गं ।। ३४४ वर-तंत-सुलग्गं कुमर वरग्गं वहुअर-करि-कर-संलग्गं मंगल-जयकारं वार-चियारं चउरिय-बारं चउ-बारं । हअ-वरसुर-सखं जोसिय-दक्खं वेस-वयण-घण-अक्खंतं इम हूउ वीवाहं सयल-सणाहं बहुअ-उच्छाहं दक्खंतं ॥ ३४५ स्रग्विणी छंद बहुअ-उच्छाह नरनाह जियसत्तुउ । सह-सयण-सहिय तत्थेव संपत्तउ । दिअइ रज्जद्ध कुमरस्स कर-मोयणे पत्त-बहु-लोय-कोऊहलालोयणे ॥ ३४६ देस-दल-सेस-बहु-गाम-पुर-पट्टणां खेड तसु रेड रयणाइँ आगर घणा । गय-तुरिय-साहणा पुव्व-रह-वाहणा बहुअ-धण-धन्न-भंडार भंडह तणा ।। ३४७ बहुअतर-राय-पायक्क-परियण-जणा पुण्ण-सोवण्ण-रुप्पाइ-कुप्पं घणा । सत्तभूपीढ... ... बहु-मंदिरा घण-कणय-रुप्प-रत्थाइँ अइसुंदरा ॥ ३४८ एम सत्तंग-रज्जद्ध-रिद्धि-जुउ पुव्व-पुण्णेण सिरिवास-पुर-निवसुउ । पुप्फवइ-जुत्त-नर-भोग-कलमाण ए मणुअभवि अ(सु?)र दोगुंद जिम जाणए ॥ ३४९ अहिणवउ इंद गोविंद कइ चंदओ कुमर-ललिअंग ललिअंग चिर नंदओ । दिंतु आसीस इम लोय सह निय-गिहं कुमर-राओ वि गंतूण भुंजइ सुहं ॥ ३५० इति श्री षट्ऋतु-भोग-चक्रवर्ति-चक्रकोटीर-सकल-गुण-रत्न-सिन्धुमलिकराज-श्रीमुञ्जराज-सद्बन्धु-पुत्र पवित्र-श्रीलखराजादि-सकल-परिकर-शंकर Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [36] संसेवित-शुभवन्नीर २ निजामलकुलकमल-सुबोधानैकमार्तण्डावतार ३ ज्ञातिशृङ्गार ४ संसार-देवि-राजी-रमण-रोहिणीजीवितेश ५ महानरेश ६ परदुःखैक-महासिन्धु-सम्मुत्तार-यान-पात्र ७ उपलक्षितविद्या-गुण-पात्र ८ अनणु-गुणि-जनगुण-मनो-मानस-राजहंस ९ मलिक-माफरेन्द्र श्रीपुंजहंस-कारिते श्रीईस्वर-सूरिविरचिते प्राकृत-बन्धे पुण्य-प्रशंसा सम्बन्धे श्रीललिताङ्ग-चरित्रे रासक-चूडामणौ ललिताङ्ग-कुमार-विपदुच्छेद-पुष्पावती-पाणिग्रहण-राज्यार्ध-प्राप्ति-वर्णन-प्रकारो नाम तृतीयो-ऽधिकारः ॥३।।। इति तृतीयखण्डम् ॥ गाथा अह अन्नया कुमारो, वायायण-संठिउ स-लीलाए । कव्व-कहाइ-विणोयं, कुणमाणो सह कलत्तेणं ॥ ३५१ जा चिठइ ता पुरओ, पासंतो निवय-दिट्ठि-पसारेण । नयरं सव्वमपुव्वं, तत्थेगं पासए दमगं ॥ ३५२ ॥ युग्मम् पद्धडी आजाणु-रुलंत-पलंब-केस, लिल्लिरिय-गणाहिव-सरिस-वेस । गलियच्छि-नास-वीभच्छ-रूव, घण-घट्ठ-पंडु-नहरोम-कूव ॥ ३५३ बुहषाम(?)पयंड सिर-जाल-माल, मुह-कुहर-ऊअर-कंदर-कराल । मल-मलिण-देह-दुग्गंध-गंध, वण-सूई-पूइ-बहु-पट्ट-बंध ॥ ३५४ दीणंग-खीण-घण-जणय-घोर, अहिणव-किरि जाणि दुकाल-रोर । उत्तम-जण-नयण-सुदिन्नि-रिक्ख, खप्पर-करि घरि घरि लिंत भिक्ख ॥३५५ पक्खालिय-पइं-पब-पीण-पाय, असरिस-जण-निंदिय-रीण-काय । बहुभंजिय पावह दुक्ख-सेस, उद्धरिय कि नारय-पिंड एस ॥ ३५६ उवलक्खिय एरिस-रूवमित्त, ललियंगकुमर सुपवित्त-चित्त ।। मणि-चिंतइ हा हय-विहि-विलास, जिणि कारिय सुरवर कम्मदास||३५७ नर घडिय सुघड विहडइँ विहत्त, अणजोडिय जोडइँ जुत्ति-जुत्त । तं करइ देवनर चित्ति जेउ, नवि बुज्झइं नाणी जीहभेउ ॥ ३५८ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 37 ] इम चिंति कुमर करुणद्द-चित्त, अंसुय-जल- विलुलिय- तुरल - नित्त । सुयणत्त - विसेसिहिँ सुयण - नाम, हक्कारइ नियजण पेसि धाम ॥ ३५९ डाविय पुच्छ कुमर - राय, तउँ कवण कवण हउँ मुणसि भाय । इम जंपइ किंपिय तणुभयत्त, सु जि सुयण सुघिणिघिणि सद्द - जुत्त ॥ ३६० निन्नासिय तम - भरपूरसूर, नवि जाणइ उग्गिय कोइ सूर । बहु - नरवइ - नामिय-सीसईस, कोइ अच्छहि बहुगुण तउँ खितीस || ३६१ हउँ रंक रोर-भर- भरिय - देह, सिउँ पुच्छसि नरवर वत्त एह । तव बुल्लइ कुमर न भणसि सच्च न, अज्ज - वि जइ तउ मुझ एह वच्च ॥ ३६२ नवि धरउँ हणउँ नवि कहुउं किंपि, जिम अच्छइ तं तह - सव्व जंपि ॥ नवि जाणउँ सामिय किंपि तत्त, तव बुल्लिउ कुमर - नरिंद वत्त ॥ ३६३ वण--भितरि अंतरि ईस - साखि, तिहँ धम्म - अहम्मह विगति दाखि । उवयार-सार तइँ किद्ध सुयण, लिद्धाँ ललियंगकुमार - नयण ॥ ३६४ तउँ हुइ सुयण हउँ कुमर तेउ, मिल्हिउ वण निब्भर स्यणि जेउ । इम सुणिय सुयण तसु वयण जोइ, उलक्खिय अहो - मुहि दुहिउ जोइ ॥ ३६५ कुंडलिया अह ललियंगकुमार तसु दिद्धउ बहुअ पसाउ । अवगुण किद्धइ गुण करइँ गरुआ एह सहाउ || ३६६ गरुआ एह सहाउ चाउ - चतुरिम - गुण - चंगा । साउ-जल सुसमत्थ सदा गुणियण-जण-संगा ॥ न्हाण - दाण- बहुमाण भत्ति भोयण - सुयणह सह । कारिय बहुअ पसाउ - राउ ललियंगकुमारह || ३६७ उत्तम उत्तम सहज निय मिल्हइँ नवि-मरणंति निनाडिय ताविय तोलिय वि कणय समुज्जल-कंति । कणय समुज्जल- कंति घसिय जिम चंदणि परिमल इच्छु- दंड कियखंड सुघण पल्लंत सुर सहलं ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [38] - बहुअ वास सहु आसि दिद्धं कण्हाग-राय तिहि उत्तम उत्तम नवि सहाव मिल्हई मरणंतिहिँ ॥३६८ कुमर भणइ सुणि सुयणनर धण्ण दिवस मुझ अज्ज । रज्ज-रिद्धि सव्वंग पुण हुई सहल कय-कज्ज । हुई सहल सहु रिद्धि मिल्यउ जव दुक्खि सहाई तिणि बहु धणि सिउँ कज्ज जं च जाणइँ नवि भाई ॥ सुयण अनइ अरियणह जेउ सुह दुह नवि दिइ नर ।। ते धण धूलि-समाण जाणि इम भणइ कुमर-वर ॥ ३६९ गाथा इअ बहुमाण-पहाणो, पहाण-पुरिस व्व कुमर नवि रज्जे । लद्ध-समय-बल-निउणो, सुयणो पुण जंपए एवं ॥ ३७० सामिय अहं अहण्णो जया गओ तुरय-रयण-संजुत्तो । मुत्तुं तुमं व पुण्णं मग्गे मिल्लिया तया चोरा ॥ ३७१ तेहिं दढ-मुट्ठि-जिट्ठी-पहार-मारेण गहिय-पवरासो । दासो हं तु निरासो, जीवंतो मुक्किओ तत्तो ॥ ३७२ इत्थागएण समए, मए तुमं पुव्वपुण्ण-जोगेणं । पत्तोसि देव संपइ, संपइसुह-कारणं परमं ॥ ३७३ ता झत्ति संविसज्जसु, दूरं देसं तओ भणइ-कुमरो । मा खिज्जसु खित्त-घणं निब्भंतं भुंज सुहमसमं ॥ ३७४ अह अन्नया कुमारी तस्सागारिंग-चिट्ठ-दुट्ठत्तं । नाऊण निउण-मईएँ पयंपए पइ पइं एवं ॥ ३७५ रोडिल्ला सुणउ प्रीतम प्राण-आधार, विद्या-कला-भंडार, रूपि जिणि जीतउ मार, सयल गुणं ॥ प्रेमपीरति-पियारे सई, तुम्ह तणा हित तांई कह वात एक काईं सणेहि घणं ॥ इह दुयण सुयण-नाम, रहइ नितु तुम्ह धाम, करइ सदा सहु काम, अवि सुयणं । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [39] इम जंपइ रायकुमारि, प्राणि प्रिय अवधारि, मन शुद्धि-सुं-विचारि, अम्ह वयणं ।। ३७६ मोटा मोटा जिके रायराण चऊद-विद्या-निहाण, बहुतरि कला-सुजाण, आगह हुआ । नल विकम भोज भूपति हरि हरिचंद सति, हय-गय-रह-पत्ति-पायक-जुअ । छांडिउ छांडिउ तेहे नीचे संगः, पतंग-सरिस-रंग, छेहि दाखइ निय अंग, बहुअ-जण । इम जंपइ रायकुमारि ॥ ३७७ जिम सुणीइ आगइ सरूव, हंस-रूव काय भूवि हिणिय हसत भूव, जंपंत बुहं । इम ताहुं काय महाराय, भणीजु सु पंखिराय, नीच-संग-सुपसाइ, पामिय दुहं । तिम बीजउ ई जिको-वि मुद्ध दुयण-संगति-लुद्ध धवलति सहु दुद्ध, जाणत घणं । इम जंपइ रायकुमारि ॥ ३७८ वरि भलउ वणि निवास, पर-घरि कम्म-दास, विसहर-सुउँ संवास, बहुअ वरं । वरि भलउ विस-आहार, जलंत-जलणि चार, उवरि खडग-धार चाल वरं । पिण भली न खल-प्रीति, हुइ नितु बुह-चीति, पडइ पिसुण-छीति, पवरजणं । इम जंपइ रायकुमारि ॥ ३७९ षट्पदः अम्ह वयण अणुकूल कह-वि मन्नि जइ सामिय, देवि सद्द जिम वाम राम देसंतरगामिय । कुलह नामि आचार एह नवि सिक्ख स-कंतह । दिज्जइ कारणि कवणि सु पुण प्रियतम एकंतह । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 40 ] परिहरउ प्रीअ खल जल सुयण, संख जेम बहि धवल गुणि इम भणइ वर वीनती सुहिय, हियई अवधारि सुणि ॥ ३८० पूर्वी - वयण वालंभ वयण सुणउ इकवलि लिउं दूखडा जिसंचउं अमिएण कि निंबहरूखडा । तो वि कूडउ जण साउन साउ न मिल्हइ अप्पणा फुणिहाँ अइ जातइ जाति - सहाव कि दुज्जण - जण तणा ॥ ३८१ जइ रोप थुडथूल कि थाणइँ थिर करी जइ सींच थण - दूधि कि सूधइ मनि धरी ॥ तावि कुमूल बबूल कि कंटा भज्जणा फुणिहाँ अइ जातइ जात सहाव० ॥ ३८२ कुंकम कूर कपूर किज्जइ घण लाईइ मृगमद-गंध सुगंध कि दिव्विहिं ठाईइ । तावि ल्हसण नवि मिल्हइ गंध कि अप्पणा फुणिहाँ० ॥ ३८३ जइ व हीइ सिरि घालि करंडिहिँ देहसिउं जि पोसउ निसदीस कि दूधइ तेह - सिउं । तावि भुअंगम संगमि होइ न अप्पणा फुणिहाँ अइ जात जाति - सहाव० ॥ ३८४ धरम सु-गुणि धणि आखर दाखइ नेहुलउ तासु वयण - रसि जाणि कि वूठउ मेहुलउ । जइ वि कुमर मन - मोर महा - रसि तंडीया फुणिहाँ अइ तावि सरल--कुमरेण कुसंग न छंडिया ॥ ३८५ ग्रहीत- मुक्तक- आलिंगनक छंद अथ अन्नदिणम्मि मणम्मि वितक्किय किंपि छलं छल-सेस - विसेस - गवेसण दुज्जण सुयण- नरं । नर-राय सुपुच्छिय निच्छिय एम सु-पेम-परं - लोय-विवज्जिय देस - मसेस कुमार - गुणं ॥ ३८३ पर- Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [41] गुणियण-जण -संगय संगइ केम कुमर तुअ तुअ सत्थि महा-सुह-संपइ कारणि कवणि हुअ । हुअ जम्म सुरम्म कुमारह किणि पुरि कवण कलि कुलवंत सु आखित दाखित सुह मह कहियवलि ॥ ३८७ तव बुल्लिय सज्जण दुज्जण वयण विरासजुअं महाराय म पुच्छसि वंछिसि जइ बहु आय-सुहं । मणि संकिय ताम नरेस विसेसिहिं दुट्ठ पुण लहु जंपइ सुयण ति सामिय कामिय ईस सुणि ॥ ३८८ गाथा इक्कतो तुह आणा, इक्कतो कुमर-राय निस्सेहो । इअ जह पवित्ति कहणे, अहो वियडसंकडं मज्झ ॥ ३८९ तह वि हु बहु हेअ नरेसर, सिरिम महिंद नंद चिर-कालं । जह तह कुमार-चरियं, अच्छरियं पुण सु मह एयं ।। ३९० सिरिवास-नयर-सामिय, नरवाहण-नंदणो अहं देव । ... अम्ह घर-कोरियस्स उ, सुओ महाराय एस लहु ॥ ३९१ पगईए रूव-गुणो, कुत्तो च्चिम पत्त-बहुल-विज्जधणो । निय-कुल-तवाइ-गेहं, चिच्चा देसंतरं गनो ॥ ३९२ इत्थागयस्स तस्स य, नरवर तुम्हाणुरागजोगाओ । पुवज्जिय-पुण्णेणं जं जायं तं तए मुणियं ॥ ३९३ ॥ विशेषकम् ॥ पिउणो पराहवाओ, अहमवि देसंतरं तओ कमसो । पत्तो इहोवलक्खिय, मम्मणो एस कुमरेण ॥ ३९४ इय चिंतिय दाऊणं, बहु-माणं मज्झ नामं सुयण । उग्घाडेसु नरेसर-पुरओ, कहिऊण संठविओ ॥ ३९५ ॥ युग्मम् एएण कारणेणं ललियंग कुमार वुज्ज (?) पायस्स । नाह कहमि कहवि, कहं, परं परा सामि तुह आणा ॥ ३९६ पद्धडी इम सुयण-वयण-विस-घारियंग मणि चिंतइ भूवइ अइ-विरंग । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [42] फिट फग्गु भग्गु भर अम्ह देव किम कारिय उत्तम नीय-सेव ॥ ३९७ पण बद्ध लद्ध जई कण्ण ईणि किय मलिण रज्जमह देउ कीणि । जइ चरइ पिराई खरसुदक्ख नवि होइ किंपि हियडइ अणक्ख ॥ ३९८ वरि भलउ विसानरि सुह-पवेस नवि भलउ कुल(लु)ज्जिय जण पवेस । वरि भलउ किद्ध परगेहि दास नवि भलउ कुलुज्जिय सह निवास ।। ३९९ वरि भलउ भावि सह वेस रंग नवि भलउ कुल(लु)ज्जिय पुरिस-संग वरि भलिय रायति सुण्ण साल णवि पूरिय पुणरवि चोर-माल ॥ ४०० जइ तापउ महातवि तणु किलामि ठाईइ सिउँ ति विसतरु-कु-ठामि । पामीइ जइ-वि घय सालि दालि कामीइ सिउँ तिमरु-लहुअ-सालि ॥ ४०१ साहीइ सुबुद्धिहिँ अप्प-कज्ज उप्पज्जइ जेम नवि लोय-लज्ज । खाईइ चोरि निय-गुड नियाणि इम कहिय लोय उहाणि जाणि ॥ ४०२ चिंताविय चित्ति इम नरवरेसि ललिअंग कुमार कुमार-रेसि । पट्ठविय पेसियर छन्न रत्ति ।। गम-निग्गम अह-विचि-मज्झ घत्ति ॥ ४०३ सामी सुह-संगम सेज लीण नव-गाह-गेय-गुण रमण-पीण । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [43] ललिअंगि रंगि ललियंग जाम तव अच्छइ रयणि समद्ध जाम ॥ ४०४ नवि पेसिय परिसर मयि(?) कोइ ललिअंग-भुवण वर पत्त सोइ । उग्घाडिय लहु संपुड-कवाड विण्णवइ विणय-गुरु-वयण-चाड ।। ४०५ जय विजयवंत चिर जीव देव बुल्लावइ तुम्ह नरराय हेव । पर पेमि किंपि पुच्छइ सुवत्त । पर-टु लट्ठ गिह-रज्ज-सुत्त ॥ ४०६ पाधारउ पहु पिय पंथ मज्झि नितमंत जेम नवि पडइ वज्जि । ससि-जुण्ह जूअमिव मंत चोर जिय दिवस गुत्त घण करइ जोर ॥ ४०७ इम सुणिवि सवणि उट्ठउ पयंड करि करवि कुमर करवाल-दंड । खलकंति चूडि चल-पाणि पाणि तव झल्लवि पल्लवि कुमर राणि ॥ ४०८ इम जंपइ नाह म होसि मुद्ध। . इम जाइ कोवि संपइ अबुद्ध । तव बुल्लइ कुमर सुणीइ-मम्म किम पलइ रमणि इम सामि-धम्म ॥ ४०९ गाथा (श्री महान(नि)सीथे ।) आएसमवी साणं, पमाण-पुव्वं तहत्ति नायघं । मंगलममंगल वा, तत्थ वियारो न कायव्वो ॥ ४१० इणमेव जीवियव्वं, निच्चं सुअ-भिच्च-सीस-रयणाणं । जं पुज्ज-पियर-सामिअ-गुरूण मुह वाय-कारितं ॥ ४११ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 44 ] नाणमवहीलणं जं, सुंदरि तं ताण सत्तिमिसरूवं । विहियं विडंबणं विहि - कारणदोसेण पुव्वेण ॥ ४१२ दूहउ इम निसुणिय पिय वयण तव, बुल्लइ राय - कुमारि । राय - नीइ निउणेक्क- वर, विज्झति अवधारि ॥ ४१३ कुंडलीया दूहा ॥ जिण - सासणि जिणि नवि कही सिद्धि पक्खि एगंति । जिम धणु - गुण बिहुं सरलपणि, सर मिल्हणा न जंति ॥ सर मिल्हणा न जंति सरलपणि गुण - कोवंडह निच्चानिच्च पयार सार जग जिम मय - भंडह । जिणवर - भासिय- वयण कहवि अन्नह इम वासण तं एगंत सुअलिय एम जंपइ जिण - सासणि ॥ ४१४ तिणि कारणि एगंतपणि, निव-धम्मह वीसास । नवि किज्जइ सरलत्तगुणि, जिम दोरी विण पास ॥ जिम दोरी विण पास, भास इम सुणीइ सत्थिहिँ सुणिउ अहव किहँ दिट्ठ राय मित्तत्ति परमत्थिहिँ अन्न वयणि मणि अन्न कज्ज सच्छंदह चारिणि । वेस धम्म जिम धम्मराय रायह तिणि कारणि ॥ ४१५ विण अवसर जे कज्जडां विण पत्थाविहिँ माण | विण अवसर तरु फुल्ल फल, ए त्रिहइ सुनियाण ॥ ए त्रिves सुनियाण जाण इम जाणि न चित्तिहिँ हसइ कोइ नवि निउण बहुअ कोऊहल - वित्तिहिँ । हक्कारण- मिसि हेउअ वर बुज्झि न अवसरि इणि कज्जह कज्ज - विणास जेउ किज्जइ अवसर - विण ॥। ४१६ सिउँ जंपिउँ बहुअर विरस, सार वयण सुणि सामि । जिम दज्झण भइ दारु कर, लिद्धउ सुह परिणामि ॥ लिद्धउ सुह परिणामि घाय- रक्खण जिम उड्डण Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 45 ] तिम पच्छावि पसत्थ पवर पंडिय सेवय - जण । पेसिय राय समीवि सुयण सच्च तुम्ह अणुयर किज्जइ अप्पण - काम सामि सिउँ जंपउँ बहुअर ॥ ४१७ चालि इम सुणवि सर्वाणि उदार, तसु वयण अमिय कुमार चितइति नियमणि तुट्ठ, अह रमणि गुणह गरिठ ॥ ४१८ धन धन्न मुझ अवयार, संसारिगु ससपयार ( ? ) धन धन्न इह मुझ रज्ज, जसु सुहिय एरिस भज्ज ।। ४१९ धन धन्न सुललिय वाणि, बहु-विणय- -गुण-गुरु- माणि । धन धन्न सुचरिय सील, दुह- वल्लि - मूलनि कील ॥ ४२० आसन्न -रण-रस-रंगि, बहु - मूढ - मंत - कुसंग । जोईइ जसु सुह वयण, सुजि पुरुस इत्थिय - रयण ॥ ४२१ मणि धरीय इम तसु सीख, अव सरिय इक्क दुइ वीख । बुल्लावि सुयण ससबंधु, सहु कहिय कुमरि निबंधु ॥ ४२२ पट्ठविय पहु छल- रेसि, तसु दुट्ठ कम्म-विसेसि । अहमयि पत्त सुजाम, निव मुत्त जणि झुणिताम ॥ ४२३ हवि हणिउ खग्ग - पहारि, तसु पाव-बुद्धि वियारि । हुअ सव्वलोय - उहाणि, पर- चिंति अप्पण हाणि ॥ ४२४ तव हुआ कलियल सद्द, घण घोर काहल - नद्द | धाया ति धसमस धीर, कोइ हणिउ घायगि वीर ॥ ४२५ तं सुणिय सुयण - विणास, ललिअंग पुण्ण- पयास । गलयलिय - कंठि कुमारि इम भणइ पिय अवधारि ॥ ४२६ कहि पाण - पिय तम हेव, जइ कहिउं करत न देव । किम हुंत अबला बाल, विण कंत काम रसाल ॥ ४२७ विण - नाह नारी हीण, जिम हुइ दुत्थिय दीण । नवि करइ कोइ तसु सार, विण पाणनाह - आधार ॥ ४२८ दूहा नाह - पखइ नारी जिसी, जिम दव-दाधी वेलि । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [46] नीरस निष्फल निग्गुण इ, दैवि विडंबी मेल्हि ।। ४२९ देव कि दिउ सिरि माहरइ, जउ खर-खग्ग-पहार ।। वल्लह-विरह-विछोहियां, तउ तउं जाणइ सार ॥ ४३० दैवह दाखउं वाटडी, जइ देखउं निय-अंखि । विरह-विछोह्यां माणसां, कांइ न सिरजी पंखि ॥ ४३१ देव दया करि माहरी, नवि भाजी जिम आस ।। तिम तरुणी तारुण्ण-रस, ढोलि म ढोलि निरास ॥ ४३२ नाह-सरिस गुण गोरडी, नव-रंग नागर-वेलि । जइ सिरजी फल-हीणगुण तोइ सकुंपल मेल्हि ॥ ४३३ गाथा इअ पुप्फावि(वइ) पेम, खेमं नाऊण पाण-नाहस्स । पुणरवि पिय-हिय-कज्जं, गय-लज्जं भणइ सुणि नाह ॥ ४३४ मम सूइसि निच्चं तो, कंत कयंत व्व तुम्ह पाण हो । पच्चूसे पिय एसो नरराओ कूड-विक्खाओ ॥ ४३५ ता अद्ध-रज्ज-सिन्नं, हय-गय-रह-सुहड-सार-संकिण्णं । मेलित्तु झत्ति चिट्ठसु, चंपापुर बहिय-उज्जाणे ॥ ४३६ अह सुणिय तीइ वयणं सुदिट्ठनयणं कुमार सार-बलो । कोवाकुल-चल-चित्तो, जुत्तो सिनेण संचलिओ ॥ ४३७ दुमिला पसरंत-उतंग-तुरंगम-संगम-तुंग-तरंग-चडंत-घणं मय-मत्त-महागिरि-सुंदर-सिंधुर-बंधुर-सेतु-सुबंध भणं । वर-नक्क-सुयक्क-महारह-संकुल-मच्छ-सुकच्छ-व सूर-नरं कुमरिंद नरिंद महाबल-सायर-दीसत कायर-पाण-हरं ।। ४३८ अडिलदूहउ पाण-हरण-पक्खर-घग्घरीव हणणहणहण-हय हिंसारव । खुर-रव-खेहि सूर-कर ढंकिय गह-गण इंद चंद सुर संकिय ॥ ४३९ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [47] रोडिल्ला छंद संक्या सयल सुर-नरेस, पायालिनाग असेस, मेल्हति धरणि सेस, सूभर-भरं । चलइँ चउदिसि दिग्गय-चक्क, हुअंतिसु हक्कोहक्क, भज्जंति कायर फक्क, नासतनरं ।। कंपइ सयल कुल-गिरिंद, चालंत मत्त-गयंद, ढलंत ढालसु-विंध, सोहतघणं । इम मिलंति कुमर-सेन फिरंति अंबरि सेन, डरंति दुयण केन, देखत खणं ।। ४४० खणि खणि मिलिय महा-दल समहरि विलसइं वीर महाबलि समहरि । सिंह-नादि सामत्थिम दक्खई निय-कुल-ठामि सामि छल रक्खइं ॥ ४४१ नाराचछंद रहंति नाम चंद जाम तासु सग्ग-संवरा वरंति जीणि हेउ तीणि जुज्झ-कज्ज-सुंदरा । सुजोड जीण जरद अंगि जीव-रक्ख-सोहिया मिलंति सूर समर-तूर-सद्द-नद्द-खोहिया ॥ ४४२ खुहिय खित्ति नीसाण-निनदिहिं ढमढम-ढक्क-ढुल्ल-घण-सद्दिहिं । भरर-भेरि-भंकार ति वज्जइँ जाणि कि पावस थण घण गज्जइँ ॥ ४४३ गगनगति गज्जंति मेह कि गयणि गडयड गुरूअ-गइवर-मंडलं बह छत्त-धयवड-सीस-सीकिर-छन्न-रवि-ससि-मंडलं । तरवारि-तीर-सुतरल-तोमर-चक्ककुंत-सुसत्थयं खण-खित्ति इम दुइ सिन्न समवडि अन्नमन्न सुपत्थियं ॥ ४४४ यमकबोल Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [48] तिणि प्रस्तावि ते श्रीललितांगकुमार आपणउ सकल दल मेली राजा सामुहउ आविउ, आवतउ जि श्रीजितुशत्रु-राजाई बोलाविउ, काँइ रे कोरी !, तइँ आपणा कुलतणी वात चोरी, माहरी पुत्रिका-तणउँ पाणि-ग्रहण कीधउँ, तउँ इणि वातइँ तइँ माहाँ सिउँ काम सीधउँ, पिण हिव जोई 'माहरी वात, करउँ जि ताहरु घात, तउ इम जाणे ए भलउ महारात ॥४४५ तिवारइ इस्याँ महराय-तणाँ वचन श्रवण-संपुटि धरी, दक्षिणहाथि खड्ग सज्ज करी, पूँछि वल घालि, सामहउ चाली, वलतुं श्रीललितांग-कुमरि राजा बोलाविउ, महाराज साँभलि राजनीति, उत्तम पुरुष कदापि न पडइ छीति, पाणि जइ सूर सूर-आगलि भाजइ, तउ आपणउ उत्तम वंस लाजइ ।। ४४६ संग्रामि चड्या क्षत्रिय न गिणई संग पण न सगाई, पिण एक वार मुझ सिउँ संग्राम कीधा विण तुम्हे एवडी वात कोइ फुरमाई, इम कही नि अन्योन्य राजा नइँ कुमर हस्या, स-दंडायुध लेई परस्परइ सुभट सुभट प्रति साम्हा धस्या, हुवा लागउँ जूझ, किसँ वर्णवि अबूझ, वात कहताँ रोमांच ऊपजइ अंगि, ते राउत भला जे झूझि रणांगणि रंगि ॥ ४४७ पद्धडी गय गजवर हयवर हय जुडंति रह पायक पायक-सिउँ भिडंति । झल हलइ खग्ग खर करि कराल जाणीइ कि अहिणव विज्जु-झाल ।। ४४८ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [49] खड-खडइ खग्ग खेडय खटक्क त्रुटुंति सरल धणु गुण तडक्क । किवि करइ धणुह-टंकार-नद्द फुटृति फोडि बंभंड सद्द ॥ ४४९ सिंगिणि-गुण वज्जइ तरलतीर कर फलह फुट्टि विधइ सरीर । किवि-कर, वीर मुहि सीह-नाद इक इक्क घाइ गुण लिंति वाद ॥ ४५० झडि पडइ सुहडधड उवरि मुंड घण-घाइ के-वि किज्जइ दु-खंड । खलहलि खोणि-तल रत्त खाल संपुण्ण-पलल-जंबाल-जाल ॥ ४५१ इक इक्क के-वि नामइँ न सीस मारत इक्क मणि सरइँ ईस । इक चडइ तुरंगमि अस्सवार भेदिज्जइ भड इक्क भल्लधार ॥ ४५२ संभरइ इक्क घर-घरणि वीर फुरकंति पवणि भड-मोलि-चीर । इक चडइ सुहड रण दंति-दंति कि-वि धरइ किवण अंगुलिय दंति ॥ ४५३ नासंति इक्क निय जीव लेवि सज्जंति सुहड सन्नाह के-वि । बुलंति सुहडवर बिरद बंद पिक्खंति गयणि सुर इंद चंदं ॥ ४५४ चउसट्ठि चंड चामुंड नार भरि खप्पर रुहिर पियंति वीर । वजंति महारण तूर घोर जसु सवणि सूर उप्पजइ जोर ।। ४५५ इम हुअ बिहुं दलि रण बहुअ वार, Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [50] इकइक्क के-वि जाणइँ न सार । भज्जंत भूव-दलि दिट्ठ पुट्ठि जोअंति कुमरि तव सहिय पुट्ठि ।। ४५६ अथ वीररस । मध्ये शृंगारान्तर्भाव ॥ अवसहूतरा अहुठिया दूहा ॥ सहीए देवि न दाहिणइ, करि करवाल करंत । ओ झूझइ ललियंगि वर, नाना कंत ॥ ४५७ कंत कोइ भड भीम वरि किम पुज्जई व सुरेस । अलिय म जंपिसि बहिनि तउँ, नाना मरेस ।। ४५८ कुमर नथी रायह भणइ, तू-विण अवर न कोइ । मुंधि मयण समरूपि तु, नाना सोइ ।। ४५९ सोहि समरथ सामी सकल, रूपिहिँ अहिणव काम । वलि वलि पूछउँ हे सही, तासतणउँ सिउँ नाम ॥ ४६० नाम लिउँ सखि तसु तणउँ, जइ हुअइ अइ हियडा दूरि । उवालंभ वर अम्ह तगउँ, रमइ ति रण-रस-पूरि ॥ ४६१ अथ सहनामा दूहा ॥ रागाँसविहिँ जेउ धुरि, तिणि नामिइ सहि नाम । तसु अग्गलि अंगेण सिउँ, सहिय सुणावे सामि ॥ ४६२ रूडा नामइ अच्छ जसु, तसु नामइ सहि नाम तसु अग्गलि अंगेण, सिउं सहिय सु० ।। ४६३ हयवरि चडिउ तिहाँ सुलई, हक्कइं अरियण थट्ट । हुं बलिहारी प्रिय-तणइँ, दूरि नडंती नट्ठ ॥ राग नाट नट्ट-भंजण रिपु-जलण, सहिय हमारा कंत । रणि सूराँ घरि मागताँ, हसि हसि प्रेम मिलंति ॥ ४६५ मह कंतह दुइ दोसडा, अवर म झंपु आल । दिज्जंतई हउँ ऊगरी, जुझंतइ करवाल ।। ४६६ राग सिंधूडउ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [51] पाय विलग्गी अंतडी ॥ ४६७ वाइँ फरकइ मूंछडी, मुखिहिक बीड्या दंत । सूतउँ सेलाँ माथउँ करी, मरउँ सुहावा कंत । निसि भरि नख जव देअती, तव कुणणतउ कंत । खग्ग-झटुक्का किम सह्या, किम सहिया गय-दंत ॥ ४६९ कंतह करउँ ति भामणाँ जिम जिम देखउँ अंखि । इक्क लडइँ असिवर धरइँ, वयरी गया ति झंखि ॥ ४७० सखी आह अथ सोरठिया दूहा ॥ राग सोरठी ॥ ए कीणइ सहु कोइ, सहु कीणइ ए को नहीं । कटक निहाली जोइ, सूनउ सोरठीउ भणइ ॥ ४७१ भलउँ भणाविउँ भीमि, भारषि जिम भूवइ सरिस । रायह एही सीम, जइ जामाई सिउँ कलह ॥ ४७२ सहियर साम्हउँ देखि, ओ असवार तिहाँ सुलई । राखइ राउत रेख, रण-रसि रमताँ रायसँ ॥ ४७३ इम करताँ सुविहाण, सहियर-सुं गुण-गोठडी । कुंअरी बि-पुहरां जांण, किलउ हूउ कुरु-खेत जिम ॥ ४७४ जोताँ बहु जणा तेणि, झडपड लीधा झाटके । रायह दलि नवि केणि, नासत नवि काढी छुरी ॥ ४७५ पद्धडी . उड्डेति पवणि जिम अक्तूल, विक्खरइँ वसुहि जिम घाम-पूल । तणु कंजिय गंजिय जेम खीर, नासविय कुमरि तिम राय-वीर ॥४७६ भज्जंत सुहड इम दिट्ठ जाम, बिहुँ मंति बिहुं दलि मिलीय ताम । अउसरीय कटक दुइ दिद्ध-आण, सह पत्त झत्ति भूवइअ-थाण ॥ ४७७ कहि सामिय भामिय केण तुम्ह, किणि कारणि एवड झुज्झ-कम्म । अविमासिउँ मम करि देव हेव, इणि वत्ति तत्ति तूअ पडइ छेव ॥ ४७८ अविमासिय जे नर करइँ काम, ते हुइँ पुरिस बहु दुक्ख-धाम । वलि लहइँ लोइ अविवेय-कित्ति, तसु छंडइँ लहु लहु जलहि-पुत्ति ।। ४७९ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [52] जामाय-सरिस जं तुम्ह झूझ, तं जाणि जाणि बहिरेण गुज्झ । रोपीइ जइ वि विसतरु नियाणि, छेदिज्जई नियकरि किम वियाणि ।। ४८० जोइँइ तिल्ल तिल्लह कि धार, नवि होइ राय अविचार-सार । चाहीइ चतुरपणि मूल मम्म, अविमासिय किज्जइ नवि सुकम्म ॥ ४८१ संभलिय वयण म पतिज्ज कोइ, . इकि हुअ अकारण दुयण लोइ । पर-विग्घ-तुट्ठि नारद्द नामि बहु अच्छइँ सुरनर भुवण-ठामि ॥ ४८२ गाथा तं नत्थि घरं० ॥ ४८३ सुणीयंमापत जसि ॥ ४८४ दहउ सज्जण थोडा हंस जिम, उर्ल्डके दीसंति । दुजण काला काग जिम, महियलि घणा भमंति ॥ १८५ पद्धडी . तिणि कारणि अप्पइ अप्प जोइ मणि चिंतिय कि-त्तिम हेउ कोइ । जय राय-राय जिम पडसि दावि गुरु अंबसुतरु गण पच्छतावि ॥ ४८६ पुछइ नरिंद दिठंत तासु सु जि कहइ मंति बहु मतिविलासु । सहु सुणिय सभिंतरि चरिय चित्त जियशत्रु-राय मणि भयउ चित्त ॥ ४८७ उप्पन्न वेग संवेग भूव पुच्छावइ तसु कुल जाइ रूव । ललिअंग-कुमर हसि भणइ मंति तुम्हि किउ सच्चउ ओहाण अंति ॥ ४८८ गिह पुच्छउ सिउँ पीएवि नीर न कहंति एम निय-वंस वीर । For Prvate & Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [53] जितु कहइ सुयणसुजि हरिउ देवि अह पेसि नयरि सिरिवास के-वि ॥ ४८९ होस्यई जि राय तिहं कोइ दक्ख नरवाहण-नामइँ लद्ध-लक्ख । कमला कमला-गुणि तासु भज्ज जिणि मन्नइ भूवइ सहल रज्ज ॥ ४९० ललिअंग कुमर तस पत्त होइ जिय सत्तु-पुत्ति-वर वीर सोइ ॥ इम सुणिय सवण सुह वयण मंति मणि हरसिय विहसिय-वयण जंति ॥ ४९१ विण्णविउ विणय-सुं नरवरिंद जियसत्तु सत्त चिरकाल नंद । परि किज्जइ कुमरि सु कहिय जेव पुट्ठवउ पुरिसवर नयरि तेउ ॥ ४९२ तव सासिय भासिय बहु अ-भाण चल्लविय चतुर नर कि-वि सुजाण । अविलंब पयाणि सुपत्त तीणि नर वाहण-नरवर-नयर जीणि || ४९३ तिणि अवसरि पुत्तवियोग-दद्ध नरवाहण सुअ-संगम-विसुद्ध । सह दार-सार-परिवार-जुत्त नितु रहइ रयणि दिणि सोग-तत्त ॥ ४९४ पत्ता पुर-भिंतरि तव दुआरि पडिहारि पएसिय किय-जुहारि । विण्णविय वसुह-धव कुमर-तत्त इम सुणिय तत्थ अवरोह पत्त ।। ४९५ उक्कंठिय जिम नव-मेहि मोर कं धुर-बंधुर सयल पोर । वाचंति विउलमइ राय-लेह Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [54] नरवाहण-निव गुण-गाह-गेह ॥ ४९६ लेख-गाथा सत्थि सिरि सिरि-निवासे, सिरिवास-पुरम्मि पुज्ज-पिय-पाए । नरवाहण-नरराए, सुपुत्त-पोत्तार-परियरिए ।। ४९७ गय-कंप-चंप-नयरह सामी, नामि त्थु सीस मणुगामी (?) । मउलिय-कर-कमल-जुओ, जियसत्तू विण्णवइ एवं ॥ ४९८ सामिय तुम्हाण सुओ, ललियंगो नाम विस्सुओ लोए । कय-पाणिग्गह-रू वो, भूवो चंपद्धरज्जस्स ।। ४९९ इअ सहसावयणेणं तेणं भेग(भिग्गो?) नव-जलय-सित्तो । उज्जीविय-व्व संपइ जंपइ नरवाहणो एवं ॥ ५०० तेण सम(मं) महं निच्चं, सुभिच्च-भावं करेमि जह तुम्हं । कायव्वं तह नरवइ, जइअव्वं सुहिय-हिय-करणे ॥ ५०१ अह होइह भुवणयले, जियसत्तु, समो न कोवि मम बंधू । जेणेसो ललिअंगो, संठविओ निय-समीवम्मि ॥ ५०२ जीविय-सव्वस्समिणं विस्स-जणस्सेव अम्ह कुल-कलसो । कुमरो दिसंत-भमिरोह संठवियो नियट्ठाणे ॥ ५०२ यथा वेला-महल्ल-कल्लोल-पिल्लियं जइ-वि गिरि-नई-पत्तं । अणुसरइ मग्ग-लग्गं, पुणो-वि रयणायरे रयणं ॥ ५०३ चालि सलहित्तु इम नरराय, तसु दिद्ध बहुअ पसाय । बहुभत्तिभोयण-वार, धणकणयकप्पडफार ।। ५०४ बहु-दाण-माणिहिँ पोसि, चल्लविय गुरुसंतोसि । तसु सत्थि पेसिय मंति, ललियंग-तेडण-मंति ।। ५०६ घणसुघट सोवन घाट, वर-रयण-पूरिय-थाट । बहु-मुल्ल हीर-सुचीर, मिय-नाभि-कल-कसमीर ।। ५०७ जियशत्रु-नरवर-रेसि, सिरिवास-नयर-नरेसि । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [55] मुक्कलिय इम बहुभेट, कमि पत्त चंपह थेट ।। ५०८ ते जाणि मणि महिंद, ललियंग-कुमर-नरिंद । संमुहिय संमुह कज्जि, हयगय-सुरह-भडसज्जि ॥ ५०९ वस्तु बहुअ उच्छवि बहुअ उच्छवि मिलिय समुदाय । नरवाहण-मंतीस-वर कुमर-राय जिअअरि सु-परियरि नयर- माहि नियमंदिरिहिं, लिद्ध ते वि उच्छव सु-परियरि । पुच्छिय सहु वित्तंत, तसु लज्जिउ निय मणि भूव चिंतइ अहह कि माहरूँ ए कहु कवण सरूव ।। ५१० लेइय अंकिहिँ, लेइय अंकिहिँ, राय निय-पुत्ति झत्ति झडत अंसुय नयण, वयण एम जंपइ नराहिव तउँ जि पनूती पुन-लगि जास एह बहु गुण सु साहिव ।। धिद्धि मुझ मइ-मोह बहु, जसु एरिस अवियार वच्छे कारणि तिणि अम्हे, लेसिउँ संयम-भार ॥ ५११ चालि इम कहिय रहिय-वियार, बहु लद्ध धम्म-वियार । थप्पइ सु कुमर-नरिंद, निय सयल-रज्जि नरिंद ।। ५१२ समुहुत्त दिवस-विसेसि, किय तासु रज्जभिसेसि ।। सहु खमिय खामिय रोस, तसु सुयण कारिय दोस ॥ ५१३ ललिअंग-रायकुमारि, सिउँ सहुअ निय-परिवारि । मुकलावि निव जियसत्तु, जिय-मोह-मयण-दुसत्तु ।। ५१४ लहु पत्त तव वण-अंति, बहु तविय तव एकंति । खण चत्त पावपमाय, हुअ सग्गि सुरवर-राय ॥ ५१५।।युग्मम्।। गाथा अह राया ललिअंगो, ललिअंग चंप-नयरि-वर-रज्जं । कुणमाणो कयसुकयं, जाओ लोयाण सुह-हेऊ ॥ २६-२ अह एगया सुपुच्छिय, सुपरिक्खिय नामयं निरं सइवं । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [56] सकलतो संचलिओ, सहपरिवारेण सारेण ॥। ५१७ निय - नयर - पियर - दंसण- उक्कंठिय-नियय - हियय - साणंदो । ललिअंग-नरवरिंदो, पत्तो सिरिवास - पुर- तीरं ।। ५१८ ।। युग्मम् ।। पद्धडी जव पत्त नयर - परिसरि नरेस । उल्लसिय चित्ति पुर- जण असेस । वद्धावर के वि नरराय - वीर तसु दिइ कणय - केकाण चीर ।। ५१९ जिम सरइ सुरहि निय- वच्छ-नेह । पंथिय जिम पावस - समय गेह | जिम सरइ भसल पच्चय (?) जाइ जिम सरइ डिंभ खुह - खिण माइ ॥ ५२० जिम सरइ सरोवर राजहंस जिम सरइ पुरिसवर निय सुवंस । कुलवंति जेम समरइ भतार जिम सरइ साहु संसार-पार ।। ५२१ जिम सरइ विंझ-वण वारणिंद जिम सरइ सुसायर पुण्ण- चंद | जिम सरइ चक्क पच्चूस - काल जिम सरइ सुकोइल तरु रसाल ॥ ५२२ तिम समरिय नरवई पुत्त - -पेम जल - सिंचिय जल-नालेरि जेम । अविलंब अंब- पिय- पुज्ज-पाय लहु नमइ नेहि ललिअंग - राय ॥ ५२३ तव हरसिय निय-मणि जणणितास चिर जीव पुत्त तउँ कोडि वास । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [57] इम दिंती बहु आसीस जाम नरवाहणि भुअ - विचि लिद्ध ताम ।। ५२४ बिहु मिलिय महासुह कंठ - देस आलिंगण - रंग- सुरंग - वेस । तिणि खणि सुअ - संगमि पत्त - सुक्ख नरवाहणि पामिय जेम सुक्ख ॥। ५२५ दूहा ( राग मल्हार ) अगलिय-नेह - निवट्टहाँ, जोअण- लक्खु वि जाउ । वरिस सएण - वि जो मिलइ सहि सो सुक्खहँ ठाउ ॥ ५२६ मेहा मोरादादुरां० ॥५२७ गाथा इअ जाणिऊण राया, जाया मंदाणराग-हिय - हियओ । जंपइ कहु पुत्त तुमं, कहं ठिउ विम्हरितु अम्हं ।। ५२८ सो पहरो पाव- -हरो, सा घडिया सुकइ कम्म साघडिया | सा वेला सुहवेला, जं दीसइ पुत्त - मुह - कमलं ॥ ५२९ चालि धन धन्न सुअ दिन अज्ज, धन धन्न इह मुझ रज्ज । धन धन्न जीविय देह, जिह मिलिउ तउँ गुण - गेह ॥ ५३० किम जाण जाणिय मग्ग निय पियर संगम सग्ग | किम किद्ध अम्ह बहु सार, जं मिल्हि गिउ निरधार ॥ ५३१ जं किउ अम्ह कुण दोस, तं खमि न खमि बहु - रोस । तुं पुत्त गुणहि गरि निय-पुण्णि तिहुयणि इट्ठ ॥ ५३२ हिव हुऊ पाव- विराम, सोनइ म लग्गि साम । अम्ह मिलिउ पेम - पियार, तउँ पुत्त बहु-गुण- सार ॥ ५३३ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [58] जव रोसि रक्खिय बार, अम्हि तुम्हि किउ अविचार । तव किद्ध किम अम्ह-रेसि, निय चित्त कठिण विदेसि ॥ ५३४ म म करिसि मनि बहु भंति, अम्ह अछइ एहजि खंति । तुम्ह देह इहु सहु रज्ज, हऊँ करिसि पर-भवि कञ्ज ।। ५३५ इम सुणिय नरवइ-वयण, ललिअंगह सअंसुयनयण । वलि वलि सु लग्गइ पाय, विण्णवइ सुणि नरराय ॥ ५३६ मन धरिसि पिय एम चित्ति, अम्ह हुइ एह अजुत्ति । नवि हुइ ताय कुताय, जइ जाय होइ कुजाय ॥ ५३७ हउँ हुउ तुम्ह कुल-कट्ठि, घुण जेम गय-सुह-सिट्ठि । इत दिवस विण पहु-सेव, निग्गमिय जं अम्हि देव ॥ ५३८ सिउँ बहुअ जंपिउँ आल, मुणि सामि बहु-गुण-साल । हउँ तुम्ह बहु-दुह-हेउ, हुअ अज्ज-दिण-लगि जेउ ॥ ५३९ तं खमिय मुझ अवराह, तउँ सयल भूव-वराह ।। किय भेउ चंपहरज्ज, आइसिय कोइ तसु कज्ज ॥ ५४० मुझ दिउ तुम्ह पय-वास, म म करिसि ताय निरास । ए अछइ तुम्ह गुण-दोसि, तुम्ह लहुअ वहुअ सुहासि ॥ ५४१ तसु दिसउ जं बहु वज्ज निय-कुलह मग्गसु कज्ज । इम भणिय कुमर-नरेस धरि रहिउ मून असेस ॥ ५४२॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ कालमुह कुमर सु पिक्खि, दिखंत निय निव पक्खि । नरवाहि निय करि वाणि (?), उववेसि निय-पय-ठाणि ॥ ५४३ वद्धारि तिलयसुभालि, विचि विमलअक्खय-सालि । सिरि धारि निव निय छत्त, नच्चंत नव नव पत्त ॥ ५४४ बहु धवल मंगल नारि, सवि सुहव दिति वियारि । वज्जंति बहुअर तूर, बहकंति अगर कपूर ॥ ५४५ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [59] बहु भत्तिभोयण चंग. तंबोल-पान सुरंग । पहिरावि सवि नरराय, बहु-मुल्ल चीर पसाय ॥ ५४६ घणकणय-कप्पडदाण, अप्पीइ बहु केकाण । मग्गणह पुज्जइ आस, दुहरोरजांइ निरास ।। ५४७ घरि घरि सुउच्छव-रंग घरि घरि सुमंडियजंग(चंग?) । घरि घरि सुतोरण बारि घरि घरि सुमंगल चारि ।। ५४८ उब्भविय धयवडपोलि, बहु नारि मिलइँ सुोलि । गायंति महु-सरि गीत, विहसीइ साजण-चीत ॥ ५४९ सवि सहुय दिइँ आसीस, वद्धारि तिलय सुसीस । ललिअंग कोडि वरीस, पूरवउ जगह जगीस ॥ ५५० रसाउलउ नरवाहण सुअ मिलिय दुक्ख दूरहिँ टलिय । सुयण-आसा फलिय नियसुरज्ज-भर कलिय । पिसुण पविणिहिं पुलिय, कित्ति चिहुँदिसि चलिय वसण सयल गयगलिय अरियण सवि निर्दलिय । ललिअंग-राय अतुलब्बलिय, सत्तुसयल पय-तुलि लुलिय मुनिराउ देवसुंदर रलिय जसु जस जंपई वलि चलिय ॥ ५५१ चालि इम तासु दिद्ध नरेस, निय रज्ज-रिद्धि असेस । मुकलावि सह निय-लोय, मनि धरिय बहुय पमोय ॥ ५५२ सिक्खविय सह निव रीति, चल्लिउ चोखिम चीति । नरवाह सहि-गुरु-पासि, लिय चरण मन-उल्हासि ॥ ५५३ दुद्धर-महव्वय-धार, पालंति पंचाचार । नितु समिति गुपिति सुजाण, गुण गरुअ मेर-समाण ॥ ५५४ लहु खविय घाइअ कम्म, किय सहल जिण-मुणि-धम्म । पामिउ ति तिजय-प्पहाण, रिसि-राइ केवल-नाण ।। ५५५ तिहँ थका बहु-परिवारि, सिरिवास-नयर-मझारि । नवकप्प करइ विहार, बुझ्झवइ भविय अपारि ॥ ५५६ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [60] ललिअंग रंगिहि ताम, सह भज्ज सुह-परिणाम । पडिवजइ सावयधम्म, धुरि बोधि सोधि सुरम्म ॥ ५५७ वलि नमिय निय-गुरु-पाय, बहु-धम्म-लद्ध-पसाय । पत्तउ सगेहिणि गेहि, रसि रमइँ दुइ बहु-नेहि ॥ ५५८ भोगवइ बहुअ विलास, पूरवइ जग सहु आस । पालंति निरतीचार, निय-देस-विरइ-वियार ॥ ५५९ कारवइ वर प्रासाद, गिरि-मेर-सिउँ लइ वाद । वित्थरइ जगि जस-साद, नव-खंडइ नरवइ-नाद ॥ ५६० दिइ सत्त-खित्तिहिँ दाण, निय देव गुरु बहुमाण । ललिअंग पुण्य-पसाइ, हुय रज्ज दुन्निह राय ॥ ५६१ बहु दिवस पालिय धम्म, अणुसरिय अणसण रम्म । ललिअंग सग्गि विमाणि, हुय देवलोकि पुण्य प्रमाणि ॥ ५६२ वलि बहुय पुण्य पयासि, सुहि लहिय नरभव-वास । महाविदेह' देव, लहस्यइ ति सिद्धि सु हेव ॥ ५६३ पुण्यइ ति धणकण-रिद्धि, पुण्यइ ति पयड प्रसिद्धि । पुण्यइ ति राणिम राज, पुण्यइ सरइँ सहु काज ।। ५६४ पुण्यइ ति सग्ग-विमाण, पुण्यइ ति पंचम-ठाण । जर्गि पयड पुण्य पवित्त, ललियंग-राय-चरित्त ।। ५६५ महिमहति मालवदेस, धण-कणय-लछि-निवेस । तिहँ नयर मंडव-दुग्ग, अहिणवउ जाणि कि सग्ग ॥ ५६६ तिहँ अतुल-बल गुणवंत, श्री ग्यास-सुत जयवंत । समरथ साहस धीर, श्रीपातसाह-निसीर ॥ ५६७ तसु रज्जि सकल प्रधान, गुण-रूव-रयण-निधान । हिंदूआ राय-वजीर, श्रीमुंजमयणह वीर ॥ ५६८ सिरिमाल-वंसवयंस, मानिनी-मानस-हंस । सोनी राय-जीवन-पुत्त, बहु पुत्त-परियर-जुत्त ।। ५६९ श्रीमलिक माफर पट्टि, हयगय सुहड-बहु-थट्टि । श्रीपुंज पुंज नरिंद, बहु-कवित-केलि-सुछंद ॥ ५७० नवरस-विलासउ लोल, नव-गाह-गेय-कलोल । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [61] निय बुद्धि-बहुअ-विनाणि, गुरु धम्म फल बहु जाणि ।। ५७१ इहु पुण्यचरिय प्रबंध, ललिअंग-नृप संबंध । पह-पास-चरियह चित्त, उद्धरिय एह चरित्त ॥ ५७२ दसपुरह नयर मझारि, श्री संघ-तणइ आधारि । श्री शांतिसूरि सुपसाइं, दुहदुरिय दूरि पला' ।। ५७३ जं किम वि अलिय असार, गुरु लहुअ वर्णविचार । कवि कविउं ईस्यर सूरि, तं खमउ बहु-गुण सूरि ॥ ५७४ ससि-रस-सुविक्कम-काल, ए चरिय रचिउँ रसाल । जाँ धूअ रवि ससि मेर, ताँ जयउ गच्छ संडेर ।। ५७५ वाचंत वीर-चरित्त, वित्थरउ जगि जय-कित्ति । तसु मणुअभव धन धन्न, श्रीपासनाह प्रसन्न ।। ५७६ ॥ इति श्रीललितांगनरेश्वरचरित्रं समाप्तं । तस्मिन् समाप्ते समाप्तोऽयं रासक-चूडामणि-पुण्यप्रबन्धः ॥ तथाऽत्र रासके श्रीललितांगचरित्रे प्रथम-गाथा, (१) दूहा, (२) साटक, (३) षट्पद, (४) कुंडलिया, (५) रसाउला, (६) वस्तु, (७) इंद्रवज्रोपेन्द्रवज्रा काव्य, (८) अडिल्ल, (९) मडिल्ल, (१०) काव्याद्धबोली, (११) अडिल्लार्ध बोली,, (१२) सूडबोली, (१३) वर्णनबोली, (१४) यमकबोली, (१५) छोटडा दूहा, (१६) सोरठी । --x-- Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रंबावती-तीर्थमाळ सं. मुनि भुवनचन्द्र सत्तरमी सदीना सुप्रसिद्ध श्रावक कवि श्री ऋषभदासनी एक महत्त्वनी छतां आज सुधी अज्ञात कृति-'तीर्थमाल त्रंबावती. स्तवन'-विद्वद्वर्ग समक्ष मूकतां आनंद थाय छे । जै. गू. क.-मां आ कृति नोंधाइ नथी, तेम जै. गू. क.मां आपेली, कविनी रचनाओनी जूनी बे टीपोमां पण आनो उल्लेख नथी । कविनी आ रचना खंभातने ज स्पर्शती होवाथी अन्यत्र आनो प्रसार ओछो थयो हशे; खंभातमां अन्य भंडारोमां आनी नकलो होय तो पण तेनी तपास थई शकी नथी। आ प्रति अणधारी रीते हाथमां आवी छ । बोरपीपळाना श्री पार्श्वचन्द्रगच्छ संघना है. लि. ज्ञानभंडारनुं सूचिपत्र तैयार करी लीधा बाद, प्रकीर्ण पत्रोनी पोथीओनुं निरांते अवलोकन करतां आ प्रतिना विखरायेला पानां हाथ लाग्यां । हालमां आ प्रति मारी पासे छे । कतिना अंते कविनाम तो छ ज । भाषा अने शैली पण स्पष्टपणे ऋषभदासनां छे । रचना १६७३मां थई छ । प्रति १७४४मां खंभातमां ज लखायेली छे । खंभातना इतिहासमां विशिष्ट पूर्ति करती आ रचना, 'तीर्थावली' प्रकारना प्राचीन साहित्यमां पण महत्त्वनो उमेरो करे छे । साथोसाथ धर्मप्रेमी अने खंभातना पण प्रशंसक आ कविना कवनमां रही जतो एक खाली खूणो पण आ रचना भरी दे छे ।। जोगानुजोगे, खंभातना उपर्युक्त भंडारमाथी ज, प्रायः १५० वर्ष पूर्वेनु, खंभातनां जिनालयोनी सूचिनुं एक ओळियुं पण प्राप्त थयुं । त्यार बाद अमदावादमां ला. द. भा. विद्यामंदिरमां पं. श्री लक्ष्मणभाई भोजक साथे वार्तालाप दरम्यान त्रंबावती तीर्थमाल (त्रं. ती.)नो उल्लेख करतां, ताजेतरमा ज तेमना हाथमां आवेखें आq ज ओळियुं ते ज वखते तेमणे देखाड्यं । तेनी फोटोकोपी पण तरत ज तेमणे करावी आपी । आ माटे तेमनो कृतज्ञ छु । आनी प्रति १७४४मां खंभातमां ज लखायेली छे, सारी स्थितिमा छ । पत्र ६ छे, अक्षरो मोटा कदना छ । पानांनुं प्रमाण ९||" x ४॥" छे । प्रत्येक पृष्ठमां ११ पंक्ति अने एक पंक्तिमां सरेराश ३२ अक्षर छ । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [63] अहीं त्रंबावती तीर्थमाल, खंभातनां जिनालयोनी बे सूचिओ तथा आ बधांना अभ्यासथी निष्पन्न थता केटलाक निष्कर्षो .. आटली सामग्री प्रस्तुत छ। श्री डूंगर मुनिकृत 'खंभात चैत्यपरिपाटी' नामे १३ कडीनी सत्तरमा सैकानी रचना मळे छे । (प्रका. 'जैनयुग' पु. १, पृ. ४२८) । पद्मविजयरचित 'खंभात चैत्यपरिपाटी' जै. गू. क.मां नोंधाई छ । मतिसागरे पण 'खंभात तीर्थमाळा' सं. १७०१मां रची छे । आ बधांनी साथे प्रस्तुत कृतिनी तुलना करवी आवश्यक छ, पण तेम थई शक्युं नथी । आशा छे--अन्य कोई अभ्यासी आ ऊणप पूरी करशे । त्रंबावती तीर्थमाळ दूहा श्री शंखेश्वर तुझ नमुं, नमुं ते सारद माय । तीर्थमाल त्रंबावती, स्तवतां आनंद थाय ॥ १ सागुटानी पोलिमां, बइ पोढा प्रासाद । चीत्र लष्यत तीहां पूतली, वाजइ घंटानाद ॥ २ श्री च्यंतामणि भोंयहरइ, एक सु प्रत्यमा सार । जिन जि द्वारइ पूजी ज्यमइ, ध्यन तेहनो अवतार ॥ ३ साहा सोंढानइ देहरइ, श्री नार्यंगपुर स्वामि ॥ प्रेम करीनइ पूजीइ, पनर ब्यंब तस ठामि ॥ ४ दंतारानी पोलिमां, कुथज्यन तास । बार ब्यंब तस भुवनमां, हुं तस पगले दास ।। ५ शांतिनाथ यनवर तणूं, बीजुं देहेरुं त्यांहि । दस प्रतिमाशुं प्रणमतां, हरष हूओ मनमांहि ॥ ६ गांधर्व बइठ गुण स्तवइ, कोकिल सरीषउ साद । वीस ब्यंब वेगई नमू, ऋषभतणउ प्रासाद ॥ ७ परजापत्यनी पोल्यमां, शीतल दसमु देव । पनर व्यंब प्रेमइ नमुं, सुपरइं सारं सेव ॥ ८ अलंगवसईनी पोल्यमां, बण्य प्रासाद उत्तंग । रीषभदेव वीस ब्यंब शुं, स्वामी सामल रंग ॥ ९ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [64] कुंथनाथयन भुवन त्यांहां, पासइं प्रतिमा आठ । प्रही ऊठीनइ प्रणमतां, लहीइ शवपुरि वाट ।। १० सांतिनाथ ज्यन सोलमु, त्यांहां त्रीजउ प्रासाद । त्रण्य ब्यंब तृविधिं नमू, मुंकी मीथ्या वाद ।। ११ मोहोरवसईनी पोल्यमांहां, त्रण्य प्रासाद जगीस । मोहोरपास स्वामी नमू, नमुं ब्यंब च्यालीस ॥ १२ शांतिनाथ त्रण्य ब्यंबद्यु, सुमतिनाथ यगदीस ।। सोल ब्यंब सहजइ नमू, पूरइ मनह जगीस ।। १३ आलीमांहां श्री शांतिनाथ, ब्यंब नमुं सडसठि । श्री ज्यनवर मुष देषतां, अमीअ पईठो घटि ॥ १४ शत्रपांण्य नाकर कह्यो, तेहनी पोलि प्रमाण । नीमनाथ षट ब्यंबशं, शरि वहं तेहनी आंण्य ।। १५ विमलनाथ यनभुवनह्नां, पासइ प्रत्यमा च्यार । एकमनां आराधतां, सकल शंघ जयकार ।। १६ ॥ १ ढाल बीजी-वीवाहलानी आए जीराउलाना पोल्यमां, पंच भुवन वषाणूं । आए श्री थंभण चउ ब्यंबद्यु, तीहां बइठा ए जाणउं ॥ १७ आहे श्री चंदप्रभ yयरइ, ब्यंब सीत्यरी ए वंदुं । आहे मगटकुंडल कडली भली, करि देषी आणंदुं ।। १८ आहे श्री जीराउल भुंयरइ, ब्यंब बहइतालीस सार । आहे ऋषभभुवन चो ब्यंबशुं, वीर भुंयरइ बार ।। १९ आहे गांधी तणी वली पोल्यमां, प्रासादइ नमीजइ । आहे भुवन कराव्यउं अ भीमजी, प्रभूजी तिहां प्रणमीजइ ॥ २० आहे मूलनायक श्रेआंस देव, नमुं चोवीसइ ब्यंब । आहे काष्टतणी तिहां पतली, तेणइ शोभइ ए थंभ ॥ २१ आहे नालीअरइपाडइ वली, देउल एक उदार ।। आहे ऋषभदेव तस भुवनमां, ब्यंब अनोपम च्यार ॥ २२ आहे एक प्रासाद अलंगमां, तीहां बइठा ए पास । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [65] आहे बावीस ब्यंब सहइजइ नमुं, यम पुहुचइ मझ आस ॥ २३ आहे माहालष्यमीनी अ पोल्यमां, यनजी, भुवन जोहारुं । आए चंदप्रभ नव ब्यंबशु, पूजी करी तन ठाएं ॥ २४ आहे बीजउं देहरं पासनउं, त्यांहां यन प्रत्यमा त्रीस ।। आहे प्रहइ ऊठीनइ प्रणमतां, पहुचइ मनह जगीस ॥ २५ आहे चोकसी केरीअ पोलिमां, यनं भुवन सु च्यार । आहे श्री च्यंतामण्य देहरइ, सोल ब्यंब सु सार ॥ २६ आहे सुषसागरना भुवनमां, मननि रंगइ ए जईइ । आहे तेत्रीस ब्यंब तीहां नमी, भविजन निरमल थईइ ॥ २७ आहे मोहोर पास स्वामी नमुं ए, बिंब सतावीस यांहि । आहे चोमुष व्यमल जोहारीइ, उगणीस ब्यंब छइ त्यांहि ॥ २८ आहे नेमनाथ जिन भुवनमां, ब्यंब नेऊअ नमीजइ । आहे प्रेम करीनइ पूजीइ, जिम ए भव नवि भमीइ ॥ २९ आहे षारूआतणी वली पोलिमां, सातइ देहरां कहीजइ । आहे बत्रीसां सो ब्यंबद्यु, सीमंधर लहीइ ॥ ३० आहे मुनिसुव्रत वीस ब्यंबद्यु, संभवजिन ब्यंब वीस । आहे अजितनाथ देहरइ जई, नीतई नामु अ सीस ॥ ३१ आहे शांतिनाथ दस ब्यंबशुं, मोहोर पास विष्यात । .. आहे पांच ब्यंब प्रेमें नमुं, वीर चोमुष सात ।। ३२ आहे एक प्रासाद अलंगमां, स्वामी मुनिसुव्रत केरो । आहे पांत्रीस ब्यंब पूजी करी, यलो भवनो ए फेरो ॥ ३३ आहे मणीआरवाडि जई नमुं, श्री चंदप्रभु स्वामी । आहे ओगणीस ब्यंब तस भुवनमां, सुष लहीइ शर नामी ॥ ३४ आहे साहा जेदासनी पोलिमां, तिहां छइ देउल एक । आहे मुनिसुव्रत वीस ब्यंबशुं, नमुं धरीइ विवेक ॥ ३५ आहे भंडारीनी पोलिमां, देउल एक ज सोहइ । । आहे वासपूज्य नव ब्यंबद्यु, ते दीठइ मन मोहइ ॥ ३६ आए वोहोरा केरी वली पोलिमां, काउसगीया बइ सार । आहे पांच ब्यंबशुं प्रणमतां, सकल शंघ जयकार ॥ ३७ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [66] ढाल त्रपदीनो साहा महीआनी पोलि वषाणूं, पांच प्रासाद तिहां पोढा जाणूं, पूजीम करिनी आणू, हो भविका, सेवो जिनवर राय, ए तो पूज्ये पातिग जाइ, ए तो निरष्यइ आनंद थाइ, हो भविका० ॥ १ मल्लिनाथनई देहरि जईइ, बि प्रतिमा तिण थानकि लहीइ, आंन्या शर परि वहीइ, हो भविका० ॥ २ आगलि बीजई च्यंतामणि पास, भुंयरि ऋषभदेवनो वास, ब्यंब नमुं पं[चास], हो० ॥ ३ jणइं शांतिनाथ यगदीस, तिहां जिन प्रतिमा छइ एकवीस, नीतिं नामूं सीस, हो० ॥ ४ । साहा जसूआनूं देहेरुं सारं, सोमचिंतामणि तिहां जूहाएं । चऊद बिंब चित्त धारुं, हो० ॥ ५ आगलि देहरि रिषभजिणंद, परदष्यण देतां आनंद, साठि ब्यंब सुखकंद, हो० ॥ ६ भुइरा केरी पोलि भलेरी, वण्य प्रासादई भुंगल भेरी, कीरतिन करुं यन केरी, हो० ॥ ७ श्री चंदप्रभ देहरइ दीसइ, अढार ब्यंब देषी मन हींसइ, शांतिनाथ ज्यन वीसइ, हो० ॥ ८ खूणइ देहरुं जगवीष्यात, बइठां सांमल पारसनाथ, पंनर ब्यंब तस साथि, हो० ॥ ९ आव्यो घीवटी पोलि मझारि, वीर तणो प्रासाद जोहारि, सात ब्यंब चित धारि, हो० ॥ १० श्री चंद्रप्रभयननइ जोहाएं, पांच ब्यंब मनमांहि धाएं, पातिग आठमुं वारुं, हो० ॥ ११ पटूआ केरी पोलि संभारी, संभवनाथ पूजो नरनारी, घउ परदष्यण सारी, हो० ॥ १२ पंचास ब्यंब तणो परिवार, भुंयरि शांतिनाथ ज्यन सार, नीतिं करुं जोहार, हो० ॥ १३ . Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [67] ऊंची सेरीमां हवई आवइ, पास तणो प्रासाद वधावर, अढार ब्यंब चित भावइ, हो० ॥ १४ वीमनाथनुं देहरूं साहमुं, इग्यार ब्यंब देषी शर नामूं, सकल पदारथ पामूं, हो० ॥ १५ सेगठापाडामांहि हवि सोहि बि प्रासादइ मनडुं मोहइ, पूजी पातिग धोइ, हो० ॥ १६ सोमच्यंतामणि च्यंता यलइ, तेर ब्यंब तिहां पातिग गालइ, भविलोकनइ पालइ, हो० ॥ १७ विमलनाथनि देहरि बीजइ, दस प्रतिमानी पूजा कीजइ, मांनवभवफल लीजें, हो० ॥ १८ सालवी केरी पोलि ज षास, देहरामां नवपल्लव पास, ब्यंब पंच्योतिर तास, हो० ॥ १९ बीजी सालवी पोलि, बइ प्रासाद पूजो अंघोलि, केसर चंदन घोलि, हो० ॥ २० संभवनाथ जिन प्रतिमा वीस, मूंनिसुव्रतनइ नामूं सीस, भूयरि ब्यंब बावीस, हो० ॥ २१ ढाल । गिरथी नदीयां ऊतरि रे लो - ए देशी । होय प्रासाद सोहामणा रे लो, नदांनपुरमां जाणि रे साहेली शांतिजिनेसर दीपता रे लो, ब्यंब पनर सुठांणि रे सा० भाव धरी जिन पूजीइ रे लो । आंचली ॥ १ कतबपुर मांहि नमुं रे लो, त्रण्य भुवन सुषकार रे सा० ब्यंब तणी संख्या कहूं रे लो, राषु चित एक ठार रे सा० ॥ २ आदीसर पंच ब्यंबशुं रे लो, पास भुवन दस ब्यंब रे सा० चऊद ब्यंब यनवर तणां रे लो, बइठा पास अचंब रे सा० ॥ ३ त्रण्य प्रासाद सोहामणां रे लो, निरषु नयण रसाल रे सा० अकबर पुर जाई करी रे लो, पूजउ परम दयाल रे सा० ॥४ वासुपूज्य यन बारमा रे लो, सात ब्यंब छइ ज्यांहि रे सा० Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [68] शांतियनेसर सोलमा रे लो, ब्यंब अठावीस त्यांहि रे सा० ॥५ आदिभुवन रलीआमणूं रे लो, ते छइ अति मनोहार रे सा० वीस ब्यंब यनजी तणां रे लो, पूजइ लहीइ पार रे सा० ॥६ कंसारीपुर राजीउ रे लो, भीड्यभंजन भगवंत रे सा० ब्यंब बावीसइ पूजतां रे लो, लहीइ सुष अनंत रे सा० ॥७ बीजइ देहरइ जइ नमूं रे लो, स्वामी ऋषभ यनंद रे सा० ब्यंब सतावीस वंदता रे लो, भविय मनि आनंद रे सा० ॥८ शकरपुरमां जांणीइ रे लो, पंच प्रासाद उत्तंग रे सा० भाव धरी यन पूजतां रे लो, लहीइ मुगति सुचंग रे सा० ॥९ ढाल अलबेलानी । राग काफी । अमीझरु आदइ लहुं रे लाल, सात ब्यंब सुविचार, जाउं वारी रे, सीतल स्वामी त्रण्य ब्यंबशुं रे लाल, पूज्यइ लहीइ पार, जाउं० महिर करु प्रभु माहरी रे लाल ॥ १ ऋषभतणइ देहरइ नमुं रे लाल, श्री यनप्रतिमा वीस, जाउं० ऋद्धिवृध्य सुषसंपदा रे लाल, जे नर नांमइं शीश, जा० ॥ २ सोमच्यंतामणि भोइरइ रे लाल, वंदं ब्यंब हजार, जा० केसरचंदनि पूजतां रे लाल, लहीइ भवचा पार, जा० ॥ ३ सीमंधर बिराजता रे लाल, ब्यंब तिहां पणयाल, जा० दिओ दरशन प्रभु मुंहनइ रे लाल, साहिब परम दयाल, जा० ॥४ घूमइ पगलां गुरु तणां रे लाल, श्री हीरविजय सूरीस, जा० श्री विजयसेनसूरी तणुं रे लाल, वडूइ थूभ जगीस, जा० ॥५ संभवनाथ नव ब्यंबशुं रे लाल, महिमदपुर मांहां जांणि, जा० सोमचिंतामणि दस ब्यंबशुं रे लाल, छगडीवाडा ठाणि, जा० ॥६ सलतांनपुरमां शांतिजी रे लाल, सोल ब्यंब तस ठारि, जा० महिमदपुरि शांतिनाथजी रे लाल, ब्यंब अछइ अग्यार, जा० ॥७ तीरथमाल पूरी हवी रे लाल, ओगण्यासी प्रासाद, जा० थंमकोरणी बहू दीपतां रे लाल, वाजि घंटनाद, जा० ॥८ श्री यन संष्या जाणीइ रे लाल, ब्यंब सह्यां (?) सय वीस, जा० Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [69] सात सयां प्रभू वंदीइ रे लाल, ऊपरि भाष्या त्रीस, जा० ॥९ भवियण भावइ पूजीइ रे लाल, पूजतां हरष अपार, जा० पूजा भगवती सूत्रमा रे लाल, दसमा अंग मुझारी, जा० ॥१० उववाई ठाणांगमां रे लाल, भाषइ श्री भगवंत, जा० निश्चल मनि प्रभू सेवतां रे लाल, लहीइ सुष अनंत, जा०॥११ कलस जेह पूजइ जेह पूजइ तेह पामइ, तीर्थमाल त्रंबावती, अरिहंत देष्य नर सीस नामइ, ऋधि रमणि घरि सूरतरू उसभ (अशुभ) कर्म ते सकल वांमइ, संवत सोल नि त्रिहोत्यरि माह शुदि पुंनिम सार, ऋषभदास रंगइ भणइ सकल शंघ जयकार || १ इति श्री तीर्थमाल त्रंबावती स्तवन समाप्त । संवत् १७४४ ना वरषे कारतिग सुदि २ दिने लिषितं श्रीस्तंभतीर्थे । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री स्थंभतीर्थना देरासरोनी सूचि-१ ॥ ८०॥ श्री वीतरागाय नमोनमः । अथ श्री स्थंभतिर्थना जिनचैत्य तथा जिनबिंबप्रासाद लषिई छ । प्रथम पारवावाडामां देहरां १२ । तेहनी विगति१. श्री स्थंभण पार्श्वनाथ, देहरं, ते मधइं२. श्री सीमंधर स्वामीन देहरं ३. श्री अजीतनाथ, देहरुं दक्षिणसन्मुख १ ४. श्री शांतिनाथ, देहरुं ५. श्री ऋषभदेव, देहरं, पासे चक्रेश्वरी देवीनी मूरति छ । ६. श्री सहस्सफणा पार्श्वनाथनं देहरं ७. श्री मोहरी पार्श्वनाथ, देहएं ८. श्री चउवीस तीर्थंकर मूलनायक मुनिसुव्रत स्वामी छइ । ९. श्री कंसारी पार्श्वनाथनुं देहरुं १०. श्री अनंतनाथ, देहरुं ११. श्री महावीर स्वामी देहरुं समवसरण चौमुख १२. श्री मुनीसुव्रतस्वामीनुं देहरुं अथ चोकसीनी पोळमां देहरां ६ तेहनी विगत १३. श्री शांतिनाथ मेडी उपर १४. श्री चंतामणी पार्श्वनाथ, देहरुं १५. श्री चंद्रप्रभु- देहरुं १६. श्री विमलनाथनो चौमुख १७. श्री मोहरी पार्श्वनाथ- देहरुं १८. श्री सीतलनाथ, देहरुं अथ घीयानी पोलमां देहरुं ९ १९. श्री मनमोहन पार्श्वनाथ- देहरुं अथ माहालक्ष्मीनी पोल, देहरां ३, विगत२०. श्री सुखसागर पार्श्वनाथनुं देहरुं २१. श्री माहावीर स्वामी-गौतम स्वामी, देहरुं Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [71] २२. श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ- देहरुं अथ नालियेरे पाडे देहरुं १ २३. श्री वासुपूज्य- देहरुं अथ श्री जिरालेपाडइं देहरां ११, तेहनी विगत२४. श्री चंद्रप्रभुनुं देहरुं २५. श्री शांतिनाथ, देहरुं २६. श्री अमीझरा पार्श्वनाथनुं देहरुं २७. श्री जिरावलि पार्श्वनाथ, देहरुं २८. तथा भुंयरामां आदिसर तथा नेमनाथ २९. श्री नेमिनाथनुं देहरुं ३०. श्री वासुपूज्यनु देहरुं आजी, देहरुं ३१. भुंयरामां माहावीरस्वामी छे ३२. श्री अभिनंदनस्वामीनुं देहरुं ३३. श्री अरनाथ गांधी देहरुं ३४. श्री मनमोहन पार्श्वनाथ हेमचंदसानुं देहरुं अथ षडाकोटडी देहरां ३नी विगत३५. श्री पद्मप्रभुनुं देहरुं ३६. श्री सुमतिनाथनुं देहरुं ३७. श्री मुनिसुव्रतस्वामीनुं देहरुं अथ मांडवीनी पोलमां देहरां ५ नी विगत३८. श्री कुंथुनाथर्नु देहरुं ३९. श्री मुनीसुव्रतस्वामी देहरुं ४०. श्री आदिसर भगवान देहरुं ४१. श्री विमलनाथ देहरुं ४२. श्री माहावीरस्वामी मेडी उपर अथ आलिपाडें देहरां २नी विगत४३. श्री शांतिनाथ देहरुं ४४. श्री सुपार्श्वनाथ देहएं अथ कुंभारवाडामां देहरुं २ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [72] ४५. श्री माहाभद्रस्वामी ४६. श्री सितलनाथ देहएं अथ दंतारवाडामां देहरां ३४७. श्री कुंथुनाथ कीकाभाईनुं देहरुं दक्षिणसन्मुष २ ४८. श्री शान्तिनाथजी ४९. श्री शांतिनाथ ऊंडी पोलमां अथ सागोटापाडामां देहरां ४नी विगत५०. श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ ५१. श्री भुंयरामां स्थंभण पार्श्वनाथ ५२. श्री अमीझरा पार्श्वनाथ ५३. श्री आदीसर भगवाननुं देहरं दक्षिणसन्मुष ३ अथ बोरपीपलें देहरां ४५४. श्री नवपल्लव पार्श्वनाथ तथा पदमावतीनी मूरति छइ ५५. श्री भुंयरामां गोडी पार्श्वनाथ ५६. श्री मुनीसुव्रत स्वामी ५७. श्री संभवनाथ, देहरुं अथ संघवीनी पोलमां देहरां २५८. श्री सोमचिंतामणि पार्श्वनाथ तथा श्री पदमावतीनी मूरति ५९. श्री विमलनाथ, देहरुं अथ कीका जिवराजनी पोलमां देहरुं १६०. श्री विजयचिंतामणि पार्श्वनाथ अथ मानकुंयरबाइनी सेरीमां देहरां ३६१. श्री संभवनाथनुं देहरुं दक्षिणसन्मुष ४ ६२. श्री भुंयरामां शांतिनाथ दक्षिणसन्मुष ५ ६३. श्री अभिनंदनजी, देहरुं अथ चोलावाडामां देहरुं १६४. श्री मेरुपर्वतनी स्थापना, श्री सुमतिनाथनो चउमुष, देवकुंयरबाइनुं देहरुं अथ गिवटीमां देहरुं १ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [73] ६५. श्री माहावीरस्वामी, देहरं, दक्षण सन्मुष ६ अथ भुंयरापाडामां देहरां ६ ६६. श्री शांतिनाथनुं देहरुं ६७. श्री मल्लीनाथ ६८. श्री चंद्रप्रभु नाम २ छे ६९. श्री सामला पार्श्वनाथ, असल्ल भावड पार्श्वनाथ ७०. श्री शांतिनाथ ७१. श्री नेमनाथ अथ लाडवाडामां देहरां ६७२. श्री सोमचिंतामणि पार्श्वनाथ आदा संघवी देहरुं ७३. श्री आदिसर भगवान, षुसाल भरतीनुं देहरुं, दक्षणसन्मुष ७ ७४. श्री जगीबाइना भुंयरामां श्री आदिसर भगवान ७५. श्री उपर चिंतामणि पार्श्वनाथ ७६. श्री शांतिनाथ, चंद्रदास सोनी- देहरं, दक्षणसन्मुष ८ ७७. श्री धरमनाथ- देहरुं अथ बांभणवाडामां देहरां २ ७८. श्री चंद्रप्रभु- देहरुं ७९. श्री अभिनंदन झमकुबाइनी मेडी उपर अथ अलिंगमां देहरुं १८०. श्री आदिनाथ भगवान अमथा तबकीलवालानुं देहरुं . अथ मणियारवाडामां देहरं ३८१. श्री चंद्रप्रभुनु देहरुं दक्षणसन्मुष ९ ८२. श्री सुबधीनाथ ८३. श्री श्रेयांसनाथ, देहरुं दक्षणसन्मुष १० अथ सकरपरमां देहरां २८४. श्री सीमंधरस्वामी, देहरुं ८५. श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ, देहरुं Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [74] अथ श्री स्थंभतीरथमाहे श्रावकने घेर देहरासर छे तेनी विगत छेप्रथम माणेक [ चोक] मद्धे देहरासर ६, तेनी विगत१. परीख जइसिंघ हीराचंदना उपर २. परीख फत्तेभाइ खुबचंदना उपर ३. परीख रतनचंद देवचंदना उपर ४. षादावालीया सा. रायचंद गलुसाना उपर छे ५. मारफतीया सा. हरषचंद खुबचंदना उपर ६. परीख सकलचंद हेमचंदना उपर अथ लाडवाडा मद्धे देरासर २. तेहनी वीगत७. परीख झवेरचंद जेठाचंदना उपर ८. चोकसी रतनचंद पानाचंदना उपर अथ बामणवाडा मद्धे ४, तेहनी वीगत९. सा. जसवीरभाइ लासाना उपर १०. सा. जेठा साकरचंदना उपर ११. सा. सरूपचंद कल्लाणसुंदरना उपर सा. मुलचंद भायाने उपरि देहरा० १२. सा. अमीचंद गबु वेलजीना उपर अथ पतंगसीनी पोल मद्धे १, तेहनी वीगत १३. सा. नेमचंद पचंदना उपर अथ.षावावाडा मद्धे ३, तेहनी वीगत छ- । १४. परीख अमीचंद गलालचंदना उपर १५. सा. रूपचंद षुसालचंदना उपर १६. सा. देवचंद कस्तुरचंदना उपर (अन्य हस्ताक्षरमां-) सा. रेवादास पानाचंद- कागलिउं छे । -पार्श्वचन्द्रगच्छसंघ भंडार, खंभात । --x Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [75] श्री स्थंभतीर्थना देरासरोनी सूचि-२ ॐ नमः सिद्धं । श्री स्थंभतीर्थना जिनचैत्य तथा जिनबिंब लषिई छीइं। संवत् १९००ना वर्षे अषाडमासे सुकलपक्षे १४दसी । अंते ___ एवं श्री स्थंभतीर्थना प्रासादनामाभिधानं स्यात् लषीत्वा तं प्रात:काल समये नमस्कार करवाने लषीत्वं । संवत् १९००ना वर्षे मासोत्तममासे सुभरतै वशंत्तरत्तै फालगुण मासे सुकलपक्षे ४ चतुथिदीवशे गुरूवासरे लषीकृतं श्री स्थंभतिर्थनः । -ला. द. भा. विद्यामंदिर, अमदावादना संग्रहमांगें एक प्रकीर्ण ओळियुं । ला. द.नी सूचि खंभातना भंडारमांनी सूचि जेवी ज छे तेथी ते आखी अहीं उतारी नथी । खंभातनी सूचिमां लख्या संवत आपेलो नथी, परंतु ते दोढ सो के तेथी वधु वर्ष जूनी जणाई आवे छे । खंभातनी सूचि वधारे विगतपूर्ण छे, एमां खंभातना घर-देरासरो तथा दक्षिणसन्मुख देरासरोनी पण नोंध छे । ला. द. नी सूचि संक्षिप्त छे, महोल्लाना क्रममा सामान्य फरक छे, बाकी जिनालयनां नाम अने संख्या बिलकुल सरखां छे । ला. द. वाळी सूचिना प्रारंभे वि. सं. १९०० अषाड मास छे, पण अंते जरा भिन्न हस्ताक्षरमां सं. १९०० फागण मास लख्यो छे । कां तो संवत् आषाढी होय, कां तो कल करनारनी भूल होय । महोल्लावार देरासरोनी सूचिओनी तुलना त्रं. तीर्थमाल देश | सूचिद्वय देश. | वर्तमान नाम देरा. सागोटानी पोळ २ | सागोटापाडो ४ | सागोटपाडो दंतारानी पोळ ३ दंतारवाडो दंतारवाडो ४ प्रजापतिनी पोळ १ कुंभारवाडो कुमारवाडो १ अलंगवसइ ३ मांडवीनी पोळ मांडवीनी पोळ २ मोहोरवसइ षडाकोटडी कडाकोटडी आली आलिपाडो आलीपाडो नाकरनी पोळ २ । ? जीराउलानी पोळ ५ । जिरालो पाडो ११ / जिरालापाडो ६ W Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांधीनी पोळ नालीयर पाडो अलंग महालक्ष्मीनी पोळ ३ ४ चोकसीनी पोळ खारूआनी पोळ ७ अलंग मणीयारवाडो साह जेदासनी पोळ १ भंडारीनी पोळ १ वोरानी पोळ १ साह महीआनी पोळ ५ ? भुंइरानी पोळ घीवटी ? पटूआनी पोळ उंची सेरी खडकी. गठावाडो सालवीनी पोळ बीजी सालवीनी पोळ १ २ २ १ २ ६० [76] ? नालियेर पाडो घीयानी पोळ ? १ महालक्ष्मीनी पोळ ३ चोकसीनी पोळ ६ खारवावाडो १२ अलिंग १ मणियारवाडो ? ? ? लाडवाडो बांभणवाडो भुंय पाडो गिवटी चोळवाडो संघवीनी पोळ बोरपीपळो बोरपीपळो २ ४ १ १ चोळावाडो मानकुंवरबाइनी सेरी ३ वाघमासीनी खडकी कीका जीवराजनी सेरी १ वाघमासीनी ८३ ? नागरवाडी ? चोकसीनी पोळ चोकसीनी पोळ ६ खारवाडो ८ अलिंग १ ? ? ? ? माणेकचोक लाडवाडो भोंय पाडो गोमटी सामे संघवीनी पोळ बोळपीपळो बोरपीपळो or or w १० १ २ ६१ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [77] به केटलाक निष्कर्षो १. आ कोष्टकमां खंभात शहेरनां मंदिरो ज लीधां छे । त्रं.ती. खंभातनां विविध परांओमां नीचे मुजब जिनालयो नोंधे छे : नदानपुर कतबपुर अकबरपुर कंसारीपुर सकरपुर महिमद पुर सलतानपुर छगडीवाडा مه سه له م به مر مر | कालक्रमे आ मंदिरो खंभात शहेरमां अथवा अन्यत्र स्थानांतरित थयां, आथी सूचिद्वयमां शहेरनां मंदिरोनी संख्या वधी छे । आगल जतां अमुक महोल्लानां मंदिरो हटावीने बीजां मंदिरोमां समावी लेवायां, आथी वर्तमानमां संख्या घटी छे। २. पोतानी अन्य कृतिओमां खंभात, वर्णन करतां कवि ८५ जिनालय होवानं जणावे छे, ज्यारे त्रं.ती.मां ७९ गणावे छे । त्रं.ती.वि.सं. १६७३नी रचना छे, ८५ना उल्लेखवाळी रचनाओ १६८२-८५नी छे; दस-बार वर्षनी अवधिमां बेचार जिनालय नवां बने ए अशक्य नथी । तेम छतां संख्यामां विसंगति तो छ ज । नं.