Book Title: Upmitibhav Prapancha Katha Part 01
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan

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Page 226
________________ यदुत--धन्योऽहं कृतकृत्योऽहमहो मे सुखसागरः। यस्येदृशी शुभा भार्या, संपन्ना पुण्यकर्मणः // 8 // नास्ति नूनं मया सहक, सुखितो भुवनत्रये / यतोऽस्या लालनां मुक्त्वा, किं नाम भवने सुखम् ? // 9 // यतोऽलीकमुखास्वादपरिमोहितचेतनः / तदर्थ नास्ति तत्कर्म, यदसौ नानुचेष्टते // 10 // तं भार्यालालनोद्युक्तं तथा दृष्ट्वाऽखिलो जनः / जडं हसितुमारब्धः, सत्यमेष जडो जडः॥११॥ यतो धर्मार्थमोक्षेभ्यो, विमुखः पशुसनिभः / रसनालालनोद्युक्तो, न चेतयति किश्चन // 12 // जडस्तु तत्र गृद्धात्मा, लोकैरेवं सहस्रशः / हसितो निन्दितश्चापि, न कथञ्चिग्निवर्तते // 13 // विचक्षणस्तु तच्छ्रुत्वा, लोलतायाः प्रभाषितम् / ततश्च चिन्तयत्येवं, तदा मध्यस्थमानसः॥१४॥ अस्ति तावदियं भार्या, मम नास्त्यत्र संशयः। आस्माके दृश्यते येन, वने वानकोटरे // 15 // केवलं यदियं वक्ति, रसनालालनं प्रति / अपरीक्ष्य न कर्तव्यं, तन्मया सुपरिस्फुटम् // 16 // यतः स्त्रीवचनादेव, यो मूढात्मा प्रवर्तते / कार्यतत्त्वमविज्ञाय, तेनानर्थों न दुर्लभः // 17 // ततोऽनादरतः किञ्चिल्लौलतायाचने सति / दत्त्वा खाद्यादिकं तावत्कुर्महे कालयापनाम् // 18 // ततश्च--भार्येयं पालनीयेति, मत्वा रागविवर्जितः / ददानः शुद्धमाहारं, लोलतां च निवारयन् // 19 // अविश्रब्धमनास्तस्यां, लोकयात्रानुरोधतः / अनिन्दितेन मार्गेण, रसनामनुवर्तयन् // 20 // धर्मार्थकामसंपन्नो, विद्वद्भिः परिपूजितः / स्थितो विचक्षणः कालं, कियन्तमपि लीलया // 21 // युग्मम् / तं च तेजस्विनं मत्वा, निरीहं च विचक्षणम् / भावज्ञा किश्चिदप्येनं, याचते नैव लोलता // 22 // स. लोलताविनिर्मुक्तो, रसनां पालयन्नपि / अशेषक्लेशहीनात्मा, सुखमास्ते विचक्षणः॥२३॥ यतः-ये जाता ये जनिष्यन्ते, जडस्येह दुरात्मनः। रसनालालने दोषा, लोलता तत्र कारणम् // 24 // विचक्षणेन सा यस्माल्लोलताऽलं निराकृता / रसनापालनेऽप्यस्य, ततोऽनौँ न जायते // 25 // इतश्च तुष्टचित्तेन, जडेनाम्बा स्वयोग्यता / ज्ञापिता रसनालाभं, जनकश्चाशुभोदयः 26 // तयोरपि मनस्तोषस्तच्छुत्वा समपद्यत / ततस्ताभ्यां जडः प्रोक्तः, स्नेहापूर्णेन चेतसा // 27 // पुत्रानुरूपा ते भार्या, संपन्ना पुण्यकर्मणा / सुन्दरं च त्वयाऽऽरब्ध, यदस्याः पुत्र ! लालनम् // 28 // इयं हि सुखहेतुस्ते, सुभार्येयं वरानना / ततो लालयितुं युक्ता, पुत्र ! रात्रिन्दिवं त्वया // 29 // ततश्च-स्वयमेव प्रवृत्तोऽसौ, जनकाभ्यां च चोदितः। एक सोन्माथिता बाला, मयरैर्लपितं तथा॥३०॥ ततो गाढतरं रक्तो, रसनायां जडस्तदा। तल्लालनार्थ महात्मा, सहतेऽसौ विडम्बनाः॥३२॥ इतो विचक्षणेनापि, स्वीयस्तातः शुभोदयः। ज्ञापितो रसनालाभं, माता च निजचारुता॥३२॥ तथा बुद्धिप्रकर्षों च, विमर्शश्च विशेषतः / बोधितो रसनावाप्ति, मिलितं च कुटुम्बकम् // 33 // ततः शुभोदयेनोक्तं, वत्स ! किं ते प्रकथ्यते 1 / जानासि वस्तुनस्तत्त्वं, सत्योऽसि त्वं विचक्षणः॥३४॥ तथापि ते प्रकृत्यैव, यन्ममोपरि गौरवम् / तेन प्रचोदितो वत्स ! तवाहमुपदेशने // 35 // वत्स ! तावत्समस्तापि, नारी पवनचञ्चला। क्षणरक्तविरक्ता च सन्ध्याभ्रालीव वर्तते // 36 // नदीव पर्वतोद्भता, प्रकृत्या नीचगामिनी / दर्पणार्पितदुर्ग्राह्यवदनप्रतिमोपमा // 37 // बहुकौटिल्यनागानां संस्थापनकरण्डिका / कालकूटविषस्योच्चैलतेव मरणप्रदा // 38 // नरकानलसन्तापदायिकेयमुदाहृता / मोक्षप्रापकसयानशत्रुभूता च वर्तते // 39 // कार्य संचिन्तयत्यन्यद्भाषतेऽन्यच्च मायया / करोत्यन्यच्च सा पुंसः, शुद्धशीला च भासते // 40 // ऐन्द्रजालिकविधव, दृष्टराच्छादकारिका / नरचित्तजतुद्रावकारिणी वह्निपिण्डवत्।।४१॥

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