Book Title: Upmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Nathuram Premi

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Page 15
________________ तिरस्कार करके स्वयं ही अर्थ और कामकथामें लवलीन हो जाते हैं। उनकी रागद्वेष और महामोह (मियात्व-अज्ञान) रूप तीनों अमियां अर्थ और कामकथा रूपी घीकी आहुतियोंसे और २ बढ़ती हैं । मोरोंकी वाणी जैसे शरीरको रोमांचित करती है, उसी प्रकारसे कान और अर्थक्या पार्पोके करनेमें उत्साह बढ़ाती है। इसलिये कामकया और अर्थकथा कभी नहीं करनी चाहिये। भला ऐसा कौन चतुर है, जो घावपर नमक डालता है ? भाव यह कि, जीव एक तो कोंके कारण वैसे ही दुखी हो रहा है, इसपर काम अर्थकी फयाओंसे फिर और दुःख देनेवाले कर्म उपार्जन करना जलेपर नमक डालनेके समान हैं। दूसरोंकी भलाई करनेवाले बुद्धिमानोंको वहीं काम करना चाहिये, जिससे समस्त जीवोंका यहां हित हो और परलोकमें भी हो । इससे यद्यपि काम और अर्थकी कमाएं लोगोंको प्यारी लगती हैं, तथापि विद्वानों को उन्हें छोड़ देना चाहिये। क्योंकि उनका परिणाम (नतीजा) बहुत भयंकर है। ऐसा समझकर जो भाग्यशाली पुरुष हैं, वे समस्त प्राणियोंकी इस लोक और परलोकसम्बन्धी भलाईको इच्छासे अमृतसरीखी निर्मल धर्मकयाकी रचना करते हैं। कोई २ आचार्य मनुप्यके चित्तको अपनी ओर खींचनेवाली संकीर्णकथा (धर्मअर्थकामसंयुक्त ) को भी सत्कया मानकर उसे मार्गकी ओर अवतरण करनेवाली अर्थात् जैनधर्ममें लगानेवाली होनेके कारण चाहते हैं अर्थात् संकीर्णकथाकी रचना करते हैं। दूसरोंकी भलाई करनवाले पुरुषोंको चाहिये कि, संसारमें जीव जिस प्रकारसे बोधमाजन अर्थान् दर्शन ज्ञान चरित्र के पात्र बन जावें, उसी प्रकारसे प्रतिबोधित करनेका प्रयत्न करें । पहले पहल मूवुद्धिवालोंके हृदयमें धर्म

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