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[124] १३. मध्यवर्ती व्यंजन एटले के वेदो अने पालिमां वपरातो 'ण' (गजराती 'ळ', मराठी-राजस्थानी 'ळ') प्राचीन प्राकृतमां पण वपरातो हतो पण परवर्ती काळमां. अनी जग्याए ‘ल अने ड' आवी गया अने परवर्ती काळमां अर्धमागधीमांथी पण 'ळ' नो लोप थई गयो एम कहेवू अनुपयुक्त नथी जणातुं.
१४. अर्धमागधी साहित्यमा प्राचीन अने उत्तरवर्ती काळमां प्रचलित थयेला एम बन्ने प्रकारना प्रत्ययो एक साथे ज प्रयुक्त थयेला जोवा मळे छे. आ बधुं प्रमादना लीधे थयुं हशे अथवा तो पछीना काळने अनुरूप भाषाने समजवामां सरलता लाववा खातर पण आq बन्युं हशे एम पण कही शकाय. कारण के जैन अथवा तो श्रमण परंपरामां अर्थ उपर वधारे भार मूकवामां आव्यो छे, न के वैदिक परंपरा प्रमाणे भाषा उपर विशिष्ट भार मूकवामां आव्यो हतो.
१५. जेसलमेरनी एक ताडपत्रनी हस्तप्रतमां मळता पाठोना आधारे 'विशेषावश्यक-भाष्य'ना नवीन संस्करण(संपा. पं. दलसुखभाई मालवणिया, ला. द. भा. सं. विद्यामंदिर, अमदावाद, १९६६)मां ध्वनि-परिवर्तननी दृष्टिए घणा खरा शब्द-पाठो बदलाई (एना करतां आ ग्रंथना जूना संस्करणोनी दृष्टिए) गया छे. एवी ज रीते अर्धमागधी आगम जेवा प्राचीन ग्रंथोनी प्राचीन भाषामां पण हस्तप्रतोमा उपलब्ध थतां प्राचीन शब्द-रूपोने प्राथमिकता आपवी जोईए अने ए दृष्टिए अर्धमागधी आगम ग्रंथोनुं पुन: सम्पादन थर्बु जोईए एवं एक निवेदन प्रस्तुत करवामां आव्युं छे.
छेल्ले, प्राचीन लेखन पद्धति अने पछीनी लेखन पद्धतिमां थयेला फेरफारने लीधे अक्षरोमां कोईक वार थयेला भ्रमने लीधे 'न'कार 'ण'कार रूपे वंचावा मांड्यो होय एम पण जणाय छे तेथी मूळ 'न'कार 'ण'कारमा बदलाई जवानी पण संभावना ओछी नथी.
आ बधां अध्ययन अने विश्लेषणनो सार एटलो ज के अर्धमागधी जेवी प्राचीन अने पूर्व भारतनी भाषामां परवर्तीकाळनी प्राकृतो अने वैयाकरणोना नियमोने लीधे जे जे फेरफारो थवा पाम्या छे ते ते स्थळे प्रामाणिक आधारो प्रमाणे प्राचीन शब्द-रूपो परिस्थापित थवा जोईए ए ज अंतिम फलश्रुति छे.*
★ पुस्तकना प्रकाशक : प्राकृत जैन विद्याविकास फंड, अमदावाद. १९९५. पृ. १३०. किं.
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