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________________ [58] जव रोसि रक्खिय बार, अम्हि तुम्हि किउ अविचार । तव किद्ध किम अम्ह-रेसि, निय चित्त कठिण विदेसि ॥ ५३४ म म करिसि मनि बहु भंति, अम्ह अछइ एहजि खंति । तुम्ह देह इहु सहु रज्ज, हऊँ करिसि पर-भवि कञ्ज ।। ५३५ इम सुणिय नरवइ-वयण, ललिअंगह सअंसुयनयण । वलि वलि सु लग्गइ पाय, विण्णवइ सुणि नरराय ॥ ५३६ मन धरिसि पिय एम चित्ति, अम्ह हुइ एह अजुत्ति । नवि हुइ ताय कुताय, जइ जाय होइ कुजाय ॥ ५३७ हउँ हुउ तुम्ह कुल-कट्ठि, घुण जेम गय-सुह-सिट्ठि । इत दिवस विण पहु-सेव, निग्गमिय जं अम्हि देव ॥ ५३८ सिउँ बहुअ जंपिउँ आल, मुणि सामि बहु-गुण-साल । हउँ तुम्ह बहु-दुह-हेउ, हुअ अज्ज-दिण-लगि जेउ ॥ ५३९ तं खमिय मुझ अवराह, तउँ सयल भूव-वराह ।। किय भेउ चंपहरज्ज, आइसिय कोइ तसु कज्ज ॥ ५४० मुझ दिउ तुम्ह पय-वास, म म करिसि ताय निरास । ए अछइ तुम्ह गुण-दोसि, तुम्ह लहुअ वहुअ सुहासि ॥ ५४१ तसु दिसउ जं बहु वज्ज निय-कुलह मग्गसु कज्ज । इम भणिय कुमर-नरेस धरि रहिउ मून असेस ॥ ५४२॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ कालमुह कुमर सु पिक्खि, दिखंत निय निव पक्खि । नरवाहि निय करि वाणि (?), उववेसि निय-पय-ठाणि ॥ ५४३ वद्धारि तिलयसुभालि, विचि विमलअक्खय-सालि । सिरि धारि निव निय छत्त, नच्चंत नव नव पत्त ॥ ५४४ बहु धवल मंगल नारि, सवि सुहव दिति वियारि । वज्जंति बहुअर तूर, बहकंति अगर कपूर ॥ ५४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520508
Book TitleAnusandhan 1997 00 SrNo 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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