Book Title: Upmitibhav Prapancha Katha Part 01
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan

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Page 270
________________ 239 एतच्चान्यभवे धन्यैर्यैरुपात्तमिहापि वा / स्थिरमेव धनं तेषां सुमेरोः शिखरं यथा // 12 // अन्यच्च ते महात्मानस्तत्पुण्यपरिढौकितम् / बाह्य तुच्छं मलप्रायं, विज्ञाय क्षणगत्वरम् // 13 // योजयन्ति शुभे स्थाने, स्वयं च परिभुञ्जते / न च तत्र धने मूर्छामाचरन्ति महाधियः॥१४॥ युग्मम् // ततश्च तद्धनं तेषां, सत्पुण्यावाप्तजन्मनाम् / इत्थं विशुद्धबुद्धीनां, जायते शुभकारणम् // 15 // निन्ये बाह्ये महानर्थकारणे मूछिता धने / शून्यास्ते दानभोगाभ्यां, ये पुनः क्षुद्रजन्तवः // 16 // इहैव चित्तसन्तापं, घोरानर्थपरम्पराम् / यत्ते लभन्ते पापिष्ठास्तत्र किं भद्र ! कौतुकम् ? // 17 // तदत्र परमार्थोऽयं, मूर्छागवौं धने सति / न कार्यों दानभोगौ तु, कर्तव्यौ तत्त्ववेदिना // 18 // यस्तु नैव करोत्युच्चैः, स वराको निरर्थकम् / अमूल्यकः कर्मकरः, केवलं परिताम्यति // 19 // स्नेहदुर्नयगन्धोऽपि, वर्जनीयश्च जानता। अन्यथा जायते कष्टं, यथाऽस्य वणिजो महत् // 20 // यावत्स कथयत्येवं, बुद्धिसूनोः स्वमातुल: / अन्यस्तावत्समापनो, वृत्तान्तस्तं निबोधत // 21 // दृष्टस्ताभ्यां युवा कश्चिदवती) वणिक्पथे / दुर्बलो मलिनः क्षामो, जरचीवरधारकः // 22 // आपणे ग्रन्थिमुन्मोच्य, रूपकैस्तेन मोदकाः / स्रजः पर्णानि गन्धाश्च, क्रीतं वस्त्रयुगं तथा // 23 // गत्वा च निकटे वाप्यां, भक्षितं तेन भोजनम् / सन्मानितं सताम्बूलं, स्नातः संपूरितोदरः॥२४॥ बद्धश्चामोटकः पुष्पैः, सद्गन्धैर्वासितं वपुः / ततः परिहिते वस्त्रे, प्रस्थितो राजलीलया // 25 // निरीक्षतेऽभिमानेन निजदेहं पुनः पुनः। समारयति चामोटं, गन्धमाघ्राय मोदते // 26 // प्रकर्षणोदितं माम ! क एष तरुणस्तथा / क प्रस्थितः किमर्थ वा, विकारैरिति भज्यते ? // 27 // विमर्शेनोदितं वत्स ! महतीयं कथानिका / लेशोद्देशेन ते किञ्चित् , कथ्यते तन्निबोध मे // 28 // समुद्रदत्तस्य सुतो, वास्तव्योऽत्रैव पत्तने / अयं हि रमणो नाम, तरुणो भोगतत्परः // 29 // बालकालात्समारभ्य, गणिकाव्यसने रतः / अयं च रमणो भद्र ! न चेतयति किञ्चन // 30 // गृहं समुद्रदत्तस्य, रत्नसम्भारपूरितम् / यदासीद्विभवैः पूर्व, विक्षिप्तधनदालयम् // 31 // तदनेन दिनैः स्तोकैर्गणिकारतबुद्धिना / अनाशककुटेस्तुल्यं, विहितं पापकर्मणा // 32 // अधुना निर्धनो दीनः, परकर्मकरो लघुः / जातोऽयमीदृशः पापो, दुःखातों निजकर्मणा // 33 // परकर्मकरत्वेन, कतिचिद्रूपकानयम् / अद्यागतः समासाद्य, हट्टे व्यसननाटितः // 34 // ततः परं पुनर्वत्स ! यदनेन विचेष्टितम् / तदृष्टमेव निःशेष, त्वया किं तत्र कथ्यताम् ? // 35 // अस्ति चात्र पुरे ख्याता, गणिका मदनमञ्जरी / तस्याश्च कुन्दकलिका, दुहिता यौवनोद्भटा // 36 // तस्यामासक्तचित्तेन, नाशितो धनसञ्चयः / अनेन धनहीनश्च, गेहानिःसारितस्तया // 37 // ततोऽद्य रूपकानेष, कियतोऽप्यतिनिष्ठया / संप्राप्य प्रस्थितस्तस्याः, सदने रतकाम्यया // 38 // अत्रान्तरे सतूणीरमाकृष्टशरदारुणम् / नरं सानुचरं वीक्ष्य, प्रकर्षः प्राह मातुलम् // 39 // हा माम माम ! पश्य त्वं, शरेण रमणं नरः / कश्चिदेष निहन्त्युच्चैस्तदेनं ननु वारय // 40 // विमर्शेनोदितं वत्स ! स एष मकरध्वजः / चर्यया निर्गतो रात्रौ, भयेन सह लीलया // 41 // वर्तते को ममाज्ञायां ? को वा नेत्यत्र पत्तने / परीक्षार्थ जनोल्लापवेषकर्तव्यचेतसाम् ।४२।युग्मम् / शरमाकृष्य वीर्येण, तदेष रमणो ननु / अनेनैव गृहं तस्या, वराको वत्स ! नीयते // 43 // तत्किं ते वारणेनास्य, यदनेन पुरस्कृतः / रमणोऽनुभवत्येष, तन्निभालय कौतुकम् // 44 // एवं भवतु तेनोक्ते, तौ गतौ गणिकागृहे / दृष्टा च कुन्दकलिका, गृहद्वारेऽतिचर्चिता // 45 // तदभ्यर्णे विमर्शन, कुञ्चिता निजनासिका / निष्ठयूतं धूनितं शीर्ष, वालिताऽन्यत्र कन्धरा // 46 // THHTHHEL

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