Book Title: Upmitibhav Prapancha Katha Part 01
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan
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________________ रागत्रय एनं राज्ये निधायोच्चैर्महामोहनराधिपः / गतिचिन्ताभरो नूनं, कृतार्थों वर्ततेऽधुना // 305 // केवलं दत्ताराज्येऽपि, महामोहनरेश्वरे / सविशेषं करोत्येष, विनयं नयपण्डितः // 306 // महामोहनरेन्द्रोऽपि, सर्वेषामग्रतः स्फुटम् / अस्यैव भोः सुपुत्रस्य, प्रभुत्वं ख्यापयत्यलम् // 307 // तदेवं स्नेहसंबद्धौ, पितापुत्रौं परस्परम् / एतावेव वशीकर्तु, क्षमौ भद्र ! जगत्त्रयम् // 308 // यावद्विप्रतपत्येष, नरेन्द्रो रागकेसरी / बहिरङ्गजने तावत्कौतस्त्यः मुखसङ्गमः? // 39 // . यतोऽयं भद्र ! संसारसागरोदरवर्तिषु / बहिर्लोके पदार्थेषु, प्रीतिमुत्पादयत्यलम् // 310 // संक्लिष्टपुण्यजन्येषु, संक्लिष्टेषु स्वरूपतः / संक्लेशजनकेष्वेव, संबध्नाति पृथग्जनम् // 311 // अन्यच्च भद्र ! पार्श्वस्थं, यदस्य पुरुषत्रयम् / रक्तवर्णमतिस्निग्धदेहं च प्रविभाव्यते // 312 // एते हि निजवीर्येण, शरीरादविभेदिनः / अनेन विहिता भद्र ! त्रयोऽप्यात्मवयस्यकाः // 313 // अतत्त्वाभिनिवेशाख्यः, प्रथमोऽयं नरोत्तमः। दृष्टिराग इति प्रोक्तः, स एवापरसूरिभिः // 314 // अयं हि भद्र ! तीर्थ्यानामात्मीयात्मीयदर्शने / करोति चेतसोऽत्यन्तमाबन्धमनिवर्तकम् // 315 // द्वितीयो भवपाताख्यः, पुरुषो भद्र ! गीयते / अयमेवापरैः प्राज्ञैः, स्नेहराग इतीरितः // 316 // अयं तु कुरुते द्रव्यपुत्रस्वजनसन्ततौ / मूर्छातिरेकतो भद्र ! चेतसो गाढबन्धनम् // 317 // अभिष्वङ्गाभिधानोऽयं, तृतीयः पुरुषः किल / गीतो विषयरागाख्यः, स एव मुनिपुङ्गवैः // 318 // अयं तु भद्र ! लोकेऽत्र, भ्रमन्नुद्दामलीलया / शब्दादिविषयग्रामे, लौल्यमुत्पादयत्यलम् // 319 // नरत्रयस्य सामर्थ्यादस्य भद्र ! जगत्त्रयम् / आक्रान्तमेव मन्येऽहं, रागकेसरिणा पुनः // 320 // सन्मार्गमत्तमातङ्गकुम्भनिर्भेदनक्षमः / स्ववीर्याक्रान्तभुवनः, सत्योऽयं रागकेसरी // 321 // या त्वेषा दृश्यते भद्र ! निविष्टाऽस्यैव विष्टरे / अस्यैव भार्या सा ज्ञेया, मूढता लोकविश्रुता // 322 // ये केचिदस्य विद्यन्ते, गुणा भद्र ! महीपतेः / तेऽस्यां सर्वे सुभार्यायां, विज्ञेयाः सुप्रतिष्ठिताः // 323 // यतः शरीरनिक्षिप्तां, पार्वतीमिव शङ्करः / एनामेष सदा राजा, धारयत्येव मूढताम् // 324 // ततश्च-अन्योऽन्यानुगतो नित्यं, यथा देहस्तथाऽनयोः / अविभक्ता विवर्तन्ते, गुणा अपि परस्परम् // 325 // यस्त्वेष वामके पाचँ, निविष्टोऽस्यैव भूपतेः। भद्र ! द्वेषगजेन्द्रोऽसौ, प्रतीतः प्रायशस्तव // 326 // अत्रापि च महामोहनरेन्द्रस्य सुतोत्तमे / चित्तं विश्रान्तमेवोच्चैर्गुणाः कल्याणकारकाः // 327 // यतः-जन्मना लघुरप्येष, रागकेसरिणोऽधुना / वीर्येणाभ्यधिको लोके नरेन्द्रो भद्र ! वर्तते // 328 // तथाहि-न भयं यान्ति दृष्टेन, रागकेसरिणा जनाः। दृष्ट्वा द्वेषगजेन्द्रं तु, जायन्ते भीत्वकम्पिताः // 329 // यावदेष महावीर्यश्चित्ताटव्यां विजृम्भते / बहिरङ्गजने तावत्कौतस्त्यः प्रीतिसङ्गमः ? // 330 // येऽत्यन्तसुहृदो लोकाः, स्नेहनिर्भरमानसाः / तेषामेष प्रकृत्यैव, चित्तविश्लेषकारकः // 331 // चित्तवृत्तिमहाटव्यां, चलत्येष यदा यदा / तदा तदा भवन्त्येव, जनास्तेऽत्यन्तदुःखिताः॥३३२॥ परलोके पुनर्यान्ति, नरके तीव्रवेदने / आबद्धमत्सरा वैरं, प्रविधाय परस्परम् // 333 // भद्र ! द्वषगजेन्द्रोऽयं, यथार्थों नात्र संशयः / यस्य गन्धेन भज्यन्ते, विवेकाः कलभा इव // 334 // या त्वस्य भार्या तद्वार्ता, शोकेनैव निवेदिता / अत एव न पार्श्वस्था, दृश्यते साऽविवेकिता // 335 // प्रकर्षः प्राह यस्त्वेष, निविष्टस्तुङ्गविष्टरे / नरत्रयपरीवारः, पृष्ठतोऽस्यैव भूपतेः // 336 // रक्तवर्णोऽतिलोलाक्षो, विलासोल्लासतत्परः / पृष्ठापीडिततूणीरः, सचापः पश्चबाणकः // 337 // भ्रमद्भ्रमरशङ्कारहारिगीतविनोदितः / विलसद्दीप्तिलावण्यवर्ण्यया वरयोषिता // 338 // मूढता द्वेषग: जेन्द्र
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