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निय बुद्धि-बहुअ-विनाणि, गुरु धम्म फल बहु जाणि ।। ५७१ इहु पुण्यचरिय प्रबंध, ललिअंग-नृप संबंध । पह-पास-चरियह चित्त, उद्धरिय एह चरित्त ॥ ५७२ दसपुरह नयर मझारि, श्री संघ-तणइ आधारि । श्री शांतिसूरि सुपसाइं, दुहदुरिय दूरि पला' ।। ५७३ जं किम वि अलिय असार, गुरु लहुअ वर्णविचार । कवि कविउं ईस्यर सूरि, तं खमउ बहु-गुण सूरि ॥ ५७४ ससि-रस-सुविक्कम-काल, ए चरिय रचिउँ रसाल । जाँ धूअ रवि ससि मेर, ताँ जयउ गच्छ संडेर ।। ५७५ वाचंत वीर-चरित्त, वित्थरउ जगि जय-कित्ति । तसु मणुअभव धन धन्न, श्रीपासनाह प्रसन्न ।। ५७६
॥ इति श्रीललितांगनरेश्वरचरित्रं समाप्तं । तस्मिन् समाप्ते समाप्तोऽयं रासक-चूडामणि-पुण्यप्रबन्धः ॥ तथाऽत्र रासके श्रीललितांगचरित्रे प्रथम-गाथा, (१) दूहा, (२) साटक, (३) षट्पद, (४) कुंडलिया, (५) रसाउला, (६) वस्तु, (७) इंद्रवज्रोपेन्द्रवज्रा काव्य, (८) अडिल्ल, (९) मडिल्ल, (१०) काव्याद्धबोली, (११) अडिल्लार्ध बोली,, (१२) सूडबोली, (१३) वर्णनबोली, (१४) यमकबोली, (१५) छोटडा दूहा, (१६) सोरठी ।
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