Book Title: Upmitibhav Prapancha Katha Part 01
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan
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________________ 210 यथा च भोक्त्तुमारब्धः, सनिर्लज्जतया पुनः। पश्यतः सर्वलोकस्य, वान्तिसंमिश्रभोजनम् // 10 // ततः सपरिवारेण, तेन पूत्कुर्वता भृशम् / वारितः समयज्ञेन, तदोषाश्च निवेदिताः // 102 // स तु तत्र गुणारोपाद्भोजने बद्धमानसः / तं रटन्तमनालोच्य, भक्षणं कृतवानिति // 10 // तथाऽयमपि चार्वङ्गि ! जीवः कर्ममलीमसः / भुक्तोत्सृष्टेषु भोगेषु, निर्लज्जः संप्रवर्तते // 104 // परमाणुमया ह्येते भोगाः शब्दादयो मताः / सर्वे चैकैकजीवेन गृहीताः परमाणवः // 105 // गृहीत्वा मुक्तपूर्वाश्च, बहुशो भवकोटिषु / भुक्तवान्तास्ततः सत्यमेते शब्दादयोनघे! // 106 / / यच्चास्य किश्चिल्लोकेऽत्र, चित्ताबन्धविधायकम् / जीवस्य वस्तु सन्नेत्रे ! तत्सर्व पुद्गलात्मकम् // 107 // तथापि भद्रे ! पापात्मा, पश्यतां विमलात्मनाम् / आबद्धचित्तस्तत्रैव जम्बाले संप्रवर्तते // 18 // कृपापरीतचित्ताश्च, भोगकर्दमलम्पटम् / तं जीवं वारयन्त्येते, धर्माचार्याः प्रयत्नतः // 109 // कथम् ?--अनन्तानन्दसवीर्यज्ञानदर्शनरूपकः / देवस्त्वं भद्र ! नो युक्तमतो भोगेषु वर्तनम् // 110 // अन्यच्चामी विवर्तन्ते, सर्वे भोगाः क्षणे क्षणे। अपरापररूपेण, तुच्छमास्थानिबन्धनम् // 111 // वान्ताशुचिसमश्चैते वर्णितास्तत्त्वदर्शिभिः / भद्रः परमदेवोऽपि, नातोऽमून् भोक्तुमर्हति // 112 // दुःखोपढौकिताश्चामी दुःखरूपाश्च तत्त्वतः। दुःखस्य कारणं तेन, वर्जनीया मनीषिणा // 113 // ये च बाह्याणुनिष्पन्नास्तुच्छा गाढमनात्मकाः। तेषु कः पण्डितो रागं कुर्यादात्मस्वरूपवित् // 114 // अतो ममोपरोधेन भद्र ! भोगेषु कुत्रचित् / अन्येषु च प्रमादेषु, मा प्रवर्तिष्ट साम्प्रतम् // 115 // तदेवं पद्मपत्राक्षि ! निवारयति सद्गुरौ / प्रमादभोजने सक्तः स जीवो हृदि मन्यते // 116 // अहो विमूढः खल्वेष, वस्तुतत्त्वं न बुध्यते / आह्लादजनकानेष, यो भोगानपि निन्दति // 117 // तथाहि-मध वरस्त्रियो मांसं गान्धर्व मृष्टभोजनम् / माल्यताम्बूलनेपथ्यविस्ताराः सुखमासनम् // 118 // अलङ्काराः सुधाशुभ्रा,कीर्ति वनगामिनी / सद्रत्ननिचयाः शूरं चतुरङ्गं महाबलम् // 119 // राज्यं प्रणतसामन्तं, यथेष्टाः सर्वसम्पदः / यद्येतदुःखहेतुस्ते, किमन्यत्सुखकारणम् ? // 120 // त्रिभिर्विशेषकम् / विप्रलब्धाः कुसिद्धान्तैः, शुष्कपाण्डित्यगर्विताः। ये नूनमीदृशा लोके, भोगभोजनवञ्चिताः॥१२१॥ ते मोहेन स्वयं नष्टाः, परानपि कृतोद्यमाः। नाशयन्ति हितं तेऽतो, वर्जनीया विजानता // 122 // तथाहि-यो भोगरहितो मोक्षो, वश्चनं तदुदाहृतम् / तदर्थ कस्त्यजेद्दष्टमिदं भोगसुखामृतम् ? // 123 एवंविधविकल्पैश्च, गुरुवाक्यपराङ्मुखः / अभूतगुणसङ्घातं, तेषु भोगेषु मन्यते // 124 // कथम् ?-स्थिरा ममैते शुद्धाश्च, सुखरूपाश्च तत्त्वतः। एतदात्मक एवाहमलमन्येन केनचित् // 125 // आस्तामेष गृहीतेन, मोक्षेण प्रशमेन वा / अहं तु नेदृशैक्यिरात्मानं वश्चयामि भोः ! // 126 // ततश्च-सद्धर्मावेदनव्याजाद्गाढं पूत्कुवतोऽग्रतः / गुरोरपि प्रवर्तेन प्रमादाशुचिकर्दमे // 127 // सा सर्वेयमविद्याख्या, जीवस्यास्य वरानने ! / महामोहनरेन्द्रस्य, गात्रयष्टिविजृम्भते // 128 // यथा स भोजनं भूयो, भक्षयित्वा पुनर्वमन् / संजातसन्निपातत्वात्पतितस्तत्र भूतले // 129 // लुठनितस्ततो गाढं, मुश्चन्नाक्रन्दभैरवान् / अनाख्येयामचिन्त्यां च, प्राप्तोऽवस्थां सुदारुणाम् // 130 // न त्रातः केनचिल्लोके, तदवस्थः स्थितः परम् / तथायमपि विज्ञेयो, जीवः सर्वाङ्गसुन्दरि ! // 131 // तथाहि-यदा प्रमत्ततायुक्तस्तद्विलासपरायणः / विक्षिप्तचित्तस्तृष्णाों , विपर्यासवशं गतः // 132 // अविद्याऽन्धीकृतो जीवः, सक्तः संसारकर्दमे / आरोपितगुणव्रातस्तत्रैव विषयादिके // 133 // सर्वज्ञं धर्मसूरिं च, वारयन्तं मुहुर्मुहुः / सुवैद्यसभिभं जीवो, विमूढमिति मन्यते // 134 // त्रिभिर्विशेषकम् /
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