Book Title: Upmitibhav Prapancha Katha Part 01
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan
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________________ विचक्षणविचार ततः संस्कृत्य तद्दत्तं, तेन जाता प्रमोदिता / रसना लोलता तुष्टा, सोऽपि हर्षमुपागतः // 329 // भूयश्च लोलतावाक्यैरपरापरमानुषान् / निहत्य भार्यया साध, खादन् जातः स राक्षसः // 330 // ततो बालजनेनापि, निन्दितो बन्धुवर्जितः / लोकेन परिभूतश्च, स जातः पापकर्मणा // 331 // अन्यदा लोलतायुक्तो, मनुष्याणां जिघांसया / प्रविष्टश्चौरवद्रात्रौ, गृहे शूरकुटुम्बिनः // 332 // ततः प्रसुप्तं तत्स्नु, गृहीत्वा निःसरन् बहिः / स दृष्टस्तेन रेण, जडः क्रोधान्धचेतसा // 333 // ततः कलकलारावं, कुर्वता सह बान्धवैः / तेनास्फोटय निबद्धोऽसौ, मारितो यातनाशतैः / / 334 // प्रभाते च स वृत्तान्तः, संजातः प्रकटो जने / तथापि किश्चिच्छूरस्य, न कृतं जडबन्धुभिः // 335 // किं तर्हि ? प्रत्युत तैश्चिन्तितं, यदुत__ शूरेण विहितं चारु, यदसौ कुलदूषणः / अस्माकं लाघवोत्पादी, जडः पापो निपातितः॥३३६॥ अमु च जडवृत्तान्तं, निरीक्ष्य स विचक्षणः / ततश्च चिन्तयत्येवं, निर्मलीमसमानसः॥३३७॥ अये !-इह लोके जडस्येद, रसनालालने फलम् / संजातं परलोके तु दुर्गतिः संजनिष्यति // 338 // ततोऽत्यर्थ विरक्तोऽसौ, रसनालालनं प्रति / स्थितो विचक्षणस्तावत् , यावत्तौ समुपागतौ // 339 // ततश्च–कथितायां विमर्शेन, मूलशुद्धौ सविस्तरम् / रसनां त्यक्तुकामोऽसौ, पितरं प्रत्यभाषत // 340 // तात ! दृष्टविपाकेयं, रसना साम्प्रतं जडे / दुहिता दोषपुञ्जस्य, रागकेसरिमन्त्रिणः // 341 // . तदेनामधुना दुष्टां, भार्या दुष्टकुलोद्भवाम् / सर्वथा त्यक्तुमिच्छामि, ताताहं त्वद्नुज्ञया // 342 // ततः शुभोदयेनोक्तं, भार्येति प्रथिता जने / तवेयं रसना तस्मानाकाण्डे त्यागमर्हति // 343 // अतः क्रमेण मोक्तव्या, त्वयेयं वत्स ! सर्वथा / तदत्र प्राप्तकालं ते, तदाकर्णय साम्प्रतम् // 344 // ये ते तुभ्यं महात्मानो, विमर्शेन निवेदिताः / विवेकपर्वतारूढा, महामोहादिसूदनाः // 345 // तेषां मध्ये स्थितस्येयं, तदाचारेण तिष्ठतः / दुष्टापि रसना वत्स ! न ते किंचित्करिष्यति / / 346 // तस्मादारुह्य यत्नेन, तं विवेकमहागिरिम् / रसनादोषनिर्मुक्तस्तिष्ठ त्वं सकुटुम्बकः // 347 // ततो विचक्षणेनोक्तं, तात ! दूरे स पर्वतः / कथं कुटुम्बसहितस्तत्राहं गन्तुमुत्सहे // 348 // शुभोदयोऽब्रवीद्वत्स ! न कार्य भवता भयम् / विमर्शो यस्य ते बन्धुश्चिन्तामणिरिवातुलः // 349 // यतोऽस्य विद्यते वत्स ! विमर्शस्य वराञ्जनम् / तद्बलाद्दर्शयत्येष, तमिहैव महागिरिम् // 350 // प्रकर्षणोदितं तात ! सत्यमेतन संशयः / अनुभूतं मयाऽप्यस्य, योगाञ्जनविजृम्भितम् // 351 // किंबहुना ?-यावदेष महावीर्य, न प्रयुक्ते वराञ्जनम् / तावदेव न दृश्यन्ते, ते पर्वतपुरादयः // 352 यदा तु विमलालोकमयं युङ्क्ते तदञ्जनम् / तदा सर्वत्र भासन्ते, ते पर्वतपुरादयः // 353 // ततो विचक्षणेनोक्तो, विमर्शो भद्र ! दीयताम् / मह्यं तदञ्जनं तूर्ण यद्यस्ति तव तादृशम् // 354 // ततोऽनुग्रहबुद्धथैव, सादरं प्रतिपादितम् / विचक्षणाय निःशेष, विमर्शेन तदञ्जनम् // 355 // ततस्तदुपयोगेन, क्षणादेव पुरः स्थितम् / विचक्षणेन यदृष्ट, तदिदानीं निबोधत // 356 // यत्तल्लोकशताकीर्ण, पुरं सात्त्विकमानसम् / यश्चासौ विमलस्तुङ्गो, विवेको नाम पर्वतः // 357 // यच्च तच्छिखरं रम्यमप्रमत्तत्वनामकम् / यच्चोपरिष्टात्तस्यैव, निविष्टं जनसत्पुरम् // 358 // ये च लोका महात्मानः, साधवस्तभिवासिनः / यश्च चित्तसमाधानो, मध्यस्थस्तत्रमण्डपः // 359 // या च निःस्पृहता नाम, वेदिका तत्र संस्थिता / तस्याश्योपरि यच्चारु, जीववीर्य महासनम् // 360 // चारित्रधर्मराजश्व, परिवारविवेष्टितः / ये च तस्य गुणा शुभ्रा, ये च तेषां महीभुजाम् // 361 // विमलालोकलामः
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