Book Title: Upmitibhav Prapancha Katha Part 01
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan
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________________ 28 अवधूताश्च खिद्यन्ते, रुण्टन्ति च बहिष्कृताः / पररक्तस्वनारीभिः पात्यन्ते दुःखसागरे // 373 // ईय॑या च वितुद्यन्ते, स्वभार्यारक्षणोद्यताः। एता विडम्बना भद्र ! प्राप्नुवन्तीह ते भवे // 374 // परलोके पुनर्यान्ति, घोरे संसारनीरधौ / ये जाता रतिवीर्येण, मकरध्वजकिङ्कराः // 375 // बहवश्चेदृशाः प्रायो, बहिरङ्गा मनुष्यकाः / ये त्वस्य शासनातीता, विरलास्ते मनीषिणः // 376 तदयं यस्त्वया पृष्टो, लेशोद्देशादसौ मया / परिवारयुतो भद्र ! वर्णितो मकरध्वजः॥३७७॥ प्रकर्षः प्राह--ममेदं, सुन्दरं विहितं त्वया / यमन्यमपि पृच्छामि, सन्देहं तं निवेदय // 378 // मकरध्वजपार्श्वस्थं यदिदं प्रविभाव्यते / किंनाम किंगुणं चेदं ? माम ! मानुषपञ्चकम् // 379 // हासतुः च्छते विमर्शः प्राह यस्तावदेष शुक्लो मनुष्यकः / स हास इति विज्ञेयो, विषमोऽत्यन्तदुष्करः // 380 // अयं हि कुरुते भद्र ! निजवीर्येण मानुषम् / बहिरङ्गं विना कार्य, सशब्दमुखकोटरम् // 381 // . किश्चिनिमित्तमासाद्य, निमित्तविरहेण वा / स्वं वीर्य दर्शयत्युच्चैर्येषामेष महाभटः // 382 // महाकहकहध्वानैर्हसन्तः शिष्टनिन्दिताः। निर्वादितमुखास्तुच्छास्ते जने यान्ति लाघवम् ॥३८३॥युग्मम् / आशङ्कायाः पदं लोके, जायन्ते निनिमित्तकम् / जनयन्ति परे वैरं, लभन्ते वक्त्रविभ्रमम् // 38 // मक्षिकामशकादीनामुपपातं च देहिनाम् / आचरन्ति विना कार्य, परेषां च पराभवम् // 385 // तदिदं भद्र ! निःशेषमिह लोके विजृम्भते / हासोऽयं परलोकेऽस्मात्कर्मबन्धः सुदारुणः // 386 // अस्त्यस्य तुच्छता नाम, सद्भार्या हितकारिणी। देहस्थाऽस्यैव पश्यन्ति, तां भो गम्भीरचेतसः॥३८७॥ एनमुल्लासयत्येव, निमित्तेन विना सदा / हासं सा तुच्छता वत्स ! लघुलोके यथेच्छया // 388 // यतो गम्भीरचित्तानां, निमित्ते सुमहत्यपि / मुखे विकासमा स्यान्न हास्यं बहुदोषलम् // 389 // या त्वेषा कृष्णसर्वाङ्गी, गाढ बीभत्सदर्शना / दृश्यते ललना सेयमरति म विश्रुता // 390 // किश्चित्कारणमासाद्य, बहिरङ्गजने सदा / करोत्येष मनोदुःखं, जृम्भमाणाऽतिदुःसहम् // 391 // यस्त्वेष दृश्यते भद्र ! कम्पमानशरीरकः / पुरुषः स भयो नाम, प्रसिद्धो गाढदुःसहः // 392 // भयहीन विलसम्नेष महाटव्यामेतस्यां किल लीलया / बहिरङ्गजनानुच्चैः, कुरुते कातराननान् // 393 // सत्वते कथम् ?-त्रस्यन्तीह मनुष्यादेः, कम्पन्ते पशुसंहतेः / अर्थादिहानि मन्वानाः, पलायन्तेऽतिकातराः // 394 // अकस्मादेव जायन्ते, त्रस्तास्तरललोचनाः। जीविष्यामः कथं चेति, चिन्तया सन्ति विवलाः // 395 // मरिष्यामो मरिष्याम, इत्येवं भावनापराः / मुधैव जीवितं हित्वा, म्रियन्ते सत्त्ववर्जिताः॥३९६॥ जने च मा भूदश्लाघेत्येवं भावेन विहलाः / नोचितान्यपि कुर्वन्ति, कर्माणि पुरुषाधमाः // 397 स एष निकटस्थायिसप्तमानुषसम्पदा / विज़म्भते भयो भद्र !, बहिरङ्गजने सदा // 398 // किं च-पलायनं रणे दैन्यमरीणां पादवन्दनम् / अस्यादेशेन निर्लज्जास्ते कुर्वन्ति नराधमाः // 399 // तदेवं भद्र ! लोकेऽत्र, ये भयस्य वशं गताः। विनाटिताः परत्रापि, यान्ति भीमे भवोदधौ // 40 // अस्यापि च शरीरस्था, भार्याऽस्ति पतिवत्सला / संवर्धिका कुटुम्बस्य, प्रोच्यते हीनसत्त्वता // 401 // तां हीनसत्त्वतां देहाद्भार्यामेष न मुञ्चति / नूनं हि म्रियते भद्र ! भयोऽयं रहितस्तया॥४०२॥ भद्र ! प्रत्यभिजानीषे, किमेनं तु न माम्प्रतम् ? / तं तत्र नगरे शोकं, यममुं द्रक्ष्यसि स्फुटम् // 403 // अनेनैव तदा वार्ता, समस्ताऽपि निवेदिता / सोऽयं समागतस्तूर्ण, शोको भद्र ! पुनर्बले // 404 // अपेक्ष्य कारणं किश्चिदयं लोके बहिगते / आविभूतः करोत्येव, दैन्याक्रन्दनरोदनम् // 405 // इष्टवियुक्ता ये लोका, निमनाश्च महापदि / अनिष्टैः संप्रयुक्ताश्च, तस्य स्युर्वशवर्तिनः // 406 // न लक्षयन्ति ते मूढा, यथेष रिपुरुच्चकैः / अस्यादेशेन मुश्चन्ति, आराटीः केवलं जडाः // 407 //
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