Book Title: Upmitibhav Prapancha Katha Part 01
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 266
________________ 135 स्फुरितनितम्बनिनादितरसनं, रसनालग्नपयोधरसिचयम् / सिचयनिपातितलज्जितवदनं, वदनशशाङ्कोद्योतितभुवनम् // 2 // अपि च-नितम्बबिम्बवक्षोजदुर्वारभरनिःसहा / तथापि रभसादाला, वेगाद्धावति सा तदा // 3 // निवेदिते तया राजपुत्रजन्ममहोत्सवे / आनन्दपुलकोद्भेदनिर्भरः समपद्यत // 4 // अत्रान्तरे प्रविष्टो मिथ्याभिमानः / ततोऽधिष्ठितमनेन रिपुकम्पनशरीरम् / ततश्च-तेनावष्टब्धचित्तोऽसौ, तदानीं रिपुकम्पनः / न मानसे न वा देहे, नापि माति जगत्त्रये // 1 // चिन्तितं च पुनस्तेन, विपर्यासितचेतसा / अहो कृतार्थों वर्तेऽहमहो वंशसमुन्नतिः // 2 // अहो देवप्रसादो मे, अहो लक्षणयुक्तता / अहो राज्यमहो स्वर्गः, संपन्नं जन्मनः फलम् // 3 // अहो जगति जातोऽहमहो कल्याणमालिका / अहो मे धन्यता सर्वमहो सिद्धं समीहितम् // 4 // अपुत्रेण मया योऽयमुपयाचितकोटिभिः / प्रार्थितः सोऽद्य संपन्नो, यस्य मे कुलनन्दनः // 5 // ततः कटककेयूरहारकुण्डलमौलयः / निवेदिकायै लक्षण, दीनाराणां सहार्पिताः // 6 // उल्लसत्सर्वगात्रेण, हर्षगद्गदभाषिणा / प्रकृतीनां समादिष्टः, सुतजन्ममहोत्सवः // 7 // ततो नरपतेर्वाक्यं, श्रुत्वा मन्त्रिमहत्तमैः / क्षणेन सदने तत्र, बत किं किं विनिर्मितम् // 8 // पवननिहतनीरसङ्घातमध्यस्थितानेकयादःसमूहोर्ध्वपुच्छच्छटाघातसंपन्नकल्लोलमालाकुले / यादृशः स्याग्निनादो महानीरधौ तत्र गेहे समन्तादथो तादृशस्तूर्यसङ्घातघोषः क्षणादुत्थितः // 9 // तथा-प्रवरमलयसम्भवक्षोदकश्मीरजातागुरुस्तोमकस्तूरिकापूरकर्पूरनीरप्रवाहोक्षसंपन्नसत् कदमामोदसन्दोहनिष्यन्दबिन्दुप्रपूरेण संपादिताशेषजन्तुप्रमोदम् / तथा-रत्नसङ्घातविद्योतनिष्टसूर्यप्रभाजालसञ्चारमालोक्यते तत्तदा मन्दिरम् // 10 // बहुनाटितकुब्जकवामनकं, प्रविघूर्णितकञ्चुकिहासनकम्। जनदापितरत्नसमूहचितं, त्रुटितातुलमौक्तिकहारभृतम् / लसदुद्भटवेषभटाकुलकं, ललनाजनलासविलासयुतम् / वरखाद्यकपानकतुष्टजनं, जनितं प्रमदादिति वर्धनकम् // 11 // .. अथ तादृशि वर्धनके निखिले, प्रमदेन प्रनृत्यति भृत्यगणे / अतिहर्षवशेन कृतोर्श्वभुजः, स्वयमेव ननर्त चिरं स नृपः // 12 // ततस्तत्तादृशं दृष्ट्वा, महासंमर्दगुन्दलम् / प्रकर्षः संशयापनः, प्रत्याह निजमातुलम् // 13 // निवेदयेदं मे माम ! महदत्र कुतूहलम् / किमितीमे रटन्त्युच्चै निर्वादितमुखा जनाः // 14 // अत्यर्थमुल्ललन्ते च, किमर्थमिति मोदिताः? / किं चामी मृत्तिकाभारं, निजाङ्गेषु वहन्ति ? भोः ! // 15 // चर्मावनद्धकाष्ठानि, दृढमास्फोटयन्ति किम् ? / विष्ठासंभारमुक्तोल्यो, मन्दं मन्दं चलन्ति किम् ? // 16 // किं वैष सदनस्यास्य, नायकः पृथिवीपतिः / बालहास्यकरं मूढः, करोत्यात्मविडम्बनम् // 17 // तदत्र कारणं माम :, यावन्नो लक्षितं मया / इदं तावन्ममाभाति, महाकौतुककारणम् // 18 // विमर्शः प्राह ते वत्स, कथ्यतेऽत्र निबन्धनम् / यदस्य सकलस्यापि, वृत्तान्तस्य प्रवर्तनम् // 19 // पश्यतस्ते प्रविष्टोऽत्र, य एष नृपमन्दिरे / मिथ्याभिमानस्तेनेदं, तात ! सर्व विजृम्भितम् // 20 // अयं हि राजा जातो मे, सूनुरेवं विचिन्तयन् / न माति देहे नो गेहे, न पुरे न जगत्त्रये // 21 // ततो मिथ्याभिमानेन, विह्वलीकतचेतसा / आत्मा च सकलश्चेत्थं, लोकोऽनेन विडम्बितः // न चेदं लक्षयत्येष, नूनमात्मविडम्बनम् / यतो मिथ्याभिमानेन, वराकं मन्यते जगत् // 23 // प्रकर्षः प्राह यद्येवं, ततोऽस्य परमो रिपुः / माम ! मिथ्याभिमानोऽयं, यः खल्वेवं विडम्बकः // 24 // विमर्शः प्राह को वाऽत्र संशयो भद्र ! वस्तुनि / निश्चितं रिपुरेवायं, बन्धुरस्य प्रभासते // 25 //

Loading...

Page Navigation
1 ... 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306