ती.मां चोकसीनी पोळमां चार मंदिरो जणावी, वर्णन पांच- अपायुं छे। क्यांक भूमिगहने जुदा गण्या छे, क्यांक नथी गण्या । सूचिद्वय भोयराने स्वतंत्र मंदिर गणे छ । वं.ती. अनुसार खंभात अने परांनां जिनालयो सर्व मळीने ७९-८० थाय छ । सूचिद्वय अनुसार (२००-२५० वर्ष बाद) खंभात अने शकरपरनां मळीने कुल जिनालयो ८५ थाय छे. ३. आम छतां त्रं.ती.मां निर्दिष्ट मंदिरो थोडा फेरफार साथे दोढसो वर्ष Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [78] पूर्वेनी बने सूचिओमां देखाय छे अने सूचिद्वयमांनां मंदिरो थोडा फेरफार साथे वर्तमानमां पण उपस्थित छे । छेल्लां चारसो वर्षमां खंभातनां जिनालयोने स्थानांतरण सिवाय अन्य प्रकारनी हानि सहन करवी पडी नथी एम कही शकाय । अलबत्त, अमुक मंदिरोनो ताळो मळतो नथी । बीजी बाजु, नवां मंदिरो बन्यां छे, जूनां पुनर्निमाण पाम्यां छे । खंभातमां खोदकाम दरम्यान मूर्तिओ नीकळी छे अने हजीये नीकळे छे ते त्रं.ती. नी रचना पूर्वेनां बहु प्राचीन मंदिरोनी ज हशे एवं तारण सहेजे काढी शकाय छे । ४. आजे 'कडाकोटडी' तरीके जाणीता महोल्लानुं नाम त्रं. ती. मां 'मोहोरवसइ' छे, सूचिद्वयमां 'खडाकोटडी' छे । पाटणमां पण 'खडाखोटडी' अने 'घीवटो 'नामे महोल्ला नोंधाया छे । आ नामोनां मूळ शोधवां जेवां छे । ५. आजनो माणेकचोक ते सूचिद्वयमां 'लाड वाडो' अने त्रं.ती. मां 'साह महीआनी पोळ' तरीके नोंधायो छे । आजनो लाडवाडो ते सूचिद्वयमां ब्राह्मणवाडा तरीके निर्दिष्ट छे । त्रं. ती. मां आ नाम नथी । भंडारीनी पोळ के साह जेदासनी पोळ - एमांथी कोई एक लाडवाडो होय एवी कल्पना करी शकाय । माणेकचोकनी पाछळ व्होरवाड आजे पण छे, परंतु तेमां देरासर नथी । ६. त्रं.ती.नी 'ऊंची शेरी' अने सूचिद्वयनी 'कीका जीवराजनी सेरी' ए आजना वाघमासीनी खडकीनी सामेना खांचानुं नाम छे । ७. . ती. मां 'अलंगवसइ' उपरांत बीजां बे 'अलंग' नामे स्थान नोंधायां छे। आमांनुं एक स्थान 'अलिंग' तरीके आजे पण जाणीतुं छे । 'अलंग' नो अर्थ 'अलग' (छूटुं, वेगळं) एवो थाय छे। कोई पोळ के पाडा साथे जोड, येल न होय एवी जग्याने 'अलंग' कहेतां होय एवं अनुमान थाय छे । ८. जैन मंदिरो दक्षिणसन्मुख नथी होतां । खंभातनी एक सूचि दक्षिणसन्मुख होय एवां ८ देरासरो नोंधे छे, जेमांनां घणांखरां आजे पण एम छे 1 ज ९. नं. ती. मां प्रत्येक जिनालयनी बिंबसंख्या आपेली छे, तेनो सरवाळो २७३० जेटलो थाय छे। पाषाण अने धातु-बने प्रकारनां बिंबो आमां समाविष्ट हशे । आजे नवां-जूनां बधां आरसनां प्रतिमाजी १२०० अने धातुनां १३७० जेटलां गणाय छे । घणां बिंबो जीर्ण थई विसर्जन पाम्यां होय अने बीजां नवां Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [79] बन्यां होय ए स्वाभाविक छ । छतां लगभग चारसो वर्ष पछी बिंबोनी संख्यामां बहु मोटो तफावत पड्यो नथी एम कही शकाय । चं.ती.मांना कठिन शब्दोना अर्थ त्रं.ती.मां शब्दान्तर्गत आवता ह्रस्व 'इ'नुं 'य'मां परिवर्तन थयुं होय एवा घणा शब्दो छ । जेमके :-ब्यंब (बिंब), च्यंतामणि (चिंतामणि), पोल्य (पोलि), ज्यन (जिन) वगेरे । 'इ' उपरांत अन्य स्वरोने स्थाने पण 'य' आवे छे । जेमके :-लष्यमि (लक्ष्मी), च्यालीस (चालीस) वगेरे । शब्दना आदि जकारने बदले 'य' पण वपरायो छे । जेमके :-यन (जिन), यनंद (जिनंद) यगदीस (जगदीस) वगेरे । खंभात इलाकानी ते समयनी गुजराती भाषानी आ रूढि हशे । ऋषभदासनी अन्य कृतिओमां तेमज खंभातना एक वैष्णव कवि शेधजीनी कृतिओमां उच्चारनुं आq वलण जोवा मळे छ । आवो उच्चारभेद धरावता शब्दो ओळखवा सहेला होवाथी शब्दकोशमां नोंध्या नथी । अमीअ-अमृत कडली-कडु कीरतिन-कीर्तन घटि-घटमां, शरीरमां तृविधि-त्रिविधे (मन-वचन-कायाथी) थूभ-स्तूप (स्मृतिस्तम्भ) पातिग आठमुं-आठमुं पाप (अभिमान) पोढा-प्रौढ, मोटां पूजीम-पूजा बइ-बे भवचा-भवनां मुंहनइ-मने लष्यत-लिखित वडइ-मोटुं शरि-माथा पर शवपुरि-शिवपुरमा (मोक्षमां) शस्त्रपणि-सहस्रपाणि ? सुपरई-सारी पेठे Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूंक नोंध एक नोंधपात्र पुस्तकनी प्रशस्ति " सकल भट्टार्क पूरंदर भ. श्री श्री दिनकर त्युल (तुल्य) सासनथंभमलेछप्रतीबोधक हिरहीरदीपक - अकबर पातसाहनें धर्म परुपक- सीधाचलजीनो मूडको सोनामहोर छोडावी, सरोवर जाल मूकावी, सेर १। चडकलांनी जीभ्या जोड़तीते मूकावी, जाचक भोजक ते दिनथी थया, हाथी सांमइआमां आपो पातसाहें, ते आपीनें जण जाचक ठाकोर पदवी आपी, ऐहवा श्री श्री श्री विजय हीरसूरीस्वरजी आचार्य, तत् शिष्य कीर्तिविजेय उपाधायजी, तत् शिष्य विनय विजय उपाधाय, तत सीष पं. श्री पू. पं. नरविजेय पंन्यास, तत् शिष्य पं. श्री पू.पं. वृधिवीजेय पंन्यास, तत् शीष पं. श्री पू.पं. मांणक्य विजेय गणी, तत्सीष पं. श्री. पू. पं. मेघविजेयगणी, तत् शिष्य पं. मुक्तिवीजेजी, तत् शिष पं. मोहनविजयजी भ्राता मू. रविवीजेजी तद्भ्राता मूनी-वीजयजी, चेला मू.दांनविजेंजी, त.चे. हेमचंदजी, संवत् १८७८ ना वर्षे कार्त्तिक सुद १५ दने वार सूक्रे कल्पसूत्र वषांण आठ संपूर्ण लषां छें., वाचनार्थं मु. तत्व विजयजी, घनोघ बंदरे चेला श्रीवीजे, मायावीजे, पं. अम्रतबीजेजी ॥ " मारा मित्र कवि मुनिराज श्रीधुरंधरविजयजीना संग्रहनी एक कल्पसूत्रनी पोथीना अंतिम १३२ मा पृष्ठनी, तेमणे मोकलेली झेरोक्स नकलना आधारे उपरनी प्रशस्ति अहीं उतारी छे. आ प्रशस्तिमां बे एतिहासिक तथ्यो उजागर थयां होवाथी तेनुं खास महत्त्व छे. ए बे तथ्यो आवां छे : १. पाटणमंडलमां भोजक ज्ञाति प्रख्यात छे. तेमने 'ठाकोर' एवं 'बिरुद मळेलुं छे, जे आजे तेमनी अटक लेखे घणी वार प्रयोजाय छे. आ बिरुद तेमने कोणे आयुं, क्यारे आप्युं, तेनो ऐतिहासिक उल्लेख उपरनी प्रशस्तिमां पुष्पिकामां प्राप्त थाय छे, जे अनन्य छे. आ मुद्दा उपर ते ज पुष्पिका उपरना टबामां पण आ प्रमाणे नोंध छे : "जाचक दांन आपीनें भोजक कर्या, पातसाह पासें ठाकोर पदवी अपावी ते आज पण ठाकोर छें ऐहवा" सारांश के भोजक बंधुओने हीरविजयसूरिनी प्रेरणाथी अकबर बादशाहे ठाकोर पदवी आपीने भोजक बनाव्या हता. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [81] २. महोपाध्याय श्रीविनयविजयजी ए सत्तरमा शतकना एक परम विद्वान जैन ग्रंथकार अने साधुपुरुष छे. लोकप्रकाश, हेमप्रकाश अने इन्दुदूत जेवी रचनाओ द्वारा तेओ विद्वज्जगतमां सुख्यात छे. तेमनी शिष्यपरंपरा विशे झाझी विगतो प्रायः प्राप्त नथी, ते आ पुष्पिकामां प्रथम वार प्राप्त थाय छे, जे उपरथी जाणी शकाय छे के तेमनी शिष्यपरंपरा ८-९ पेढी सुधी तो लंबाई हती ज. तेनो क्रम आम गोठवी शकाय : १. विनयविजय, २. पं. नरविजय, ३. पं. वृद्धिविजय, ४. पं. माणिक्यविजय, ५. पं. मेघविजय ६. पं. मुक्तिविजय, ७. पं मोहनविजय, ८. मु. दानविजय, हेमचंद्रजी. आ पुष्पिकामां छेवटे आवतां ३ नामोने हेमचंदजीना 'चेला' समजीए तो ते १० मा क्रमांकमां आवी शके. X— ९. ट्रंक नोंध : हेमचन्द्राचार्ये प्रतिष्ठित प्रतिमा घणां वर्षोथी मनमां एक जिज्ञासा प्रवर्तती हती के हेमचन्द्राचार्य आटली बधी प्रसिद्ध विभूति छे. तेमणे घणां चैत्यो तथा जिनबिंबोनी प्रतिष्ठा कर्याना उल्लेखो मळे छे. कुमारपाले पण सेंकडो मंदिरो तथा प्रतिमाओ करावेल छे : तो पण आजे एक पण प्रतिमा एवी केम नथी मळती के जेमां हेमाचार्यनो स्पष्ट उल्लेख होय ? बधो नाश थयो होवानुं स्वीकारीए तो पण कोईक नमूनो क्यांय नहि बच्यो होय ? -शी. वर्षोनी जिज्ञासानो रोमहर्षक जवाब थोडा वखत पहेलां अचानक मळी आव्यो. जामनगरना आदीश्वर - जिनालयना मेडा उपर एक धातुप्रतिमानी भाळ मळी आवी छे, जेना पर हेमचन्द्राचार्यनो स्पष्ट नामनिर्देश छे. आ रह्यो ते प्रतिमानो लेख : “संवत् १२२३ वर्षे माघ वदि ८ वीरासुतेन देपलाकेन भ्रातृव्य..... माडुकस्य श्रेयसे चतुर्विंशतिपट्टः कारितः प्रतिष्ठितश्च श्रीहेमचन्द्रसूरिभिः ॥" Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [82] आमां गामनुं नाम नथी. आचार्यना नाम आगळ कोई विशेषण के गच्छनाम नथी, ते बाबत आचार्यनी निःस्पृहता, नम्रता अने जागृत मध्यस्थतानुं सूचन करी जाय छे. १२२३मां हेमचन्द्रसूरि एक ज हता, बीजा नहि, ते इतिहासथी सिद्ध छे. आ प्रतिमानी छबी मारी सामे पडी छे, जे जोतां ज समजाय छे के प्रतिमा, पूजापद्धतिने कारणे महदंशे घसाई गई छे. मोंनो नकशो खलास छे, नाक - आंख-कान- होठ घसाईने एकाकार छे. आ स्थिति जोतां लागे छे के थोडा ज वखतमां आ प्रतिमानो लेख पण नष्ट थई जशे अने पछी कोईक भाविक (!) द्वारा प्रतिमा पण नामशेष थई शके. आवुं कांई बने ते पूर्वे प्रतिमानी जाळवणी अंगे योग्य प्रबंध थाय ते इच्छनीय छे. –X – -शी. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुत्यात्मक सात लघु कृतिओ सं. मुनि श्रीधुरंधरविजयजी प्रास्ताविक अहीं रजू थती ७ लघु कृतिओ मुनि धुरंधरविजयजीए पोताना प्रतिसंग्रहमांथी शोधी सुवाच्य रीते संपादित करी प्रकाशनार्थे अमने पाठवी छे. ए कृतिओनो अल्प परिचय आ प्रमाणे : १. मंगलपुर-मांगलोर (अत्यारनुं मांगरोळ)स्थित नवपल्लव पार्श्वनाथनी स्तुतिनो १ जोडो छे, जे ४ ज पद्योनो होवा छतां तेना छंदोवैविध्यने कारणे ध्यानार्ह छे. कर्ता अज्ञात छे. २. श्रीरविसागर-कृत कुटुम्ब नाम गर्भित मगसी (मक्षी) पार्श्वनाथस्तवन छे, जे गेय-गीतस्वरूप छे. कर्ता कलशमां जणावे छे तेम, संसारना कौटुंबिक संबंधो व्यर्थ छे ते समजाववा माटे, अहीं, कुटुंबीवाचक-वास्तवमां-न बनता होवा छतां कुटुंबीवाचक होवानो आभास ऊभो करे ते रीते कुटुंबवाचक शब्दो गूंथी बताव्या छे, जे रसदायक बने तेम छे. ३. आ रचना रविसागरकृत सुखभक्षिका (भोज्यपदार्थ) नामगर्भित श्री आदिनाथस्तवनरू प गेय रचना छे. आ प्रकारनी रचनाओ पूर्वे प्रकाशित थयेली छे ज, जे आवां काव्योना रसिको माटे जाणीती छे. ४. चोथी रचना पण त्रीजीनी जेम ज सुखासिका गर्भित वीरजिन-स्तोत्र छे; मात्र तेना रचनार उपाध्याय नेमिसागरगणि छे. ५. आ गुजराती पद छे, जेमां कर्ता मुनि पुण्यहर्षे हीरविजयसूरिजीनी स्तुति गाई छे. ६. आ रचना पण गुजराती पद छे, ए पुण्यहर्षे विजयसेनसूरिनी स्तुतिरूपे बनाव्युं छे. ७. सातमी रचना पुनः कुटुंबी संबंधनामगर्भित गेय संस्कृत रचना छे, जे पं. भक्तिसागरे बनावेली छे. साते रचनानो समय सत्तरमो शतक छे, अने एक ज पानामां संग्रहायेली छे, तेमज अप्रकट छे. -शी. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [84] १. मंगलपुरीय नवपल्लव-पार्श्वनाथ-स्तवन श्रीनवपल्लवपार्श्वजिनेशं भव्यजनाम्बुरुहैकदिनेशम मङ्गलपुरवरमहिमागारं प्रणमत भविका भुवनाधारम् ॥ १ जिनततिर्गतिमण्डितभूतला तनुघनाघनकज्जलकुन्तला । श्रितहितोक्तिरताविगतापदं दिशतु देहभृतां शिवसम्पदम् ॥ २ रसरत्ननिधानमिह प्रवरं कविचित्तचकोरगतं नवरम् । यदि भव्य समिच्छसि सिद्धिपदं शृणु जैनवचः किल सप्रमदम् ॥ ३ गतच्छद्मपद्मावती देवदेवी नतांहिद्वया पार्श्वपादाब्जसेवी । पुरे मङ्गलाख्ये गुणोद्गीतकीर्तिः तनोत्वद्भुतां शान्तिमुद्यत्सुमूर्तिः ॥४॥ २. रविसागर-कृत मगसी-पार्श्वनाथ-स्तवन (कुटुंब-नाम-गर्भित) (राग केदारगुडी तथा आसाउरी) श्रीमगसीपुरमण्डनशम्भो दय जयदायक नायक शम्भो । श्रीपार्शमयसंचयदम्भो गममपनय मदनाघमदम्भो ॥ १ माताराभवतो भुवि कस्यां बाबारानुकृतिर्नहि कस्याम् । काकाराद्भुतभूघनकान्ता काकीर्णाननुमति ते कान्ता ॥ २ मामार: परिभवतु नितान्तं मामीसुरभवता गमतान्तम् । मासुख शिति दशमी भव पोषे मासी हितकारक [सुखपोषे] ॥ ३ भाईभासुरभूघनकान्ते बहनिघनीव्रजतततमकान्ते । ससरोदयधारकहरिनूता सासूनृततनुभा भुवि नूता ।। ४ भा भुजयामलमञ्जुलकाया भाभीरुचिर वितरतु काया । देवरणोज्झितसुखकरवाणी देवराणी अयि तरतनुबाणी ॥ ५ दिकरो निखिलकलागुणदाना दिकरीतिः पुरकुशलनिदाना । भाणे जय कारणजितमाना भतरीज्येष्ठरुचेह समाना ।। ६ (कलश) स्तोत्रेऽत्रास्ति कुटुम्बशब्दमिलनं दृग्दृष्टमात्रं यथा विज्ञायाऽसफलं भवेऽपि निखिलं कौटुम्बिकं तत्तथा । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. [85] श्रीमत्पण्डितराजसागर सुधीः शिष्यो महानन्दनं श्रीपार्श्वं रविसागरस्त्व मगसीचूडामणी नौत्यलम् ॥ ७ ३. रविसागर - कृत - आदिनाथ - स्तवन (सुखभक्षिका - नाम-गर्भित ) (राग केदार फाग) श्रीसंघे वर साकर जय नृपमोदक सेव विमलजले बीजे सदमरकीर्तित जिनदेव | हिंगुल खण्ड विभारुण ममलाप सीमदान भविकं सार चकार तयिन पदकमलममान ॥ १ वरसोलाघबदाम य चारो ली निमजाभ [जन ] पस्तांतिम खारिक भीत इभाव सुलाभ ॥ सुदमी दुष्क निशाकर कोहलापाकरपाहि वितशोकाकबली वृष खंडर परमयशाहि || २ अखहलां कक कूलिर खरमांगतनिद्राख आटोपरां सदा फल करणी पयडाशाख । सार विचार बिदाडिम रतबत नालीकेर अकरमदां बकपूरक महसां तनु असुबेर || ३ केलांगुलि नारिंगक जम्बीरांचिततान मतिरां जायफला लिंब 'कमरख नेमूस्त्वान । अकलिंबुधवर जांबुधिजरगोजांकिरबोर करीति कृत परायण पीलु गतेरकठोर ॥ ४ वालुरणीनविडांगर डोडाध्यान लविंग कर्मक्षपणेगांतवनाददवत्तरसंग | वीतराब मरी तेल भाजी कल मधमाल क्षीर दही नृपानत सोपारी रससार ॥ ५ (कलश) श्रीतपगणाधिपहीरविजयगुरु गच्छभूषितबुधवर Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [86] श्रीराजसागरशिष्यपण्डितसरविसागरनामतः । श्रीनाभिभूपतिवंशदिनपतिवृषभजिनपतिरीहितं कुरुतान्मतो जिनसागरस्य च नाकिनायकसन्मतः ।। ४. नेमिसागर-कृत (वीरजिन-स्तोत्र) (सुखाशिका-नाम-गर्भित) जयसि साकर मोदक हेशसी सुकृतवृक्षजले बिभयक्षयः । क्षितजरामर कीर्तिभर क्षमो गलदधेवर मुक्तिरमाकरः ॥ १ दिशतु मेषरमां वर लापसी खलहलो स्फुरदाखगिरौ पवे । गुणबदामरिपुक्षयनिर्वृते रत बनालिअरम्यमुखाम्बुजम् ॥ २ जन अखोडकपूरकरम्बकं सुजलदाडिमनोहरनिस्वनम् । प्रणम सेवकखांडमधीतिदं स्फुरदहीशनुतं नतखाजलम् ।। ३ (फाग) जनपस्तांजन खारिक भेदक सार । कुहलापाकदमीदो सोपारीरससार ॥ १ सत् सेवइआ मोती आ कसमसिआ सार । दुष्टकलाडूआ गल पापडी जय जय कार ॥ २ मांडीनतमं तारय वसुधा मोतीचूर । महसूपकरणकारण कयरीपाक खजूर ।। ३ मामवपुण्यवसुं हालीनत मंसु खसंग । । चार्वा चारोली कर चार विजित मातंग ॥ ४ वरसोला नतपदयुग पारगतं नमजांक । जितशोकाक बलीश्वर सुकृत सदाफललोक ॥ ५ आंबा नारायण नतपदकज सेलडि सार ।। वृष बीजोळं केलां त्वामभिनौमि जितार ॥ ६ सालि सुदालि नतक्रम मांडा वडि जिनचन्द्र । जयसि सुखीरवडां जनकर मलहर गततन्द्र ॥ ७ सुंदर डोडीला धर पापड पापडी सार । तूरी आन्वितकंकोडा भततेस्तनु तार ।। ८ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 87 ] गतरेफो फलचिन्तन डोडा पान लवंग | वरतरजायफलोन्नतजाव त्रिभुवनरंग ॥ ९ (कलश) इत्थं श्री त्रिशलासुतः स्तुतिपथं दीपालिकावासरे नीतः स्फारसुखासिकावलिकलै भौज्यैरशेषैः सुखम् । देयाद्वाचकधर्मसागरगुरोः पट्टाम्बरद्योतने सूर्य श्रीगुरुलब्धिसागरशिशोर्नमेर्मनोवाञ्छितम् ॥ १० ५. पुण्यहर्षकृत हीर- गीत (राग सारंग चरचरी) हीर हीर हीर रंगीलो हीर हीर हीर छबीलो हीर हीर हीर इति मंत्र जपो लोक रे । धरी यु ध्यान एकमनां ले जपमालि के मनां पाउ ज्युं मन काम मंत तंत ता इत फोक रे ॥ १ ॥ हीर० देवदानवकिन्नरा भूतप्रेतव्यंतरा होत तास किंकरा अउर सकल लोग ॥ २ ॥ हीर० कहत पुण्यहर्ष एहि परमवशीकरण एहि मनमोहन एहि एहि दूजो नहि तिलोकी रे ॥ ३ ॥ हीर० ६. पुण्यहर्षकृत - विजयसेन- सूरि-गीत (राग सारंग मध्ये चरचरी) ओश वंश गगनि चंद कोडनंद वदनचंद | देख भई आनंद रे ॥ १ ॥ ओश. आं. खंजन गंजन लोअनां चतुर लोक मोहनां । लाल अधर सोहनां दंतकंतिकुंद रे ॥ २ ॥ ओश. विजयसेनसूरिराय सुरनरकिन्नर कीरति गाय । दर्शनि पातक दूरि जाइ वचन अमृतकंद रे ॥ ३ ॥ भोश. कहत पुण्यहर्ष एक सुनो हृदय धरी विवेक । चरनकमल तुम्हहि छेक नमत भविक वृंद रे ॥ ४ ॥ ओश. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [88] (७) पंडित भक्तिसागर-कृत-आदिनाथ-स्तुति (कुटुंब-नाम-गर्भित) जयकरजंतुकृपालय पालय नतमुनिचंद्र । ऋषभजिनार्कसनाभि-नाभिकुलाम्बरतंद्र (चंद्र)॥ १ काकाकाकीर्णोद्धर मामामामिलितः । सासूनूत्तमरूपम ससुरोमामिलितः ॥ २ जयजयरवनंदीकरो दिक्करि विमलयशः । भाभोभाभी रतिकर: दादो दादिविशं ॥ ३ देव रदावलि दीधिति-निजित दाडिमबीज । भाइन वाणी वितरतु रोगाद्यशुभ त्रीज ।। ४ भतरी जीवसुखावह भाणे जीवनदः । रक्ष शुभाणेजो जय कारक जीवनदः ॥ ५ शालीकृत शिवशालो देरानीतिकरः । ज्येष्ट भवोदधितारक जेठानीतिहरः ॥ ६ मासुखमाशीर्वादो बहुशिवसुखभर तार । सुकृतलतापल्लवना बह नीरदवरतार ।। ७ (त्रिभिर्विशेषकम्) भोजा ईतिप्रशामक रेफइतार्तिविलाप । ज्ञानजमा इभगतिधर देहि सुकृतमाबाप ।। ८ सुजनानंद रजोज्झित नानंदरिपुकंद । दर्शतस्तव जिनवर मादृश एष न नन्द ॥ ९ श्रीमद्वाचकलब्धिसागरगुरोः शिष्याणुना भक्तिना नीत: संस्तुतिगोचरं जिनपतिः श्रीमत्कुटुम्बाह्वया । श्रेयः श्रेष्ठकुटुम्बवृद्धिमतुलां कुर्याद्युगादिप्रभुः श्रेयःसंततिकारकः शिवपुरी संघस्य कल्याणकृत् ॥ १० --x-- Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. मुनि धर्मकीर्तिविजय 'लुघकर्मविपाक' ए एक अज्ञातकर्तृक तथा आदिमंगल तथा अंत्य प्रशस्ति आदि विनानुं नानकडुं प्रकरण छे, जे संस्कृत भाषामां छे. सरल भाषामां पापकर्मनां फल केवां होय तेनुं आमां हृदयंगम वर्णन थयुं छे. सामान्य रीते अजैन कर्तानुं रचेलुं होवानो भास करावे तेवुं आ प्रकरण वास्तवमां जैन कर्तानुं ज बनावेलुं छे, तेनी खातरी २८मा पद्य परथी थाय छे. अलबत्त, जैन कर्मसाहित्यमां आवी रीते, आ कामनुं आ फल मळे, एवं भाग्ये ज आवे छे. जैन कर्मसाहित्यमां आवता कर्मग्रंथो पैकी प्रथम कर्मग्रंथनुं नाम 'कर्मविपाक' छे. 'लघु कर्मविपाक' एवं नाम तेने अनुसरीने रखायुं होय तेम लागे छे. ६३ पद्योमां पथरायेल आ प्रकरणनो टबार्थ पण साथे ज लखायेलो छे. श्लोकना शब्दनी उपर तेनो गुर्जर शब्दार्थ लखाय तेनुं नाम टबो-स्तबुकार्थ गणाय छे. अहीं ते टबो, जे ते श्लोकनी नीचे, संकलित करीने, मूकवामां आव्यो छे. आ टबामां केटलाक शब्दोनो अर्थ आम समजवानो छे : श्लोक ५ पाहणी ९/२५ राफो "" "" लघु-कर्मविपाक सस्तबकार्थ "" १५ कारुण २२ रतिवती २२ क्रम ३४ मातरु "" मूत्र आ प्रकरणनी सं. १६९६मां लखायेली ७ पत्रोनी एकमात्र प्रति भावनगरना शेठ डोसाभाई अभेचंदनी पेढीना ज्ञानभंडारमांधी प्राप्त थई छे, तेना आधारे, मारा पूज्य आचार्य श्रीविजयशीलचन्द्रसूरि महाराजनी सूचना तथा मार्गदर्शन प्रमाणे यथामति संपादन करीने अत्रे रजू करी रह्यो छु. आमां कोई क्षति होय तो सुधारवा विनंति. "" पथरी फडो (केन्सर ?) शिल्पीना ऋतुवंती (स्त्री) कृमि Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनाय नमः ॥ [ 90 ] श्रीलघुकर्मविपाक प्रतिजन्म भवेत्तेषां चिह्नं तत्पापसूचकम् । तीव्रपुण्ये कृते याति पश्चात्तापवतां पुनः ॥ १ प्रतिजन्मनु चिह्न ते पापनु सुज (च) क जाणवु । तीव्रपुन्य कीधे थके जाइ पश्चाताप करता थकां ॥ महापातकजं चिह्नं सप्तजन्मानि जायते । उपपापोद्भवं पञ्च त्रीणि पापसमुद्भवम् ॥ २ महापापनु चिह्न सातजन्मलगे थाइ । थोडि पापे पांच भव लगइ अथवा त्रिणि भवलगे होइ ||२|| दुःकर्मजा नृणां रोगा यान्ति नोपक्रमैः शमम् । देवसेवादयादान- तपोभिस्तत्शमो भवेत् ॥ ३ दुष्टकर्मथकी नरने रोग उपजइ उपाइ कीधे पुण न शमि । भगवंतनी सेवा दया दान तपे करी ते कर्म्म शमि ॥ ३ पूर्वजन्मकृतं पापं नरकस्य परिक्षये । बाध्यते व्याधिरूपेण तस्य पुण्यादिभिः शमः ॥ ४ परभवनुं कीधुं पाप नरकनी परिक्षा (?) बंधाइ व्याधिरूपे तेहने पुंन्ये करी कर्म शमि ॥ ४ कुष्टं च राजयक्ष्मा च प्रमेह ग्रहणी तथा । मूत्रकृत् चाश्मरी कासा अतिसारभगंदरौ ॥ ५ ते रोगनां नाम - कोढ १ क्षयन २ प्रमेह ३ संग्रहणी ४ । मूत्रग (कृ) च्छ ५ पाहणी ६ खास ७ अतिसार ८ भगंदर ९ ||५|| दुष्टव्रणं कण्ठमालाः पक्षघाताक्षिनाशनम् । इत्येवमादयो रोगाः महापापोद्भवाः स्मृताः ॥ ६ दुष्टकुबडु १० कंठमाला ११ पक्षघात १२ काणापणु १३ । एआदिदेहरोग महापापथकी उपजता कहा ।। ६ जलोदरकृमिप्लीह-शूलशोषव्रणानि च । खासाऽजीर्णज्वरच्छर्दि - भ्रममोहगलग्रहाः ॥ ७ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [91] जलोदर१४ क्रम(कृमि) १५ पीहो१६ शूल१७ सोजो१८ गुबडा१९। .खास२० अजीर्ण २१ ताव२२ फेरो२३ भ्रम२४ मोह२५ बोली न शके२६ ७॥ रक्ताबुंदविसर्पाद्या उपपापोद्भवा गदाः । वंजपतानकस्वित्र विर व )पुःकंपः विचचिकाः ॥ ८ रक्तरोग२७ विसर्पवायु२८ पाप थकी उपना रोग सर्वे । दंदरोग कस२९ पतानकरोग३० चित्रकोढ३१ देहीकंप३२ द्राद३३ ८॥ वल्मीकपुण्डरीकाद्या रोगाः पापसमुद्भवाः । शिरोऽाद्या नृणां रोगाः अतिशापोद्भवा हि ते ॥ ९ राफो३४ श्वेतकोढ३५ रोग पाप थकी उपना । माथानो रोग, नरने रोग अति शाप थकी उपना रोग ॥ ९ ब्रह्महा नरकस्यान्ते पाण्डुकुष्टी प्रजायते । कुष्टी गोवधकारी च नरकस्यान्तेऽनिःकृति(:)॥ १० ब्रह्महता(त्या)नो धणी नरकमध्ये जाइ धोलो कोढ उपजइ । गोहत्याकारी कोढी थाइ वली नरके जाए दयाहीन ॥ १० पितृहा चेतनाहीनो मातृहान्धश्च जायते । दुःखानि सहमानश्च नरकेषु प्रजायते ॥ ११ बापनो मार चेतनाहीन थाइ, मानो मार अंध थाइ । दुःख सहतो थको नरके जाइ ॥ १२ स्वसृघाती तु बधिरो नरकान्ते प्रजायते । मूको भ्रातृवधे चैव तस्येयं निकृतिः स्मृताः ॥ १२ ससरानो मार बधिरो थाइ नरके जाए।। मूंगो थाइ, भाइनो मार ते निर्दयी जाणवो ॥ १३ बालघाती च पुरुषो मृतवत्सः प्रजायते । गोत्रहा लूतकायुक्तः वपुः स्वेदी च लूणहृत् ॥ १३ बालकनो मार मर्या छोरु थाइ ।। गोत्रीयानो मार कोलीया रोग थाइ, लूणचोरने हाथपग गले॥१३।। स्त्रीहन्ता चातिसारीस्यात् राजहा क्षयरोगभाक् । रक्ताबुंदी वैश्यहन्ता नरके च प्रजायते ॥ १४ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 92 ] स्त्रीहत्याकारी अतिसार रोग पामे, राजानो मार क्षयन रोग पामि । व्यंश (वैश्य) हत्याकारी रक्तरोग पामे नरके जाए || १४ द( व? ) ञ्जपतानकयुत्तः ( क्तः ) शौद्रहन्ता भवेन्नरः । कारूणां च वधे कृष्ण - रौक्षतारः प्रजायते ॥ १५ दंजरोग पतानकरोग शौद्रहत्यामो करनार । कारुण करता वधे कृष्णवर्ण बीहामणो थाए ॥ १५ उष्ट्रे विनिहते चैव जायते विकृतः स्वरः । अश्वे विनिहते चैव वक्रकण्ठः प्रजायते ॥ १६ उंटनो वधक ते नर थाइ भुडा स्वरनो धणी । अश्वहत्यानो करणार वाकु गलु थाइ ॥ १६ स्वरे विनिहते चैव खररोमा प्रजायते । तरक्षौ विनिहते चैव जायते केकरेऽक्षणः ॥ १७ गर्दभ हत्याकारी कठण रोम थाइ । छनो मार थाइ केकरना सरखि आंखि ॥ १७ शूकरे निहते चैव दन्तुरो जायते नरः ॥ १७ सूहरनो मार दन्तुर थाइ ते नर ।। १७ । हरिणे निहते खञ्जः श्रृंगाले त्वेकपादकः । अजाभिघातने चैव अधिकाङ्गः प्रजायते ।। १८ हरिणनो मार खोडो थाइ, सीयालनो मार एक पग पामि । बोकडानो मार अधिक अंग पामि ॥ १८ उरभ्रे निहते चे ( चै) व जायते पिङ्गलेक्षणः । जायते वक्रपादस्तु शुनके निहते नरः ॥ १९ घेटानो मार पीली आखि पामि । पग वाका थाइ कुतरानो मारने ॥ १९ नकुलस्यापि हनने जायते दद्रुमण्डलम् । शशके निहते चैव कुब्जकर्णः प्रजायते ॥ २० नकुलनो मारने उपजे द्रादना माडला । शशानो मार कुबडा कान थाइ ॥ २० Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [93] निद्रालुः सर्पहा मर्त्यः कुब्जो मूषकहा भवेत् । सुरापः श्यामदन्तः स्यात् मद्यपो रक्तपित्तवान् ॥ २१ उंघ घणी पामे सर्पनो मार कुबडो थाइ उंदरनो मार । सुरापाननो करणार श्यामदंत थाइ, मद्यपानी रक्तपित्त थाइ ॥२१॥ अभक्षा भक्ष्य )भक्षणाच्चैव जायन्ते कृमयोदरे । उदक्या वीक्षितं भुक्त्वा जायते कृमिलोदरम् ॥ २२ अभक्षनो खानार उपजे पेटमा कृम थाइ । रतिवतीनु फरसु भोजन करि ते थाइ उदरमध्ये क्रम ।। २२ भुक्त्वा चास्पृशसंस्पृष्टं जायतेऽतिकृशोदरः ।। मार्जारादिभिः भुक्तं भुक्त्वा दुर्गन्धवान् भवेत् ॥ २३ ' आभडछेटनु अन्न जिमइ ते नर थाइ कृशोदर । बलाडीनु बोटु जिमि देहिने विषे दुर्गन्धपणु थाइ ॥ २३ अनैवेद्यं सुरादिभ्यो भुञ्जानो जायते नरः । परान्नविघ्नकरणा-दजीर्णमुपजायते ॥ २४ अनैवेद्य देवतादिकने भाडभूजो थाइ ते नर । परान्न अंतराय करि ते अजीर्ण रोग उपजइ ॥ २४ मन्दोदराग्निर्भवति सति द्रव्यो कदन्नदः । विषदो च्छदिरोगी स्यात् मार्ग्रहा( र्गहा) पदरोगभाक् ॥ २५ उदरनि अग्नि मंद थाइ छति वस्तु भूडु आपे अन्न । आगलीने विष दे ते नर फेरानी बाधा थाइ, वाट मारि तेहनि पगे राफो रोग .पामि ।। २५ पिशुनो नरकस्यान्ते जायते श्वासकासवान् । .. धूर्तोऽपस्माररोगी स्यात् शूली त्वन्योपतापकः ॥ २६ चाड़ीनो करणार नरके जाइ अनिसास-खास नो रोग थाइ । जे धूर्त होइ ते कस रोग उपजे, शूलरोग उपजइ अन्यने प्रताप करे तेहने ॥२६।। दवाग्निदायकश्चैव रक्तातिसारवान् भवेत् । प्रतिमाभङ्गाकारी तु अप्रतिष्टः प्रजायते ॥ २७ दवना देनारनइ लोहीनो अतिसार थाइ । . Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [941 प्रतिष्टाभङ्गाना करणार अप्रतिष्ठा तेहनी थाइ ॥ २७ जिनालये जले वापि शकृत् मूत्रं करोति यः । गुदरोगो भवेत्तस्य पापरूपः सुदारुणः ॥ २८ धर्मस्थानकि जलाश्रये एकवार जो मूत्र करि । गुदनो रोग उपजइ पापरूप बिहामणुं ॥ २८ दष्टवादी खण्डितः स्यात् खल्वाट: परनिन्दकः । सभायां पक्षपाती च जायते पक्षघातभाग् ॥ २९ दुष्टवचननो बोलणार नपुंसक थाइ, टालीउ थाइ, परनिंदानो धणी । सभामध्ये पक्षपाती थाइ पक्षघातनो धणी ॥ २९ कुनरवी नरकस्यान्ते जायते विप्रहेमहृत् । रूपहृत् नरकस्यान्ते जायते श्वेतकुष्टवान् ॥ ३० भुडा नख पामि नरक थकी आवीने जेणे विप्रनुं सुवर्ण चोर। रूपानो चोर नरके जाए उपजे धोलो कोढ तेहनि ॥ ३० औदुम्बरी ताम्रचौरो नरकान्ते प्रजायते । कांस्यहारी च भवति पुण्डरीकसमु( म )न्वितः ॥ ३१ उदंबर रोग पामे त्रामानो चोर नरके जाए । कासानो चोर धोलो कोढ पामि ॥ ३१ रीतिहत् पिङ्गलाक्षं स्यात् त्रपुहृत् श्लेष्मलो नरः । शुक्तिहारि री) च पुरुषो जायते पिङ्गामूर्धजः ॥ ३२ पीतलनो चोर आखि पीली थाइ तरवानो चोरने श्लेष्मा थाइ। शीपनो चोर माथाना केश पीला थाइ ॥ ३२ सीसहारी च पुरुषो जायते शीर्षरोगभाग । घृतचौरस्तु पुरुषो जायते नेत्ररोगवान् ॥ ३३ शीषानो चोर माथानो रोग पामि । घृतनो चोर पामि नेत्ररोग पीहा प्रमुख ॥ ३३ दुग्धहारी च पुरुषो जायते बहुमूत्रकृत् । दधिचौर्येण पुरुषो जायते मेदसा युतः ॥ ३४ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [95 ] दुधनो चोर घणु मातर करी । दहीनो चोर पामि मेद रोग रसोली प्रमुख ॥ ३४ मधुचौरः स पुरुषो जायते बस्तिगंधवान् । इक्षुविकारहारी च भवेदुदरगुप्फवान् ॥ ३५ मधुनो चौर पामि वस्तीगंधवत् । गुड खांड प्रमुखनो चौर पेट मध्ये गोलो थाइ ॥ ३५ लोहहारी च पुरुषो बर्बराङ्गः प्रजायते । तिलचौर्येण भवति जायते मेदसा युतः ॥ ३६ लोहनो चौर बोकडा सरिखो देहि गंधाद । तेलनो चौर खाजनी पीडा पामि ॥ ३६ आमान्नहरणाच्चैव दन्तहीनः प्रजायते । पक्वान्नहरणाच्चैव जिह्वारोगः प्रजायते ॥ ३७ काचा धाननो चोर दंतहीन थाइ। पाका अन्ननो चोर जिभे रोग पामि ॥ ३७ फलहारी च पुरुषो जायते व्रणिताङ्गलिः । ताम्बूलहरणाच्चैव श्वेतोष्टः प्रजायते ॥ ३८ फलनो चोर पामि आंगलीए गुबडा । तंबोलनो चोर धोला होठ थाइ ॥ ३८ शाकहारी च पुरुषो जायते नीललोचनः । कन्दमूलस्य हरणात् इस्वपाणिः प्रजायते ॥ ३९ पत्रशाकनो चोर नीला लोचन पामि । कंदमूलनो चोर नाहना हाथ पामि ॥ ३९ सौगन्धिकस्य हरणात् दुर्गन्धाङ्गः प्रजायते । दारुहारी च पुरुषो श्विन्नपाणिः प्रजायते ॥ ४० . सुगंधनो चोर दुर्गंध अंग पामि । काष्टनो चोर हाथ गलि श्रवइ ॥ ४० विद्यापुस्तकहारी च कलमूकः प्रजायते । वस्त्रहारी च शैलूष-स्तूर्णाहारी च लोमशः ॥ ४२ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [96] विद्यापुस्तकनो चोर जन्मनो मुगो थाइ । वस्त्रनो चोर वेषधारी, उननो चोर रोम घणा पामि ॥। ४१ पट्टसूत्रस्य हरणान्निर्लोमा जायते नरः । औषधाहरणाच्चैव सूर्यवातः प्रजायते ॥ ४२ हीरागलनो चोर रोम रहीत थाइ । औषधनो चोर सूर्यवाय रोग पामि ॥ ४२ रक्तवस्त्रप्रवालादि-हारी स्यात् रक्तवातवान् । विप्ररत्नापहारी च अनपत्य ( : ) प्रजायते ॥ ४३ रातोवस्त्र प्रवालादिनो चोर रतवायु थाए | ब्राहमणादिकना रत्नानो चोर छोरु न थाए || ४३ देवस्वहरणाच्चैव जायते विविधज्वरी । नानाविधद्रव्यचौर्ये जायते ग्रहणी गदाः ॥ ४४ देवना द्रव्यनो चोर पामि विविधप्रकारि ज्वर । अनेक प्रकारना द्रव्यनो चोर संग्रहणी रोग पामि ॥ ४४ मातृगामी भवेत् यस्तु लिङ्गं तस्य विनश्यति ॥ चण्डालीगमने चैव हीनकुष्टं प्रजायते ॥ ४५ मातानु गमननो करणार तेहनुं लिंग विणसे । चांडालीगमन थकी हीन कोढ पामि ॥ ४५ गुरुजायाभिगमने मूत्रकृच्छ्रं प्रजायते विश्वस्थ भार्यागमने गजचर्म्मा प्रजायते ॥ ४६ गुरुनि स्त्रीना गमन थकी मूत्रकृच्छ रोग थाइ । विश्वासकारीनी स्त्री गमने हाथीना सरिखो चर्म थाइ || ४६ मातृसपत्नीगमने जायते चाश्मरी गदः । पितृश्वसायाः गमने दक्षिणाङ्गे व्रणीभवेत् ॥ ४७ अपरमाताना गमन थकी पाणही ( पाहणी) उपजइ । फोइना गमन थकी जमणे पासे गुबडा थाइ ॥ ४७ मातुलीगमने चैव पृष्टीकुष्टं प्रजायते । मातृश्वसाभिगमने वामाङ्गे व्रणवान् भवेत् ॥ ४८ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [97] मामीना गमन थकी पुठे कोढ थाइ । मासीना गमन धकी डाबि अंगि गुबडा थाइ ॥ ४८ पितृव्यपत्नीगमने कटिकुष्टं प्रजायते । स्वसुतागमने चैव रक्तकुष्टं प्रजायते ॥ ४९ काकीना गमन थकी कडि कोढ थाइ । पुत्रीना गमन थकी रातो कोढ थाइ ॥ ४९ स्वकीयभगिनीयाने पीतकुष्टं प्रजायते । भ्रातृभार्या(भिगमने युग्मकुष्टं प्रजायते ॥ ५० बहिनना गमन थकी पीलो कोढ थाइ । भोजाइना गमन थकी बेहु पासे कोढ थाइ ॥ ५० स्ववधूगमने चैव कृष्णकुष्टं प्रजायते । नृपाङ्गनाभिगमने जायते दद्रुमण्डलम् ॥ ५१ पुत्रभार्यागमन थकी कालो कोढ थाइ । राजानी राणीना गमन थकी पामि द्रादना मंडल ॥ ५१ मित्रभार्याभिगामी च मृतभार्या प्रजायते । स्वगोत्रस्त्रीप्रसङ्गेन जायते च भगन्दरः ॥ ५१ मित्रभार्याना गमन थकी ते नरनी स्त्री मरी जाइ । आपणा गोत्रनी स्त्री प्रसंग भगंदर रोग पामि ॥ ५२ तपस्विनीप्रसंगेण प्रमेहो जायते गदः । दीक्षितस्त्रीप्रसङ्गेन जायते दुष्टरक्तवान् ॥ ५३ तपस्विनी स्त्री प्रसंग थकी प्रमेहना रोग पामि । दीक्षितस्त्रीना प्रसंग थकी रक्तपित्त नाम रोग पामि ॥ ५३ श्रोत्री (त्रि ) यस्त्रीप्रसङ्गेन जायते मस्तके व्रणी । स्वजातिजायागमने जायते हृदये व्रणी ॥ ५४ ब्राह्मणीना प्रसंग थकी माथे गुबडा थाइ । स्वकुटुंबस्त्री गमन थकी ही गुबडु था ॥ ५४ हीनजातिषु गमना - ज्जायते चरण- व्रणी । पशुयोनौ च गमनात् मूत्रघातः प्रजायते ॥ ५५ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [98] हीनजातिस्त्रीगमन थकी पगे गुबडु थाइ । पशुजातिना गमन थकी मूत्रकच्छ रोग पामि ।। ५५ श्विनो योनौ च गमनात् भुजस्तम्भः प्रजायते । गर्भपातकजा(:) रोगाः यक्षप्लीहजलोदराः ॥ ५६ अश्वनी जातिना गमनथी हाथ स्तंभ सरीखा थाइ । गर्भपातक थकी कालजु वाधे पीहो वाधइ जलोदरादि वाधइ ॥५६॥ मयूरघातने चैव जायते कृष्णमण्डलम् । हंसघाति(ती) भवेद्यस्तु तस्य स्यात् श्वेतमण्डलम् ॥ ५७ मोरना मारनइ काला धाम दीले थाइ । हंसनी घातक नइ धोला मांडला थाइ ॥ ५७ कुर्कुटे निहते चैव वक्रनाशं( सं ) प्रजायते । पारापतस्याभिघाते पीतपाणिः प्रजायते ॥ ५८ कुकडाना मारनइ वाकु नाक पामि । पारेवानो मार पीला पग थाइ ।। ५८ शुकसारसयोर्घाते नरः स्खलितवान् भवेत् । बकघाती दीर्घगलः काकघातीत्वऽवुर्चक:(?) ॥ ५९ सुडासारसनो मार खलन घणु पामि । __ बगनो मार लाबी कोटि पामि, कागनो मार एके दिशे देखइ।।५९॥ महिषीघातने चैव कृष्णगुल्मः प्रजायते । एवं नानाविधा दोषाः स्युः दुष्कर्मविपाकतः ॥ ६० महिषीनो मार काला गुबड थाइ । एहवा प्रकारना रोग भूडा कर्म थकी पामि ॥६० एते दोषा: नराणां च नरकान्ते न शंसयः (संशयः)। स्त्रीणामपि भवंत्येते निजदुष्कर्मसङ्क्रमात् ॥ ६१ ए रोग नरनइ नरके जाइ न शंसय । नारिनी जातिने पण थाइ आपणा कर्म विपाक थकी ॥ ६१॥ एवं कर्मविपाकं च श्रुत्वा संसारभीरवः । कुर्वन्ति बहुपुण्यानि यथा कर्मक्षयो भवेत् ॥ ६२ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [99] ए कर्मविपाक सांभलीने संसारभीरुने । करे घणा पुण्यकार्य जिम कर्मनो क्षय थाइ ॥ ६२ अत एवात्महितधी-र्मा प्रमादीर्मनागपि । पुण्यक्रियासु सर्वासु सर्वशक्त्या कुरूद्यमाम् (मम् ) ॥ ६३ ते भणी आत्महीतार्थी लगारे प्रमा(द) न कर । पन्यनी क्रिया सर्वने विषे आपणी शक्ते उद्यम करवं ॥३॥ इति श्रीलघुकर्मविपाकश्लोकाः । संवत् १६९६ वर्षे मार्ग्रसरशुदि १३ रवौ लिखितं ऋषि- ॥ -x Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिभद्रसूरिविरचित समसंस्कृत-प्राकृत जिन साधारण-स्तवन सं. विजयशीलचन्द्रसूरि याकिनीसूनु-भवविरहाङ्क श्रीहरिभद्राचार्यनी अप्रगट रचना आपणने जडी आवे, ते आपणुं सौभाग्य ज गणाय. भंडारोए केवी केवी मूल्यवान कृतिओ पोताना उदरमां संग्रही राखी छे, ते तो आवां फुटकर पत्रोने फेंदीए अने तेमांथी आवां रत्नो जडे त्यारे ज समजी शकाय. आ फुटकर पत्र पण मने मुनि धुरंधर विजयजी तरफथी ज सांपड्युं छे, तेना आधारे संपादन करी अहीं रजू करुं छु. मने लागे छे के आ रीते ज फेंदतां फेंदतां क्यारेक कोई अज्ञात पण अतिमूल्यवान रचना पण चडी आवे खरी. जिन खोजा तिन पाईयां - ए उक्तिने लक्ष्यमा राखीए अने शोधकार्य करतां ज रहीए - ए ज आनो सार छे. जे पत्रमाथी आ कृति सांपडी छे, ते पत्र छाणीना श्रीवीरविजयजी शास्त्रसंग्रहनुं छे, अने १६मा शतकनुं लखायेलुं छे; ए पत्रगत अन्य रचनाना छेडे संवत् १५११ जोवा मळे ज छे. अङ्गलिदलाभिरामं सुरनरनिवहालिकुलसमा लीढम् । देव ! तव चरणकमलं नमामि संसारभयहरणम् ॥ १ कामकरिकुम्भदारण ! भवदवजलवाह ! विमलगुणनिलय ! । किकिल्लिपल्लवारुणकरचरण ! निरुद्धचलकरण ! ॥ २ मायारेणुसमीरण ! भवभूरूहसिन्धुर ! निरीह ! । मरणजरामयवारण ! मोहमहामल्लबलहरण ! ॥ ३ भावारिहरिणहरिवर ! संसारमहाजलालयतरण्ड ! । कलिलभरतिमिरत्रासुररविमण्डल ! गुणमणिकरण्ड ! ॥ ४ अमरपुरन्दरकिन्नर-नरवरसन्दोहभसलवरकमल ! | करुणारसकुलमन्दिर ! सिद्धिमहापुरवरनिवास ! ॥ ५ सुसमयकमलसरोवरसुरगिरिवर ! सारसुन्दरावयव ! | चिन्तामणिफलसङ्गम ! रागोरू गगरुड ! वरचरण ! ॥६ हरहासहारहिमकरहिमकुन्दकरेणुधवल ! समचित्त ! । अकलङ्क ! सुकुलसंभव ! भवविरहं देहि मम देव ! ॥ ७ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [101] एवं संस्कृतवचनैः प्राकृतवचनैश्च सर्वथा साम्यम् । विदधानविनुतो मे जिनेश्वरो भवतु सुखहेतु ।। ८ इति सर्वश्री जिन साधारणस्तवनं समसंस्कृतं श्रीहरिभद्रसूरिकृतम् ।। नोंध :-- हरिभद्राचार्यनी प्रसिद्ध "संसारदावानल०"ए समसंस्कृत-प्राकृत स्तुतिथी परिचित होय तेमने उपर निर्देशेला १, २, ३, ए अंकोवाळो पाठ जोतां ज तेना जेवी ज संसारदावानल० गत शब्दावली अवश्य याद आवशे : १. बहुलपरिमलालीढलोलालिमाला० २. संसारदावानलदाहनीरम् ३. धूली हरणे समीरम् ॥ मायारसादारण० ---- X Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहीरविजयसूरीश्वर-शिष्य श्रीशुभविजयकृत स्याद्वाद-भाषा -नारायण म. कंसारा आचार्यश्री हीरविजयसूरिजी वि. सं. १५८३ना मागसर सुदि ९ ने सोमवारे पालनपुरमां पिता कुंराशाह अने माता नाथीदेवीना पुत्र हीरजी रूपे जन्म्या हता. वि. सं. १५९६मां कार्तिक वदि २ने सोमवारे तेमणे महान जैनाचार्य श्रीविजयदानसूरीश्वरजीना शुभहस्ते दीक्षा प्राप्त थई अने तेओ मुनि हीरहर्ष बन्या. पछी वि. सं. १६०७मां पंन्यास पद पामी वि. सं. १६०९मां वाचक पद पाम्या अने वि. सं. १६१०मां सत्तावीस वर्षनी युवान वये सूरिपद पामी आचार्य बन्या. वि. सं. १६२२मां तेमना गुरुश्री विजयदानसूरीश्वरजी कालधर्म करी जतां श्री हीरविजयसूरीश्वरजीए जैनशासनना एक महान नायकनो भार उठावी लीधो. वि. सं. १६३९ ना जेठवदि १३ना दिवसे आचार्यश्रीनो मेळाप सम्राट अकबरनी साथे फतेहपुर सिक्रीमां थयो. परिणामे तेमना प्रभावना प्रतापे तेमनी पासेथी प्रबोध पामी, सम्राटे पोताना सुबाओ द्वारा जैन साधुओने थता उपद्रवो बंध कराव्या, अने अहिंसानो स्वीकार कर्यो. आचार्यश्री हीरविजयसूरीश्वरजीए साधुजीवन दरमियान ऊंडो शास्त्राभ्यास को हतो. एमना अनेक शिष्यो हता. तेओश्री अकबरने मळवा गया त्यारे तेमनी साथे ६७(सडसठ) साधुओ हता, जेमां मुख्य हता विमलहर्ष उपाध्याय, शांतिचंद्रगणि, पंडित सोमविजय गणि, पं. सहजसागरगणि, पं. सिंहविमलगणि, पं. गुणविजय, पं. गुणसागर, पं. कनकविजय, पं. धर्मसीऋषि, पं. मानसागर, पं. रत्नचंद्र, ऋषि काहनो, पं. हेमविजय, ऋषि जगमाल, पं, रत्नकुशल, पं. रामविजय, पं. भानुविजय, पं. कीर्तिविजय, पं. हंसविजय, पं. जसविजय, पं. जयविजय, पं. लाभविजय, पं. मुनिविजय, पं. धनविजय, पं. मुनिविमल वगेरे हता. आमां केटलाक वैयाकरणी, नैयायिक, दार्शनिक, वादी, व्याख्याता, ध्यानी, अध्यात्मी अने शतावधानी हता. खास करीने हीर सौभाग्य महाकाव्य, विजय प्रशस्ति, लाभोदय रास वगेरे कृतिओना कर्ताओ पण साथे ज हता, जेमणे बधा प्रसंगो नजरे निहाळी ए ग्रंथोनी रचना करी छे. