Book Title: Upmitibhav Prapancha Katha Part 01
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan
View full book text
________________ रागदेषादिजातस्य, स्वपापस्य विशुद्धये / एवं च घटते लोकस्तत्त्वमार्गावहिष्कृतः // 238 // धर्मोपायमजानानः, कुरुते जीवमर्दनम् / प्रामोति करभं नैव, रासभं दामयत्ययम् // 239 // तिला भस्मीकृता वह्नौ, दग्धं पेयं तवेत्यहो / घनमुदालितं धृतेर्जनस्तु हृदि भावितः // 24 // न च सन्मार्गवक्तारः, पूत्कुर्वन्तोऽप्यनेकधा / लोकेनानेन गण्यन्ते, प्रोच्यन्ते च विमूढकाः // 241 // तदिदं भद्र ! निःशेष, मिथ्यादर्शनसंज्ञिना / अमुना संस्कृतस्यास्य, मण्डपस्य विजृम्भितम् // 242 // यत्पुनम्रियमाणोऽपि, लोकोऽयं नैव मुश्चति / भद्र ! कामार्थलाम्पटयं नानाकारैविडम्बनैः // 243 // कथम् ? अप्सरोऽर्थ करोत्येष, नदीकुण्डप्रवेशनम् / पत्युः सङ्गमनार्थ च, दहत्यात्मानमग्निना // 244 // स्वर्गार्थ भूतिकामेन, पुत्रस्वजनकाम्यया / अग्निहोत्राणि यागांश्च, कुरुतेऽन्यच्च तादृशम् // 245 // दानं ददाति चाशास्ते, भूयादेतन्मृतस्य मे / आशास्ते क्लेशनिर्मुक्तं, न फलं मोक्षलक्षणम् // 246 // यत्किञ्चित्कुरुते कर्म, तनिदानेन दूषितम् / अर्थकामप्रदं मेऽदः, परलोके भविष्यति // 24 // तदस्य सकलस्येयं, मिथ्यादर्शनसंस्कृता / वृत्तान्तस्येह तृष्णाख्या, वेदिका भद्र ! कारणम् // 248 // यत्पुनर्भद्र ! लोकोऽयं, दिङ्मूढ इव मानवः / शिवं गन्तुमनास्तूर्ण, विपरीतः पलायते // 249 // कथम् ?-देवं विगर्हते मूढः, सर्वज्ञं सर्वदर्शिनम् / वेदाः प्रमाणमित्येवं भाषते निष्प्रमाणकम् // 250 // धर्म च दूषयत्येष, जडोऽहिंसादिलक्षणम् / प्रख्यापयति यत्नेन, यागं-पशुनिबर्हणम् // 251 // जीवादितत्त्वं मोहेनापहूनुतेऽलीकपण्डितः। संस्थापयति शून्यं वा, पञ्चभूतात्मकादि वा // 252 // ज्ञानादिनिर्मलं पात्रं, निन्दत्येष जडात्मकः / सर्वारम्भप्रवृत्तेभ्यो, दानमुच्चैः प्रयच्छति // 253 // तपः क्षमा निरीहत्वममून् दोषांश्च मन्यते / शाठयमुक्तौ(युक्तः)पिशाचत्वं, पिङ्गत्वं मनुते गुणात् / / 254 // शुभं ज्ञानादिकं मार्ग, मन्यते धूर्तकल्पितम् / कौलमार्गादिकं मूढो, मनुते शिवकारणम् // 255 // कलयत्यतुलं धर्म, विशेषेण गृहाश्रमम् / निःशेषद्वन्द्वविच्छेदां, गर्हते यतिरूपताम् // 256 // तदनेनात्र रूपेण, मिथ्यादर्शनसंस्कृतम् / लोके भो ! विलसत्येतद्विपर्यासाख्यविष्टरम् // 257 // अन्यच्चास्यैव सामर्थ्याल्लोका ध्वान्तवशंगताः। यदन्यदपि कुर्वन्ति, भद्र ! तसे निवेदये // 258 // जराजीर्णकपोला ये, हास्यप्रायाश्च योषिताम् / वलीपलितखालित्यपिप्लुव्यङ्गादिदूषिताः // 259 // तेऽपि त्रपन्ते जरसा, विकाररसनिर्भराः। कथयन्त्यात्मनो जन्म, गाढमित्वरकालिकम् // 26 // अनेकद्रव्ययोगैश्च, काष्र्ण्यसम्पत्तये किल / तमसेव सहार्देन, रञ्जयन्ति शिरोरुहान् // 26 // जनयन्ति मृजां देहे, नानास्नेहैमुहुर्मुहुः। तथा कपोलशैथिल्य, यत्नतश्छादयन्ति ते // 262 // भ्रमन्ति विकटं मूढास्तरुणा इव लीलया। वयःस्तम्भनिमित्तं च, भक्षयन्ति रसायनम् // 263 // स्वच्छायां दर्पणे विम्बं, निरीक्षन्ते जलेषु च / क्लिश्यन्ते राढया नित्यं, देहमण्डनतत्पराः // 26 // आहूतास्तात तातेति, ललनाभिस्तथापि ते। पितामहसमाः सन्तः, कामयन्ते विमूढकाः // 265 // सर्वस्य प्रेरणाकाराः, सन्तोऽपि नितरां पुनः। कुर्वन्तो हास्यबिब्बोकान् , गाढं गच्छन्ति हास्यताम् / / 266 // जराजीर्णशरीराणां, येषामेषा विडम्बना / ते भद्र ! सति तारुण्ये, कीदृशाः सन्तु जन्तवः ? // 267 // श्लेष्मान्त्रक्लेदजाम्बालपूरिते ते कलेवरे / आसक्तचित्ताः खिद्यन्ते, यावजीवं वराककाः // 268 // अनन्तभवकोटीभिर्लब्धं मानुष्यकं भवम्। वृथा कुर्वन्ति निहींका, धर्मसाधनवर्जिताः // 269 // आयतिं न निरीक्षन्ते, देहतत्त्वं न जानते / आहारनिद्राकामा स्तिष्ठन्ति पशुसन्निभाः // 270 // ततस्तेषामपारेऽत्र, पतितानां भवोदधौ / निर्नष्टशिष्टचेष्टानां, पुनरुत्तरणं कुतः ? // 271 //

Page Navigation
1 ... 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306