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प्रस्तावना
साहू नट्टल राजा अनंगपालके परम स्नेह-भाजन तथा एक सम्मानित नागरिक थे। अर्थनीतिमें कुशल एवं व्यस्त होनेपर भी वे जिनवाणीके नियमित स्वाध्याय, प्रवचन-श्रवण तथा विद्वज्जनों एवं कवियोंकी संगतिके लिए समय अवश्य निकाल लेते थे। विद्वानों एवं कवियोंका उनके यहाँ पर्याप्त सम्मान होता था। किन्तु नट्टल साहूसे अपरिचित रहनेके कारण कवि उसके पास जानेको तैयार नहीं हुआ। वह अल्हण साहूसे कहता है कि- "हे साहू, आपने मुझसे जो कुछ कहा है, वह ठीक है, किन्तु यहाँ दुर्जन की कमी नहीं है। वे कूट-कपटको ही विद्वत्ता मानते हैं। वे सज्जनोंसे ईर्ष्या एवं विद्वेष रखते हैं, तथा उनके सदगुणोंको असह्म मानकर उनके प्रति दुर्व्यवहार करते हैं । कमी मारते हैं, तो कभी टेढ़ी आँखें दिखाते हैं और कभी हाथ-पैर अथवा सिर ही तोड़ देते हैं। मैं ठहरा सीधा-सादा सरल स्वभावी, अत: मैं तो अब किसीके पास भी नहीं जाना चाहता।' तब अल्हण साहूने कविसे पुनः पूछा कि-"तुम क्या वास्तवमें नट्टलको नहीं जानते ? अरे, जो धर्म-कार्योंमें धुरन्धर है, उन्नत कान्धौरवाला है, सज्जन-स्वभावसे अलंकृत है, प्रतिदिन जो निश्चल मन रहता है, तथा जो बन्धु-बान्धवोंके लिए स्नेहका सागर है, जो भव्य-जनोंकी सहायता करने में समर्थ है, जो कभी भी अनावश्यक वचन नहीं बोलता, जो दुर्जनोंको कुछ नहीं समझता, किन्तु सज्जनोंको सिरमौर समझता है, जो उत्तम-जनोंके संसर्गकी कामना करता है, जो जिन-भगवानका पूजा-विधान कराता रहता है, जो विद्वद्-गोष्ठियोंके आयोजन कराता रहता है, जो निरन्तर शास्त्रार्थोके हितकारी अर्थ-विचार किया करता है, उसकी इससे अधिक प्रशंसा क्या उचित प्रतीत होती है ? वह नट्टल मेरा वचन कभी भी टाल नहीं सकता, मैं उसे जो कुछ कहता हूँ, वह अवश्य ही उसे पूरा करता है । अतः आप उसके पास अवश्य जायें।"
साहू अल्हणके उक्त अनुरोधपर कवि श्रीधर नट्टल साहूके आवासपर पहुँचे । नट्रल ने कविको आया देखकर शिष्टाचार-प्रदर्शनके बाद ताम्बूल प्रदान कर आसन दिया। उस समयका दृश्य इतना भव्य था
घर एवं नल दोनोंके मन में एक ही साथ यह भावना उदित हो रही थी कि-"हमने पूर्वभवमें ऐसा कोई सुकृत अवश्य किया था, जिसका फल हमें इस समय मिल रहा है ।" एक क्षणके बाद कवि श्रीधरने नट्टल साहूसे कहा कि-"मैं अल्हण साहूके अनुरोधसे आपके पास आया हूँ। हे नट्टल साहू, अल्हण साहूने आपके गुणोंकी चर्चा मुझसे की है। मुझे आपके विषयमें सब कुछ ज्ञात हो चुका है । आपने एक 'आदिनाथ-मन्दिर' का निर्माण कराकर उसपर 'पचरंगे झण्डे' को भी चढ़ाया है। आपने जिस प्रकार उस भव्य मन्दिरकी प्रतिष्ठा करायी है, उसी प्रकार आप एक 'पार्श्वनाथ-चरित' की रचना भी करवाइए, जिससे कि आपको पूर्ण सुख-समृद्धि मिल सके तथा जो कालान्तरमें मोक्ष-प्राप्तिका कारण बन सके। इसके साथ ही आप चन्द्रप्रभ स्वामीकी एक मूर्ति अपने पिताके नामसे उस मन्दिरमें प्रतिष्ठित कराइएँ ।"
श्रीधरका कथन सुनकर शेफाली ( सइवाली ) के पति साहू नट्टलने कहा-'हे कविवर, सुखकारी रसायनका एक कण भी क्या कृशकायवाले प्राणीके लिए बड़ा भारी अवलम्ब नहीं होता? अतः आप
इचरिउ' की रचना अवश्य कीजिए।" कवि साह नटलके कथनसे बड़ा प्रसन्न हआ तथा उसके निमित्त कवि ने 'पासणाहचरिउ' की रचना की'। 'पासणाहचरिउ' की अन्त्य-प्रशस्तिमें उसकी आद्य-प्रशस्तिकी ही पुनरावृत्ति है । इन प्रशस्तियोंसे निम्न तथ्योंपर प्रकाश पड़ता है
१. पासणाह.-१।४।८-१२; १।५।१-४; ११५१४; तथा अन्त्य
प्रशस्ति। २. पासणाह.-१७२-८; तथा अन्त्य प्रशस्ति । ३, पासणाह.-१६-१२, ११८०१-६: तथा अन्त्य प्रशस्ति । ४. पासणाह.-११-६ तथा अन्य प्रशस्ति ।
[ देखिए परिशिष्ट सं.१ (क)]
५. वही, १५८७ । ६. वही. १८८-६। ७. वही, १।८।१०-१२ । ८. पासणाह. १४ा१,४ ।
६. वही, १२७ । १०. वही, शहा१३-१४ ।
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