Book Title: Upmitibhav Prapancha Katha Part 01
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan
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________________ 267 यतः-मम स्थैर्य भवेदेवं, पुरस्यास्य गुणोत्करे / ततस्तातोऽपि जायेत, मद्गुणादत्र बद्धधीः // 29 // प्रावृइ एवं भवतु तेनोक्ते, ततस्तत्रैव सत्पुरे / तिष्ठतोः प्रावृडायाता, तयोः सा हन्त कीदृशी // 298 // वर्णनं घनतुङ्गपयोधरभारधरा, लसदज्ज्वलविद्यदलङ्करणा / कृतसन्ततगर्जितधीररवा, दृढगोपितभास्करजाररता // 299 // रटदुद्भटदर्दुरषिङ्गनरा, चलशुभ्रवलाहकहासपरा / गिरिकोटरनृत्तशिखण्डिवरा, बहुलोकमनोहररूपधरा // 30 // ___ सुसुगन्धिकदम्बपरागवहा, विटकोटिविदारणमोदसहा / / इति रूपविलासलसत्कपटा, भुवनेऽत्र रराज यथा कुलटा // 301 // अथ तां तादृशीं वीक्ष्य, प्रावृष हृष्टमानसः / प्रकर्षों गमनोधुक्तः, प्रोवाच निजमातुलम् // 302 // गम्यतामधुना माम ! त्वरित तातसन्निधौ / यतोऽमी शीतलीभूता, वर्तन्ते सुगमाः पथाः // 303 // विमर्शनोदितं वत्स !, मैवं वोचः कदाचन / यतोऽधुना व्यवच्छिन्नौ, विशेषेण गमागमौ // 304 // तथाहि-मुच्छन्नग्रहमध्यस्थाः, स्वाधीनदयिताननाः / वर्षामु धन्या गण्यन्ते, जनैर्ये न प्रवासिनः॥३०५॥ तथाहि-पश्यतु वत्स! जलपूरितमार्गेषु, पङ्कक्लिन्नेषु गच्छतः। स्खलित्वा पतितानेते, हसन्ति कुटजोत्कराः॥३०६॥ निपतद्वारिधारौघहता ये यान्ति पापिनः / देशान्तरेषु तान्मेघो, मारयामीति गर्जति // 307 // एवं व्यवस्थिते तात ! मुच्यतां गमनादरः। यथेयन्तं स्थितः कालं, तिष्ठात्रैव तथाऽधुना // 308 // किं च-गच्छन्नत्र बहुः कालो, न दोषाय गुणावहः / यतःसोऽनुक्षणं वत्स !जायते तव वृद्धये // 309 / / एवं भवतु तेनोक्ते, पुनर्मासचतुष्टयम् / स्थित्वा समागतौ गेहे, हृष्टौ स्वसीयमातुलौ // 310 // अथ प्रविष्टौ तौ गेहे, दत्तास्थाने शुभोदये / भार्यायुक्ते च तस्यौव, निकटस्थे विचक्षणे // 311 // ततो विधाय सद्भक्त्या, प्रणामं विहिताञ्जली। तेषां पुरो निविष्टौ तौ, विनयाच्छुद्धभूतले // 312 // बलादुत्थाप्य बुद्धयाऽसौ, विमर्शः स्निग्धचेतसा / आलिङ्गितः प्रयत्नेन, तद्भ; च पुनः पुनः // 313 // प्रकर्षोऽपि समालिङ्गय, स्नेहनिर्भरमानसैः / निजाके स्थापितः सर्वैः, परिपाटयाऽतिवल्लभः // 314 // आघ्रातो मूर्धदेशे च, कुशलं च मुहुर्मुहुः / आनन्दोदकपूर्णाक्षौः, पृष्टः सर्वैः समातुलः // 315 // ततो यथा विनिर्गत्य, गेहाबाह्येषु हिण्डितौ / ततोऽन्तरङ्गदेशेषु, यथा पर्यटितौ पुनः // 316 // यथा पुरद्वयं दृष्टं, यथा दृष्टा महाटवी / विलोकितं यथा स्थानं, महामोहादिभूभुजाम् / 317 // रसनामूलशुद्धिश्च, यथा सम्यग्विनिश्चिता / यथेयं वर्तते पुत्री, रागकेसरिमन्त्रिणः // 318 // कुतूहलवशेनैव, भवचक्रं यथा गतौ / निरीक्षितं च तत्सर्व, नानावृत्तान्तसङ्कुलम् // 319 // यथा दृष्टा महात्मानो, विवेकवरपर्वते / चारित्रधर्मराजस्य, यथा स्थानं विलोकितम् // 320 // यथा दृष्टः स सन्तोषो, यच्च तेन विचेष्टितम् / यच्च कारणमुद्दिश्य, भूरिकालोऽतिवाहितः // 321 // तडे रस- तदिदं तेन निःशेष, विमर्शेन परिस्फुटम् / पुरो विचक्षणादीनां, विस्तरेण निवेदितम् // 322 // नालोल सप्तभिः कुलकम् / / तामहिमा इतश्च मांसमद्याद्यैालयंस्तामसौ जडः / रसनां लोलतावाक्यैर्न चेतयति किश्चन // 323 // स तस्या लालने सक्तः, कुर्वाणः कर्म गर्हितम् / न पश्यति महापापं, न लज्जां न कुलक्रमम् // 324 // अन्यदा लोलतावाक्यैर्मद्यविहलचेतसा / महाजं मारयामीति, मारितः पशुपालकः // 325 // ततश्च तमजारक्ष, पशुभ्रान्त्या निपातितम् / निरीक्ष्य लोलतादुःखाजडेनेदं विचिन्तितम् // 326 // ललिता रसना नूनं, मांसैर्नानाविधैर्मया / इदं तु मानुषं मांसं, नैव दत्तं कदाचन // 327 // ततोऽधुना ददामीदमस्यै पश्यामि यादृशः / अनेन जायते तोषो, रसनायाः सुखावहः // 328 //
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