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [103] आ बधा साधुशिष्योमांना एक हता पं. शुभविजय गणि. एमणे पोतानी जातने पोताना ग्रंथोना आरंभे ज श्रीहीरविजयसूरीश्वरजीने पोताना "गुरु" तरीके निर्देशीने प्रणाम कर्या छे अने ग्रंथोनी पष्पिकाओमां पण पोताने श्रीहीरविजयसूरीश्वरना चरणसेवी शिष्य तरीके ओळखाव्या छे. तेमणे तर्कभाषावार्तिक, स्याद्वादभाषासूत्र, स्याद्वादभाषा सूत्र वृत्ति, अने प्रश्नोत्तरमाला, तथा काव्यकल्पलतावृत्तिमकरंद अने हैमी नाममाला, महावीर स्वामीन २७ भवतुं स्तवन ए सात ग्रंथो रच्या छे. आ संस्कृत ग्रंथोनी रचना माटे तेमने तेमना ज्येष्ठ गुरुबंधु श्रीविजयदेवसूरीश्वर तरफथी सूचन अने प्रोत्साहन मण्यु हतुं. श्रीहीरविजयसूरीश्वरजी पछी श्रीविजयसेनसूरीश्वरजी पासे आव्या अने तेमना पछी श्री विजयदेवसूरीश्वरजी पासे आव्या हता. पं. शुभविजयगणिए पोताना आ ग्रंथो वि. सं. १६६१ थी १६७१ ना दस वर्षना गाळामां ज रच्या छे. पं. शुभविजय गणिनो स्याद्वादभाषा ग्रंथ सूत्र अने वृत्ति ए उभयस्वरूपे रचायेलो छे. आ सूत्रग्रंथमा एमणे वादी देवसूरिकृत प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार नामना सुप्रसिद्ध ग्रंथमांनां ज मोटा भागनां सूत्रो अपनाव्यां छे अने क्वचित् माणिक्यनंदिनां परीक्षामुखसूत्रमांनां थोडांक सूत्रो पण लीधां छे. उपरांत आचार्य हरिभद्रसूरिकृत षड्दर्शनसमुच्चयनी केटलीक गाथाओना आधारे थोडांक सूत्रोनी रचना करी छे. आ बधां सूत्रोनी सरळ समजूती आपवा एमणे वृत्तिग्रंथनी रचना करी छे. लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावादनी संशोधन पत्रिका 'संबोधि'ना अढारमा अंक (१९९२-१९९३)मां आ स्याद्वादभाषा ग्रंथ वृत्ति सहित प्रसिद्ध करवामां आव्यो छे. पहेलां आ ग्रंथ पोथी रूपे बे वार छपायेलो छे, पण एमां सूत्र अने वृत्ति ए बे ग्रंथ भागोने योग्य रीते चोकसाईपूर्वक अलग पाडवामां आव्या न हता. ला द. विद्यामंदिरना 'संबोधि'नी आवृत्तिमां आ बे भाग खूब चोकसाईपूर्वक अलग पाडीने दर्शाव्या छे. पं. शुभविजयगणिए आ स्याद्वादभाषा सूत्रवृत्ति ग्रंथनी रचना करी एमां मुख्य रूपे वादिदेवसूरिजीना प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारनां ज सूत्रो अपनाव्यां होवाथी पोताना ग्रंथनुं बीजुं वैकल्पिक नाम आप्युं छे 'प्रमाणनयतत्त्वप्रवेशिका'. ____ आ ग्रंथनी विशेषता ए छे के तेमां वादिदेवसूरिजीनां ज सूत्रो अपनाव्यां होवाथी तथा आठमा परिच्छेदनां सूत्रोमां आचार्य हरिभद्रसूरिना षड्दर्शनसमुच्चयनी Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [104] गाथाओनो तथा वृत्तिमां श्रीगुणरत्नसूरिजीनी षड्दर्शनसमुच्चय उपरनी तर्करहस्यदीपिकावृत्तिनो आधार अपनाव्यो होवाथी आ ग्रंथ खूब प्रमाणभूत बनी रह्यो छे. अने आ ग्रंथनी रचना ओछी बुद्धिवाळा, आळसु बाळकोने स्याद्वादशास्त्रनो बोध कराववा माटे ज खास करवामां आवी छे. तेथी आपणा बधा ज माटे तो ते खास उपयोगी होवा साथे खूब सरळ अने सुपाच्य बन्यो छे. आजना प्रसंगे अहीं आखा ग्रंथनो सार आपवा करतां जैन-श्रावक भाविकोने खास रस पडे तेवी आठमा परिच्छेदमांनी जीव विषेनी चर्चा ज अहीं रजू करवामां आवे छे. आ आठमा परिच्छेदनां सूत्रो तथा वृत्ति आचार्यश्रीहरिभद्रसूरिना षड्दर्शनसमुच्चयग्रंथनी गाथाओ अने तेना उपरनी श्रीगुणरत्नसूरिनी 'तर्करहस्यदीपिकावृत्ति' उपर आधारित छे. तेथी अहीं पं. शुभविजयगणि आ बे सूरीश्वरोना विचारोने ज रजू करे छे एम कहीए तो पण चालशे, अने तेथी अमना विचारे खूब प्रमाणभूत छे ए पण स्वीकारतुं पडशे. ___आठमा परिच्छेदमा प्रथम ‘पदार्थ' तत्त्वनी व्याख्या आपी. तेमना गुणधर्मो निर्देशी, तेमनो एक एवो 'जीव' पदार्थ तथा तेना चैतन्य, परिणामी, ज्ञानादि धर्मोथी भिन्न अने अभिन्न, कर्ता, साक्षात् भोक्ता, संदेह परिमाण, दरेक शरीरमां भिन्न, पौद्गलिक अने अदृष्टवाळो 'ए गुणधर्मो निर्देश्या छे. पछी आ गुणधर्मोनी समजूती आपी छे. __ आ पछी जीव प्राणवाळो छे एम निर्देशी आगळ चर्चा चलावतां कह्यु छे के द्रव्य अने भावभेदे प्राणो बे प्रकारना होय छे. अने आ प्राणो वडे जीवे छे तेथी 'जीव' नामे ओळखाय छे. जीव बे प्रकारना होय छे मुक्त अने संसारी. संसारी जीवो चार प्रकारना होय छे : सुर, नारक, मनुष्य अने तिर्यक्. सुरो भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक ए चार प्रकारना होय छे. नारक जीवो रत्नप्रभा पृथिवी वगेरे पर रहेता होवाने कारणे सात प्रकारना होय छे. मनुष्यो गर्भथी जन्मनारा अने संमूर्छाथी जन्मनारा, तिर्यंच जीवो पण एक, बे, त्रण, चार अने पांच इन्द्रियो होय ए अनुसार एकेन्द्रियथी पंचेन्द्रिय एम पांच प्रकारना होय छे. एकेन्द्रिय जीवो पृथ्वी, जळ, तेज, वायु, वनस्पति ए प्रकारना होय छे. आपणने वधु रस पडे तेवी चर्चा अहीं ज आवे छे. जैन दर्शननो विरोधी प्रश्न उठावे छे के पृथ्वी, जळ, तेज, वायु अने वनस्पति ए पांचने जीव केवी Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [105] रीते कहेवाय ? कारण के तेमां जीवनां प्रगट लक्षण जोवा मळतां नथी. आना अनुसंधानमां श्रीगुणरत्नसूरिजीने अनुसरीने पं. शुभविजयगणि स्याद्वादभाषावृत्तिमां कहे छे के भले पृथ्वी वगेरेमां जीवनां प्रगट लक्षण न जोवा मळतां होय छतां अप्रगट लक्षणो तो जोवा मळे छे ज. जेम दारू वगेरे पीने बेभान थयेला माणसमां जीवता होवानां प्रगट लक्षणो देखातां नथी, छतां अप्रगट लक्षणो उपरथी ते जीवतो होवानुं व्यवहारमा मानवामां आवे छे, ए ज रीते पृथ्वी वगेरेने सजीव गणवा जोईए. पृथ्वी वगेरेमां पोतपोताना आकारे रहेला लवण, विद्रुम, पथ्थर वगेरे पोतपोताना जेवा पदार्थो बनावे छे. वनस्पति पोतपोतानां जुदां जुदां फळो आपे छे. आम चैतन्यलक्षण प्रगट न होवा छतां अप्रगट तो छ ज. एथी पृथ्वी वगेरेने जीव गणवां जोईए. जेम शरीरमा रहेलां हाडकां शरीरने अनुसरता आकारवाळ, कठण अने सचेतन होय छे ए ज रीते पृथ्वी शरीर ते ते जीवने अनुरूप ज होय एज रीते जळ पण अप्काय जीव छे. हाथीनुं शरीर कलल अवस्थामां द्रव अने सचेतन होय छे. ए ज रीते अप्काय जीवनुं शरीर पण प्रवाहीरूप अने सचेतन होय छे. ईंडामां अवयवो उत्पन्न थवा छतां प्रवाहीस्वरूप होय छे अने चेतन पण होय छे. बरफ वगेरे अप्काय होवाथी सचेतन छे. खोदेल भूमिमांथी देडकानी जेम घणी वार जळ पण पोतानी मेळे उ नीकळी आवे छे. आकाशमां रहेलुं जळ पोतानी मेळे ज वादळमाथी उद्भवीने माछलांनी जेम नीचे पडे छे. नदी वगेरेनां जळमां खूब ठंडीना दिवसोमा ओछा जळमां ओछु अने वधु जळमां वधुं हूंफाळापणुं जोवा मळे छे. आ हूंफाळापणुं ते सचेतन होवाथी ज होय छे, जेम मनुष्यशरीरमां होय छे तेम. वहेली सवारे पश्चिम दिशाथी पूर्वदिशामां तळाव वगैरेनी सपाटी पर नजर करीए तो वराळ एकठी थयेली जोवा मळे छे ए पण एमां रहेला अप्काय जीवने लीधे ज होवाथी जळ सचेतन छे. जेम रात्रे आगियानो देह चळकतो देखाय छे एम अंगारा वगेरेमां पण अमुक विशिष्ट शक्ति तेमां रहेला तेजस्काय सचेतन जीवने लीधे ज रहेली छे. जेम जीवता प्राणीने ज ताव आवे, मरेलाने न आवे, ए ज रीते गरमी पण सचेतनमां ज होई शके, निर्जीवमां नहीं. जेम देव पोतानी शक्तिना प्रभावे के अंजन वगेरे विद्याना प्रभावे Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [106] अंतर्धान थई जतां तेमनुं शरीर आंखो वडे जोई शकातुं नथी, ए ज रोते वावुनुं रूप आंखो वडे जोई शकातुं नथी, कारण के तेनुं परिमाण सूक्ष्म होय छे. परमाणु, आगमां बळीने राख बनी गयेल पथ्थर, तिर्यग् जीवोने गतिप्रदान करवानी शक्ति वगेरे द्वारा वायुनु सचेतनपणुं अनुमानथी जाणी शकाय छे. __ आ बधा करतां वधु रस पडे तेवी चर्चा वनस्पति, सचेतनपणुं साबित करवा माटे रजू थई छे. बकुल, अशोक, चंपो वगेरेमां वृक्षशरीरो तेमां जीवनी प्रवृत्ति अर्थात् चेतनपणुं न होय तो मनुष्यना जेवा धर्मोवाळी न होई शके. मनुष्यनुं शरीर जेम बाळक, कुमार, युवान, वृद्ध एवां विशिष्ट परिवर्तनो पामे छे ते उपरथी तेमां चेतन होवानी जाण थाय छे ए ज रीते आ वनस्पतिजीवोनां शरीर पण बाळ, कुमार, युवावस्था, घडपण वगेरे अवस्थामांथी रोज रोज वधतां जईने पसार थाय छे. जेम मनुष्य-शरीरमां ज्ञाननो गुण होय छे तेम शीमळो, पन्नाग, रसक, सुंदक, वच्छूल, अगस्त्य, आंबळो, काकडी वगेरेनां वनस्पति शरीरोमां ऊंघ, जागरण, अने तेनो अभाव वगेरे जोवा मळे छे. तेमनी नीचे दाटेला धननी आसपास ते वृक्षो पोतानां मूळियां वींटाळी दे छे. वड, पीपळो, लीमडो वगेरे वृक्षोमां वादळना गडगडाट, ठंडा वायुनो स्पर्श वगेरेथी अंकुरो फूटे छे. दारू पीधेली स्त्री झांझर पहेरीने पोताना कुमळा पगनी ठेस मारे त्यारे अशोकवृक्षने पांदडां तथा फूल आवे छे. युवती आलिंगन आपे तो फणसना झाडने फूल आवे छे, दारूनो कोगळो बकुलवृक्ष पर करवाथी तेने फूल आवे छे, सुगंधीदार चोख्खं जळ छंटवाथी चंपाने फूल आवे छे. त्रांसी आंखे कटक्षपूर्वक जोवाथी तिलकवृक्षने फूल आवे छे. पंचम स्वरनुं गान करवाथी शिरीष अने विरहडाने फल आवे छे. कमळ वगेरे सवारे खीले छे, ज्यारे घोषातकि वगेरे पुष्पो सांजे खीले छे. कुमुद चंद्र ऊगवाथी खीले छे. वरसाद आववानो होय त्यारे शमी खरे छे. वेलीओ वाड उपर सरकीने चढे छे. लाजवंतीने अडतां तेनां पांदडां संकोचाय छे. बधी वनस्पतिओ पोतपोतानी खास ऋतुओमां ज फळ आपे छे. आ बधुं तेमनामां ज्ञान न होय तो संभवी न शके. आ उपरथी साबित थाय छे के वनस्पतिमां चेतन होय छे. जेम मनुष्यशरीरना हाथपग कापी नाखवामां आवे तो ते सुकाई जाय छे तेम फलफूल कापी लेवामां आवतां वनस्पति-शरीर पण सुकावा लागे छे. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [107 ] जेम मनुष्यशरीरमां स्तनमां दूध, जळ, लोही, खावं, पीवं वगेरे जोवामां आवे छे तेम वनस्पति शरीरमां पण जमीनमां सरकवू, डाळीए डाळीए अने पांदडे पांदडे रस पहोंचाडवो वगेरे क्रियाओ जोवा मळे छे. जेम मनुष्य-शरीरनुं अमुक चोक्कस आयुष्य होय छे तथा इष्ट अने अनिष्ट आहार वगेरेने लीधे वृद्धि के हास थाय छे तेम वनस्पतिशरीरमां पण अमुक चोक्कस आयुष्य तथा इष्ट-अनिष्ट खातरपाणीथी वृद्धि के हास थतां जोवा मळे छे. जेम मनुष्यशरीरमां विविध रोगने लीधे चामडी पीळी पडवी, पेट वगेरे अवयवोनुं वध, गळामां शोष पडवो, आंगळी नाक वगेरे नमी के गळी पडवां वगेरे लक्षणो जोवा मळे छे, ए ज रीते वनस्पतिशरीरमां पण जोवा मळे छे. जेम मनुष्यशरीरने अमुक औषधो के रसायनो खवडाववाथी तेमां ताजगी आवे छे एम वनस्पतिशरीरने पण अमुक विशिष्ट खातर आपवाथी तेमां ताजगी आवे छे. आ बधा उपरथी साबित थाय छे के वनस्पति-शरीरमां पण चेतन रहेलुं छे. आजना जमानामां जेम आपणे बधी बाबतोमां वैज्ञानिक आधार शोधीए छीए अने धर्मना सिद्धान्तोने वैज्ञानिक ठराववा मथीए छीए ए ज रीते मध्यकाळमां अथवा वि. सं नी ६ थी ७ मीथी लगभग १८ मी सदी सुधी भारतमां पंडितोना वादविवाद, शास्त्रार्थ, दिग्विजय वगेरेने आधारे अमुक वात सिद्ध के असिद्ध ठरती. जैन धर्मना सिद्धसेनदिवाकरथी आचार्यत्रीशीलचंद्रसूरिजी सुधीना प्रखर आचार्यो पण आ पद्धतिए ज आपणी समक्ष तत्त्वनिरूपण करता आव्या छे. पं. शुभविजयगणिए जैन बाळकोने स्याद्वादमा प्रवेश कराववा वादिदेवसूरि अने हरिभद्रसूरि जेवा प्रखर जैन न्यायकुशळ आचार्योना ग्रंथोने आधारे पोताना स्याद्वादभाषा ग्रंथनी रचना करी छे अने ए रीते पोताना गुरु श्रीहीरविजयसूरीश्वरजीना नामने अमर कर्यु छे. आजना प्रसंगे आवा प्रखर आचार्यश्रीना एक पंडित शिष्यना एक ग्रंथनो परिचय आपीने एमने भावांजलि समर्पित करवामां आपनो अमूल्य समय लेवा बदल मिच्छा मि दुक्कडम्. -X-- Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दप्रयोगोनी पगदंडी पर -हरिवल्लभ भायाणी १. सं. दीप दीवो 'ना पर्याय संस्कृत शब्दकोश 'अमरकोश' (='नामलिंगानुशासन')मां 'दीवो'ना वाचक मात्र बे शब्द ज आप्या छे : दीप, प्रदीप (१६, १३८) हेमचन्द्राचार्यना 'अभिधान चिन्तामणि'मां सात शब्द छ : दीप, प्रदीप, कज्जलध्वज, स्नेहप्रिय, गृहमणि, दशाकर्ष, दशेन्धन (३, ६८६-६८७) आमांथी पहेला बे सिवायना शब्दो खरेखर तो गुणवाचक के लक्षणवाचक विशेषणो छे. काजळ / मश जेनी उपर ध्वजारूपे छे', 'जेने तेल प्रिय छे - जे तेल वापरे छे' जे घरने अजवाळता मणि जेवो छे', 'जे वाटने खेंचीने बाळतो होय छे', 'जेनुं बळतण वाट छे' आवा ए शब्दोना अर्थ छे. हकीकते ए विशेषणो काव्यशैलीमा नाम तरीके योजातां होवानुं उघाडुं छे. ए स्वयं अभिधारूप नहीं, पण लाक्षणिक गणाय. कोशकारोए तेमना साहित्यिक प्रयोगने आधारे ते नोंध्या होवा जोईए, परन्तु प्राप्त संस्कृत साहित्यमांथी तेमना प्रयोग जाणवामां नथी. संस्कृत शब्दकोशोमां आपेला अनेक शब्दोना अनेक पर्यायो मूळे आ प्रकारना गुण के लक्षण दर्शावतां विशेषणो परथी काव्यशैलीमा रूढ बनेलां नामो २. प्रा. कसरक्क ___'वज्जालग्ग'मां करभने-ऊंटने लगती अन्योक्तिओना विभागमां नीचेनी गाथा आपी छे : ते गिरि-सिहरा ते पीलु-पल्लवा ते करीर-कसरक्का । लब्भंति करह मरु-विलसियाइ कत्तो वणेत्थम्मि ॥ अर्थ : हे करभ, ए पर्वत-शिखर, ए पीलुनां पान, ए केरडाना 'कचरका'एवा मरूभूमिना सुखविलास आ वनमांथी तने क्यांथी मळे ? आमां 'कसरक्क'नो अर्थ टीकाकार रत्नदेवे 'कुड्मल' एटले के कळी Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [109] एवो आप्यो छे, अने 'पाइअसद्दमहण्णवो 'मां पण एने आधारे एक अर्थ ए प्रमाणे आप्यो छे । हवे हेमचंद्राचार्यना व्याकरणना अपभ्रंश विभागना नीचेना उदाहरणमां 'कसरक्क' शब्द मळे छे. खज्जइ नउ कसरक्केहिँ पिज्जइ नउ पुंटेहिं । एवँइ होइ सुहच्छडी, पिएँ दिट्ठएँ नयणेहिं ॥ (८, ४, ८२३.२) अर्थ : प्रिय 'कसरक', 'कसरक' एम करतां खवातो नथी, 'घट घट' पीवातो नथी. प्रियने नयनो वडे मात्र जोतां एम ज सुखशाता थाय छे.' । आमां कोईक कडक खाद्य पदार्थ स्वादपूर्वक चावतां थतो 'कचडकचड' अवाज एवा अर्थमां एक उदाहरण तरीके 'कसरक्क' शब्द आप्यो छे । अने 'वज्जालग्ग'नी गाथामां पण तेनो आज अर्थ थाय छे. स्वादपूर्वक केरडाना कटका माणवानी वात छे । - टीकाकारे मूळ अर्थ न जाणवाथी संदर्भने आधारे अटकळे ज 'कळी' एवो अर्थ कर्यो छे. 'वज्जालग्ग' ना संपादक पटवर्धने हेमचंद्रे आपेला प्रयोगनी नोंध लीधी छे (पृ. ४४९ - ४५०), परंतु टीकाकारना अर्थ विशे कशी शंका नथी करी. ३. सं. केकाण नवमी शताब्दीना अपभ्रंश महाकवि स्वयंभूदेवना काव्य 'पउमचरिउ'मां एक स्थळे देश देशनी विख्यात वस्तुओ वगेरेनी जे सूचि आपी छे तेमां 'तुरउ केक्काणउ'- एटले के केकाणनो घोडो प्रख्यात होवानुं कह्युं छे (संधि ४५, कडकक ४, पंक्ति ८) । आ केकाण एटले बलुचिस्तानना उपरना भागमां आवेलो 'कय्कान' नामनो प्रदेश | हेमचंद्राचार्य वगेरेना कोशोमां पण खुरासाण इराक, तुर्कस्तान वगेरे प्रदेशोना घोडाओना, अने तेमना रंग अनुसार 'कोकाह', 'खोंगाह', 'सेराह', 'वोल्लाह' वगेरे अरबी नामो साथे निर्देश छे ("अभिधानचिन्तामणि', १२३७ थी १२४३) । में ' शब्दकथा' मां (पृ. ॥ २३, ६३) आनो सहेज स्पर्श कर्यो छे. परंतु सद्गत विद्वान पी. के. गोडेनो आ विदेशी अश्वनामो उपर एक संशोधन - लेख वर्षो पहेलां प्रकाशित थयेल छे । काना ते पछीना साहित्यमां पण उल्लेखो थयेला छे, जेम के 'उपदेश = Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [110] रसायण-रास'मां : 'अधिरु जु जिव किक्काणु तुरंगम' (कडी १३) । 'कथासरित्सागर'ना विषमशील-लंबक (सर्ग १२१, पद्यांक २७८)मां विविध रंगना अश्वो पर सुभटो आरूढ थया तेना वर्णनमां 'श्यामा कोंकाणी तुरगी' एवो निर्देश मुद्रित पाठ अनुसार छे । टॉनी एनो black konkani marc.. एवो अनुवाद कर्यो छे, अने Bohllingkना संक्षिप्त संस्कृत कोशमां पण 'कोंकणप्रदेशनी घोडी-'कौंकणी' एवं शुद्ध शब्दरूप छंद खातर बदलीने 'कोंकाणी' कर्यु ए प्रमाणे जर्मन भाषामां अर्थ अने टिप्पण आप्यां छे । तेने अनुसरीने मोनिअर विलिअम्झना संस्कृत-अंग्रेजी कोशमां पण ए ज शब्दरूप अने अर्थ "या छे। पण हकीकते 'कथासरित्सागर'नो पाठ भ्रष्ट छे; 'केक्काणी' एवो पाठ जोरए । ४. खेह 'धूळ'ना अर्थमां 'खेहा' जिनेश्वरसूरिना कथाकोषप्रकरण(ई. स.)मां मळे छे : तुरय-खरुक्खित्त-खोणी-खेहाए (१६,२७) 'घोडानी-खरीश्री जेमां भौंयनी ऊडती हती'. गुजराती 'खेपट ऊपड्यो' एवा प्रयोगोमां मूळे 'खेहपट्ट'- 'धूळनो पट' (ऊडे एटली झडपथी)' एवो अर्थ हशे ? ५. अप. वाहुडि कनकामरना अपभ्रंश काव्य ‘करकंडुचरिउ'( )मां 'बाहुडि गउ' ए शब्दो ‘पाछो गयो' ना अर्थमां वपराया छ : बाहुडि गउ सो निय-पुरहो । (१.१२.२०) 'ते पोताना नगरमां पाछो फर्यो ।'सं 'व्याघुट्'-पाछा वळवू, प्रा. 'वाहुड्' वगेरे (टर्नर, क्रमांक १२१९२). तेनुं संबंधक भूतकृदंत 'वाहुडि', हिंदी 'बहुरि' -फरी फरीथी-हिंदी फिर से. ते ज प्रमाणे गुज. 'वळी' (पुनः) पण 'वळवूनुं संबंधक भूतकृदंत छे. 'बहुरि' 'फरी', 'वळी' शब्दो ‘पुनः' एवा अर्थमां रूढ थया छे. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [111] ६. वाणजु 'वेपारी' वाणियोना मूळमां सं. वाणिजक छे. वाणोतरना मूळमां सं. वाणिजपुत्र छे. वणजारोना मूळमां सं. वाणिज्याकारक छे. वाणजु 'वेपारी वाणियो'ना मूळ तरीके बृगुको मां सं. वाणिज्जक (वाणिजक जोईए), प्रा. वाणिज्जअ आपेल छे, पण ते बराबर नथी. तेथी अंत्य उकारनो खुलासो आपी शकातो नथी. हकीकते प्राकृतमां वाणुंजुअ शब्द मळे छे. हेमचंद्रे 'देशीनाममाला 'मां ( ) ते वाणिजकना अर्थमां आप्यो छे. भोजकृत 'सरस्वतीकंठाभरण'मां ग्राम्य 'वाकोवाक्य' ना उदाहरण तरीके जे अपभ्रंश उद्धरण आपेल छे, तेमां वाणुंजुअ शब्द मळे छे. (ए उद्धरणनो भ्रष्ट पाठ शुद्ध करवानो में प्रयास कर्यो छे. जुओ वी. एम. कुलकर्णी, Prakrit verses in Sanskrit Works On Poetics' भाग १, परिशिष्ट १, पृ. २२). तेना परथी नियमितपणे गु. वाणजु निष्पन्न थयो छे. प्रा. वाणुंजुअनुं मूळ स्पष्ट नथी. सं. वाणिजक + युज्, प्रा. वाणिअअ + जुंज, पछी वाणिउंज बने. तेमां उअ (सं. उक) एवो कर्तृवाचक प्रत्यय लागतां वाणिउंजुअ थाय, वाणुंजुअ नहीं. ७. गूंगळावं, गूंगणुं गूंगणुं (मोढा सहित) नाकमांथी बोलवानी टेववाळु, एवी रीते बोलतुं ।' प्राकृत भाषामां 'उत्तराध्ययन सूत्र' उपरनी शान्त्याचार्यनी टीकामां गुंगुयंती एवो प्रयोग छे. एक प्राकृत कोशमां 'भयथी आकुळव्याकुळ' एवो अर्थ संदर्भने आधारे कर्यो छे. परंतु 'डरथी अस्पष्ट' नाकमांथी गणगणता' एवो अर्थ पण बंध बेसे छे. आम गुंग् क्रियापद 'गणगणता होय तेम नाकमांथी अस्पष्ट बोलवुं' एवो रवानुकारी अर्थ धरावे छे. तेना परथी कर्तावाचक नाम गूंगणं. ए क्रियापदना मूळमां गूंग 'मूंगुं' ए विशेषण होय एम लागे छे. हिंदी गूंगा 'मूंगो'. फारसीमां पण गुंग 'मूंगो' एवा अर्थमां छे. ( गूंगो 'नाकनो बाझी गयेलो मेल' एनुं मूळ कदाच जुदुं होय). गुंग उपरथी विस्तारित गुंगल, जेम अंध-अंधल, पंगु-पंगुल, सं. मूक मूअ-मूअल, मूअल्ल. तेना परथी क्रियापद गूंगळावुं 'श्वास बंध थई जाय, संधाय एम अनुभववुं'. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [112] गूंगळावू (रवा०) अंधल गूंगणुं(रवा०) पंगल फारसी गुंग गुंगल गूंगा मूअल, मूअल्ल . गोगो प्रा.गुंगुयंत देशी श.णं. 'भयेए आकुलव्याकुल ते गुंगुयंता अच्छंति' (उत्तराध्यनशान्त्याचार्य टीका) ८. चपटुं, चांपवू , चीपवं, चीवडो वगेरे मूळ शब्दरूप चप् / चंप 'दाबQ' दबावीने सपाट कर'. तेना परथी गुजरातीमां चपोचप, चपटी, चपटुं, चप्प-ट/चाप-ट, चाप-डो, चांपवू, चांपुं निष्पन्न थया छे. अन्य भारतीय आर्य भाषाओना सहजन्य शब्दो माटे जुओ टर्नर क्रमांक ४६७४. चप्पनी ज साथे संकळायेल चिप्प/चिव्व्नो पण एवो ज अर्थ छे. गुजरातीमां चीपियो, चीपवू, चीप, चीबु, चिव्व-ड/चव्व-ड, चीवडो(चोखा दाबीने करेला पौवामांथी बनेल) के चेवडो (सं. चिपिष्ट, प्रा. चिविड, कमाउनी च्यउडा, नेपाळी चिउरा, हिन्दी च्यूडा, मराठी चिवडा वगेरे) जुओ टर्नर क्रमांक ४६७४, ४८१८, ४८२१. हिं. चिपचिपा - 'चीकगुं' एनो संबंध 'चीपकीने चोंटवू' एनी साथे होय. शंकराचार्यने नामे मळतुं भज गोविन्दम् ए स्तोत्र 'चर्पटपंजरिका-स्तोत्र' तरीके जाणीतुं छे. ए नाम विचित्र छे. मारी अटकळ छे के कोईए तेने लगती देश्य संज्ञानुं करेलुं आ संस्कृतीकरण होय. सं. चर्पटनो 'हथेळी' एवो अर्थ नोंधायो छे. पंजरिका ए गुजरातीमां प्रचलित 'पंजरी' (प्रसादनी 'पंचाजीरी') लागे छे. 'हथेळीमां पंजरी' (के 'चपटीमां पंजरी ?) सद्बोध 'ईन ए नटशेल' एवं तात्पर्य होय. