Book Title: Upmitibhav Prapancha Katha Part 01
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan

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Page 294
________________ प्रायश्चित्तं च दशधा, विनयं च चतुर्विधम् / वैयावृत्यं च कुर्वन्ति, दशधैवास्य वीर्यतः // 16 // पञ्चप्रकारं स्वाध्याय, द्वधा ध्यानं च सत्तमम् / सततं कारयत्येष, मुनिलोकं नरोत्तमः // 165 // गणोपधिशरीराणामाहारस्य च निःस्पृहाः / प्राप्ते काले प्रकुर्वन्ति, त्यागमे तेन चोदिताः॥१६६॥ लेशोद्देशादिदं वत्स ! तपोयोगविचेष्टितम् / वर्णितं विस्तरेणास्य, वर्णने नास्ति निष्ठितिः // 167 // यस्त्वयं दृश्यते वत्स ! षष्ठोऽमीषां मनोरमः / वल्लभो मुनिलोकस्य, संयमाख्यो नरोत्तमः // 168 // स सप्तदशभिर्युक्तो, मानुषैजिनसत्पुरे / यथा विजृम्भते तात ! तत्ते सर्व निवेदये // 169 // पापासवपिधानेन, ३शान्तबोधनिराकुलम् / पञ्चेन्द्रियविरोधेन, संतुष्टं विगतस्पृहम् // 17 // कषायतापप्रशमाञ्चित्तनिर्वाणबन्धुरम् / मनोवाकाययोगानां, नियमेन मनोहरम् // 171 // सततं धारयत्येष, मुनिलोकं नरोत्तमः / संयमाहः स्ववीर्येण, निमग्नं धृतिसागरे // 172 // अथवा-इलाजलामलगतामनिलाखिलशाखिनाम् / हिंसां द्वित्रिचतुष्पश्चहृषीकाणां निषेधति // 17 // अचित्तमपि यद्वस्तु, हिंसाकरमसुन्दरम् / ग्रहणं तस्य यत्नेन, वारयत्येष संयमः // 174 // प्रेक्षणं स्थण्डिलादीनां, गृहस्थानामुपेक्षणम् / स्थानादिकरणे सम्यक्, तद्भूमीनां प्रमार्जनम् // 175 // आहारोपधिशय्यानामशुद्धाधिकभावतः५ / परिष्ठापनमन्तश्च, मनोवाकाययन्त्रणम् / / 176 / / विमुक्तभवकर्तव्यैः, सततं सुसमाहितैः। मुनिभिः कारयत्येष, सर्वमेतन्नरोत्तमः // 177 // तदिदं लेशतो वत्स ! चरितं परिकीर्तितम् / नरस्य संयमाख्यस्य, शेषाणां शृणु साम्प्रतम् // 178 // य एष सप्तमो वत्स ! दृश्यते पुरुषोत्तमः / यतिधर्मपरीवारे, सत्यनामातिसुन्दरः // 179 // हितं मिताक्षरं काले, जगदाहादकारणम् / अस्यादेशेन भाषन्ते, वचनं मुनिपुङ्गवाः // 180 // शौचाभिधानो यो वत्स ! वर्तते चाष्टमो नरः / द्रव्यभावात्मिकां शुद्धिमस्यादेशेन कुर्वते // 18 // यदिदं नवमं तात ! डिम्भरूपं मनोहरम् / आकिश्चन्यमिदं नाम, मुनीनामतिवल्लभम् // 182 // अवाप्तसौष्ठवं वत्स !, बाह्यान्तरपरिग्रहम् / मुनिभिर्मोचयत्येतच्छुद्धस्फटिकनिर्मलम् // 183 // इदं तु दशमं तात ! गर्भ(डिम्भ)रूपं मनोहरम् / ब्रह्मचर्यमिति ख्यातं, मुनीनां हृदयप्रियम् // 184 // दिव्यौदारिकसम्बन्ध, मनोवाकाययोगतः / अब्रह्म वारयत्येतत्कृतकारणमोदनैः // 185 // तदेष दशभिर्वत्स ! मानुषैः परिवारितः / पुरेऽत्र विलसत्येवं, यतिधर्मः स्वलीलया // 18 // एषाऽत्र विलसद्दीप्तिर्बालिकाऽमललोचना / सद्भावसारता नाम, भार्याऽस्य मुनिवल्लभा // 187 // अस्यां जीवति जीवन्त्यां, मरणेऽस्या न जीवति / अत्यर्थ रतचित्तोऽस्यां, राजसू नुरयं सदा // 188 // किं चेह बहुनोक्तेन ? दाम्पत्यमिदमीदृशम् / निर्मिथ्यस्नेहगर्भार्थ, न दृष्टं कुत्रचिन्मया // 189 // यः पुनदृश्यते तात !, द्वितीयोऽयं कुमारकः / गृहिधर्माभिधानोऽसौ, कनिष्ठोऽस्य सहोदरः॥१९०॥ यदेष कुरुते वत्स ! युक्तो द्वादशमानुषैः / जैनेन्द्रसत्पुरे चित्तं, लसन्नुद्दामलीलया // 191 // तदहं वर्णयिष्यामि, पुरतस्ते वरेक्षण ! / चेतः समाहितं कृत्वा, तच्च वत्सावधारय // 192 // युग्मम् अत्यन्तस्थूलहिंसायाः कचिद्विरतिसुन्दरम् / स्थूलालीकनिवृत्तं च करोत्येष पुरे जनम् // 193 // स्थूलस्तेयनिवृत्तं च, परदारपराङ्मुखम् / क्वचित्संक्षिप्तमानं च, सकलेऽपि परिग्रहे // 194 // परित्यक्तनिशाभक्तं, कृतमानं च संवरे / युक्तोपभोगसम्भोगं, कर्मानुष्ठानकारकम् // 195 // अनर्थदण्डविरतं, सामायिकरतं सदा / देशावकाशिके सक्तं, पौषधे कृतनिश्चयम् // 196 // अतिथेः संविभागेन, परिपूतमनोमलम् / करोत्येष जनं वत्स ! गृहिधर्मोऽत्र सत्पुरे // 197 // किं च-यो यावन्तं करोत्यत्र, निर्देशं शक्तितो जनः। तस्य तावत्करोत्येष, फलं नास्त्यत्र संशयः॥१९८॥ 3 शान्ताबाधा प्र. 4 तेषु स्थितानां 5 आधाकर्मादिदोषात् अतिरिक्तसद्भावाद्वा

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