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________________ [6] जाणइ न तुं सिउँ पुत्त, निव-धम्म-मम्मह सुत्त ॥४६ अइमलिन भणीइ रज्ज, सहु करइ निय निय कज्ज । जिहँ गिणइँ पुण्ण न पप्प, मन्नइ ति अप्पइ अप्प ॥४७ धणि धन्नह चिंतइ दुचित्त, पर भमइँ पुहविइ दुचित्त । हिंडइ ति हिसिमिसि हेलि, पिय-मायगुरु अवहेलि ॥४८ हठि हणइँ हसि निय बप्प, कोणीसु जेम सबप्प । जि बप्प होइ कुबप्प, जाणि ति करंडह सप्प ॥४९ बहु-विसय-पर धणिहिँ अंध, पिय-माय-भाय गिणइ न अंध । जुगबाहु मणिरह जेम, सिद्धति सुणिआ तेम ॥५० पिय-माय गिणइ न पुत्त, जिम चुलणि चुलणीपुत्र । नवि भज्ज सूरियकंत, जिम हणिउ निय पिय-कंत ॥५१ सहु-सयण-परियण-गुत्त, चाणक्क जिम ससिगुत्त । इम रज्ज-कज्जहिँ लुद्ध, कुण कुण भयउ न-वि मुद्ध ॥५२ गय-कन्न-चंचल-लच्छि, स-विसेस रज्जु कुलच्छि । नरकंत-रज्ज-पसिद्धि, सुणि सत्थि एह पसिद्धि ॥५३ तउ वच्छ एह अवत्थ, जाणइ न एम विवत्थ । जं रहइ रयणिहि दीस, निश्चिंत जिम जगदीस ॥५४ चालइ न चतुरिम चाइ, ते तुरिय पडई अपाइ । इम विसम रज्जह धम्म, चाहीइ पंडिय मम्म ॥५५ बहु फलिय फलिय सुखित्त, रक्खीइ जिम निव खित्त । सींचीइं जिम आराम, नवि हुइं तेम हराम ॥५६।। रसाउलउ कोस-मूलहँ कलिय, पुहवि-पइ खंध-लिय, सुअ-सुसाखिहि मिलिय, सुयण-वित्थर-वलिय, रयण-वसु-कुंपलिय, जस-कुसुम सुं भिलिय । नर-भसल-भिंभलिय, भोग-फल-सउं फलिय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520508
Book TitleAnusandhan 1997 00 SrNo 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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