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [113] स्तोत्रनो अपभ्रंशमां प्रचलित वदनक छंद (१६ मात्रानो) अने डुकृञकरणेमां डुने क्रु के क्रि उच्चारीने गुरु करवो पडे छे, तथा भक्तिभावना छे. सौ लौकिक प्रभावनां द्योतक छे. ९. चंचोळं प्राकृत 'ढुंढुल्लू' = वारंवार भ्रमण करवुं, 'खंखाळवुं', 'खंखेखुं', 'छंछेडवुं', 'झंझेडवुं', 'झंझोडवं', 'डांडोळवु', 'ढंढोळवुं', 'फंफोसवुं', 'फंफोळवुं', '(जळ) बंबोळ' वगेरेनी क्रिया वारंवार थती / कराती दर्शाववा धातुना आद्य व्यंजननी सानुस्वार द्विरुक्ति करवानुं वलण जोई शकाय छे. आनुं एक उदाहरण कायस्थ केशवरामकृत 'कृष्णक्रीडित' काव्यमां (ई.स. १५३६) मळे छे. 'पगे हाथ ने हाथ्ये पग, चंचोळीने चाहे नाथ' 'चंचोळीने' चोळीने । ( ४.६) =3 १०. झपट, झापट वगेरे १. झप्प 'वेगपूर्वक, एकाएक थती गति (आघात, प्रहार, पतन) अने/ अथवा तेने लीधे थतो अवाज' एनुं अनुकरण करतुं शब्दरूप मूळ तरीके स्वीकारीने आपणे चालीए. झप झप, झपाझप, झपाझपी, झपट, झापट वगेरेनो ए मूळ घटक छे. वारंवार २. रवानुकारी अने बीजा केटलाक शब्दोमां भारवाचक शब्दरू पमां मूळनो संयुक्त व्यंजन कां तो जळवाय छे, अथवा तो ज्यारे एकवडो थाय छे त्यारे तेनो पूर्ववर्ती स्वर दीर्घ थतो नथी. झप जेवा घणा खानुकारी शब्दो आनां उदाहरण छे. पण झापट वगेरेमां सामान्य वलण प्रमाणे झपनुं झाप थयुं छे. ३. झपट (स्त्री.), झापट (स्त्री.) झापटुं (न.), झापटवुं (साधित धातु) - एमां ट प्रत्ययथी मूळरूपनुं विस्तरण थयुं छे. चपटी, चप्पट / चापट ( मूळमां चप्प) अने थापट (स्त्री.) (मूळमां थप्प) वगेरे बीजां उदाहरण छे. ४. झपाटोमां आट प्रत्यय छे. ते ज प्रमाणे चपाट, थपाट (मूळमां थप्प) (स्त्री.), लपाट (स्त्री.) अने सपाटो तथा खानुकारी नहीं एवा गपाटो ( मूळमां गप्प ) अने खपाट (स्त्री.) (मूळमां खप्प : खाप 'वांसनी चीप' ) अने बुमाटो ( मूळमां बूम) एमां पण छे. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [114] ५. टर्नरना भारतीय - आर्य भाषाना तुलनात्मक कोशमां क्रमांक ५३३६ नीचे झप्प एवा अर्थना 'एकाएक थती वेगवाळी गति' मूळरूपमांथी निष्पन्न शब्दरूपो सिंधी, पंजाबी, पहाडी, नेपाळी, असमिया, बंगाळी, ऊडिया, मैथिली, हिन्दी अने गुजरातीमांथी आपेलां छे, जेमना झपटी लेवुं', 'झडपथी', 'एकाएक ' 'उतावळे' 'झटको' जेवा अर्थ छे. झपेटोमां एट प्रत्यय छे. अंगविस्तार, स्वार्थिक, ट, आट प्रत्यय माटे जुओ ह. भायाणी 'थोडो व्याकरण विचार' (त्रीजी आवृत्ति, १९७८) पृ. ११९ - १२० ; तथा ऊर्मि देसाई, 'गुजराती भाषाना अंगसाधक प्रत्ययो (बीजी आवृत्ति, १९९४) पृ. १३०, १३१, १४५. ११. झूमवुं, झूमखो, झूमणुं झुंब एटले 'लटकवुं' एवा मूळ धातुरूप परथी गुजराती झूमवुं, झूमखो, झूमणुं अने झुम्मर निष्पन्न थयेला छे. झुंब परथी गुजराती वगेरमां झुंब थाय, पछी वनुं सारूप्य थवाथी झूम थयुं -लींवडो > लीमडो वगेरेनी जेम. प्रा. झुंबणग एटले 'गळामांथी लटकतो हार के माळा' तेना परथी गुज. झूमणुं 'नीचे मोटुं चगदुं अने बने सेरमां नानां चगदां होय तेवो सोनानो हार'. प्रा. झुंबुक्क (अपभ्रंश साहित्यमां मळे छे, जुओ रत्ना श्रीयन A Critical . Study of Mahāpurāna of Puspadanta १९६९) क्रमांक ९९४ परथी पंजाबी, बंगाळी, हिन्दी झुमका 'काननुं एक लटकतुं आभूषण'. 'झुंब' ने कर्तृवाचक उ + क्व प्रत्यय लाग्यो छे. गुज. झूमखं एटले 'नीचे लटकतुं होय तेवुं लूमखं', लटकतो झूडो. पांदडां के फूलफळोनो एवो गुच्छ. आमां बे अर्थघटक छे. लटकवुं ते अने गुच्छरूप होवुं ते. टर्नरे गुच्छवाळा घटकने मूळ तरीके लीधो छे. सिंधी झुमकु हिंदी झुमका, मराठी झुमका गुच्छनो अर्थ धरावे छे. (जुओ टर्नर, क्रमांक ५४०४) पण ते साथे पंजाबी, बंगाळी, हिन्दी झुमकानो 'काननुं लटकणियुं' एवो अर्थ छे. एटले लटकवानो अर्थ मुख्य छे, अने गुच्छनो अर्थ गौण छे. पछीथी केटलाक शब्दोमां गुच्छनो अर्थ मुख्य बन्यो छे. एटले टर्नरे झुप्प अने झुम्मने Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [115] सहयोगी गण्या छे, ते चिन्त्य छे. गुज. झूमखो/ झूममां मूळना कने बदले ख प्रत्यय छे. आमां लूमखंनो प्रभाव होय. सं.प्रा-सं. लुंबी, गुज. लूम, स्वार्थिक ख प्रत्यय लागीने लूम. ख प्रत्यय गुजराती डाळखी, लहेरखी, माळखं अने तणखलुं (तरणखलु)मां पण छे. जुओ. ह. भायाणी, 'थोडोक व्याकरण विचार' (त्रीजी आवृत्ति,१९७८) पृ. १२४, ऊर्मि देसाई, 'गुजराती भाषाना अंग विस्तारक प्रत्ययो' (बीजी आवृत्ति, १९९४), पृ. १३२. गुज. झुम्मर/झूमर लटकतुं होय छे. तेना मूळमां झुम्बिर (प्राकृतमा इर प्रत्यय ताच्छील्य वाचक छे) छे. हिन्दी झूमरनो अर्थ छे 'माथा पर पहेरवानुं एक आभूषण जेमां घूघरी के तारकसबनो गुच्छो लटकतो होय छे.' रूमझूममां झूम रवानुकारी छे. १२. ठोसो, ठोसवू, ठांसवू, ठसवू, ठेस हिन्दी ठोस 'पोलुं नहीं, घन, नक्कर' आपणने गुजराती ठोसो / ठोसो (पोला हाथनो धब्बो नहीं पण मुक्काथी करतो प्रहार) शब्दना अर्थनो खुलासो आपे छे. चूसवू / चूंसवू, भूसर्बु / भंसवू खोसवू / खोंसवू वगेरेमां बोलीभेदे सकारनी पूर्वेनो स्वर सानुनासिक बोलवानुं वलण जाणीतुं छे. ठोसवू 'दाबीने भ' अने पछी लाक्षणिक 'दबावीने खावू', हिन्दी ढुंसना/ठूसनानो ए ज अर्थ छे. पंजाबी ठूसणा, सिंधी ठौंसो आ साथे संकळायेला छे. जुओ टर्नर, क्रमांक ५५११ नीचे ठोस्स. 'चाली चालीने ढूंस नीकळी गई', 'काम करावीने एणे तो मारी ढूंस काढी' एवा प्रयोगोमां, अत्यंत थाकंवा के थकवी नाखवाना अर्थमां ढूंस वपरायो छे, तेनो खुलासो 'शरीरमां जे कांई भरेलुं हतुं ते बळ, ताकात, बधुं नीसरी गयुं, दम नीकळी गयो' ए रीते कदाच आपी शकाय. ठांसवू पण आ साथे संकळायेलो छे. ठांसोठांस, ठांसियो वगेरे आमांथी साधित छे. अन्य भारतीय-आर्य भाषाना शब्दो टनर क्रमांक ५४९९ (ठस्स) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [116] नीचे आप्या छे. ठेस, 'ठोकर, ठेवू', ठेशी ‘अटकण' पण आ ज कुळनो छे. जुओ टर्नर क्रमांक ५५११ नीचे. १३. थपथपी, थापडी, थपाट वगेरे . थप थप, थपथपी, थपकQ, थापी, थापडी, थप्पड, थपाट, थप्पो, थपती, थपेली, थपोलुं, थपोडुं वगेरेनो संबंध खानुकारी थप्प साथे छे. अन्य भारतीय-आर्य भाषाओना सहजन्य शब्दो माटे जुओ टर्नर, क्रमांक ६०९१ (थप्प्) नीचे. थेपर्बु, थेप, थेपलुं वगेरे माटे थेप्प एवं मूळ शब्दरूप स्वीकार, पडशे. थप्पी, थापो थापोडो, थपरडो/थपेडो, थापण एनो संबंध सं. स्थाप्यते, प्रा. थप्पड़, गुजराती थापq साथे छे. १४. नकळंक कल्कि अवतारना ‘कल्कि'नुं सरळ उच्चारण 'कलक्की'. 'चोलुक्य'> 'चोलुक्किय'>'सोलुक्किय'>'सोलंकी'; 'चालुक्य'>साळुके; 'वालुक्की'/ 'वालुंकी'- काकडी-ऐसे परिवर्तन के अनुसार 'कलक्की' 'कलंकी'. . 'कलंकी'नो कलंकवाळु अर्थ निवारवा 'अकलंकी' 'नकलंकी', 'अकळंक', 'नकळंक'. १५. पोपट, पोपचुं वगेरे पोपुं, पोपचुं, पोपट, पोपटो, पोपडो ए शब्दो एक ज मूळना होवार्नु जणाय छे. पोप्प 'कशुक उपसेली गोळाकार सपाटीवाळु अने अंदरखाने अवकाशवाळु' एवं मूळभूत शब्दरूप स्वीकारीने आपणे चालीए. पोपुं, पोपलुं, पोपा-वाई एमां 'पोचट होवू' एवो जे अर्थ कोशो आपे छे, तेमां मूळे तो 'पोलुं होवू' एवो अर्थ होवानो संभव छे. टर्नर क्रमांक ८४०५ नीचे मूळ शब्दरूप तरीके आपेल पोप्पनो 'पोलुं' अर्थ आप्यो छे अने पंजाबी, हिन्दी पोपला 'बोर्खा' ऊडिया 'पोपरा 'पोलुं', गुजराती पोपडो, पोपचुं, पोपटो अने पोपलां नोंध्या छे. आ साथे ते ज अर्थनो फोप्फ अने तेमांथी निष्पन्न शब्दो Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [117] नोंध्या छे (तेमां गुजराती फोफु उमेरवानो छे). पोप-चुं मों उपर उपसेल, गोळाकार अने नीचे अवकाशनो अर्थ स्पष्ट छे. स्वार्थिक च प्रत्ययवाळा नाळचुं, डोलचुं, ढीमचुं वगेरे माटे जुओ ह.भायाणी 'थोडो व्याकरण विचार' (त्रीजी आवृत्ति, १९७८), पृ. १२४) पोप-टमां पण उपरनो फूलेलो गोळाकार अने अंदर अवकाश छे ज. तेना रंग अने आकारना साम्ये चणा वगेरेनो पोपटो. बृगुको.मां मूळ पोपटो होवानुं अने तेना साम्ये पोपट बन्यानुं मान्युं छे. पोप-डोमां पण उपरतुं पड अने अंदरनो अवकाश छे, जो के उपर गोळाकार नथी. १६. मळी, तलवट दूध, घी वगेरेनी विकृतिओना वर्णनमा तरुणप्रभसूरि-कृत 'षडावश्यकबालावबोध'मां (इ.स. १३५६) तेल विकृतिओ गणावतां प्रा. 'तिल्लमली नो अर्थ 'तेल नउ ठाहउ' अने "तिलकुट्टी'नो अर्थ 'तिलवटि' ए प्रमाणे आप्यो छे. आमां 'मली' एटले अर्वा. गुज. 'मळी' = तेल, कीटुं (पैडामां जामेलो तेलियो कीचड, हनुमाननी मूर्ति उपरनो तेलियो सूको रगड-एवा अर्थमां पण हाल प्रचलित) (टर्नर क्रमांक ९८९९; असमिया मलि- कदडो; उडिया धूळि-मळि 'धूळ अने कदडो' स्त्रीलिंग छे.) _ 'ठाहउ'नो अर्थ 'नीचे जामेलुं कीटुं'एम संदर्भथी समजवानो छ । __ 'तिलकुट्टी'>"तिलउट्टी' तिलवटि' 'बृहत्गुजराती' कोश'मां "तिलवति' मूळ तरीके आपेल छे ते सुधारवू पडशे. 'तल'ने प्रभावे 'ल'नो ळ नथी थयो. सौराष्ट्रमां 'तलवट' पुंलिंगमां वपराय छे. १७. रांझण रांझण, रांझणी शब्द 'सणका मारे तेवो एक पगनो रोग' एवा अर्थमां आपेला छे. सार्थ जोको. मां तेना मूळ तरीके दे. रंजण (मराठी रांजण, रांझण) 'कुंभ' होवानुं कडं छे. पण जो पग सूझीने जाडो थतो होय तो 'कुंभ' उपरथी कदाच लाक्षणिक अर्थमां ए दृश्य शब्द घटावी शकाय. पण आ तो सणकानो Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [118] रोग छे. वळी दे. रंजण पुंलिंग छे, ज्यारे रांझण स्त्रीलिंग छे. अने मूळे तो रंजणनो प्रा. अरंजर, अलिंजर 'घडो' परथी थयो जणाय छे. बीजी बाजु बृगुको.मां तो रांझणने रवानुकारी शब्द कह्यो छे. एमां कोई रवनुं (सणकानु) अनुकरण भाळी शकाय तेम न होईने आने तुक्को ज गणवो पडे. शीलांकाचार्ये ई.स. ८६९मां प्राकृत भाषामां रचेल जैन महापुरुषोना चरित्रग्रंथ, 'चउपन्नमहापुरिस-चरिय'मां सनत्कुमार चक्रवर्तीना चरित्रमा तेने थयेला रोगो वर्णवतां कां छे : रोगायंका समुब्भूया । तं जहा-सीस-वेयणा, कण्ण-सूलं, लोयणाणं कोवो, दंते घणेट्टओ, सिरोहराए गंडमाला, वच्छत्थले तोडो, बाहुम्मि अवबाहुयं, हत्थेसु कंपो, पोट्टे जलोयरं, पट्टीए सूलं, पाडम्मि अरिसापीडा, अण्णत्थ काइयानिरोह-संगवो, उरुसु थद्धोरुयत्तं, जघासु रंघणी, चलणे रप्पओ, सव्व-सरीरे कुट्ठरोगो वलक्खओ य । 'अनेक पीडाकारक रोग थया. जेवा के-शिरोवेदना, कर्णशूळ, चक्षुकोप, दांतनो सडो, कांधे गंडमाळ, छातीमां दुखावो, बावडां अटकी पडवा-थीजी जवा, हस्तकंप, पेटमां जळोदर, पीठमां शूळ, गुदामां हरस, मूत्रनिरोधनी पीडा, साथळ थीजी जवा, पीडीमां रांझण, पगे हाथीपगुं, आखा शरीरे रक्तपित्त अने सफेद कोढ'. आमां पीडीमां रंघणी थई होवानुं कर्तुं छे. उत्तर गुजरातनी बोलीओमां तालव्य ध्वनिना संपर्के कंठ्यनो तालव्य थतो होवानुं जाणीतुं छे. काकी>काची, नाछ्युं>लाख्युं एटले रांघण्यनुं ए बोलीमां रांझण्य ऐवं उच्चारण थाय. प्रा. रंधणी उपरथी रांघणी अने ते परथी रांझण्य. आम रांझण्य शब्दरूप उत्तर गुजरातनी बोली- होवा जणाय छे. 'स्कंदपुराण'ना काशीखंडमां रंध्या शब्द एक रोगना नाम तरीके मळतो होवा मोनिअर विलिअम्झना संस्कृत शब्दकोशमां आप्युं छे, ते आ संबंधमां विचारणीय गणाय. १८. ववठावू, वावठवू ववठा, वावठवू एटले "उपरथी पवन फूटतां सुफातुं जवू' बृगो को.मां सं. वात, प्रा. वाअ, गुज. वा साथे तेने संबंध होवानुं कर्तुं छे, पण पूरी व्युत्पत्ति नथी आपी. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [119] सं. वातस्पृष्ट, प्रा. वाअपुटु, ते पछी वाउट्ट द्वारा वावठ, पछी क्रियापद ववठा निष्पन्न थयं होय एम लागे छे. १९. वावलवं वावलq एटले 'दाणामांथी फोतरां छूट पडे ए माटे अनाजने अध्वरथी थोडं थोडं नीचे ढोळवू'. कां तो ए वावलो 'पवन' उपरथी साधित क्रियापद होय, अथवा वावला 'फातरां' उपरथी साधित क्रियापद होय. बीजो विकल्प स्वीकारीए तो वावालुंना मूळ तरीके सं. वात + तूल, प्रा. वाअउल्ल, पछी वाउल्लअ, वावटु एवो परिवर्तनक्रम सूचवी शकाय. प्रकीर्ण ओष्ठ्य म् पछी उ के ओनो अ १. सं. मुद्ग, प्रा. मुग्ग, ते पछी अन्य भारतीय-आर्या भाषाओमां हिंदी मूंग, बंगाळी मुग, मराठी मुंग, वगेरे-जेमा उकार नियम प्रमाणे जळवायो छे. परंतु गुजरातमां मग (टर्नर १०१९८) २. तेवी रीते सं. मुकुष्ठ, (तेना परथी पूर्ववर्ती उनो अ थतां प्राकृतमां मउटु थाय. तेना परथी घडी काढेलुं संस्कृत शब्दरूप मपुष्टक. अन्य भारतीयआर्य भाषाओमां (जेम के पंजाबी-हिंदीमां) नियम प्रमाणे मोठ, पण गुजरातीमां मठ. ३. संस्कृत मुकुटबई परथी प्रा. मुउडबद्द मउडबद्द अने पछी जूनी गुज. मुडधउ, अर्वा. गुज. मडधो. प्राकृतमां लगोलगना अक्षरोमां बे उकार होय, त्यारे आगळना उनो अ थाय छे. (सं. मुकुट, प्रा. मउड, गुज. मोड) वालबंध परथी थयेल वाळंदमां पण बंध अक्षर पूर्वेनो बकार लुप्त. थयो छे. ४. सं. मुखवालक, प्रा. मुहवालअ. ते परथी गुज. मोवाळा, पक बोलीमां मवाळा. ५. सं. गोधूम, प्रा. गोहूम ते परथी गोहूर्वं, गोहूं अने पछी नियम प्रमाणे घोंउ थQ जोईए, तेने बदले घउं. आमां पाछळना उकारनो प्रभाव कारणभूत होवार्नु जणाय छे. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [120] बे कहेवत नवमी शताब्दीना स्वयंभूकृत 'स्वयंभूच्छंद'मां उद्धृत करेल रोहिणी छंदना कवि उद्भटकत उदाहरणमां १.३.३.१ 'सए पलो, घअं' ए कहेवतनो प्रयोग थयो छे. अर्थ छे 'घी ढोणायुं ते सूप'मां ! हजी पण आपणे ते वापरीए छीए : 'घी ढोळायं ते खीचडीमां'. थोडोक परंपरा प्रमाणे फेरफार थयो छे-जेम जूनी कहेवत-'गाय वाळे ते अर्जुन' (विराटपर्वनो संदर्भ)ने बदले हवे 'गाय वाळे ते गोवाळ । तेज प्रमाणे विनयचंद्रसूरिकृत नेमिनाथ चतुष्पदिका (१३ मी शताब्दीना अंत)मां मळती कहेवत 'चणय जिम न मिरिय खजति' चणानी जेम मरी न खवाय', आम्रदेवसूरिकृत 'आख्यानक-मणि-कोश'मां पण मळे छ : चाविज्जंति न मिरिया जह चणया । (पृ. १९५, गाथा ५२) 'चणानी जेम मरी न चवाय' । विधवाने रातो साडलो पहेरवानी रूढि माळवामां ई.स. १०२० मां वीरकविए अपभ्रंश काव्य 'जंबूसामिचरिउ'नी रचना करी हती । तेमां आवता एक युद्धवर्णनमा एक वीर सुभटे शत्रुसेनानो घाण काढ्यो तेमां एक विगत आ प्रमाणे छे. 'रत्त-पोत्त-धर-राम-रंडियं । काव्यना संपादक विमलप्रकाश जैने आ शब्दोनो 'सौभाग्य-सूचक रक्तवस्त्रोंको धारण करनेवाली शत्रुनारियोंको विधवा बना दिया है।' एवो जे अर्थ कर्यो ते भ्रान्त छ । काव्य परनी संस्कृत टीकामां 'रक्तानि पोतानि वस्त्राणि धरन्ति या ता रामाश्चैता रंडिता यत्र' ए प्रमाणे जे समजण आपी छे, तेनुं तात्पर्य 'स्त्रीओने रातां वस्त्र पहेरती विधवा करी दीधी' एवं छे । गुजरातमां विधवाओ परंपराथी रातो साडलो पहेरे छे. 'राते साडले रांड, लई गई पाशेर खांड' ए कहेवतमां पण हकीकतनो निर्देश छे. आ रिवाज अगियारमी शताब्दीथी माळवामां पण होवानी महत्त्वनी माहिती आथी आपणने मणे छे. 'पृथ्वीराज-रासौ' नी मूळ भाषा सद्गत मुनि जिनविजयजी 'पृथ्वीराज-रासौ' ना थोडाक छप्पानुं प्राचीन Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [121] कृतिओमां मळतुं जे मूळ अपभ्रंश स्वरूप प्रस्तुत कर्यु अने ए रचनानी मूळ भाषा (तेना पाठनी अने प्रमाणनी जेम) उत्तरोत्तर घणी बदलाती गई होवानुं स्थापित कर्यु ते माटे तेमने अनन्य यश घटे छे । ए भाषा मूळे राजस्थानी के हिन्दी न होवाना समर्थनमां हुं अहीं तेमांथी त्रणचार प्रयोगो तरफ ध्यान खेंचु छ : १. मुनिजीए नोंधेला एक उद्धरणमां 'खणइ खुद्दइ' एवो प्रयोग मळे छे. आ गुजराती 'खण-खोद' शब्दनी याद आपशे. राजस्थानी-हिंदीमां एवो कोई प्रयोग नथी. २. 'संभरिसि' मरिसि' एवो 'इसि' प्रत्ययवाळो भविष्यकाळ गुजरातीमां श्- प्रत्ययवाळा भविष्यकाळ तरीके जळवायो छे. राजस्थानी हिंदीना भविष्यकाळy अंग साधतो प्रत्यय जुदो छे. ३. 'भंगाणउं' 'सच्चउं' एवां नपुंसक लिंगनां रूप अपभ्रंश अने गुजरातीनी लाक्षणिकता छे. राजस्थानी अने हिन्दीमां नपुंसक लिंग नथी. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी' ए पुस्तकनो परिचय के. आर. चन्द्र प्रस्तुत ग्रंथमां १५ अध्याय छे जेमां प्राकृत भाषामां थतां ध्वनि परिवर्तन अने तेना व्याकरणना नियमो विषे विशिष्ट चर्चा करवामां आवी छे. प्राकृत भाषाना व्याकरणकारो शुं शुं नियमो आपे छे अने उपलब्ध प्राकृत साहित्यनी भाषा उपर ते क्यां सुधी लागु पडे छे तथा शिलालेखोनी प्राकृत भाषाने ध्यानमां लईने व्याकरणना नियमोनुं विश्लेषण करवामां आव्युं छे जे आ प्रमाणे छे : १. प्राकृत भाषानी उत्पत्ति विषे भरतमुनिनो शो अभिप्राय छे अने संस्कृत भाषा साथै प्राकृत केवी जातनो संबंध धरावे छे. उपसंहार रूपे एम कहेवामां कंई दोष जणातो नथी के प्राकृत भाषानी मात्र समजूती माटे संस्कृत भाषानो आधार लेवामां आव्यो छे, न के संस्कृतमांथी प्राकृतनी उत्पत्ति थई छे. २. मध्यवर्ती 'त'कारनुं 'द'मां परिवर्तन मात्र शौरसेनी अने मागधीमां ज थाय छे के महाराष्ट्री प्राकृतमां अथवा तो सामान्य प्राकृतमां पण वररुचिना प्राकृत व्याकरण प्रमाणे क्यारेक क्यारेक 'त'ना बदलामां 'द'ना प्रयोगो मळता हता. ३. मध्यवर्ती 'प' नुं प्रायः 'व'मां परिवर्तन थाय छे एवो जे नियम आपवामां आव्यो छे ते प्राचीन प्राकृत भाषामां केटले अंशे लागु पडे छे. ४. मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनोनो प्रायः लोपनो नियम अर्धमागधी भाषा अथवा प्राचीन प्राकृत भाषाओ उपर लागु पडतो नथी. ५. उद्वृत्त स्वरना स्थाने 'य' श्रुतिनो प्रयोग मात्र जैन प्राकृत साहित्यनी विशेषता गणवामां आवी छे पण शिलालेखोमां पण आवी ज प्रवृत्ति जोवा मळे छे. ६. अनुनासिक व्यंजन ङ्, अने ञ् (कंठ्य अने तालव्य) ना पोताना ज वर्गना व्यंजनो साथै संयुक्त रूपे प्रयोगो आम एक प्राचीन पद्धति छे अने अर्द्धमागधी भाषामां तेमना स्थळे अनुस्वारनो प्रयोग परवर्ती काळमां थवा पाम्यो छे एम जणाय छे. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [123] ७. आद्य दंत्य 'न'कारनो प्रयोग प्राचीन प्राकृत भाषाओमां थतो हतो ज्यारे तेमना स्थाने मूर्धन्य 'ण'कारनो प्रयोग सर्वथा परवर्ती काळनी विशेषता रही ८. ए ज रीते मध्यवर्ती 'न'कार(दन्त्य)ना प्रयोगनी परंपरा पण प्राचीन छे पण परवर्ती काळना व्याकरणकारोना नियमोने लीधे प्राचीन प्राकृतोमां पण तेना स्थाने मूर्धन्य 'ण'कारना प्रयोगो धीरे धीरे प्रचलित थवा पाम्या छे. आ प्रकारना प्रयोगोमां वररुचिना प्राकृत व्याकरणनो वधारे पडतो प्रभाव छे, ए एक निर्विवाद हकीकत छे. ९, १०. एनी ज रीते 'ज्ञ', न्य, अने न'नुं दंत्य 'न'मां परिवर्तन प्राचीन गणाय छे ज्यारे एमना स्थाने मूर्धन्य 'णण' ना प्रयोगो परवर्ती काळनी प्रवृत्ति छे. साथे साथे संयुक्त व्यंजन ‘ण्य' अने 'ण'(ण्य-र्ण) पण दन्त्य 'न'मां बदलाइ जाय छे एवं पूर्व भारतनी प्राचीन शिलालेखोनी भाषामां जोवा मळे छे. एटले अर्धमागधीमां तो सामान्यरूपे 'न'ना स्थाने 'पण'ना प्रयोगो एना मूळ स्वरूपथी विरुद्ध थई जाय छे. ११. सप्तमी एकवचन माटे '-स्सि अने पछी-म्हि' आ बन्ने प्राचीन विभक्ति प्रत्ययो छे. परवर्ती काळमां एमना स्थाने 'म्मि'- प्रचलन थवा पाम्यं छे. जे महाराष्ट्री प्राकृतनो प्रत्यय छे, न के अर्धगधी प्रकृतनो. १२. (अ) प्रथमा द्वितीया बहुवचननो '-णि' (ब) तृतीया एकवचननो '-एण' (स) तृतीया बहुवचननो '-हि' (द) षष्ठी बहुवचननो '-णं' अने (क) सप्तमी बहुवचनो '-सु' आ बधा प्रत्ययो प्राचीन प्राकृत भाषाओना प्राचीन प्रत्ययो छे ज्यारे ज्यारे एमनी जग्याए क्रमशः (अ)-ई-इ, (ब)-एणं, (स)-हिं, हिँ, (द)-ण, अने(क) -सुं प्रत्ययो परवर्तीकाळमां विकसित थयां छे अने तेओ वधारे पडता परवर्ती प्राकृतोमां वपरायेला जोवा मळे छे. अर्धमागधी जेवी प्राचीन प्राकृत भाषा पण परवर्तीकाळमां तेमना प्रभावथी बची शकी नहीं ए एक हकीकत छे. एटले एम कहेवू जोईए के परवर्तीकाळना प्रत्ययो पण मूळ अर्धमागधीमां घूसी गया छे. