Book Title: Upmitibhav Prapancha Katha Part 01
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan
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________________ रक्तता सम्यग्दर्श नसुदृष्टी सबोधा बगती 264 या त्वेषा बालिका वत्स ! विस्फारितवरेक्षणा / दृश्यतेऽस्यैव भार्येयं, नाम्ना सद्गुणरक्तता // 199 // वत्सला मुनिलोकस्य, गुरूणां विनयोद्यता / भर्तरि स्नेहबद्धेयं, वत्स ! सद्गुणरक्तता // 20 // तदेतौ जैनलोकानां, राजपुत्रौ सभार्यकौ / विज्ञातव्यौ प्रकृत्यैव, सततानन्दकारकौ // 201 // अनयोश्च सदा पित्रा, विहितः परिपालकः / अयं महत्तमो वत्स ! सम्यग्दर्शननामकः // 202 / / अनेन रहितावेतौ, दृश्यते न कदाचन / एतौ हि वर्धयत्येष, निकटस्थोऽतिवत्सलः // 203 // अन्यच्च-यानि ते कथितान्यत्र, सप्त तत्त्वानि सत्पुरे / दृढनिश्चयमेतेषु, भवचक्रपराङ्मुखम् // 204 // शमसंवेगनिर्वेदकृपाऽऽस्तिक्यविराजितम् / मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्य वितात्मकम् / / 205 // सदा प्रयाणकारूढं, निवृतौ गमनेच्छया / करोत्येष जनं वत्स !, सम्यग्दर्शननामकः // 206 // त्रिभिर्विशेषकम् / या त्वेषा दृश्यते वत्स ! शुभवर्णा मनोहरा / इयमस्यैव सद्भार्या सुदृष्टि म विश्रुता // 207 // इयं हि जैनलोकानां, सन्मार्गे वीर्यशालिनी / चित्तस्थैर्यकरी ज्ञेया, विधिना पर्युपासिता // 20 // एवंच स्थिते-योऽसौ निवेदितस्तुभ्यं, कुदृष्टिसहितः पुरा / विचित्रचरितस्तात ! महामोहमहत्तमः // 209 // तदाचारविरुद्धं हि, सर्वमस्य विचेष्टितम् / विज्ञेयं जगदानन्दं, सुविचारितसुन्दरम् // 210 // स तन्त्रयति यत्नेन, महामोहबलं सदा / चारित्रधर्मराजस्य, बलमेष महत्तमः // 211 // सम्यग्दर्शनसंज्ञस्य, तस्मादत्र व्यवस्थितः / स एव शत्रुः परमो, मिथ्यादर्शननामकः // 212 // एवं च स्थिते-त्रिरूपश्च भवत्येष, किञ्चिदासाद्य कारणम् / क्षयेण प्रतिपक्षस्य, प्रशमेनोभयेन वा // 213 // तच्च रूपत्रयं वत्स / जायेतास्य स्वभावतः। यद्वा संपादयत्येष, मन्त्री सद्धोधनामकः // 214 // अयं हि सचिवो वत्स ! सद्बोधो भवनोदरे / तनास्ति यन्न जानीते, पुरुषार्थप्रसाधकम् // 215 // भवद्भूतभविष्यत्सु, भावेषु भवभाविषु / विज्ञातुं प्रभवत्येष, सूक्ष्मव्यवहितेषु च // 216 // किं चात्र बहुनोक्तेन ? जगदेष चराचरम् / अनन्तद्रव्यपर्याय, वीक्षते विमलेक्षणः // 217 // निपुणो नीतिमार्गेषु, वत्सलश्च महीपतेः / चिन्तको राज्यकार्याणां, बले च विहितादरः॥२१८॥ प्रियो महत्तमस्योच्चैस्तस्य च स्थिरताकरः / सकलेऽपि जगत्यत्र, सचिवो नास्त्यमूदृशः॥२१९॥ किं च-ज्ञानसंवरणस्यायं, प्रतिपक्षतया स्थितः / क्षयोपशमतस्तस्य, क्षयाच द्विविधो मतः // 220 // इयं तु निकटे वत्स ! निर्मलाङ्गी सुलोचना / मन्त्रिणोऽवगतिर्नाम, भार्याऽस्यैव वरानना // 221 // स्वरूपं जीवितं प्राणाः, सर्वस्वं वर्ततेऽनघा / इयमस्य सदा पत्नी, शरीराव्यतिरेकिणी // 222 // तथा य एते पञ्च दृश्यन्ते, त इमे पुरुषोत्तमाः। अस्यैव तु सद्बोधस्य स्वाङ्गीभूता वयस्यकाः॥२२३॥ आद्योऽत्राभिनिबोधोऽयं, वयस्यः पुरवासिनाम् / इन्द्रियानिन्द्रियज्ञानं, जनानां जनयत्यलम् // 224 // द्वितीयः पुरुषो भद्र ! प्रसिद्धोऽयं सदागमः / यस्यादेशे स्थितं सर्व, पुरमेतन संशयः // 225 // कार्याणि मन्त्रयत्वेष, निखिलान्यपि भूभुजाम् / वचःपाटवयुक्तोऽयं, मूकाः शेषा मनुष्यकाः // 226 // यतः सदागमस्यास्य, दृष्ट्वा वचनकौशलम् / सद्बोधोऽनेन भूपेन, मन्त्रित्वे स्थापितः पुरा // 227 // अयं सदागमोऽमीषां, सर्वेषां वत्स ! भूभुजाम् / बहिश्च जैनलोकानां, ज्ञेयं परमकारणम् // 228 // अनेन रहितं वत्स ! न कदाचिदिदं बलम् / पुरं चेदं जगत्यत्र, स्वरूपेण प्रकाशते // 229 // तदेष सर्वकार्याणामुपदेष्टा सदागमः / द्वितीयः पुरुषो वत्स ! प्रधानोऽनेन हेतुना // 230 // तृतीयोऽवधिनामार्य, सद्बोधस्य वयस्यकः / अनेकरूपविस्तारकारकोऽयमुदाहृतः॥२३१॥ क्वचिद्दीधैं क्वचिद्वस्वं, क्वचित् स्तोकं कचिबहु / वस्तुजातं जगत्यत्र, विलोकयति लीलया // 232 // चतुर्थः पुरुषो वत्स ! मनःपर्यायनामकः / साक्षात्करोति वीर्येण, परेषां यन्मनोगतम् // 233 //
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