Book Title: Varn Jati aur Dharm Author(s): Fulchandra Jain Shastri Publisher: Bharatiya GyanpithPage 20
________________ 18 वर्ण, जाति और धर्म अधिक दृष्टिगोचर होती है। विश्वमें जितने तीर्थङ्कर और धर्मसंस्थापक हुए हैं उन सबने अपने जीवनके अनुभव द्वारा इसकी महत्ता स्वीकार को है / व्यक्तिका उत्थान और उसके आधारसे समाजका निर्माण इसी पर अवलम्बित है। यद्यपि लोकमें समाजव्यवस्थाका प्रधान अङ्ग राज्य माना जाता है पर उसकी प्रतिष्ठा भी परम्परासे धर्मतत्त्वके आधार पर ही हुई है / आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चारों सबमें समान रूपसे पाये जाते हैं किन्तु उनमें विशेषता उत्पन्न करनेवाला यदि कोई सारभूत पदार्थ है तो वह धर्म. ही है / धर्म ही प्राणीमात्रको अन्धकारसे प्रकाशकी ओर, जड़तासे चेतनता की ओर और बाह्य जगतसे अन्तर्जगतकी ओर ले जाता है / जहाँ वह अर्थ और काम पुरुषार्थका मूल कहा जाता है वहाँ निर्वाणकी प्राप्ति भी उसीसे होती है / प्राणीमात्रके जीवनमें जितनी सुकुमार प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं उनका आधार एकमात्र धर्म ही है। दूसरेका स्वत्त्वापहरण, असत्य संभाषण, परस्वहरण, स्वैरगमन और मूर्छा ये प्राणीमात्रकी अज्ञानजनित कमजोरियाँ हैं / इनपर नियन्त्रण स्थापित कर धर्मने ही उस मार्गका निर्माण किया है जिस पर चलकर प्राणीमात्र ऐहिक और पारलौकिक सुखका भागी होता है / धर्मकी महत्ता सर्वोपरि है। धर्मकी व्याख्या इस प्रकार सनातन कालसे प्राणीमात्रके जीवनके साथ जिसका इतना गहरा सम्बन्ध है, प्रसङ्गसे उसकी व्याख्या और अवान्तर भेदोंको समझ लेना भी आवश्यक है। धर्म शब्द 'धृ' धातुसे बना है / इसका अर्थ है धारण करना = धरतीति धर्मः / धर्म शब्दकी व्युत्पनिपरक इस व्याख्याके अनुसार धर्म वह कर्तव्य है जो प्राणीमात्रके ऐहिक और पारलौकिक जीवन पर नियन्त्रण स्थापित कर सबको सुपथ पर ले चलनेमें सहायक होता है। यहाँ मैंने 'मानवमात्र' शब्दका प्रयोग न कर जान-बूझकर 'प्राणीमात्र' शब्दका प्रयोग किया है, क्योंकि धर्मका आश्रय केवलPage Navigation
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