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [124] १३. मध्यवर्ती व्यंजन एटले के वेदो अने पालिमां वपरातो 'ण' (गजराती 'ळ', मराठी-राजस्थानी 'ळ') प्राचीन प्राकृतमां पण वपरातो हतो पण परवर्ती काळमां. अनी जग्याए ‘ल अने ड' आवी गया अने परवर्ती काळमां अर्धमागधीमांथी पण 'ळ' नो लोप थई गयो एम कहेवू अनुपयुक्त नथी जणातुं. १४. अर्धमागधी साहित्यमा प्राचीन अने उत्तरवर्ती काळमां प्रचलित थयेला एम बन्ने प्रकारना प्रत्ययो एक साथे ज प्रयुक्त थयेला जोवा मळे छे. आ बधुं प्रमादना लीधे थयुं हशे अथवा तो पछीना काळने अनुरूप भाषाने समजवामां सरलता लाववा खातर पण आq बन्युं हशे एम पण कही शकाय. कारण के जैन अथवा तो श्रमण परंपरामां अर्थ उपर वधारे भार मूकवामां आव्यो छे, न के वैदिक परंपरा प्रमाणे भाषा उपर विशिष्ट भार मूकवामां आव्यो हतो. १५. जेसलमेरनी एक ताडपत्रनी हस्तप्रतमां मळता पाठोना आधारे 'विशेषावश्यक-भाष्य'ना नवीन संस्करण(संपा. पं. दलसुखभाई मालवणिया, ला. द. भा. सं. विद्यामंदिर, अमदावाद, १९६६)मां ध्वनि-परिवर्तननी दृष्टिए घणा खरा शब्द-पाठो बदलाई (एना करतां आ ग्रंथना जूना संस्करणोनी दृष्टिए) गया छे. एवी ज रीते अर्धमागधी आगम जेवा प्राचीन ग्रंथोनी प्राचीन भाषामां पण हस्तप्रतोमा उपलब्ध थतां प्राचीन शब्द-रूपोने प्राथमिकता आपवी जोईए अने ए दृष्टिए अर्धमागधी आगम ग्रंथोनुं पुन: सम्पादन थर्बु जोईए एवं एक निवेदन प्रस्तुत करवामां आव्युं छे. छेल्ले, प्राचीन लेखन पद्धति अने पछीनी लेखन पद्धतिमां थयेला फेरफारने लीधे अक्षरोमां कोईक वार थयेला भ्रमने लीधे 'न'कार 'ण'कार रूपे वंचावा मांड्यो होय एम पण जणाय छे तेथी मूळ 'न'कार 'ण'कारमा बदलाई जवानी पण संभावना ओछी नथी. आ बधां अध्ययन अने विश्लेषणनो सार एटलो ज के अर्धमागधी जेवी प्राचीन अने पूर्व भारतनी भाषामां परवर्तीकाळनी प्राकृतो अने वैयाकरणोना नियमोने लीधे जे जे फेरफारो थवा पाम्या छे ते ते स्थळे प्रामाणिक आधारो प्रमाणे प्राचीन शब्द-रूपो परिस्थापित थवा जोईए ए ज अंतिम फलश्रुति छे.* ★ पुस्तकना प्रकाशक : प्राकृत जैन विद्याविकास फंड, अमदावाद. १९९५. पृ. १३०. किं. रू. ५० Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनस्तुतिः ॥ सं. मुनि जगच्चन्द्रविजयगणि ॥ श्री जिनेभ्यो नमः ॥ कु ख गों' घ ङ च छोहे जा। झो बट' ठो' ड ढाण ते ।(तैः) थ्यु द धि' नि प फो' बा भू' । माँ या र लो'' व' शं ष स ॥१॥ इति जिनस्तुति ।। अस्य श्लोकस्य व्याख्या हे अज त्वं मामवरक्ष इत्यर्थः । अज इति किं ? जायते इति जः न जः अजः । न विद्यते ज-जन्म यस्य स वीतरागस्तस्य संबोधनं हे अजः । त्वं कथंभूतः कु पृथ्वी तस्यां खगः सूर्यः इति कुखगः । पुनः कथंभूतस्त्वं अघं पापं तस्य ङविषय तस्य च समूहःतस्य छ छेदकः इत्यर्थः इति अघङचछः । पुनः कथंभूतस्त्वं ? न विद्यते झो बंधनमस्य असौ अझः । बंधनं किं ? कर्मणाम्। पुनः अ इति निषिद्धे अ विषय एव ट वातो यस्यासौ अञट तस्य संबोधने हे अबटः । पुन कथंभूतस्त्वं अणमज्ञानता क्रोधो तैः ठ शून्यो रहित इत्यर्थः । पुन कथंभूतस्त्वं - ड चन्द्रमंडलः तद्वत् ढो विख्यातः । पुन कथंभूतस्त्वं - थयो: लक्षणानि समुद्रिकादयः तेषामुदधिः इति थ्युदधिः। पुन कथंभूतस्त्वं - नि भद्रं तदेव पं प्रौढं फं फलं यस्यासौ निपफः । पुन कथंभूतः-ब क्लेशः तस्य न विद्यते भू उत्पत्ति र्यस्यासौ बाभूः । पुन कथंभूतः-या पृथ्वी तस्या रान् भयान् लः लुनाति इति यारलः । हे अबट:(ट!)-पुनस्त्वं कथंभूतः शं सुखं तदेव षा श्रेष्ठा सा लक्ष्मीर्यस्यासौ शंषसः इदृशस्त्वं इति शब्दार्थः । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [126] अर्थ हे अजन्मा ! वीतराग ! तुं मारी रक्षा कर... हे प्रभु ! आ पृथ्वी उपर तुं सूर्यसम छे. पापनां विषयसमूहोने छेदनार ! कर्मबंधनथी मुक्त ! हे विषय(वासना)रूप वायुने रोकनारा प्रभु !!! तुं अज्ञानता कषाय आदिथी रहित छे. चन्द्रनी जेम प्रख्यात सामुद्दिक आदि लक्षणोनो समुद्र = सारा उत्तम लक्षणवाळो कल्याणरूप प्रौढ - प्रतापी फलने मेळवनार संक्लेशथी रहित पृथ्वीनां महाभयोने दूर करनार (मोक्षरूप) श्रेष्ठ सुख लक्ष्मीने प्राप्त करनार हे प्रभु ! तने नमन... वंदन... हो... नोंध : एक पुराणा फुटकर ह.लि. पानां सचवायेली आ लघुरचना अज्ञातकर्तृक होवा छतां साहित्यिक रीते चमत्कृतिपूर्ण लागवाथी यथामति संपादित करी अत्रे प्रस्तुत करी छे. बाराखडीना अक्षरो पासेथी केवं मजा- अर्थघटन हांसल करी शकाय छे तेनो तथा कर्तानी प्रतिभानो आमां आपणने परिचय थाय छे. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विश्वभारतीनी आगम-ग्रंथमालानां चार अद्यतन प्रकाशन ( १ ) गत चाळीश वर्षथी जैन विश्व भारती संस्थान -लाडनूं द्वारा, एक रीते कहीए तो, जे जैन आगम - साहित्य-प्रकाशननो महायज्ञ चाली रह्यो छे, अने जेने परिणामे आज सुधीमां बत्रीश आगमोनो मूळ पाठ, तेमनी शब्दसूचि तथा अनेक आगमोनो हिन्दी अनुवाद प्रकाशित थई चूक्यो छे, तेना अन्वये १९९६मां प्रकाशित चार ग्रन्थ अमने प्राप्त थया छे : (१) अणुओ गदाराई (संपादक : विवेचक - आचार्य महाप्रज्ञ) (२) व्यवहार/भाष्य (संपादिका समणी कुसुमप्रज्ञा), (३) श्रीभिक्षु आगम विषय कोश (संपादिका : साध्वी विमलप्रज्ञा, साध्वी सिद्धप्रज्ञा), (४) जैन आगमः वनस्पति कोश (संपादक : मुनि श्रीचन्द्र 'कमल' ) 'अणुओगदाराई' मां संशोधित पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, प्रकरणवार आमुख तथा विस्तृत टिप्पणी अने सात परिशिष्ट (जेमांथी एक देशी शब्दोने लगतुं छे) एटली सामग्री आपेली छे. www. 'व्यवहार भाष्य' मां मूळ पाठ, ग्रंथनुं अनुशीलन अने २३ परिशिष्ट (एक देशी शब्दोनुं) आपेल छे. 'श्रीभिक्षु आगम विषय कोश' मां (१) 'आवश्यक' (२) 'दशवैकालिक' (३) 'उत्तराध्ययन' (४) नन्दी अने 'अनुयोगद्वार' तथा तेमना व्याख्याग्रंथोने आधारे १७५ विषयोनो संग्रह कर्यो छे. 'जैन आगम : वनस्पति कोश' मां मूळ प्राकृत संज्ञा, मळतो होय त्यां तेनो संस्कृत पर्याय, हिन्दी संज्ञा, निघंटुओमांथी आधारभूत सामग्री, वनस्पतिनुं विवरण, पर्यायो अने चित्रो एटलं आप्युं छे. अनेक परिशिष्टोने लीधे जैन आगम-गत सांस्कृतिक, भाषाकीय वगेरे सामग्रीना अखूट खजाना समा संदर्भग्रंथ तरीके पण आ प्रकाशनो अत्यंत उपयोगी नीवडशे । संपादकोने अथाग विद्या- पुरुषार्थ माटे धन्यावाद । गणाधिपति श्री तुलसीजीने मूळ प्रेरणा तथा समग्र आयोजन अने तेमना सहायकगणने कार्यसिद्धि माटे धन्यवाद । T अंते में 'व्यवहारभाष्यमां' आपेल देशी शब्दोनी सूचिमांथी जे थोडुंक आचमन कर्तुं तेनो संकेत नीचे आ छु । - Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [128] (२) केटलाक देश्य शब्दो पर टिप्पण व्यवहार भाष्यनी देशीशब्द-सूचि (पृ.११३-१२३) अणंतग-णंतग 'वस्त्र' : गा.२८५०मां उक्कोसाणंतगा छे. त्यां अणंतग एवं शब्दरूप अने 'वस्त्र' अर्थ हशे ? होय तोये शब्दरूप णंतग एवं ज होय । गा. ३२७७मां मूळमां पाठ णंतग छे. पण टीकामांथी सूचिमां णंतिग एवं शब्दरूप आप्यु छे. पासम.मां णंतग, “देशी शब्दकोश'मां णंत, णंतक, णंतग 'वस्त्र'ना अर्थमां तथा णंतिक्क 'वणकर', 'छीपो' एवा अर्थमां नोध्यां छे । मोनिअर विलिअम्झना संस्कृत कोशमां लक्तक 'चीथरेहाल वस्त्र' (सुश्रुत) अने नक्तक (ए ज अर्थमां) नोंध्या छे । टर्नरना कोशमां क्रमांक १०९३० नी नीचे लत्त एना आनुमानिक मूळ शब्द परथी लक्तक एवं संस्कृतरूप घडी कढायुं होवानुं मान्युं छे। गुजराती 'कपडुलत्तुं' 'कपडां-लत्तां' एमां ते ज शब्द जळवायो छ । उत्तुण, उत्तुयय, उत्तूइय : देना. (१.९९) में उत्तुण 'दृप्त' अर्थ में दिया गया है। इस से बना हुआ नामधातुका व्यभा. २३९० में प्रयोग हुआ है। सही पाठ उत्तुइय होना चाहिए। उत्तूइय शब्दरूप भ्रष्ट है, इससे छंदोभंग होता है। गा. ३०१० में शायद 'गर्व से उत्तेजित' एसा अर्थ हो । देशको० में भी उत्तुइय ऐसे शुद्धि करनी होगी। उप्पेउं : टीका में दिये गये अर्थ ('उप्पेउं देशीपदमेतद् अभ्यङ्ग्य') के आधार पर मूल पाठ तुप्पेउं हो एसी प्रबल संभावना है। उप्प-/ओप्प-नो 'शाण वगेरे पर घसी उज्ज्व ळ करतुं' एवो अर्थ छ । जुओ ओप्प, ओप्पिअ, ओप्प (तथा गुजरातीमां ओप; टर्नरना कोशमां ओप्प'Polish' क्रमांक २५५६) तुप्प ‘घी-तेल वगेरेथी लिप्त' 'घी' (तुप्पइअ ‘घी से लिप्त' उत्तुप्पिअ 'स्निग्ध, चीकगुं') एना उपरथी बनेल नामधातुनुं आ संबंधक भूतकृदंत छ । पाठ में तुप्पेउं दिया गया है यह ठीक है। सूचि में तुप्पेउं भी देना चाहिए था । उल्लण/ओल्लण : इसकी चर्चा के लिए देखिये इसी अंक मे ... । गोलिय : कोलिय ऐसा पाठ होना चाहिए । देखिये कोलिअ 'तंतुवाय', देना० १, ६५. चप्पुटिका : मूळ अर्थ 'चपटी' देना. ८,४३-देश्य सेवाडओनो अर्थवाचक । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [1291 पछीथी 'जादू-टोना'ना एक प्रकार तरीके (कोईनी उपर भभूतनी चपटी नाखी के चपटी वगाडी तेना पर कामण- ट्रमण करवू) ए ते लाक्षणिक अर्थमां वपरावा लाग्यो होय । देशको.मां चप्पुट्टिका ने बदले चप्पुटिका एवो सुधारो करवो। खडियाचुप्पडियामां पण चुप्पडिया भ्रष्ट पाठ छे । त्यां खडिया छे, तो व्यवहारभाष्यनी टीकामां खिटिका छे, जेनुं प्राकृत स्वरूप खिडिया थाय । कयुं शब्दरूप साचुं छे तेनो निर्णय करवो जरूरी छ। __पहेणग : एनो सर्वसामान्य अर्थ उत्सव निमित्ते खाद्य पदार्थनी लहाणी करवी एवो छ । देना० ६, ७३मां तेना पर्याय तरीके लाहण आप्यो छे। 'संन्यासीने अपातुं भोजन' ए संदर्भने आधारे करेलो अर्थ छ । पद्दिया : भ्रष्ट शब्दरूप छे । पड्डिया ज खरं छे । मूळे द्राविडी शब्द प्राकृतमा प्रचलित थयेलो छ । हिन्दी पाडी, गुज. पाडी वगेरे । जुओ टर्नरनो कोश, पाड्ड, क्रमांक ८०४२ भ्रष्ट रूप छे । पाणद्धि जोइए Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [130] रोयल एसिटिक सोसायटी (लंडन) मांना टोड-हस्तप्रतसंग्रह - गत केटलीक नोंधपात्र हस्तप्रत एनाल्स एन्ड एन्टिक्वि टिझ ओव राजस्थान' ना प्रख्यात लेखक कर्नल जेम्स टोडे ई.स. १७९९थी ई. स. १८२३ सुधीना तेमना भारतमां कार्यकाळ दरमियान जे संख्याबंध संस्कृत, प्राकृत, हिंदी अने राजस्थानी हस्तप्रतो प्राप्त करी हती ते तेमणे लंडननी रोयल एसिटिक सोसायटीने भेट आपी दीधी हती. पछीथी तेमां बीजा केटला भेट आपेली थोडीक हस्तप्रतोनो उमेरो थयो हतो । ए संग्रहनुं जे सूचिपत्र एल. डी. बार्नेट 'जर्नल ओव ध रोयल एसिआटिक सोसायटी' ना १९४० अंकमां प्रकाशित करी हती ते लंडननी 'स्कूल व ओरिएण्टल एण्ड एक्रिकन स्टडीझ' ना अध्यापक जे. सी. राइटना सौजन्यथी मने हमणां मळ्युं । तेमांथी थोडीक हस्तप्रतोनो निर्देश नीचे करूं छु, जेथी करीने संशोधकोने ए माहिती उपयोगी नीवडे । सोसायटी ए हस्तप्रतो कम्प्युटर द्वारा जेमने जोइये मने सुलभ करी आपवानो प्रबन्ध करी रही छे । क्रमांक ५ क्रमांक १० : : अश्वमेध-पर्व (जेमिनि-भारतनो एक भाग) | क्रमांक १३ : क्रमांक १८ : क्रमांक २० : क्रमांक २८ : क्रमांक ३१ : क्रमांक ३३ : उपदेशमाला / उवएसमाला ( धर्मदासकृत) जयशेखरकृत अवचूरिसहित । उपदेश - रसाल : रत्नमन्दिरकृत 'उपदेश - तरंगिणी' मांथी उद्धृत । वासुपूज्य - चरित (वर्धमानसूरिकृत ) ( अधूरी प्रत ) निरयावलि - सूय : सोलमी शताब्दीमां लिखित । प्रज्ञापना- टीका : मलयगिरिकृत । वि. सं. १६९३मां लिखित । कुमारपाल रास : ऋषभदासकृत । वि. सं. १७४६मां लिखित | वृद्ध-शत्रुंजय महात्म्य : धनेश्वरकृत, गुजराती टबा साथे । ७९८ पत्र । लावण्यशील - शिष्य सुंदरशीलनी हस्तप्रत । - क्रमांक ४७ : हरिवंश (प्राकृत) : नेमिनाथ - चरित्र सुधी । १५९ पत्र । हस्तप्रत अधूरी । अनुमाने सत्तरमी शताब्दीमां लिखित । क्रमांक ४८ : कथामहोदधि : सोमचंद्रकृत | Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [131] क्रमांक ४९ : भडली-वायक । ३२० पद्य । वर्धमानसूरि संगृहीत । मुख्यत्वे राजस्थानना । क्रमांक ५० : सिंघासन - बत्रीसी - कथा - चोपाई : नेतसीकृत । रचनासंवत् १५७२ । लेखनसंवत् १८२४ । ५३ पत्र | क्रमांक ६१ : उत्तराध्ययन अवचूरि : ज्ञानसागर-सूरि- कृत । ३२ पत्र । अनुमाने सोलमी शताब्दीमां लिखित | क्रमांक ६५ : शान्तिनाथ देव-चरित : अजितप्रभकृत । छ प्रस्ताव । १३७ पत्र । क्रमाक १०७ : लेखनसंवत् १६६५ । बीजी प्रति अंतभागे अधूरी । १२१ पत्र । क्रमांक ६६ दशवैकालिक - चूर्णि । ११ पत्र । सत्तरमी के अढारमी शताब्दीमां लिखित | : क्रमांक ६८ : विक्रम- खापरा - चोर-चरित्र : राजशीलकृत । रचनासंवत् १७१९ । लेखनसंवत् १७२६ । क्रमांक ७२ : वच्छराज हंसराजनी चोपी : जिनोदयकृत | पत्र ३७ । क्रमांक ७४ : नायाधम्म कहा । वि. सं. १५९१ मां लिखित । १३४ पत्र । क्रमांक ८७ : अभिधानचिन्तमणि : हेमचंद्रकृत । वल्लभगणिकृत 'नाम्नां सारोद्धार' नामक टीका साथे (रचनासंवत् १६६७) । (पत्र १०७) । क्रमांक १०८: (पत्र ३४ - ६१) आवश्यक - अवचूर्णि : ज्ञानसागरकृत । पंदरमी शताब्दीमा लिखित | क्रमांक ११४ : उपदेशरसायन - रास / धर्म- रसायण / चर्चरी : जिनदत्तकृत । जिनपालकृत 'संक्षेप - विवरण' (रचनासंवत् १२९४) । ताडपत्रीय | ६७ पत्र । क्रमांक ११९ : विवेकमंजरी : आसदकृत । बालचंद्रकृत संस्कृत टीका (चोथा महियल सुधी) । ताडपत्रीय । २९४ पत्र । लेखनसंवत् १३३६ । क्रमांक १३४: ऋषभ चरित्र : दिणयरसागरकृत । त्रण काण्ड (वनिता, कैवल्य, उद्धार) । ९१ पत्र | ह. भा. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [132] दसमी विश्व संस्कृत परिषदमां जैन विभागमां रजू थयेल निबंधो बेंगलोरमां ता. ३-९ जान्युआरी १९९७ना दिवसोमां भरायेली दसमी विश्व संस्कृत परिषदमां रजू थयेला निबंधोनो सार प्रा. विजय पंड्याना सौजन्यथी मने जोवा मळ्यो. तेमां जैन अध्ययनोना विभागमा जे निबंधो रजू थया हता तेमना ढूंक परिचय अहीं आपुंछु। १. 'दशवैकालिक नियुक्ति'नुं संपादन (अरुणा आनंद, दिल्ही विश्वविद्यालय)। आठ हस्तप्रतोने आधारे लेखिकाए संपादनकार्य हाथ धर्यु छे. तेमांथी उद्भवता केटलाक प्रश्नोनी निबंधमां चर्चा करी छ। 'भगवती-अवचूरि'नो परिचय (बंसीधर भट्ट, भावनगर)। । १९७४मां पोथीरूपे प्रकाशित भगवती-अवचूरी' नु विषय-पृथक्करण अने अभयदेवसूरिनी वृत्ति साथे तेनो संबंध । भर्तृहरिनाशब्दार्थवादनुप्रभाचन्दे 'प्रमेयकमलमार्तंड' अने 'न्यायकुमुदचंद्र'मां करेलुं खंडन (दामोदर शास्त्री, राजीव गांधी केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, शृंगेरी)। जैन साहित्यनी सर्वस्पर्शी संदर्भसूचि तैयार करवानुं महत्त्व (रोयटा वायल्स, ओस्ट्रेलियन नेशनल विश्वविद्यालय, केनबेरा). २. भान Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. 3. 4. 5. A Note on उल्लण, कुसुण/ कुसण, उभेज्ज पेज्ज कंगु तक्कोल्लण- सूप - कंजि-कड्डियाई । एए उ अप्प - लेवा पच्छा-कम्मं तहिं भइयं ॥ ( पिंनि. ६२४). सीर दहि जाउ कट्टर तेल्ल घयं फाणियं स - पिंड - रसं । इच्छाई बहु-लेवं पच्छा - कम्मं तहिं नियमा || (पिंनि. ६२५ ). उल्लण v. m. of उल्लेइ; उल्लेइ - आर्द्रयति (Glossary to पिंनि-ओनि.) तीमण उल्लण : खाद्य वस्तु-विशेष; ओसामन (cooked pulse of slight consistency (पिंड. ६२४) (पासम.) उल्लण : ‘a kind of parridage', 'pulse-water' ('व्यवहार-भाष्य' ३८०५; जैन विश्वभारती संपादन) H. C. Bhayani ओल्लणी : मार्जिता; Curls mixed with sugar, cardamom, Cinemon etc. (देना. १, १५४) (पासम.) As PN. 624, 625 refer to various types of cooked food, ullana also means there what is understood by PSM. and VB. refer ences नवणीय मंथु तक्कं व जाव अभट्ठिया वा गेहंति । देसूणा जाव घयं कुसणं पि य जत्तियं कालं ॥ ( पिं. नि. २८२) कुसुण : कुसुणितमपि करम्भादि-रूपतया कृतम्(-टीका) कुसुण : कुशण- दध्यादि (पिंनि. ६०७ टीका) कुसण : तीमण ( देना. २, ३५ ). कुसण : तीमन, आर्द्र करना (देना. २, ३५) (पासम.) कुसण : गोरस (पिंनि. २८२) (पासम.) कुसणिय : गोरस से बना हुआ करम्बा आदि खाद्य । (पिंडनि. २८२ - टीका) (पासम.) तीमण: कढी, खाद्य-विशेष, झोर (देना. २, ३५) (पासम.) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [134] THU : 161, 31HIHUI (MINH GIẤidt): 947 : moistening, sance (CDIAL. 5949) Compare tiça : qnarecollas-114f (fo3-870, E74, 630) (PN-ON. Glossary) "Moistening is the primary meaning of ullana when some liqueous food-preparation etc. like pulse-water, curds, buttermilk is mixed with rice to moisten it also came to be included in the meaning range of ullaņa. Similarly the primary meaning of temana is moistening. When some liqueous food-preparation like curry, pulse-water, curds etc. was mixed with rice to moisten it, that also came within the meaning-range of timaņa. In Modern Gujarati kasaņvù means to commingle rice and same eiqueous latable like curds, cooked pulse etc. to form a thin Jump. That seems to have been the primary meaning of Pk. kusaņa, kusaņiya (n.) also. Later on it came to signify such a mixture. References : Pinda-and oha-nijjhuttis-Vol. II, Test and Glos sary W. B. Bollee. 1994. व्यवहार-भाष्यः समणी कुसुमप्रज्ञा. १९९६ पाइअसद्दमहण्णवो (पासम.) JP11441, 242161 (G.) Comparative Dictionary of Indo-Aryan Languages. (CDIAL) R. L. Turner Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवसान नोंध विश्वविख्यात पुरावस्तुविद अने इतिहासविद डॉ. र. ना. महेता- दिनांक २२-१-९७ रोज आकस्मिक दुःखद अवसान थयुं छे. तेओ ७५ वर्षना हता. महेता इतिहास, पुरावस्तुविद्या अने भारतीय संस्कृतिना प्रखर अभ्यासी हता. एमनो जन्म १५ डीसे. १९२२मां कतारगाममां, मूळवतन मरोली. प्राथमिक शिक्षण वडोदरा अने मरोली. माध्यमिक शिक्षण नवसारीमां. स्नातक अने अनुस्नातक शिक्षण म. स. युनि. वडोदरामां, पीएच.डी.नी डीग्री ई. स. १९२७मां अने ई. स. १९५४मां इन म्युझियोलोजी पण म. स. युनि. वडोदरामांथी. दुःखद निधन श्री रमेश मालवणियानुं ताजेतरमा (ता. २१-१२-९६) दुःखद निधन थयुं. भारतीय दर्शनोना जगविख्यात पंडित श्रीदलसुख मालवणियाना ते पुत्र हता. स्वयं अच्छा फोटोग्राफर होवा उपरांत चित्र तथा शिल्पकलाना ऊंडा - मर्मज्ञ अभ्यासी पण हता, अने जैन धर्मग्रंथोना पदार्थो तथा ते साथे संकळायेल चित्रो विषे तेमणे घणो रसप्रद अभ्यास करीने ते विषे घणा अभ्यासलेखो तेमणे लख्या छे, जे अप्रगट होई प्रगट थवा जोईए. तेमणे साराभाई (केलिको) म्युझियम-अमदावादमां पोतानी सेवा घणां वर्षो सुधी आपी हती. तेमना निधनथी जैन कलाना एक अभ्यासीनी खोट पडी Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________