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________________ [53] जितु कहइ सुयणसुजि हरिउ देवि अह पेसि नयरि सिरिवास के-वि ॥ ४८९ होस्यई जि राय तिहं कोइ दक्ख नरवाहण-नामइँ लद्ध-लक्ख । कमला कमला-गुणि तासु भज्ज जिणि मन्नइ भूवइ सहल रज्ज ॥ ४९० ललिअंग कुमर तस पत्त होइ जिय सत्तु-पुत्ति-वर वीर सोइ ॥ इम सुणिय सवण सुह वयण मंति मणि हरसिय विहसिय-वयण जंति ॥ ४९१ विण्णविउ विणय-सुं नरवरिंद जियसत्तु सत्त चिरकाल नंद । परि किज्जइ कुमरि सु कहिय जेव पुट्ठवउ पुरिसवर नयरि तेउ ॥ ४९२ तव सासिय भासिय बहु अ-भाण चल्लविय चतुर नर कि-वि सुजाण । अविलंब पयाणि सुपत्त तीणि नर वाहण-नरवर-नयर जीणि || ४९३ तिणि अवसरि पुत्तवियोग-दद्ध नरवाहण सुअ-संगम-विसुद्ध । सह दार-सार-परिवार-जुत्त नितु रहइ रयणि दिणि सोग-तत्त ॥ ४९४ पत्ता पुर-भिंतरि तव दुआरि पडिहारि पएसिय किय-जुहारि । विण्णविय वसुह-धव कुमर-तत्त इम सुणिय तत्थ अवरोह पत्त ।। ४९५ उक्कंठिय जिम नव-मेहि मोर कं धुर-बंधुर सयल पोर । वाचंति विउलमइ राय-लेह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520508
Book TitleAnusandhan 1997 00 SrNo 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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