Book Title: Upmitibhav Prapancha Katha Part 01
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan

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Page 244
________________ 213 औत्पातमान्तरिक्षं च, दिव्यमाङ्गं स्वरं तथा / लक्षणं व्यञ्जन भौम, निमित्तं च शुभाशुभम् // 204 // उच्चाटनं सविद्वेषमायुर्वेदं सजातकम् / ज्योतिषं गणितं चूर्ण, योगलेपास्तथाविधाः // 205 // ये चान्ये विस्मयकरा, विशेषाः पापशास्त्रजाः। अन्ये भूतोपमर्दस्य, हेतवः शाठयकेतवः॥२०६।। तानेव ये विजानन्ति, निःशङ्काश्च प्रयुञ्जते / न धर्मवाधां मन्यन्ते, शठाः पापपरायणाः // 206 // त एव गुणिनो धीरास्ते पूज्यास्ते मनस्विनः / त एव वीरास्ते लाभभाजिनस्ते मुनीश्वराः॥२०८॥ इत्येवं निजवीर्येण, बहिरङ्गजनेऽमुना / मिथ्यादर्शनसंज्ञेन, भद्र ! पापाः प्रकाशिताः // 209 // सप्तभिःकुलकम् ये पुनमन्त्रतन्त्रादिवेदिनोऽप्यतिनिःस्पृहाः / निवृत्ता लोकयात्राया, धर्मातिक्रमभीरवः // 210 // मूकान्धाः परवृत्तान्ते, स्वगुणाभ्यासने रताः / असक्ता निजदेहेऽपि, किं पुनःविणादिके ? // 211 // कोपाहङ्कारलोभायेर्दरतः परिवर्जिताः / तिष्ठन्ति शान्तव्यापारा, निरपेक्षास्तपोधनाः // 212 // न दिव्यादिकमाख्यान्ति, कुहकादि न कुर्वते / मन्त्रादीनानुतिष्ठन्ति, निमित्तं न प्रयुञ्जते // 213 // लोकोपचार निःशेष, परित्यज्य यथासुखम् / स्वाध्यायध्यानयोगेषु, सक्तचिताः सदाऽऽसते // 214 // ते निर्गुणा अलोकज्ञा, विमूढा भोगवश्चिताः। अपमानहता दीना, ज्ञानहीनाच कुर्कुटाः // 215 // इत्येवं निज़वीर्येण, बहिरङ्गजनेऽमुना / ते मिथ्यादर्शनाहेन, स्थापिता भद्र ! साधवः // 216 // सप्तभिः कुलकम् तथा-उद्वाहनं च कन्यानां, जननं पुत्र संहतेः / निपातनं च शत्रूणां, कुटुम्बपरिपालनम् // 217 // यदेवमादिकं कर्म, घोरसंसारकारणम् / तद्धर्म इति संस्थाप्य, दर्शितं भवतारणम् // 218 // युग्मम् यः पुनर्ज्ञानचारित्रदर्शनाढयो विमुक्तये / मार्गः सर्वोऽपि सोऽनेन, लोपितो लोकवैरिणा // 219 // ततश्च भद्र ! यत्तुभ्यं, समासेन मयोदितम् / वीर्य महत्तमस्यास्य, ब्रुवाणेन पुरा यथा // 220 // अदेवे देवसङ्कल्पमधर्मे धर्ममानिताम् / अतत्त्वे तत्त्वबुद्धिं च, करोत्येष जडात्मनाम् // 221 // अपात्रे पात्रतारोपमगुणेषु गुणग्रहम् / संसारहेतौ निर्वाणहेतुभावं करोत्ययम् // 222 // तदिदं लेशतः सर्व, प्रविवेच्य निवेदितम् / विस्तरेण पुनर्वीर्य, कोऽस्य वर्णयितुं क्षमः // 223 // अन्यच्चायं निजे चित्ते, मन्यते भद्र ! सर्वदा / मदोद्धतः प्रकृत्यैव, महामोहमहत्तमः // 224 // निक्षिप्तभर एवाय, राज्यसर्वस्वनायकः / महामोहनरेन्द्रेण, कृतः सर्वत्र वस्तुनि // 225 // एवं च स्थिते-विश्रम्भार्पितचित्ताय, मयाऽस्मै हितमुच्चकैः / अन्यव्यापारशून्येन, कर्तव्यं ननु सर्वदा // 226 ततश्च मण्डपं चित्तविक्षेप, तृष्णानाम्नी च वेदिकाम् / गाढं समारयत्येष, विपर्यासं च विष्टरम् // 227 // समारितानि चानेन, यदेतानि बहिर्जने / कुर्वन्ति तदहं वच्मि, समाकर्णय साम्प्रतम् // 228 // यदुन्मत्तग्रहग्रस्तसन्निभो भद्र ! सर्वदा / जनो दोलायतेऽत्यर्थ, धर्मबुद्धया वराककः // 229 // कथम् ?-करोति भैरवे पातं, याति मूढो महापथम् / शीतेन म्रियते माघे, कुर्वाणो जलगाहनम् // 230 // पञ्चाग्नितपने रक्तो, दह्यते तीव्रवहिना / गवाश्वत्थादिवन्दारुरास्फोटयति मस्तकम् // 23 // कुमारीब्राह्मणादीनामतिदानेन निर्धनः / सहते दुःखसङ्घातं, श्राद्धः पूतमलः किल // 232 // परित्यज्य धनं गेहं, बन्धुवर्ग च दुखितः। अटाटयते विदेशेषु, तीर्थयात्राभिलाषुकः // 233 // पितृतर्पणकार्येण, देवाराधनकाम्यया / निपातयति भूतानि, विधत्ते च धनव्ययम् // 234 // मांसैमद्यैर्धनैः खाद्यैर्भक्तिनिर्भरमानसः / तप्तायोगोलकाकारं, ततस्तर्पयते जनम् // 235 // हास्यं विवेकिलोकस्य, धर्मबुद्धया विनाटितः / इत्येवमादिकं धर्म, करोत्येष पृथगजने // 236 // न लक्षयति शून्यात्मा, भूतमर्दै सुदारुणम् / नात्मनो दुःखसङ्घातं, हास्यं नापि धनव्ययम् // 237 //

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