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________________ [54] नरवाहण-निव गुण-गाह-गेह ॥ ४९६ लेख-गाथा सत्थि सिरि सिरि-निवासे, सिरिवास-पुरम्मि पुज्ज-पिय-पाए । नरवाहण-नरराए, सुपुत्त-पोत्तार-परियरिए ।। ४९७ गय-कंप-चंप-नयरह सामी, नामि त्थु सीस मणुगामी (?) । मउलिय-कर-कमल-जुओ, जियसत्तू विण्णवइ एवं ॥ ४९८ सामिय तुम्हाण सुओ, ललियंगो नाम विस्सुओ लोए । कय-पाणिग्गह-रू वो, भूवो चंपद्धरज्जस्स ।। ४९९ इअ सहसावयणेणं तेणं भेग(भिग्गो?) नव-जलय-सित्तो । उज्जीविय-व्व संपइ जंपइ नरवाहणो एवं ॥ ५०० तेण सम(मं) महं निच्चं, सुभिच्च-भावं करेमि जह तुम्हं । कायव्वं तह नरवइ, जइअव्वं सुहिय-हिय-करणे ॥ ५०१ अह होइह भुवणयले, जियसत्तु, समो न कोवि मम बंधू । जेणेसो ललिअंगो, संठविओ निय-समीवम्मि ॥ ५०२ जीविय-सव्वस्समिणं विस्स-जणस्सेव अम्ह कुल-कलसो । कुमरो दिसंत-भमिरोह संठवियो नियट्ठाणे ॥ ५०२ यथा वेला-महल्ल-कल्लोल-पिल्लियं जइ-वि गिरि-नई-पत्तं । अणुसरइ मग्ग-लग्गं, पुणो-वि रयणायरे रयणं ॥ ५०३ चालि सलहित्तु इम नरराय, तसु दिद्ध बहुअ पसाय । बहुभत्तिभोयण-वार, धणकणयकप्पडफार ।। ५०४ बहु-दाण-माणिहिँ पोसि, चल्लविय गुरुसंतोसि । तसु सत्थि पेसिय मंति, ललियंग-तेडण-मंति ।। ५०६ घणसुघट सोवन घाट, वर-रयण-पूरिय-थाट । बहु-मुल्ल हीर-सुचीर, मिय-नाभि-कल-कसमीर ।। ५०७ जियशत्रु-नरवर-रेसि, सिरिवास-नयर-नरेसि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520508
Book TitleAnusandhan 1997 00 SrNo 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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