Book Title: Upmitibhav Prapancha Katha Part 01
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan
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________________ नरद्वयसमायुक्तो, यः पुनर्भद्र ! दृश्यते / स एष वेदनीयाख्यो, राजा विख्यातपौरुषः // 509 // सातनामा प्रसिद्धोऽस्य, जगति प्रथमो नरः। करोत्याहादसन्दोहनन्दितं भुवनत्रयम् // 510 // द्वितीयः पुरुषो भद्र ! यस्त्वस्य प्रविलोक्यते / असातनामकः सोऽयं, जगत्सन्तापकारकः // 511 // दीर्घहस्वैः समायुक्तश्चतुर्भिडिम्भरूपकैः / विवर्तते महीपालो, यस्त्वेष तव गोचरे // 512 // आयुर्नामा प्रसिद्धोऽयं, सर्वेषां भद्र ! देहिनाम् / निजे भवे किलावस्थां, कुरुते डिम्भतेजसा // 513 // युग्मम् द्विचत्वारिंशता युक्तो, मानुषाणां महाबलः / यस्त्वेष दृश्यते भद्र ! नामनामा महीपतिः // 514 // निजमानुषवीर्येण, जगदेष चराचरम् / विडम्बयति यत्तात ! तदाख्यातुं न पार्यते // 515 // युग्मम् / / तथाहि-चतुर्गतिकसंसारे, नरनारकरूपताम् / ये दधाना विवर्तन्ते, पशुदेवतया परे // 516 // . एकेन्द्रियादिभेदेन, नानादेहविवर्तिनः / नानाङ्गोपाङ्गसंबद्धाः, संघातकरणोद्यताः // 517 // भिन्नसंहननाः सत्त्वा, नानासंस्थानचारिणः / वर्णगन्धरसस्पर्शमेदेन, विविधास्तथा // 518 // गौरवेतरहीनाश्च, स्वोपघातपरायणाः / पराघातपराः केचिदिष्टजन्मानुपूर्विणः // 519 // सदच्छवासातपोद्योतविहायोगतिगामिनः / त्रसस्थावरभेदाच, सूक्ष्मबादररूपिणः // 520 // पर्याप्तकेतराः केचिदन्ये प्रत्येकचारिणः / साधारणाः स्थिराः केचित्तथान्येऽस्थिररूपिणः // 521 // शुभाशुभत्वं विभ्राणाः, सुभगा दुर्भगास्तथा। मुस्वरा दुस्वरा लोके, ये चादेया मनोहराः // 522 // अनादेयाः स्ववर्गेऽपि, यश कीर्तिसमन्विताः / अयशः कीर्तियुक्ताच, निर्मिताऽऽत्मशरीरकाः॥५२३॥ प्रणताशेषगीर्वाणमौलिमालाचिंतक्रमाः / ये च तीर्थकरा लोके, भवन्ति भवभेदिनः // 524 // निजमानुषवीर्येण, सर्वमेष नराधिपः / तदिदं जम्भते वत्स ! नामनामा महाबलः // 525 // दशभिः कुलकं / / यः पुनर्भद्र ! भूपोऽयं, वीक्ष्यते पुरतः स्थितम् / आत्मभूतं महावीर्य, नीचोच्च पुरुषद्वयम् // 526 // . गोत्राभिधानो विख्यातः, स एष जगतीपतिः / देहिनां कुरुते भद्र ! सुन्दरेतरगोत्रताम् // 527 // नरपश्चकसेव्योऽयं, यः पुनः प्रविभाव्यते / अन्तराय इति ख्यातः, स तात ! वरभूपतिः // 528 // अयं तु नरवीर्येण, कुरुते बाह्यदेहिनाम् / दानभोगोपभोगाप्तिवीर्यविघ्नं नराधिपः // 529 // . तदेते कथितास्तात !, नामभिर्गुणलेशतः / सप्तापि भूभुजस्तुभ्यं, समासेन मयाऽधुना // 530 // वीर्यवक्तव्यतामेषां, विस्तरेण पुनर्यदि / वर्णयामि ततोऽत्येति, तत्रैव मम जीवितम् // 531 // तदेवमतिगम्भीरं, श्रुत्वा मातुलजल्पितम् / प्रकर्षों हृष्टचित्तत्वादिदं वचनमब्रवीत् // 532 // चारु माम ! कृतं चारु, मोचितो मोहपञ्जरात् / एतेषां वर्णनं राज्ञां, कुर्वतैवमहं त्वया // 533 // केवलं कश्चिदद्यापि, मामं पृच्छामि संशयम् / तमाकर्ण्य पुनर्मामो, मामाख्यातुमर्हति // 534 // ततो विमर्शस्तुष्टात्मा, तं प्रतीदमभाषत / पृच्छ यद्रोचते तुभ्यं, भद्र ! विश्रब्धचेतसा // 535 // प्रकर्षः प्राह मामायं विस्मयो मम मानसे / एषु संकीर्त्यमानेषु, राजसु प्रतिभासते // 536 // यदाऽमून्मण्डपान्तः स्थानिरीक्षे नायकानहम् / परिवारं न पश्यामि, तदाऽमीषां निजं निजम् // 537 / / यदा विलोकयाम्युच्चैः, परिवारं विशेषतः। तदा विस्फारिताक्षोऽपि, नैवेक्षे नायकानहम् // 538 // भवता तु परीवारो, नायकाश्च पृथक् पृथक् / नामतो गुणतश्चैव, कीर्तिता बत तत्कथम् ? / / 539 // विमर्शनोदितं वत्स ! न विधेयोऽत्र विस्मयः। नैकदोभयवेत्ताऽत्र, कश्चिदन्योऽपि विद्यते // 54 // सामान्य यतः-ये निरावरणज्ञानाः, केवलालोकभास्कराः। प्रभुं परिकरं चैषां, नैकदा तेऽपि जानते // 541 // विशेषयोभेंदामेदौ यतः-सामान्यरूपा राजानः, सर्वेऽमी परिकीर्तिताः। विशेषरूपा विज्ञेयाः, सर्वे चामी परिच्छदाः॥५४२॥
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