Book Title: Upmitibhav Prapancha Katha Part 01
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan

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Page 234
________________ 203 इयं निद्रातटी तुङ्गा, कषायजलवाहिनी / विज्ञेया मदिरास्वादविकथास्रोतसां निधिः // 12 // महाविषयकल्लोललोलमालाकुला सदा / विकल्पानल्पसत्त्वौधैः पूरिता च निगद्यते // 13 // योऽस्यास्तटेऽपि वर्तेत, नरो बुद्धिविहीनकः। तमुन्मूल्य महावर्ते, क्षिपत्येषा महापगा // 14 // यस्तु प्रवाहे नीरस्य, प्रविष्टोऽस्याः पुमानलम् / स यजीवति मूढात्मा, क्षणमात्रं तदद्भतम् // 15 // यदृष्टं भवता पूर्व, रागकेसरिपत्तनम् / यच्च द्वेषगजेन्द्रस्य, सम्बन्धि नगरं परम् // 16 // ताभ्यामेषा समुद्भता, विगाह्येमां महाटवीम् / गत्वा पुनः पतत्येषा, घोरसंसारनीरधौ // 17 // अतोऽस्यां पतितो भद्र! पुरुषस्तत्र सागरे / अवश्यं याति वेगेन, तस्य चोत्तरणं कुतः? // 18 // ये गन्तुकामास्तत्रैव, भीमे संसारसागरे / अत एव सदा तेषां, वल्लभेयं महापगा // 19 // ये तु भीताः पुनस्तस्माद घोरात्संसारसागरात / ते दरादरतो यान्ति, विहायेमां महानदीम् // 20 // तदेषा गुणतो भद्र ! वर्णिता तव निम्नगा / त्वं तद्विलसितं नाम, साम्प्रतं पुलिनं शृणु // 21 // एतद्धि पुलिनं भद्र ! हास्यविब्बोकसैकतम् / विलासलाससङ्गीतहंससारसराजितम् // 22 // स्नेहपाशमहाकाशविकासधवलं तथा। घूर्णमानमहानिद्रामदिरामत्तदुर्जनम् // 23 // केलिस्थानं सुविस्तीर्ण, बालिशानां मनोरमम् / विज्ञाततत्त्वै रेण, वर्जितं शीलशालिभिः // 24 // तदिदं पुलिनं भद्र !, कथितं तव साम्प्रतम् / महामण्डपरूपं ते, कथयामि सनायकम् // 25 // अयं हि चित्तविक्षेपो, नाम्ना संगीयते बुधैः / गुणतः सर्वदोषौघवासस्थानमुदाहृतः // 26 // अत्र प्रविष्टमात्राणां, विस्मरन्ति निजा गुणाः / प्रवर्तन्ते महापापसाधनेषु च बुद्धयः // 27 // एतेषामेव कार्येण, निर्मितोऽयं मुवेधसा / राजानो येऽत्र दृश्यन्ते, महामोहादयः किल // 28 // बहिरङ्गाः पुनर्लोका, यदि मोहवशानुगाः। स्युर्महामण्डपे भद्र ! प्रविष्टाः कचिदत्र ते // 29 // ततो विभ्रमसन्तापचित्तोन्मादव्रतप्लवान् / प्राप्नुवन्ति न सन्देहो, महामण्डपदोषतः // 30 // युग्मम् एनं भद्र ! प्रकृत्यैव, महामण्डपमुच्चकैः / एते नरेन्द्राः संप्राप्य, मोदन्ते तुष्टमानसाः // 31 // बहिरङ्गाः पुनर्लोका, मोहादासाद्य मण्डपम् / एनं हि दौर्मनस्येन, लभन्ते दुःखसागरम् // 32 // अयं हि चित्तनिर्वाणकारिणी निजवीर्यतः / तेषामेकाग्रतां हन्ति, सुखसन्दोहदायिनीम् // 33 // केवलं ते न जानन्ति, वीर्यमस्य तपस्विनः। प्रवेशमाचरन्त्यत्र, तेन मोहात्पुनः पुनः // 34 // यैस्तु वीर्य पुनर्जातं, कथश्चित् पुण्यकर्मभिः। अस्य नैवात्र ते भद्र ! प्रवेशं कुर्वते नराः // 35 // एकाग्रमनसो नित्यं, चित्तनिर्वाणयोगतः / ततस्ते सततानन्दा, भवन्त्यत्रैव जन्मनि // 36 // तदेष गुणतो भद्र ! चित्तविक्षेपमण्डपः / मया निवेदितस्तुभ्यमधुना शृणु वेदिकाम् // 37 // एषा प्रसिद्धा लोकेऽत्र, तृष्णानाम्नी सुवेदिका / अस्यैव च नरेन्द्रस्य, कारणेन निरूपिता // 38 // भद्रात एव त्वं पश्य, महामोहेन यो निजः। कुटुम्बान्तर्गतो लोकः, स एवास्यां निवेशितः॥३९॥ ये तु शेषा महीपालास्तत्सेवामात्रवृत्तयः। एते निविष्टास्ते पश्य, सर्वे मुत्कलमण्डपे // 40 // एषा हि वेदिका भद्र ! प्रकृत्यैवास्य वल्लभा। महामोहनरेन्द्रस्य, स्वजनस्य विशेषतः // 41 // अस्यां समुपविष्टोऽयमत एव मुहुर्मुहुः। सगर्व वीक्षते लोकं, सिद्धार्थोऽहं किलाधुना // 42 // एतच्च प्रीणयत्येषा, स्वभावेनैव वेदिका / स्वस्योपरिष्टादासीनं, महामोहकुटुम्बकम् // 43 // बहिरङ्गाः पुनर्लोका, यद्येनां भद्र ! वेदिकाम् / आरोहन्ति ततस्तेषां, कौतस्त्यं दीर्घजीवितम् // 44 // अन्यच्चैषा स्ववीर्येण, तृष्णाख्या भद्र ! वेदिका / अत्रैव संस्थिता नित्यं, भ्रामयत्यखिलं जगत् // 45 // तदेषा गुणतो भद्र ! यथार्था वरवेदिका / मया निवेदिता तुभ्यमिदानीं शृणु विष्टरम् // 46 //

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