Book Title: Upmitibhav Prapancha Katha Part 01
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan
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________________ जघन्यपुरुषवृत्त 122 यदा पुनः प्रपद्यन्ते, विदुषां वचनानि ते। आचरन्ति च विज्ञाय, तदीयां हितरूपताम् ? // 150 // तदा ते विगताबोधा, भवन्ति सुखिनो नराः। महापुरुषसम्पर्काल्लभन्ते मार्गमुत्तमम् // 151 // पण्डिता इव ते नित्यं, गुरुदेवतपस्विनाम् / बहुमानपराः सन्तः, कुर्वन्त्यर्चनवन्दनम् // 152 // तदिदमाचार्टीयं वचनमाकर्ण्य मध्यमबुद्धिना चिन्तितं य एते सूरिणा प्रोक्ता, मध्यमानां गुणागुणाः / स्वसंवेदनसंसिद्धास्ते ममापि स्वगोचरे // 153 // मनीषिणाचिन्तितं यदिदं सरिणाऽऽदिष्टं, वचनैः सुपरिस्फुटैः। चरितं मध्यमानां तन्मदीये भ्रातरि स्थितम् // सरिरुवाच-तदेवं कथितास्तावन्मध्यमानां गुणागुणाः / जघन्यनरसम्बन्धि, स्वरूपमधुनोच्यते।१५५। जघन्यास्ते नरा ज्ञेया, यैरिदं स्पर्शनेन्द्रियम् / अवाप्य मानुषं जन्म, बन्धुवुद्धयाऽवधारितम् / 156 / परा४८रिरूपतामस्य, न जानन्त्येव ते स्वयम् / परेषामिति रुष्यन्ति, विदुषां हितभाषिणाम् // 157 // स्पर्शनेन्द्रियसम्पाये, पामाकण्डूयनोपमे / परमार्थेन दुःखेऽपि, सुखलेशेऽपि गृधवः // 158 // स्वर्गोऽयं परमार्थोऽयं, लब्धोऽयं सुखसागरः। अस्माभिरिति मन्यन्ते, विपर्यासवशं गताः // 159 // ततो हार्द तमस्तेषां, प्रविसर्पति सर्वतः / विवेकशोषकाश्चित्ते, वर्धन्ते रागरश्मयः // 160 // नष्टसत्पथसद्भावा, ध्याध्य४९न्धीभूतबुद्धयः / कुर्वन्तोऽनार्यकार्याणि, वार्यन्ते केन ते ततः ? // 161 // धर्मलोकविरुद्धानि, निन्दितानि पृथग्जनैः / कार्याण्याचरतां लोकः, शत्रुभावं प्रपद्यते // 162 // कुलं चन्द्रांशुविशदं, ते कुर्वन्ति मलीमसम् / आत्मीयचरितैः पापाः, प्रयान्ति जनहास्यताम् // 16 // अगम्यगमनासक्ता, निमर्यादा नराधमाः। अर्कतूलादपि परं, ते जने यान्ति लाघवम् // 164 // दुर्लभः स्यादिविषयः, कथश्चिदसदाग्रहः / यदा पुनविवर्तेत, हृदयेऽतिमहाग्रहः // 165 // तदा ते यान्ति दुःखानि, याश्च लोके विडम्बनाः।प्राप्नुवन्ति न शक्यन्ते, ता व्यावर्णयितुं गिरा // 166 // केवलं गदितुं शक्यमियदेव समासतः / लभन्ते ते नराः सर्वा, लोके दुःखविडम्बनाः // 167 // प्रकृत्यैव भवन्त्येते, गुरुदेवतपस्विनाम् / प्रत्यनीका महापापा, निर्भाग्या गुणदूषणाः // 168 // सन्मार्गपतितं वाक्यमुपदिष्टं हितैषिणा / केनचिन्न प्रपद्यन्ते, ते महामोहदूषिताः // 169 // ततश्चेदं मुनेर्वाक्य, विनिश्चित्य मनीषिणा / विचिन्तितमिदं चित्ते, तथा मध्यमबुद्धिना // 170 // स्पर्शनेन्द्रियलुब्धानां, यदेतदुपवर्णितम् / नृणां वृत्त जघन्यानां, सूरिभिर्विशदाक्षरैः // 171 // तदेतत्सकलं बाले, प्रतीतं स्फुटमावयोः / नाप्रतीतं वदन्त्येते, यदि वा वरसूरयः // 172 // युग्मम् बालेन तु गुरोर्वाक, न मनागपि लक्षितम् / तस्यां मदनकन्दल्यां, क्षिप्तचितेव पापिना॥१७३॥ सुरिरुवाच-तदेवं भो महाराज!,जघन्यनरचेष्टितम् / निवेदितं मया तुभ्यं, तत्रेदमभिधीयते // 174 // एते जघन्या भूयांसो, भुवने सन्ति मानवाः / इतरे तु यतः स्तोकाः, सकलेऽपि जगत्त्रये // 175 // स्पर्शनेन्द्रियजेतारो, विरला भुवने नराः / तेनास्माभिरिदं पूर्व, भवद्भयः प्रतिपादितम् // 176 // नरपतिरुवाच-धर्म यतो न कुर्वन्ति, स हेतुः प्रतिपादितः। भगवन्नाशितोऽस्माकं,भवद्भिःसंशयो महान्।१७७। ____ अत्रान्तरे तु सुबुद्धिमन्त्रिणाऽभिहितं-भगवन् ! य एते जघन्यमध्यमोत्कृष्टोत्कृष्टतमरूपतया जघन्यादीनांजनकादि 48 उत्कृष्टशत्रु०४९ निःसस्वास्तनु० प्र.
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