Book Title: Upmitibhav Prapancha Katha Part 01
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan
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________________ 250 केवलं तत्त्वतस्तेऽपि, सान्तरायं चमूभृतम् / पापोदयाख्यं कुर्वन्ति, प्रहमस्याः प्रयोजकम् // 232 // दुराशापाशसंमूढं, धनगन्धविवर्जितम् / वीर्येण कुरुते लोकमेषा तात ! दरिद्रता // 233 // दैन्यं परिभवो मौढय, प्रायशो बहपत्यता / हृदयन्यूनता याश्चा, लाभाभावो दुरिच्छता // 234 // बुभुक्षारतिसन्तापाः, कुटुम्बपरिदेवनम् / अस्या इत्यादयो वत्स ! भवन्ति परिचारकाः // 235 // युग्मम् / अस्ति पुण्योदयाख्येन, प्रयुक्तः पृथिवीतले / जनाहाादकरोऽत्त्यन्तमैश्वर्याख्यो नरोत्तमः // 236 // स सौष्ठवमहोत्सेकहृदयोन्नतिगौरवैः / जनवाल्लभ्यलालित्यमहेच्छादिविवेष्टितः // 237 // सुभूरिधनसम्भारपूरितं जनताधिकम् / करोति सुखितं मान्यं, लोकमुद्दामलीलया // 238 // इयं हि चेष्टते तात ! परिवारसमेयुषी / तदुद्दलनचातुर्यमाबिभ्राणा दरिद्रता // 239 // न तेन सार्धमेतस्याः, सहावस्थानमीक्ष्यते / एतत्त्रासादसौ वत्स ! दूरतः प्रपलायते // 240 // ततोऽनया हतैश्वर्यास्त जना दुःखपीडिताः। गाढं विहलतां यान्ति, विधुरीभूतमानसाः // 241 // दुराशापाशबद्धत्वाद्भूयो धनलवेच्छया / नानोपायेषु वर्तन्ते, ताम्यन्ति च दिवानिशम् // 242 // ते च पापोदयेनैषामुपाया बहवोऽप्यलम् / प्रबलेन विपाटयन्ते, खे घना इव वायुना // 243 // ततो रुण्टन्त्यमी मूढाः खिद्यन्ते मनसाऽधिकम् / शोचन्ति पुरतोऽन्येषां, वाञ्छन्ति परसम्पदः॥२४४॥ कुतो घृतं कुतस्तैलं, कुतो धान्यं क चेन्धनम् ? कुटुम्बचिन्तया दग्धा, इति रात्रौ न शेरते // 245 // कुर्वन्ति निन्धकर्माणि, धर्मकर्मपराङ्मुखाः / व्रजन्ति शोच्यतां लोके, लघीयांसस्तृणादपि // 246 // परप्रेष्यकरा दीनाः, क्षुत्क्षामा मलपूरिताः / भूरिदुःखशतैर्ग्रस्ताः, प्रत्यक्षा इव नारकाः // 247 // भवन्ति ते जनास्तात ! येषामेषा दरिद्रता / ऐश्वर्याख्यं निहन्त्युच्चैः, करोत्यालिङ्गनं मुदा // 248 // तदेवमीरिता तात ! तुभ्यमेषा दरिद्रता / इयं दुर्भगतेदानीं, गद्यमाना निशम्यताम् // 249 // रुष्टेन भवचक्रेऽत्र, केषाश्चि देहिनामलम् / प्रयुक्तेयं विशालाक्षी, तेन नाममहीभुजा // 25 // बहिरङ्गं भवेदस्यास्तात ! चित्रं प्रयोजकम् / वैरूप्यदुःस्वभावत्वदुष्कर्मवचनादिकम् // 25 // तत्तु नैकान्तिकं ज्ञेयं, स एव परमार्थतः / हेतुरैकान्तिकोऽमुष्या, नामनामा महीपतिः // 252 // वीर्य तु वर्णयन्त्यस्या, ज्ञाततत्त्वा मनीषिणः / अवल्लभमतिद्वेष्यं, यदेषा कुरुते जनम् // 253 // दीनताभिभवो लज्जा, चित्तदुःखासिकाऽतुला / न्यूनता लघुता वेषविज्ञानफलहीनता // 254 // इत्याद्याः परिवारेऽस्या, भवन्ति बहवो जनाः / पुरेऽत्र यद्बलादेषा, बम्भ्रमीति बलोदुरा // 255 // अस्ति प्रयक्ता तेनैव, सुप्रसन्नन देहिनाम / नाम्ना सुभगता नाम्ना, प्रख्याता. जनमोदिनी // 256 सा सौप्रवमनस्तोषगर्वगौरवसम्मदैः। आयत्यपरिभूतायैः, परिवारितविग्रहा // 257 // वजन्ती भवचक्रेऽत्र, जनमानन्दनिभरम् / करोति सुखिनं मान्यं, निःशेषजनवल्लभम् // 258 // तस्याश्च प्रतिपक्षत्वादियं दुर्भगताऽधमा / उन्मूलनकरी तात ! करिणीव लताततेः // 259 // अतः सोन्मृलिता येषामेनया हितकारिणी / ते प्रकृत्येव जायन्ते, जनानां गाढमप्रियाः // 260 // स्वभत्रेऽपि न रोचन्ते, परेभ्यो नितरां पुनः। बन्धुभ्योऽपि न भासन्ते, जना दुर्भगताहताः॥२६१॥ गम्यत्वात्ते सपत्नानां, वल्लभानामवल्लभाः / नयन्ति क्लेशतः कालमात्मनिन्दापरायणाः // 262 // तदेषाऽपि समासेन, वत्स ! दुर्भगता मया / तुभ्यं निगदिता याऽसावुद्दिष्टा सप्तमी पुरा // 263 // एवं च स्थिते-जरा रुजा मृतिश्चेति, खलता च कुरूपता / दरिद्रता दुभंगता, उद्दिष्टाः क्रमशो यथा // 26 // एता या यत्प्रयुक्ता वा, यद्वीर्या यत्परिच्छदाः। चेष्टन्ते यस्य बाधायै, निर्दिष्टाः क्रमशस्तथा // 265 // युग्मम् / दुभंगतास्वरूपं
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