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________________ [27] मइँ दिट्ठी जण मुहि सुणिय जेअ । इम सुणिय ते वि निष्कंद - नयण हुअ सुइँ सव्वतसु पक्खि-वयण ॥२७६ अह अच्छइ अमरावइ- समाण दिसि पुव्वि अपुव्व सु-नयरि-ठाण । गय-कंप - चंपनयरि हिँ पसिद्ध बारसम सु-जिणवर जिहँ सु - सिद्ध ॥२७७ तिहँ धम्म-नाइ - निउणेगरज्ज साहसिय सूरसुंदर सकज्जु । विहि-दिद्ध सिद्ध सच्चत्थ- नामि रेहइ नि - राय जियसत्तु - नामि ॥२७८ गुणधारणि धारणि नाम तास बहुरूव - कल त्तु - कला - निवास । तसु पुत्तिय पुप्फावर सु-नाम पिय- माय सु- परियर पेम-धाम ॥ २७९ रूपिहिँ करि जाणि कि रंभ एह नव-वेस कलागम-गुण- सुगेह | बहु-भरह - भाव- संगीय-सारि सारय किं मनावी तीणि हारि ॥ २८० इक जीहि सु-कवियण तासु रूव aras विबुह बहु- सम-सरूव । तं तह - वि तासु सिंगार वेस वणवि सुविसेसि हि गुण असे ॥ २८१ अडिल्ल जसु कम - कसल विमल-कमलुप्पम उरु ऊरत्थल रंभ- थंभ - सम । तणुतरु- साह बाहु किमि दिप्पइ मिउ मिणाल मच्छर - भरि जिप्पइ ॥ २८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520508
Book TitleAnusandhan 1997 00 SrNo 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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